फासिज्म मुकम्मल है और परिंदों को भी चहचहाने की इजाजत नहीं हैं!
हमने लड़ाई अभी शुरु भी नहीं की है,और हार मानकर हाथ पांव छोड़ दिये।डूब रहे हैं तो तैरने की कोशिश भी तो करनी चाहिए।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है।फासिज्म के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जबतक न हम उसे मुकम्मल शिकस्त नहीं दे पाते।
वीरेनदा को लाल नील सलाम।
पलाश विश्वास
फासिज्म मुकम्मल है और परिंदों को भी चहचहाने की इजाजत नहीं हैं!
हमने लड़ाई अभी शुरु भी नहीं की है,और हार मानकर हाथ पांव छोड़ दिये।डूब रहे हैं तो तैरने की कोशिश भी तो करनी चाहिए।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है।फासिज्म के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जबतक न हम उसे मुकम्मल शिकस्त नहीं दे पाते।
वीरेनदा को लाल नील सलाम।
पलाश विश्वास
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है।फासिज्म के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जबतक न हम उसे मुकम्मल शिकस्त नहीं दे पाते।
वीरेनदा को लाल नील सलाम।
लिख तो दिया हमने,क्योंकि लिखना उतना मुश्किल भी नहीं है।लेकिन अपनों को विदा करने के बाद जिंदगी के ढर्रे पर वापसी बेहद मुश्किल होती है।
वीरेनदा के जाने के बाद मन मिजाज काबू में नहीं हैं कतई।
कल रात अपने डा.मांधाता सिंह ने कहा कि भड़ास खुल नहीं रहा।तो पहले तो सोचा कि जैसे मेरे ब्लाग डिलीट हो रहे हैं,वैसा ही कुछ हो रहा होगा या फिर दलित वायस की तरह ससुरा साइट ही हैक हो गया होगा।
डाक्साहब ने कहा कि यशवंत को फोन लगाकर देखिये।
लगा दिया फोन।उधर से उसकी आवाज लगाते ही,मैंने दन से गोला दाग दिया,यह क्या कि वीरेनदा के जाते ही मोर्चा छोड़कर भाग खड़े हुए?
उसने कहा कि मन बिल्कुल ठीक नहीं है।नई दिल्ली में वीरेनदा इतने अरसे से कैंसर से जूझ रहे थे और बरेली जाकर उनने इसतरह दम तोड़ा।हम फिलहाल कुछ भी लिख पढ़ नहीं पा रहे हैं और न भड़ास अपडेट करने की हालत में हैं।
कल सुबह ही वीरेनदा के ही नंबर पर रिंग किया था।प्रशांत और प्रफुल्ल के नंबर हमारे पास नहीं हैं।
सविता बोली कि वह फोन तो चालू होगा।बच्चों से और भाभी से बात तो कर लो।
फोन उठाया बड़ी बहू,प्रशांत की पत्नी रेश्मा ने।वह मुझे जानती नहीं है।बोली कि मां तो बाथरूम में हैं।
मैं भाभी जी के निकलने के इंतजार में अपनी बहू से बातें करता रहा तो उसने बहुत दुःख के साथ कहा कि वे बरेली आना चाहते थे और एक दिन भी बीता नहीं,अस्पताल दाखिल हो गये।बहुत मलाल है कि हम उन्हें बरेली ले आये।
उनके अस्पताल में दाखिल होते ही मैंने दिनेश जुयाल से पूछा भी था कि वीरेनदा को दिल्ली वगैरह किसी और अस्पताल में शिफ्ट करने की कोई गुंजाइश है या नहीं।
दिनेश ने तब कहा था कि हालत इतनी कृटिकल है कि उन्हें सिफ्ट कराने का रिस्क ले नहीं सकते।वैसे इस अस्पताल में सारी व्यवस्था है और आपरेशन के बाद खून बहना रुक गया है और बीपी भी ट्रेस हो ही है।वे सुधर भी रहे हैं।
उनके अवसान से एकदिन पहले जुयाल ने कहा कि एक दो दिन में उन्हें आईसीयू से निकालकर बेड में दे देंगे।इलाज में व्यवधान न हो,इसलिए हम घरवालों से बात नहीं कर रहे थे।
