असहिष्णुता से असहमति
Author: पंकज बिष्ट
Edition : November 2015.Samayantar
प्रसन्नता की बात है कि पुरस्कार लौटाने का यह कदम मात्र किसी एक व्यक्ति, भाषा या क्षेत्र तक सीमित न रह कर राष्ट्रव्यापी रूप ले चुका है। अब तो चित्रकार, फिल्मकार, वैज्ञानिक और इतिहासकार भी इस विरोध का हिस्सा हो चुके हैं। आशा करनी चाहिए, अगर सरकार ने समय रहते उचित कदम नहीं उठाए तो, अन्य बौद्धिक वर्ग भी देश की प्रगति, वैज्ञानिक विकास, तार्किक चिंतन, सांस्कृतिक समरसता, सहिष्णुता और विविधता को बचाने की इस मुहिम में शामिल होने में देर नहीं लगाएंगे।
हर लेखक या उस तरह से कोई भी बुद्धिजीवी अंतत: एक समाज की ही देन होता है। वह उसी के दायरे में विकसित होता है और स्वयं को अभिव्यक्त करता है। दूसरे शब्दों में उसका विकास समाज के विकास से गहरे जुड़ा होता है। ऐसे दौर में जब देश के शासक वर्ग का एक हिस्सा निहित स्वार्थों के लिए आंखमूंद कर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से सांप्रदायिकता को और अतार्किक स्तर पर हमारे विगत को महिमा मंडित करने पर तुला हो, वैज्ञानिकता और वस्तुनिष्ठता की मजाक उड़ाता नजर आ रहा हो, ऐसे में समाज के भविष्य को लेकर देश के रचनाकारों, चिंतकों और बुद्धिजीवी वर्ग में अगर चिंता न हो तो यह जीवंत समाज का लक्षण नहीं माना जा सकता।
प्रतिक्रियावादी विचारों का बढ़ता खतरा
देखा जाए तो ये चिंताएं, जो अंतत: दुनिया को देखने-समझने और उसे बदलने की आधारभूत मानवीय प्रवृत्ति से जुड़ी हैं, किस व्यापक खतरे का सामने कर रही हैं इसका उदाहरण पिछले सिर्फ डेढ़ साल के वक्फे में पनपे प्रतिक्रियावादी विचारों और अभिव्यक्तियों में देखा जा सकता है। आश्चर्य की बात यह है कि यह सब सत्ता के संरक्षण में हो रहा है। देश को दुनिया के सबसे विकासशील देश में बदलने का सपना दिखलाने वाला प्रधानमंत्री एक आधुनिक चिकित्सालय का उद्घाटन करते हुए, यह कहते नहीं झिझकता कि हमारे यहां प्राचीन काल में चिकित्सा का स्तर यह था कि जानवर के सर को आदमी के सर पर ट्रांसप्लांट किया जाता था। बिना सहवास के, जैसा कि कर्ण के संदर्भ में हुआ था, संतान उत्पन्न की जा सकती थी। उनके अनुसार हमारे यहां जेनेटिक साइंस व प्लास्टिक सर्जरी अनादिकाल से विकसित थे। गुजरात में स्कूली पाठ्यक्रमों में एक ऐसे व्यक्ति की किताब को पढ़ाया जा रहा है जो कहता है कि महाभारत काल में आईवीएफ की तकनीक उपलब्ध थी।
एक और महाशय विज्ञान कांग्रेस में देश के चुनींदा वैज्ञानिकों के सामने दावा करने से जरा नहीं झिझकते कि हमारे पुष्पक विमान ग्रहों के बीच उड़ान भरते थे।
ऐसा प्रतीत होने लगा था मानो नया निजाम और उसके समर्थक अब तक के इतिहास और विज्ञान के अध्ययनों और उनकी उपलब्धियों को जड़-मूल से उखाडऩे पर उतारू हैं। बहुमत के नशे में चूर सत्ताधारी दल ने ज्ञान-विज्ञान की विश्वस्तरीय संस्थाओं को तहस-नहस करने का जैसे बीड़ा ही उठा लिया है। इस विवेकहीनता का सबसे बड़ा उदाहरण आईआईटी, दिल्ली जैसी संस्था पर एक स्वामी का थोपा जाना है। शिक्षण और शोध संस्थानों पर जिस तरह से और जिस तरह के अयोग्य और कुंद व्यक्तियों को सरकार लादने पर लगी हुई है वह आतंककारी है। सरकार का अहंकार किस स्तर का है इसका उदाहरण पुणे का फिल्म व टेलीविजन संस्थान है जिस पर एक दोयम दर्जे के अभिनेता को थोप दिया गया है। सरकार ने लगभग पांच महीने चले छात्रों के आंदोलन की अनसुनी करके जिस तरह की निर्ममता का परिचय दिया है वह बतलाता है कि इस सरकार का किसी भी तरह के लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास नहीं है। वह लोकतंत्र का इस्तेमाल कर इस देश को एक बर्बर मध्यकालीन धार्मिक राज्य में को बदल देना चाहती है।
