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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, November 30, 2015

सहिष्णुता के अहंकार में डूबा समाज

सहिष्णुता के अहंकार में डूबा समाज


आमिर खान के बयान के बाद छिड़े विवाद पर विद्या भूषण रावत की टिप्पणी।

आमिर खान की पत्नी के 'विदेश में बसने की खबर' से हर 'भारतीय' सदमे में हैं और उनको शाहरुख़ खान के साथ पाकिस्तान भेजने की बात कह रहे है। आमिर के पुतले जलाए जा रहे हैं और देश की विभिन्न अदालतों में उनके खिलाफ मुकदमे किए गए हैं जिनमें देशद्रोह का मुकदमा भी शामिल है। सबसे मज़ेदार बात यह है कि विदेशों में रहने वाले भारतीय इस अभियान को बहुत हवा दे रहे हैं. वैसे भारत में रहने वाले लोग भी कह रहे हैं कि आमिर ने गद्दारी की है और उनको इसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। है न कितनी अच्छी बात कि हम पश्चिमी लोकतान्त्रिक देशों में रहकर पूरे अधिकार के साथ भारत माता की जय बोलना चाहते हैं, मंदिर बनाना चाहते हैं, मोदी की बड़ी बड़ी रैलियां करना चाहते हैं लेकिन अपने देश में हम पूरी दबंगई दिखाना चाहते हैं। अगर यही बात अमिताभ करते तो क्या उन्हें कहीं भेजने की बात होती?

हम फ़िल्मी कलाकारों को भगवान बनाकर न देखें। व्यक्तिगत तौर पर मैं आमिर खान को ढकोसलेबाज़ मानता हूँ क्योंकि उनकी सत्य की जीत 'रिलायंस' के चंदे से होती है और भारत में अगर हम भ्रष्टाचार को लेकर लालू को इतना गरियाते हैं तो अम्बानी तो उस बीमारी के जनक थे। क्या अर्नब गोस्वामी जैसे भारत में 'ईमानदारी' का राग अलापने वाले मसीहा लोग अम्बानी और अडानी के बारे में बात करेंगे? जब करप्शन की बात हो तो राजनेताओं का ही हिसाब किताब क्यों हो, उद्योगपतियों का क्यों नहीं, क्योंकि भ्रष्टाचार की गंगा उनकी ही दुकानों से निकलती है। इसलिए आमिर ने जो कहा वो बहुत सोच-विचार, रिहर्सल के बाद कहा और वो उनका व्यू पॉइंट है और उसे रखने की उनको छूट होनी चाहिए। उनको पाकिस्तान भेजने और उनको गाली देकर हिंदुत्व के लठैत आमिर की ही बात को सही साबित कर रहे हैं।

हालांकि, मैं आमिर की बातों से कत्तई इतेफाक नहीं रखता। सबसे पहले तो आमिर की यह बात गलत है कि भारत में असिहष्णुता अचानक बढ़ गई। हमारा देश असल में असभ्य और क्रूर है, जहाँ दहेज़ के लिए लड़कियां रोज जलती हैं, जहाँ प्रेम विवाह करने पर माँ बाप अपने ही बच्चों की निर्ममता से हत्या करने से नहीं घबराते, जहाँ किसी भी लड़की का शाम को घर से बाहर निकलना मुश्किल होता है। जहाँ सती का आज भी महिममंडन होता हो और विधवा होने पर औरतों की जिंदगी नरक बना दी जाती हो, जहाँ आज भी मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर उनकी हत्या कर दी जाती हो, जहाँ किसी के घर में क्या बन रहा हो उस पर समाज नियंत्रण करना चाहता हो, जहाँ स्कूलों से बच्चे इसलिए निकल कर चले जाते हो कि खाना किसी दलित महिला ने बनाया है, उस देश की महानता और संस्कृति का क्या कहें, जहां एक समाज को पढ़ने का हक़ नहीं और दूसरे को केवल मलमूत्र उठाने की जिम्मेवारी दी गई हो, जिसके छूने भर से लोग अछूत हो जाएं! लेकिन भारत की महान सभ्यता का ढोंग करने वालों का ध्यान इधर कभी नहीं गया। ऐसा नहीं कि इस विषय में लिखा नहीं गया हो या बात नहीं की गई हो।

