चाय जनजाति
''चाय जनजाति''! जिसका कोई आस्तित्व नहीं है, चाय जनजाति का ना तो कहीं संविधान में उल्लेख है, ना ही राज्य सरकार के किसी योजना में, चाय बागान में काम करने से इनके मूल पहचान को मिटा कर इनका नामकरण ''चाय जनजाति'' कर दिया गया। यह कहां का न्याय है? जब कोई अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए किसी उद्योग से जुड़ जाए तो उसके मूल पहचान को मिटाकर उद्योग के नाम पर उसका नामकरण कर देना चाहिए? क्या उनके समुदाय और संस्कृति को ही मिटा देना चाहिए?
18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ ही आदिवासियों को अपने जमीन से बेदखल करके उनके परंपरागत विश्वास सामाजिक संस्थाएं, मूल्य और संस्कृति को विध्वंस करने का सिलसिला आरंभ हो गया। आदिवासियों की परंपरागत भूमि व्यवस्था को ब्रिटिश शासन के अंदर, बाहर से आए सरकारी कर्मचारियों तथा स्थानीय ठेकेदारों, जमींदारों और महाजनों ने बड़े पैमाने पर लूटना आरंभ कर दिया। फलस्वरूप लाखों आदिवासी अपने ही जमीन पर बंधुआ मजदूर बन गए जबकि लाखों बेसहारा होकर रोजी-रोटी की तलाश में असम, बंगाल, अंडमान-निकोबार की ओर सपरिवार पलायन करके अपनी मूलभूमि से विस्थापित हो गए।
जाहिर है इस तरह जीविका की तलाश में अपनी मातृभूमि से बिछड़ कर लाखों आदिवासियों का यह समुदाय जहां गया वहीं का हो कर रह गया। लेकिन इन आदिवासियों को क्या पता था कि इन्हें अपने मूलभूमि के अलावा इन्हे अपनी पहचान भी गंवानी पड़ेगी, परिचय विहीन होना पड़ेगा। आदिमकाल से अपने संस्कृति में रमे-झमें इन मूल निवासी आदिवासियों को बाहरी कहा जाएगा।
आज नामो निशान मिट जाने का दर्द तो कोई असम जाकर असम के चाय जनजाति के लोगों से पूछे कि किस तरह असम के चाय बागानों में काम कर रहें एक करोड़ चाय श्रमिकों को चाय जनजाति (?) का नाम देकर उनके मूल नाम उरांव, मुंडा, हो या संथाल के नामकरण के बजाए उन्हें बाहरी नागरिक या मैगे्रट लेबर या घूमंतू श्रमिक कहकर उपेक्षित एवं वंचित किया जाता है।
आज परिचय विहीन होने का दंश झेल रहे असम के चाय बागान श्रमिक अपनी आस्तित्व एवं पहचान के लिए राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक गुहार लगा चुका है, लेकिन इनका मामला अभी तक राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच झूल रहा है। केंद्र सरकार कहता है कि हमने अपने तरफ से कार्रवाई पूरी कर दी है, बाकी का काम अब राज्य सरकार का है, राज्य सरकार उन समुदायों का सूची देगा, जिन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा देना है, जबकि राज्य सरकार कहता है कि केंद्र सरकार से अभी तक नोटिस नहीं मिला है कि किन-किन समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए।
चाय को राष्ट्रीय पहचान देने के साथ-साथ उनको (असम के चाय श्रमिक) भी उनका असली पहचान देने की जरुरत है जो वर्षों से इसी चाय के लिए अपने मूलभूमि से जुदा हो गए और इनका पहचान मिटा दिया गया। असम के इन एक करोड़ चाय बागान श्रमिकों को भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा देकर उनके मिटे हुए पहचान को पुन: कायम करने की जरुरत है, तभी असम का चाय उद्योग भी प्रगति करेगा, और चाय बागान श्रमिकों के साथ न्याय हो सकेगा।
असम अगर विश्व में प्रसिद्ध है तो अपने चाय उत्पाद के लिए। असम भारत का सबसे बड़ा चाय उत्पादक राज्य है, और चाय के लिए ही पूरे विश्व में मशहूर भी है। चाय उद्योग भारतीय उद्योगों में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है और भारतीय चाय की विदेशों में काफी अधिक मांग भी है। अब तो केंद्र सरकार चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित करने पर विचार कर रही है। यानि राष्ट्रीय पहचान! लेकिन सरकार को असम के उन एक करोड़ चाय बागान मजदूरों की भी चिंता करनी चाहिए, जो अपना पहचान खोकर इन चाय बागानों में चाय जनजाति के नाम से जी रहें है।
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