विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून पर विशेष
विश्वभर में सारंडा अपने शाल के घने जंगल के लिए मशहूर हुआ करता था अब ये जंगल युद्ध और मानवाधिकार को लेकर चर्चा में है. सारंडा के किनारे और सारंडा जंगल के बीचोबीच से बहने वाली कारो, खरकई, रोरो, संजय, सोना नाला जैसी प्रमुख नदिया सूख गयी है...
मुन्ना कुमार झा
सारंडा उजाड़ होने के साथ-साथ माओवादी बनाम सरकार का जंगी अखाड़ा बन चुका है. एक पूरा का पूरा युद्ध क्षेत्र. जंगल में रहने वाले, मुंडा, असुर, बिरहोर, उरावं जैसे आदिवासी जनजाति के लोग कभी अपना जंगल, अपनी नदी, अपने पहाड़ की रक्षा करने में पूरा समय लागा देते थे, पर आज वो एक दूसरी ही तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं. जहां कभी वो अपने पहाड, झरना और जङ्गल कि रक्षा मे दिन रात लगे हुए रहते थे आज ये आदिवासी अपने अस्तित्व को बचाये रखने कि कोशिश मे जङ्गल से ही बेदखल किये जा रहे है.
तरह-तरह के मानवाधिकार से जुड़े मुद्दे और मानवाधिकार संगठनो ने सारंडा जंगल के मूल अधिकार को ख़त्म कर दिया है. जंगल को विहंगम दृष्टी प्रदान करने वाली शाल के घने जंगल, महुआ के जंगल, टेशू के फूल अब ख़त्म होने के कगार पर है. सारंडा अपने हाथियों के झुंड के लिए भी कभी देशभर में मशहूर हुआ करता था जो अब एक्का दुक्का ही बचे है. जो हाथी बच भी गए है वो धन लोभ में आये दिन मारे जा रहे हैं. यहाँ के जंगल में रहने वाले आदिवासियों की एक बड़ी आबादी के जीवन यापन का बड़ा आर्थिक साधन महुआ का फल हुआ करता था जिसे वो बाज़ार में बेच कर अपना जीवन यापन करते थे.
वह महुआ अब अर्धसैनिक बलों के ग्रीन हंट जैसे ऑपरेशन की आग में धू-धू जलकर नष्ट हो गया है. कभी बैर और सरीफा के फल बेचकर घाटी में रहने वाले ज्यादातर आदिवासी लोग अपनी अजिवाका बड़े आराम से चला लेते थे पर आज घाटी में गिनती के बेर और सरीफा के पेड़ बच गए है. कभी बसन्त के मौसम में सारंडा जंगल की खूबसूरती देखने को बनती थी पूरा घाटी टेशू के लाल रंगी फूलो से फैला हुआ होता था जो पिछले १० सालो के बसन्त में बदला बदला सा लगने लगा है.
दरअसल बीते दस पंद्रह सालो में सारंडा जंगल के मायने बदल गए है, जहा पहले विश्वभर में सारंडा अपने शाल के घने जंगल के लिए मशहूर हुआ करता था अब ये जंगल युद्ध और मानवाधिकार को लेकर चर्चा में है. सारंडा के किनारे और सारंडा जंगल के बीचोबीच से बहने वाली कारो, खरकई, रोरो, संजय, सोना नाला जैसी प्रमुख नदिया सूख गयी है, जो जंगल में रहने वाले आदिवासी जीवन के लिए ही नहीं बल्कि जंगली जानवरों के लिए भी जीवनदायनी नदी थी. सारंडा के बीचोबीच बहने वाली पर्मुख नदियों में से एक कारो नदी भी है जो अब सूख चुकी है, लाल मिट्टी ने नदी के चारों तरफ अपना पथरीला आकार बनना शुरु कर दिया है.
संग्मरमर जैसी दिखने वाले कारो के पत्थर भी लाल रंग लिये सूखी हुई जलकुंभी के साथ लिपटे जैसे कारो की तेज़ धार को चिढ़ा रही थी. गुआ और बरयाबुरु से गुजरते हुए कारो नदी के किनारे पर मंजू हांसदा उदास बैठी थी. लगभग दो घंटे में वो सिर्फ ७० की संख्या में साल के पत्ते तोड़ पायी थी, मंजू और उसका परिवार शाल के पत्ते पर ही निर्भर है. मंजू कहती है कि पिछले कई सालों से हम शाल का पत्ता रोज तोड़ते हैं. कारो नदी के किनारे किनारे जिसे बाज़ार में बेच कर घर चल जाता है, पर अब कारो नदी में टाटा, जिंदल, रुंगटा के खदान का कचड़ा ज्यादा आने लगा है जिससे नदी भी सूख गयी है और हमें उतना ज्यादा पत्ता नहीं मिल पाता है, जबकि पहले के दिनों में खदानों से लाल पानी कम आया करता था और लोहा पत्थर वो लोग नदी में नहीं डाला करते थे अब तो वही लोग नदी पर कब्ज़ा कर नदी को भी ख़तम कर दिए है और जंगल को भी उजाड़ने में लगे हुए है. मंजू की बाते कारो नदी और सारंडा जंगल की हकीक़त दर्शाने के लिए काफी है.