अगले ही दिन वीरेनदा चले गये।
मेरे ताउजी का आपरेशन दिल्ली में हुआ।भाई अरुण वहीं हैं।हम जब मिलने गये तो ताउजी ने कहा कि अब मुझे घर ले चल।मैं बसंतीपुर में ही मरना चाहता हूं।
मैंने कहा कि मैं घर जा रहा हूं और वहा जाकर सारा बंदोबस्त करके आपको वही लिवा ले जायेंगे।
ताउजी ने मेरे घर पहुंचने से पहले दम तोड़ दिया।
मैंने यशवंत और रेश्मा,दोनों से यही कहा कि वीरनदा की आखिरी इच्छा बरेली आने की थी।वह पूरी हो गयी।उनकी आखिरी इच्छा पूरी न हो पाती तो अफसोस होता।मैंने अपने पिता को कैंसर के दर्द में तड़पते हुए तिल तिल मरते देखा है।उनका या वीरेनदा का दर्द हम बांट नहीं सकते थे।वीरेनदा अगर बरेली लौटे बिना दिल्ली में दम तोड़ देते तो यह बहुत अफसोसनाक होता।वैसा हुआ नहीं है।
वीरेनदा तो बहुत बहादुरी के साथ कैंसर को हरा चुके थे क्योंकि दरअसल वे सच्चे कवि थे और कविता को कोई हरा ही नहीं सकता।कैंसर भी नहीं।
हम शुरु से वीरेनदा से यही कहते रहे हैं कि आपकी कविता संजीवनी बूटी है।आपकी दवा भी वही है और आपके हथियार भी वहीं।
वीरेनदा ने दिखा दिया कि कैंसर को हराकर कविता कैसे समय की आवाज बनकर मजलूमों के हकहकूक के हक में खड़ी होती है।
इससे पहले अपने दिलीप मंडल की पत्नी हमारी अनुराधा ने भी दिखा दिया कि कैंसर को कैसे हराकर सक्रिय जीवन जिया जा सकता है।
जनपद के कवि वीरेनदा,हमारे वीरेन दा कैंसर को हराकर चले गये!लड़ाई जारी है इंसानियत के हक में लेकिन,हम लड़ेंगे साथी!
आज लिखा जायेगा नहीं कुछ भी क्योंकि गिर्दा की विदाई के बाद फिर दिल लहूलुहान है।दिल में जो चल रहा है ,लिखा ही नहीं जा सकता।न कवि की मौत होती है और न कविता की क्योंकि कविता और कवि हमारे वजूद के हिस्से होते हैं।वजूद टूटता रहता है।वजूद को समेटकर फिर मोर्चे पर तनकर खड़ा हो जाना है।लड़ाई जारी है।
Let Me Speak Human!
कैंसर से लड़ते हुए सोलह मई के बाद की कविता के मुख्य स्वर वीरेनदा रहे हैं तो सोलह मई के खिलाफ ,इस मुकम्मल फासिज्म की लड़ाई हमारी है।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है।
आज प्रवचन दे नहीं पाया।वीरेनदा अपराजेय हैं,जैसा कि मंगलेशदा ने लिखा है।लेकिन हम उनके भाई बंधु उतने भी अपराजेय नहीं हैं।
निजी गम,निजी तकलीफों से निजात कभी मिलती नहीं है।उनमें उलझते ही जाना है।गौतम बुद्ध सिद्धार्थ से गौतम बने तो इसीलिए कि दुःख रोग शोक ताप का नाम ही जीवन है।
यह उनकी वैज्ञानिक सोच थी कि उन्होंने इस पर खास गौर किया कि दुःख रोग शोक ताप हैं तो उनकी वजह भी होगी।
उनने फिर सोच लिया कि दुःख रोग शोक ताप का निवारण भी होना चाहिए।इसके जवाब में उनने अपने मोक्ष,अपनी मुक्ति का रास्ता नहीं निकाला।सत्य,अहिंसा,प्रेम और समानता का संकल्प लिया।
हम गौतम बुद्ध को भगवान मानकर उनकी पूजा करते हैं उनकी मूर्ति बनाकर,लेकिन उनके अधूरे संकल्पों को पूरा करने की सोचते भी नहीं हैं।हम भारत को बौद्धमय बनाना चाहते हैं और न पंचशील से हमारा कोई नाता है और न हम अपने को बौद्धमय बना पाये।