असहिषुणता का इतिहास लिखें तो शर्म आएगी, तब आमिर खान से क्यों इतनी नाराज़गी है? मतलब साफ़ है। भारत के इलीट मुस्लिम सेकुलरिज्म के खेल में भारत की सहिष्णुता के सबसे बड़े 'ब्रांड' एम्बेसडर हैं। और जो व्यक्ति 'अतुलनीय भारत' की नौटंकी करता रहा हो वो अचानक पाला क्यों बदल बैठा! आमिर खान और अन्य कलाकारों ने भारत के 'सहिष्णु' होने के सबूत दिए और साथ ही दलितों या पसमांदा मुसलमानों की हालतों पर चुप रहकर उन्होंने हमेशा ही 'सहिष्णु' परम्परा का 'सम्मान' किया है। शायद रईसी परंपरा में केवल बड़े बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बातें सेकुलरिज्म होती हैं लेकिन हलालखोर, कॅलण्डर, नट या हेला भी कोई कौम है, इसका शायद इन्हें पता भी नहीं होगा। हमें पता है कि अभी तक मैला ढोने की प्रथा के विरुद्ध आमिर ने कभी निर्णायक बात नहीं की, वो केवल टीवी शो में आंसू बहाने तक सीमित थी।

तो फिर क्या बदला? लोग कहते हैं कि कांग्रेस के ज़माने में भी सेंसरशिप लगी और फिल्में प्रतिबंधित हुईं। बिलकुल सही बात है। हम इमरजेंसी के विरुद्ध खड़े हुए लेकिन अब ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ दल का मुख्य आदर्श संजय गांधी और चीखने चिल्लाने वाले मुल्ले हैं जो किसी भी उदार विचार को या उनसे विपरीत विचार को डंडे और धमका डरा के रुकवाना चाहते हैं। फ़िल्मी लोगों को उतनी ही तवज्जो मिलनी चाहिए जिसके वे हक़दार हैं। पिछले कुछ वर्षों में बम्बइया फ़िल्मी लोग हिंदुत्व का एजेंडा लागू करने में सबसे प्रमुख रहे हैं और उनकी प्रसिद्धि ने चुनाव भी जितवाया है लेकिन उनमें कोई भी ऐसे नहीं हैं जो शाहरुख़, आमिर या अमिताभ का दूर दूर तक मुकाबला कर सके। अमिताभ हालाँकि गुजरात या अन्य सरकारी विज्ञापनों में आते हैं लेकिन वो भी राजनैतिक हकीकतों से वाकिफ हैं, इसलिए चुप रहते हैं। हालाँकि देर सवेर उन्हें मुंह खोलना पड़ेगा। आज के हिंदुत्व कॉर्पोरेट के दौर में भारत की आक्रामक मार्केटिंग चल रही है इसलिए आमिर या शाहरुख़ जो वाकई में भारत के सवर्णों की 'सहनशीलता' के 'प्रतीक' हैं इसलिए उनसे ये 'उम्मीद' ये की जाती है कि वे डॉ. ए. पी. जे. कलाम की तरह अपने 'भारतीय' होने का सबूत दें। कोई मुसलमान यदि अपने दिल की बात रख दे तो वो 'देशद्रोही' है। जिन लोगों को सुनकर हम बड़े हुए उन साहिर, दिलीप कुमार, मोहम्मद रफ़ी, बेगम अख्तर को धर्म के दायरे में डाला जा रहा क्योंकि वे अपनी एक राय रखते हैं। कई बार फिल्म स्टार, गायक या खिलाड़ी लोग वो बात कह देते हैं जो उनके कई प्रशंसकों को नहीं जंचती। उसमें कोई बुरी बात नहीं है। हम आमिर खान से साम्प्रदायिकता और सहिष्णुता का ज्ञान नहीं लेते, अपितु उनकी फिल्म इसलिए देखते हैं कि वो साफ सुथरी फिल्म बनाते हैं। क्या हम रवीना टंडन, अशोक पंडित, गजेन्द्र चौहान या मनोज तिवारी से ज्ञान लें? हाँ फिल्मो में बहुत से लोग रहे हैं जिन्होंने गंभीर विषयों पर बोला है और उनकी समझ समझ है। बाकी हमको कोई कलाकार इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि हमें उसकी एक्टिंग अच्छी लगती है या फिल्म अच्छी लगती है। अगर आप आमिर या शाहरुख़ की फिल्मों का बॉयकॉट इसलिए करना चाहते हैं कि उनकी कोई बात आपको अच्छी नहीं लगी तो फैसला आपका है क्योंकि फिर आपको मनोज तिवारी, अनुपम खेर, अशोक पंडित, गजेन्द्र चौहान आदि की फिल्मे देखनी पड़ेंगी क्योंकि उनके विचार आपको अच्छे लगते हैं।