एफटीआईआई का संदेश
पर देखने की बात यह है कि एफटीआईआई के छात्रों को मजबूर करने का जो संदेश देश के बुद्धिजीवियों और विचारवान तबके तक गया है उसने सरकार की अडिय़ल और दमनकारी छवि को मजबूत करने और दूसरी ओर उसका विरोध करने की लहर के जन्म में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिन फिल्मकारों ने अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाने की बात की है उनका तो सीधा संबंध ही एफटीआईआई के घटनाचक्र से है।
इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं रही है कि आज की तारीख तक सात सौ से ज्यादा देश के शीर्ष से लेकर युवातर वैज्ञानिकों ने इस अवैज्ञानिक, अतार्किक और सांप्रदायिक माहौल के विरोध में जारी बयान पर हस्ताक्षर किए हैं। यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। 87 वर्षीय पीएम भार्गव जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक का तो स्पष्ट ही कहना है कि "तार्किकता और रेशनलिज्म, जो कि विज्ञान की आधारशिला होते हैं, खतरे में हैं। इस सरकार के मन में विज्ञान के प्रति कोई सम्मान नहीं है।ÓÓ और इसमें दो राय नहीं हो सकती। पर संभवत: इसीलिए आश्चर्य यह है कि ये वैज्ञानिक तब क्यों नहीं बोले जब इस आक्रमण की शुरुआत हो रही थी। विज्ञान कांग्रेस को प्रमादियों द्वारा कब्जा लिए जाने पर भारतीय वैज्ञानिकों की तब की चुप्पी पर दुनिया भर में सवाल उठाए जा रहे थे और उनकी खिल्ली उड़ाई जा रही थी।
यह स्थिति इसलिए आई कि भारत को तीसरी दुनिया में प्रगतिशील, उदार, ज्ञान-विज्ञान के लिए समर्पित और एक महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक देश के रूप में जाना जाता था। एक ऐसा देश और समाज जहां समानता और सर्वधर्म समभाव का आदर्श प्राप्त करने का प्रयत्न अपनी सारी सीमाओं के बावजूद सतत जारी था। इसमें कई खामियां थीं पर ऐसा कभी नहीं था कि विगत सात दशकों में सत्ता पर आई किसी सरकार ने कट्टरपंथी, सांप्रदायिक और अलोकतांत्रिक तत्वों को इस तरह से खुलेआम बढ़ावा दिया हो। सांप्रदायिकता और हत्याओं के आरोपियों को केंद्र में जगह दी हो।
वैज्ञानिकों की वह प्रारंभिक चुप्पी के दो संभावित कारण समझ में आते हैं। पहला, पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई सरकार और उसके नेतृत्व की दमनकारी छवि का आतंक। और दूसरा, यह कि वैज्ञानिक समुदाय नई सरकार और इसके नेतृत्व को कुछ समय देना चाहता हो।
व्यक्ति नहीं समाज के अस्तित्व का सवाल
असल में लेखकों के विरोध ने देश के शेष चेतना संपन्न और विवेकवान बौद्धिक तबके को झिंझोड़ कर रख दिया है। समाज का यह प्रभावशाली और चेतना संपन्न वर्ग, जो पिछले डेढ़ वर्ष से लगभग स्तब्ध था, अपनी तंद्रा से जाग गया है। उसे समझते देर नहीं लगी है कि पानी सर से गुजर गया है। यह संकट मात्र उसी के अस्तित्व से नहीं जुड़ा है बल्कि उस समाज के अस्तित्व का सवाल भी इसी में निहित है जिसका वह अविभाज्य अंग है। वह तभी बच सकता है जब यह समाज बचेगा। उसके सामने बहुत दूर के नहीं आसपास के ही उदाहरण हैं कि किस तरह से एक नहीं अनेकों समाज और देश सत्ताधारियों और सत्ताकामियों की महत्त्वाकांक्षाओं और