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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, August 19, 2013

लोकतंत्र का ध्वजारोहण विद्या भूषण रावत


  • लोकतंत्र का ध्वजारोहण 

    विद्या भूषण रावत 

    बिहार में रोहताश जिले में स्वतंत्रता दिवस के दिन दलितों द्वारा झंडा फहराने के विरोध में ऊंची नाक मूंछ वाले हिन्दुओ ने जो तांडव किया वो निंदनीय है. उनकी गोलाबारी में एक व्यक्ति मारा गया और एक दर्जन घायल हो गए. ऐसा बताया गया है के गाँव समाज की जमीन पर इलाके के राजपूत हर वर्ष ध्वजारोहण करते थे और इस बार भी करना चहिते थे लेकिन दलितों ने इस बार रविदास मंदिर के आगे ध्वजारोहण करनी की सोची तो प्रतिक्रियावस हिंसा में उन्हें अपनी जान से भी खेलना पड़ा. 

    वैसे इस प्रकार की घटना न तो पहली है और ना ही यह आखिरी होगी क्योंकि भारत में दलितों को हर स्थान पर तिरंगा फहराने पर हिंसा का शिकार होना पड़ता है. तमिलनाडु में तो मदुरै के पास कई वर्षो से दलित सरपंच झंडा नहीं फहरा सकते। वैसे १५ अगस्त को मसूरी में जो हुआ वो देखकर तो मज़ा आ गया. भाजपा के विधायक और मसूरी नगरपालिका के अध्यक्ष के बीच झंडा फहराने को लेकर हाथाम्पाई हो गयी और इसका फायदा लेकर एक बच्चे ने ध्वजारोहण कर दिया।

    अब दिल्ली की सल्तनत का हाल देखिये। मनमोहन सिंह को झंडा लहराते और फहराते १० साल होगये और नरेन्द्र मोदी बेहद ही परेशान हो रहे हैं इसलिए उन्होंने सोचा चाहे लालकिले में मौका मिले या न मिले मैं तो लालन कालेज में झंडा फहराउन्गा और फिर उन्होंने प्रधानमंत्री को चुनौती दी के हिम्मत है तो उनके साथ बहस करके देखे। इसे मोदी की खिसियाहट के अलावा कुछ नहीं कह सकते क्योंकि अहमदाबाद से लालकिले की दूरी बहुत ज्यादा है और रस्ते में उत्तर प्रदेश भी पड़ता है इसलिए कम से कम प्रधानमंत्री को ललकार तो सकते हैं अगर हटा नहीं सकते तो ?

    हमें भारत और इस उप महाद्वीप के लोगो की मानसिकता को समझना होगा। स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराना भारत के अमर शहीदों या नेताओं को याद करने की फॉर्मेलिटी नहीं है अपितु शहर में, देश में, प्रदेश में, गाँव में अपनी चौधराहट थोपने की लड़ाई भी है और यही कारण है हर एक नेता लालकिले पर झंडा फहराने का सपना देखता है और वोह भारत ही नहीं पाकिस्तान में और बांग्लादेश में भी मौजूद हैं जो इस सपने को बेचते हैं और नतीजा हमारे सामने है. 

    गाँव में एक दलित कैसे गाँव का चौधरी हो सकता है यदि गाँव के 'बड़े' चौधरी जिन्दा हैं तो ? जातिवादी दम्भी तो यही सोचते हैं के क्या हमारा संविधान हमारी 'परम्पराओं' से बड़ा हो सकता है ? वे तो साफ़ कहते हैं, 'अरे भाई, संविधान तो बनता बिगड़ता रहता है मनुस्मृति तो एक बार बनी तो सबके दिमाग में घुस गयी और न कोई संशोधन और न ही उसमे संशोधन की कोई मांग सुनाई दे रही है इसलिए 'भगवान' के बनाये कानून से ही तो समाज चलता है और तभी तो वह 'चल' रहा है. सरकारी कानूनों से समाज टूटता है और यह तो ऐसे लोगो को 'सर' पे बैठा देता है जो पैरो के नीचे रहने के आदि थे. हमारी व्यवस्था इसलिए तो टूट रही है. 

    अब व्यवस्था तो टूटेगी और चौधरियों को जनता के आगे झुकना पड़ेगा ही क्योंकि लोकतंत्र किसी को दबा के कभी चल नहीं सकता और अब कोई चुप नहीं रह सकता ऐसे अत्याचारों पर. पार्टियों और नेताओं के क्या कहने वोह तो बोलने में कतराते हैं और इसे ही 'लोकतंत्र' की 'ताकत' कहते हैं जब नेताओ को बोलना होता है तो वो चुप रहते हैं और बिहार के 'क्रन्तिकारी' नेता और 'समाजवाद' और 'सामाजिक न्याय' के सारे महारथी चुप हैं क्योंकि लोकतंत्र तो 'वोट' हैं न इसलिए मोदी के सारे अपराध वोटो की 'गंगा' में धुल जाते हैं. इसलिए झंडे के लिए इतना संघर्ष है ताकि गरीबो को कुचल सको और अपनी चौधराहट कायम कर सको. 

    क्या लोकतंत्र में ऐसे चोधराहटपूर्ण ध्वजारोहण यह जाहिर नहीं करते के यह परम्परा अभी भी सामंती है क्योंकि केवल 'नामी' 'गिरामी व्यक्ति ही ध्वजारोहण करेंगे और वे हमारे ,भूत, वर्तमान, या भविष्य के 'कुछ न कुछ' हैं. क्या कोई अनाम व्यक्ति झंडा नहीं फहरा सकता। क्या हम सब अपने अपने घरो पर झंडा फहरा कर और एक दुसरे को गले लगाकर स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस नहीं मना सकते। हमारे रास्ट्रीय पर्वो को मनाने के लिए या झंडा फहराने के लिए एक चौधरी की क्यों जरुरत है? क्या हम इस अन्य त्योहारों की तरह अपने अपने घरो पर रौशनी करके और प्यार से नहीं मना सकते। जब तक ध्वजारोहण हमारे समाज में अपने वर्चस्व और राजनैतिक ताकत का प्रतीक बना रहेगा यह सच्चे मायने में लोकतंत्र का ध्वजारोहण नहीं कहलाया जा सकता और हर साल ऐसे वाकये होते रहेंगे जिसमे निर्दोष लोगो की जान जाती रहेगी क्योंकि झंडा फहराना हमारी सामंतशाही की ताकत का प्रतीक बन चूका है जिसे चुनौती देने के मतलब मौत को निमंत्रण देना हैं क्योंकि इस देश में कानून अभी भी 'इश्वर' के 'संविधान' का चल रहा है. सछ लोकतंत्र उस दिन आएगा जब आंबेडकर का संविधान हमारे दिलो और समाज के नियमो के ऊपर राज करेगा और तभी झंडे को लेकर बर्चस्व की लड़ाई नहीं होगी और तब कोई भी अपने आप ध्वजारोहण कर पायेगा बिना किसी भय या राग द्वेष के और तभी इस देश में सच्ची आज़ादी होगी।

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