आमिर खान ने जो कहा वो उनका हक़ था और शायद देश का बहुत बड़ा तबका वैसे ही सोच रहा है। अपने दिल की बात को अगर वो कह दिए तो हमारा क्या फ़र्ज़ है? उसको गालियों से लतियाएं या भरोसा दिलाएं? आमिर ने बस एक ही बात गलत कही कि असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि वो पहले से ही है। इस देश के लोगों ने उनको प्यार दिया है। जो लोग इस वक़्त दबंगई कर रहे हैं वो हमें आपातकाल के संजय गांधी के गुंडों की याद दिला रहे हैं। आमिर को कहना चाहिए कि कौन लोग ऐसा तमाशा कर रहे हैं। ये पूरे देश के लोग नहीं हैं, ये एक पार्टी विशेष और जमात विशेष के लोग हैं जिन्होंने उन सभी को गरियाने और धमकाने का लाइसेंस लिया हुआ है जो इनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। इसलिए आमिर साहेब सबको न गरियाएं। साफ़ बोलिए वो कौन हैं जो असहिष्णुता फ़ैला रहे हैं। इमर्जेन्सी का विरोध करने वालों का सबसे बड़ा मॉडल इमरजेंसी का दौर ही है और वही व्यक्तिवादी राजनीति आज हावी है। केवल फर्क इतना है कि उस दौर में दूरदर्शन और रेडियो पर समाचार सरकार सेंसर करती थी और आज सरकार और सरकारी पार्टी के दरबारी पत्रकार पूरी ताकत से ये काम कर रहे हैं। आज अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी का दौर है जिसमें सरकार से मतभेद रखने वालों की खबरें सेंसर ही नहीं होंगी बल्कि उनको अच्छे से गरियाया जाएगा। आखिर 9 बजे के प्राइम टाइम शोज का यही उद्देश्य है। हकीकत यह है कि हम वाकई में एक भयानक दौर से गुजर रहे हैं जिसमें तिलिस्मी राष्ट्रवादी नारों की गूँज में हमारे मानवाधिकारों और अन्य संवैधानिक अधिकारों की मांग की आवाज़ों को दबा दिया जा रहा है। पूंजीवादी ब्राह्मणवादी लोकतंत्र से आखिर आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं? वो तो सन्देश वाहक को ही मारना चाहता है ताकि खबर ही न रहे और खबरें बनाने और बिगाड़ने के वर्तमान युग में मीडिया निपुण होता जा रहा है, जो बहुत ही शर्मनाक है।


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