तिकड़मों के चलते तबाही और अराजकता के शिकार हुए हैं। यहां भी जिस तरह से पुराणपंथ को स्थापित किया जा रहा है वह मूलत: एक वर्ग विशेष की सत्ता को स्थायी बनाए रखने से ही जुड़ा है। बहुसंख्यकवाद मूलत: लोकतंत्र के माध्यम से सत्ता पर काबिज होने का सबसे आजमाया हुआ पर विनाशकारी तरीका है। यह तरीका नए समाज के निर्माण के किसी भी स्वप्न से रहित एक परंपरावादी सत्ताधारी वर्ग के हितों का ही पोषण करता है। इसके उदाहरण एशिया और अफ्रीका के कई क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं। प्रश्न है क्या हम भी उन्हीं देशों की तरह धार्मिक और रूढि़वादी होने की राह पर नहीं हैं? अब और तटस्थ रहने का समय नहीं है। यह विरोध सत्ता प्राप्त करने का नहीं है बल्कि ज्ञान को अपनी स्वाभाविक दशा में बढऩे देने का रास्ता सुनिश्चित करने का है। यह विरोध एक लोकतांत्रिक व्यवस्था व धर्मनिरेपक्ष समाज को बचाने का है। क्योंकि इस असहिष्णुता सफल होना भारतीय गणतंत्र की आधारभूत अवधारणा का ही अंत होना नहीं है बल्कि इस पूरे महादेश को असंतोष और अराजकता में धकेल देना है। यह निश्चय है कि देश की जनता इतनी आसानी से यह सब होने नहीं देगी। इससे आगे के पेजों को देखने लिये क्लिक करें NotNul.com
Viagra in Tea Spoon!चाय की कप में वियाग्रा! सत्यं शिवम् सुदरम्! सत्यमेव जयते! तमसोमाज्योतिर्गमय!
देश में बढ़ती असहिष्णुता के मुद्दे पर आमिर खान, शाहरुख खान जैसे लोकप्रिय कलाकारों के बयानों पर उठे विवाद के बीच अभिनेत्री नंदिता दास ने भी देश के हालात पर चिंता जताई है।
दुनिया रोज बदलती है और जिंदगी तकनीक!
अतीत सुहाना है,हर मोड़ पर भटकाव भी वहीं!
जिनने मेरा प्रार्थनासभा में गाधी की हत्या वीडियो देख लिया, उन्होंने जरुर गौर किया होगा कि नाथुराम गोडसे के उद्गार, हत्या की दलील की क्लीपिंग और गांधी हत्या के दृश्यों के मध्य बैकग्राउंड में मर्डर इन द कैथेड्रल का अविराम मंचन है।रेश्मा की आवाज है।
गौर करें कि आर्कविशप की हत्या से पहले उसे देश छोड़ने का फतवा है और उसकी हत्या के औचित्य की उद्घोषणा है।यह दृश्य अब इंडिया लाइव का अतीत में गोता,ब्लैक होल गर्भ में महाप्रस्थान।
मनुस्मृति शासन की जान का कहे,वहींच मनुस्मृति है।
जाति खत्म कर दो, मनुस्मृति खत्म!
ई जौन फ्री मार्केटवा ह,उ भी खत्म,चाय कप में वियाग्रा छोडो़ तनिको!
फिर आपेआप बौद्धमय भारत।
सनातन एकच रक्त अखंड भारत वर्ष और सनातन उसका धर्म हिंदूधर्म।पहिले मुक्ताबाजार का यह वियाग्रा छोड़िके बलात्कार सुनामी को थाम तो लें!
सध्याच्या परिस्थितीसाठी असहिष्णू हा शब्दही अपुरा – अरूंधती रॉय
महात्मा फुले यांच्या पुण्यतिथीच्या निमित्ताने अखिल भारतीय महात्मा फुले समता परिषदेतर्फे देण्यात येणारा यंदाचा
यावेळी रॉय म्हणाल्या, 'संपूर्ण उपखंडात रसातळाला जाण्याची स्पर्धाच सुरू झाली आहे आणि त्यात भारताचा उत्स्फूर्त सहभाग आहे. सगळ्या शिक्षणसंस्था, महत्त्वाच्या संस्थांमध्ये सरकारच्या मर्जीतील माणसे भरली जात आहेत. देशाचा इतिहासच बदलण्याचे प्रयत्न केले जात आहेत. धर्मातून बाहेर गेलेल्यांना आरक्षणाची लालूच दाखवून चालणारा 'घर वापसी'चा प्रकार क्रूर आहे. डॉ. आंबेडकरांच्या तत्त्वांचा त्यांच्याच विरोधात वापर करण्यात येत आहे. बाजीराव-मस्तानी चित्रपटावरून मोठा वाद होतो. मात्र पेशव्यांच्या काळात दलितांवर झालेल्या अन्यायाची चर्चाही होत नाही.' -
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