लोग इस देश में पगला गये हैं क्योंकि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का सियासती मजहबी और हुकूमत त्रिशुल हर किसी के दिलोदिमाग में गढ़ा हुआ है और कत्ल हो गया है मुहब्बत का।फिजां ऩफरत की बाबुंलंद है तो चारों तरफ कत्लेआम है,आगजनी हैं।
जाहिर सी बात है कि हम न गौतम बुद्ध हैं और न बाबासाहेब अंबेडकर।बाबासाहेब ने भी निजी सदमों और तकलीफों को कभी तरजीह नहीं दी।
सदमा बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर को मौलिक जो लगा जाति व्यवस्था, मनुस्मृति राजकाज,असमता और अन्याय की व्यवस्था से, तजिंदगी वे उसके खिलाफ गौतम बुद्ध की तरह समता,न्याय और स्वतंत्रता का संकल्प लेकर जाति उन्मूलन का एजंडा लेकर जो भी वे कर सकते थे,अपनी तमाम सीमाबद्धताओं के बावजूद वही करने की उनने हरसंभव कोशिश की।
हमने लड़ाई अभी शुरु भी नहीं की है,और हार मानकर हाथ पांव छोड़ दिये।डूब रहे हैं तो तैरने की कोशिश भी तो करनी चाहिए।
यक्षप्रश्न जितने थे,युधिष्ठिर को संबोधित,वे धर्म की व्याख्या ही है।
संत रैदास ने तो टुक शब्दों में कह दिया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।धर्म के लिए,आस्था के लिए न किसी धर्मस्थल की जरुरत है।न पुरोहित ईश्वर के सेल्स एजंट हैं किसी भी मजहब में।
हर धर्म के रस्मोरिवाज अलग अलग हैं।
हर धर्म की उपासना पद्धति अलग अलग हैं।
धर्मस्थल अलग अलग हैं।
भूगोल और इतिहास अलग अलग हैं।
धर्म चाहे कुछ हो,पहचान चाहे कुछ हो,मनुष्य की बुनियादी जरुरतें एक सी हैं।रोजनामचा एक सा है।हमारी धड़कनें,सांसें एक सी हैं।
रोजगार के तौर तरीके भी अलग अलग नहीं हैं।
यह दुनिया अगर कोई ग्लोबल विलेज है तो वह गांव साझे चूल्हे का है।जिसमें रिहाइश मिली जुली है।सूरज की रोशनी एक है।अंधियारा एक है।खुशी और गम के रंग भी एक से हैं।
दर्द तड़प और तकलीफें भी एक सी हैं।
रगों में दौड़ता खून भी एक सा है।लाल चटख और अनंत अंतरिक्ष नीला यह फलक है।उड़ान के लिए आसमां है तो तैरने के लिए समुंदर हैं।स्वर्ग की सीढ़ी हिमालय है।
हिंदुत्व के झंडेवरदार कर्म के सिद्धांत को मनुस्मृति शासन, जातिव्यवस्था, जनमतजात विशुद्धता अशुद्धता और वर्ण,पुनर्जन्म,जन्म से मृत्यु तक के संस्कार,धर्मस्थल और देवमंडल के तमाम देवदेवियों के आर पार मनुष्यता के सरोकार और सभ्यता के सरोकार,कायनात की बरकतों और नियामतों के नजरिये से देख पाते तो हमारा राष्ट्रवाद हिंदुत्व का नही होता।
हो सकें तो रामचरितमानस दोबारा बांच लें।
अपने अपने धर्मग्रंथ दोबारा बांच लें।
संतों फकीरों की वाणी फिर जांच लें।
गोस्वामी तुलसीदास,दादु,संत तुकाराम,चैतन्य महप्रभु,कबीर, सुर, तुलसी, रसखान, मीराबाई, ललन फकीर किसी दैवी सत्ता या किसी धर्मराष्ट्र की जयगाथा कहीं नहीं सुना रहे हैं।बल्कि राष्ट्र की सत्ता के खिलाफ देव देवियों का मानवीकरण उनका सौंदर्यबोध है।
आप संस्कृत को सबकी भाषा बताते हैं।संस्कृत का मतलब तंत्र मंत्र यंत्र तक सीमाबद्ध नहीं है।संस्कृत साहित्य की विरासत है और आप यह भी बताइये कि किस संस्कृत भाषा या साहित्य में धर्मराष्ट्र या फासिज्म का जनगणमन या वंदेमातरम हैं?