जहां एक ओर साल-दर-साल विभिन्न संस्थाओं के आंकडो में सारंडा जंगल का क्षेत्रफल सिमटता जा रहा है, वहीं विभाग अपनी कारस्तानी को छुपाने के लिए मन-गढ़ंत किस्सों, कहानियों, आंकड़ों का दांव खेलता रहता है. बेतहासा लोहा खनन ने सारंडा जंगल में न सिर्फ आदिवासी लोगों के जीवन पर प्रभाव डाला है बल्कि इसका प्रभाव यहाँ बसने वाले हाथियों के एक बड़े झुण्ड पर भी पड़ा है, लोहा खनन ने घने शाल पेड़ के जंगल को भी उजाड़ बना दिया है, कानूनी तथा गैरकानूनी तरीके से लोहा खनन ने सारंडा में रहा रहे जंगली जानवरों को भी नुक्सान पहुचाया है.
झारखण्ड फोरेस्ट विभाग की रिपोर्ट की माने तो वर्ष १९९७ से १९९९ तक सारंडा में ३२०० हेक्टेयर जंगल ख़त्म हो गए है , यही नहीं २००१ से लेकर २००३ के बीच में सारंडा की ७९०० हेक्टेयर वन भी लोहा खनन और लकड़ी तस्करी के कारण नस्ट हुए है. खैर इसे जानने के लिए हमें सरकार के आंकड़ों के बजाए अपने आंखों-देखी पर विश्वास करना होगा. जिन इलाकों से अभी हम गुजरते हैं, क्या वाकई वह जगह इसी तरह उजाड़ था? अधिकांश मामलों में इसका जवाब नहीं ही मिलेगा.सारंडा के ज्यादातर इलाके में जंगल में विचरने वाले जानवर विलुप्त हो रहे हैं. मैंने वृक्ष के लिए अध्ययन के दौरान पाया कि सारंडा, जहां तितलियां की हजारों प्रजातियां थीं, वहां तितिलियों की बहुरंगी उड़ानें देखने को कम ही मिलती हैं.
इसी तरह अन्य जंगली पशु-पक्षी भी विलुप्ति के कगार पर हैं. दरअसल सरकार को मालूम भी नहीं कि ये जंगल कितनी जैव-विविधताओं के मामले में धनी हैं. ऐसे में हम किस विभाग की बात करें और किस नीति की बात करें. यह झारखंड जैसे राज्य में जीने-मरने के सवाल से कम नहीं कि जंगल में होने वाली हरेक बाहरी गतिविधि से पूरा का पूरा जंगल तंत्र, उसमें बसने वाले मानव, पशु-पक्षी सब प्रभावित होते हैं.
इन जंगलों मे बसे हजारों आदिवासी गांव बिना बाहरी डर-भय के सैकड़ों संस्कृतियों को अपने में समेटे सजीवता की महान मिसाल है. मांदर के स्वर, तीर-घनुष, महुआ के फूल, आम के पत्ते, झरने, मुर्गा, बकरी, बत्तख, ये जंगल और आदिवासी जीवन की पहचान रही हैं. लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक में बहुत कुछ बदला है. झारखंड की खुशहाल जंगल और आदिवासी जीवन तेजी से विकासवाद की भेट चढऩे लगी है. पूंजीवाद से उपजे आर्थिक विकास की बेलगाम अंधी दौड़ ने दुनिया भर के महत्वपूर्ण जंगलों के साथ-साथ झारखंड के जंगलों और पहाडिय़ों को भी बर्बाद करने का काम किया है. झारखंड मे छोटानागपुर, संथाल परगना और सारंडा की ज्यादातर पहाडिय़ां और जंगल खनिज संपदाओं मसलन लोहा, सोना, अभ्रक, तांबा, कोयला, युरेनियम, मैग्नीज के नाम पर बर्बाद जाती रही हैं.