बहुत चर्चा की जरुरत भी उतनी नहीं है।
संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम में सत्ता के खिलाफ लोकतंत्र के उत्सव को समझ लीजिये।
खजुराहो से लेकर कोणार्क के सूर्य मंदिर के भाष्कर्य में खालिस मनुष्यता के उकेरे हुए पाषाण चित्रों को गौर से देख लीजिये।
महाकवि कालिदास का कोई भी नाटक पढ़ लीजिये।
अभिज्ञान शाकिंतलम् में दुष्यंत के आखेट के विरुद्ध तपोवन का वह सौंदर्यबोध समझ लीजिये और विदा हो रही शकुंतला की विदाई के मुहूर्त में मुखर उस प्रकृति के विछोह को याद कर लीजिये और सत्ता के दुश्चक्र में नारी की दुर्दशा कहीं भी, किसी भी महाकाव्य में देख लीजिये अमोघ निर्मम पितृसत्ता के पोर पोर में।
मेघदूत फिर निर्वासित यक्ष का विरह विलाप है,जो विशुद्ध मनुष्यता है राष्ट्र और तंत्र की शिकार।कुमार संभव भी पितृसत्ताविरुद्धे।
फिर संस्कृत काव्यधारा के अंतिम कवि जयदेव के श्लोक में बहते हुए लोक पर गौर कीजिये।
छंद और अलंकार तक में देशज माटी की गंध महसूस कर लीजिये और दैवी सत्ता को मनुष्यता में देख लीजिये जो राष्ट्र और राष्ट्रवाद के उन्माद के विरुद्ध अपराजेय मनुष्यता का जयगान है।
उन तमाम कवियों और उनकी कविताओं का फासिज्म के इस दौर में राष्ट्र या धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद कुछ बिगाड़ नहीं सकता जैसे कवि वाल्तेयर को मृत्युदंड देने सुनाने वाली राजसत्ता और दार्शनिक सुकरात को जहर की प्याली थमाने वाली सत्ता या अपने भारत मे ही बावरी मीरा को मौत की नींद सुलाने वाली पितृसत्ता मनुष्यता के इतिहास में कहीं दर्ज नहीं हैं,लेकिन वाल्तेयर आज भी जीवित हैं और सुकरात को पढें बिना कोई भी माध्यम या विधा की गहराई तक पैठना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं।मीरा के भजन भी हैं।
उन्हें मौत के गाटउतारने वाला राष्ट्र और सत्ता कहीं नहीं है।
कल हमसे अपने डाक्साहब मांधाता सिंह ने पूछा कि आप अमुक लेखक को जानते हैं जिनकी सैकड़ों किताबें छपी हैं और वे अनेक भाषाओं के विद्वान हैं।हमने पूछा कि उनने लिखा क्या है।
जाहिर सी बात है कि विद्वता की पांत में हम कहीं नहीं हैं और न भद्रलोक संस्कृति के सौंदर्यबोध और भाषाशास्त्र और अनुशासन से मुझे कोई लेना देना है।
विद्वान चाहे कितना महान कोई हो,कोई खुदा भी हो बेइंतहा ताकतवर,साहिबेकिताब भी हों बेमिसाल या फिर कोई नोबेलिया हों,हमें उनसे कोई मतलब तबतक नहीं है जबतक न कि वे टकरा रहे हों वक्त से और वक्त के हकीकत से और न वे कोई हरकत कर रहे हों इंसानियत और कायनात की बेहतरी के लिए।
हमारे एक आदरणीय साथी जो रोजाना भड़ास बांचते हैं।आज भड़ास बंद होने से बेहद दुःखी थे।हमने उनसे रात दस बजे के करीब कहा कि यशवंत को फोन लगाओ।
वे बोले कि वो कहीं दारु पीकर पड़ा होगा और उससे बात हम क्या करें।फिर थोड़ी देर बाद उनने अभिषेक के एक आलेख पर मंतव्य किया कि ये कौन हैं और क्या उलट पुलट लिखता है।
खून फिर वहीं चंडाल खून है,उबल ही जाता है।हमारे दोस्तों और दुश्मनों का खासतौर पर मालूम है कि हमें किस तरह उकसाया जा सकता है।हमारे पूर्वज भी गर्म खून के शिकार होते रहे हैं क्योंकि जहरीले सांपों के ठंडे खून की तरह हमारा खून शीतलपेय नहीं है।
कल रात फिर उबल गया खून।लेकिन हालात ने हमें सिखा दिया है कि खून जब उबाला मारे हैं तो प्रवचन कर दिया करें।कह सकते हैं हैं कि यह प्रवचन का रचनाकौशल और सौंदर्यबोध दोनों हैं।
पहले तो हमने कहा कि यह समझ लो अच्छी तरह कि दिल्ली में फिलहाल हमारे कलेजे के चार टुकड़े हैं।अमलेंदु,यशवंत,रेयाज और अभिषेक तो इन पर टिप्पणी करने से पहले दो बार सोच जरुर लें।
फिर हमने पूछा कि मीडिया में माई का लाल कौन है वह जो मीडिया में मालिकान और संपादक जो पत्रकारों और गैरपत्रकारों का खून चूसे हैं रोज रोज,सबको चिथड़ा चिथड़ा बना देते हैं,उसके खिलाफ एक लफ्ज भी लिखें या बोलें।
भड़ास के मंच पर मीडिया का कोई सच नहीं छुपा है और इसके लिए वीरेनदा को भी गर्व था यशवंत पर और हमें भी उससे मुहब्बत है।
कोई सात्विक हो,शाकाहारी हो,धार्मिक हो और दारु भी न पीता हो और वह बलात्कार भी करें। हत्या करें या नकरें ,हत्याओं की साजिश करें,अपने साथियों के हकहूक मारे तो उनसे बेहतर हैं दारुकुट्टा।
शरतचंद्र सोनागाछी में रहते थे और दरअसल वे ही थे आवारा मसीहा देवदास आत्मध्वंस के ।लेकिन आप बता दें कि स्त्री की वेदना,स्त्री के अंतर्मन को शरत से बेहतर किसी स्त्री ने भी अगर लिखा हो और वह भी सामंती पितृसत्ता के खिलाफ हर हालत में स्त्री का पक्ष लेते हुए।
फिल्मकार ऋत्विक घटक शराब पीकर धुत पड़े रहते थे,लेकिन उनसे बड़ा फिल्मकार इस महादेश में कोई दूसरा हो तो बताइये।
उसीतरह बेलगाम थे सआदत हसन मंटो,उनसे बेहतर अफसाना लिखने वाला कोई हुआ तो बताइये।
अभिषेक बेरोजगार है लेकिन वही अकेला पत्रकार है जो जिदाबान बीजमंत्र की तरह जापते हुए नियामागिरी के लड़ाकू आदिवासियों की नब्ज टटोलकर आया है और उसीने मराठवाडा़ के दुष्काल को संबोधित किया है और वही देश भर में दौड़ रहा है हर मसले के पीछे और हर मुद्दे पर बेखौफ स्टैंड ले रहा हैं।हमें तो ऐसे पत्रकार हजारों हजार चाहिए मुकम्मल फासीवाद के खिलाफ।
रेयाज का भाषा पर इतना दखल है और इतिहास में दाखिले की खातिर उसकी तनिको दलचस्पी है ही नहीं।दुनियाभर में जो कुछ जनता के हक हकूक बहाली के लिए लिखा जा रहा है,तुरतफुरत वह उसे हिंदी में अनूदित कर रहा है।कितने लोग हैं इतने समर्पित।
अभिषेक,अमलेंदु या रेयाज, तीनों यशवंत की तरह पीने के लिए बदनाम भी नहीं हैं।उनका साथ आप कितना देते हैं,बताइये।
हम सारे लोग कमपोर्ट जोन के परिंदे हैं और दरअसल हमारी उड़ान पर कोई रोक भी नहीं है और शौकिया हम बगावत कर रहे हैं लेकिन ये लोग अपना समूचा वजूद दांव पर लगा रहे हैं।
हम अमलेंदु की क्या तारीफ करें और शायद अब तारीफ करने का हक भी नहीं हैं हमें।