झारखंड के जंगलों को केवल पर्यावरण के नजरिये से देखना अनुचित होगा. पूरा जंगल एक सजीव माहौल का निर्माण करता है, जिसमें न सिर्फ जंगली पेड़-पौधे, बल्कि मनुष्य तक एकसाथ मिलकर रहते हैं. छोटानागपुर, संथाल परगना से लेकर सारंडा तक फैले शाल के जंगलों के बीच बसे एक संपूर्ण जंगली और गैर-जंगली बस्तियों में सारी चीजें इन्हीं जंगली परिस्थितियों से ही निकली हैं. ऊंची-नीची पहाडिय़ों, गहरी खाइयों, पठारों के साथ जंगल, जलवायु की दशाओं में परिवर्तन और उनके साथ बदलती मानवीय बस्तियों में भी जंगल के तत्व ढूंढे जा सकते हैं.
कल-कल बहती नदी, नालों के बीच पशु, पक्षी, हाथियों के अनेकों झुंड एक ऐसे पारि-तंत्र का निर्माण करते हैं, जिसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच निकटतम संभावित संबंध देखने को मिलता है. गांवों में बसे आदिवासियों का जीवन उसी तरह छल-प्रपंच से दूर है, जिस तरह प्रकृति की निश्छलता. झारखंड के घने जंगल दो दशक पहले तक दुनिया भर के शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, सैलानियों में जिज्ञासा का भाव पैदा करते थे. एक ओर जहां रांची से लेकर नेतरहाट की पहाडिय़ां सालभर हरियाली की चादर ओढ़े रहती थी, तो वहीं दूसरी ओर सारंडा के घने शाल जंगल में हाथियों के झुंड प्रकृति के अद्भुत और विहंगम दृश्य पैदा करते थे.
लेकिन मानों सारंडा की इस खुशहाली पर सरकार की नजर लग गई है. शहर में जंगल लगाकर पर्यावरण बचानेवाली सरकार सारंडा के जंगल का औद्योगीकरण कर रही है. 15 नवंबर 2000 से अब तक झारखंड सरकार ने बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के साथ लगभग 104 समझौते पर दस्तखत किए हैं. सेंसेक्स की बढ़ती ऊंचाइयों में हमें याद भी नहीं रहता कि आज भी हमारे जंगलों में रहनेवाले लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. कोयले की अंधाधुंध खनन ने आज नॉर्थ कर्णपुरा, साउथ कर्णपुरा, इस्ट बोकारो, वेस्ट बोकारो, झरिया, डाल्टंगंज के उटार के जंगलों को तबाही के मुहाने पर ला खडा किया है. यही स्थिति पश्चिमी सिंहभूम के सारंडा मे लौह अयस्क खनन से हुई है. नवामुंडी और जामदा से लेकर चाईबासा तक अयस्क खनन का असर स्थानीय आबादी और जंगलों को देख कर महसूस किया जा सकता है.
खनन करनेवाली छोटी-बड़ी कंपनियों ने गैर-कानूनी रूप से सघन सारंडा को भीतर ही भीतर खोखला कर दिया है. नेतरहाट की पहाडिय़ां बॉक्साइट खनन से अपनी सुंदरता को खोने लगी है. लोहरदगा के इलाके भी बॉक्साइट खनन से तबाह हो रहे हैं. सारंडा ही नहीं, बल्कि झारखंड के तमाम जंगलों और जंगल में रहने वाले लोगों की स्थिति दयनीय है. इन इलाकों के आदिवासी पीने के पानी से लेकर भोजन, स्वास्थ्य, रोजगार, हर काम के लिए जंगल पर ही निर्भर रहे हैं और आज भी हैं.
सरकार भले ही अपने स्तर से जंगल के इन गांवों में सुविधाएं पहुंचाने में नाकाम रही हों, लेकिन उसने इन वनवासियों को उजाडऩे का पूरा मसौदा जरूर तैयार कर रखा है. नक्सलग्रस्त घोषित इन इलाकों की सुध अगर सरकार ने पहले ही ली होती तो स्थिति आज इतनी दुखदायी न होती. आज किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिससे इस इलाके में जंगल और जंगलवासियों के संदर्भ में हुई तबाही का सही-सही आकलन किया जाए.
झारखंड में जंगल ही जीवन का दर्शन है. विकास प्रक्रिया में जंगल और मनुष्य के बीच एक अनमोल रिश्ते की शुरुआत हुई, जिसकी हम अवहेलना नहीं कर सकते. सांस लेने से लेकर, वर्षा, भोजन, आशियाना सब जंगल की ही मेहरबानी है. दुनिया भर मे मशीनी इतिहास के प्रारंभ की कहानी भी जंगलों से ही शुरु होती है. झारखंड के जंगलों में ऐसे में ढेरों देसी तकनीक के दर्शन होते हैं, जो मनुष्य के विकास प्रक्रिया में उसके जीवन को आसान बनाने के क्रम में जंगल ने ही उसे मुहैया कराई हैं.
बिहार - झारखण्ड के सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय मुन्ना कुमार झा स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं.
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