हमने अपने तमाम नजदीकी मित्रों से, देशभर में अपने लोगोेें से और जिन संगठनों को जनपक्षधर मानता रहा हूं,उनसे हस्तक्षेप को जारी रखने के लिए न्यूनतम मदद करने की लगातार गुहार लगाता रहा हूं और लगाता है कि इन तमाम लोगों और संगठनों की नजर में हमारी हैसियत दो कौड़ी की भी नहीं है कि वे सिरे से अनसुना कर रहे हैं।या वे हमारे काम को जात पांत के समीकरण से तौल रहे हैं।
मोहल्ला लाइव कब से बंद पड़ा है।अपडेट होता नहीं है।
रविवार बंद है।
बहुजनइंडिया अपडेट होता नहीं है।
अब भड़ास भी न जाने कब शुरु हो पायेगा।
अमलेंदु फिर भी बिना किसी की मदद के हस्तक्षेप ताने जा रहा है बेखौफ और वह खुद बेरोजगार है और उसकी पत्नी भी नौकरी कहीं कर नहीं रही हैं।हम उसकी कोई मदद करने की हालत में नहीं हैं और रोज सुबह सवेरे उसे हांके जा रहे हैं बेशर्म।
हममें से कोई सोचता ही नहीं कि हस्तक्षेप के अलावा उसे घर भी चलाना होता है।उसकी पत्नी से बात नहीं हुई,लेकिन अमलेंदु के कारनामे के लिए हमारी उस बहन को लाल नील सलाम कि उनने उसे रोका नहीं है।वे ही उसकी असली ताकत हैं।
प्रिंट से,साहित्य संस्कृति से भाषाओं बोलियों से ,माध्यमों और विधाओं से बेदखल हम लावारिश लोग हैं जो बेहद तन्हाई में हैं और हम एक दूसरे हाथ थाम कर मजबूती से साथ खड़े भी नहीं है और जनता को भेड़धंसान बनाकर धर्मोन्मादी कायाकल्प हो रहा है मुल्क का।यह मुकम्मल फासीवीद है,जिसमें चिड़िया को चहचहाने की इजाजत भी नहीं है।हम भी आत्मध्वंस पर तुले हैं देवदास मोड में।
कैंसर से लड़ते हुए सोलह मई के बाद की कविता के मुख्य स्वर वीरेनदा रहे हैं तो सोलह मई के खिलाफ ,इस मुकम्मल फासिज्म की लड़ाई हमारी है।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है।
आज प्रवचन दे नहीं पाया।वीरेनदा अपराजेय हैं,जैसा कि मंगलेशदा ने लिखा है।लेकिन हम उनके भाई बंधु उतने भी अपराजेय नहीं हैं।
निजी गम,निजी तकलीफों से निजात कभी मिलती नहीं है।उनमें उलझते ही जाना है।गौतम बुद्ध सिद्धार्थ से गौतम बने तो इसीलिए कि दुःख रोग शोक ताप का नाम ही जीवन है।
यह उनकी वैज्ञानिक सोच थी कि उन्होंने इस पर खास गौर किया कि दुःख रोग शोक ताप हैं तो उनकी वजह भी होगी।
उनने फिर सोच लिया कि दुःख रोग शोक ताप का निवारण भी होना चाहिए।इसके जवाब में उनने अपने मोक्ष,अपनी मुक्ति का रास्ता नहीं निकाला।सत्य,अहिंसा,प्रेम और समानता का संकल्प लिया।
हम गौतम बुद्ध को भगवान मानकर उनकी पूजा करते हैं उनकी मूर्ति बनाकर,लेकिन उनके अधूरे संकल्पों को पूरा करने की सोचते भी नहीं है।हम भारत को बौद्धमय बनाना चाहते हैं और न पंचशील से हमारा कोई नाता है और न हम अपने को बौद्धमय बना पाये।
हमने लड़ाई अभी शुरु भी नहीं की है,और हार मानकर हाथ पांव छोड़ दिये।डूब रहे हैं तो तैरने की कोशिश भी तो करनी चाहिए।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है।फासिज्म के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जबतक न हम उसे मुकम्मल शिकस्त नहीं दे पाते।
वीरेनदा को लाल नील सलाम।
No comments:
Post a Comment