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Memories of Another day

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Wednesday, June 6, 2012

फिलहाल हम हार गये हैं, लेकिन फिर भी हम लड़ेंगे साथी

http://mohallalive.com/2012/06/03/lose-battle-for-right-to-expression-on-internet/

मीडिया मंडीसंघर्ष

फिलहाल हम हार गये हैं, लेकिन फिर भी हम लड़ेंगे साथी

3 JUNE 2012 3 COMMENTS

♦ आलोक दीक्षित

देश में इंटरनेट सेंसरशिप के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई फिलहाल हम हार गये हैं। हमने हंगामा खड़ा किया, लोगों के बीच गये, तथाकथित जनप्रतिनिधियों को दास्ताने जंग सुनायी और संसद में भी बहस छेड़ी। नतीजा? ढाक के वही तीन पात। हम राज्यसभा में आईटी एक्ट के एनलमेंट का प्रस्ताव लाये जो कि माननीयों की अनिच्छा और कमजोर हो चुके विपक्ष के दोहरे चरित्र के चलते गिर गया और इसी के साथ भारत दुनिया के तमाम उन तानाशाह देशों की फेहरिस्त में शुमार हो गया, जो कि इंटरनेट को सेंसर करने की भरपूर वकालत करने में जुटे थे। अब इस कोशिश में अंतर्राष्ट्रीय नेटएक्टिविस्ट 'एनॉनिमस' भी उतरे हैं और आने वाले 9 जून को देशव्यापी प्रोटेस्ट कर रहे हैं। उनका यह विरोध वीडियो शेयरिंग वेबसाइट 'विमियो' और 'डेलीमोशन' की ब्‍लॉकिंग के बाद शुरू हुआ है। एनॉनिमस का मानना है भारत में जिस तरह रिलाइंस समूह अपनी फिल्मों के बाजार को बचाने के लिए वीडियो और दूसरी साइट्स को ब्लैंकेट बैन कर रही है, उससे दुनिया भर के इंटरनेट उपभोक्ताओं में रोष बढ़ा है। एनॉनिमस ने फिलहाल देश के 11 शहरों में अपना यह विरोध दर्ज कराने का ऐलान किया है। हमने भी पिछले कई महीनों में सेंसरशिप के खिलाफ तमाम अभियान छेड़े और कोशिश की हम इस मुद्दे पर देश में एक डिबेट शुरू कर पाये। हमने नेशनल टूर किया, सिटीजन मीट की, विरोध प्रदर्शन किये, क्रिएटिव प्रोटेस्ट किये और भूख हड़ताल भी की। अफसोसजनक नतीजों के साथ बताना चाहता हूं कि डिबेट तो शुरू हुई, पर यह डिबेट सिर्फ ट्विटर और फेसबुक और कुछ अंतर्राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबारों में ही बड़ी मुश्किल से अपनी जगह बना सकी। लोग सड़कों पर नहीं उतरे और इस बीच हमने खुशी खुशी इंटरनेट पर लिखने की अपनी आजादी गंवा दी।

देश दुनिया में इस वक्त इंटरनेट निर्णायक मोड़ पर है। अपने जमीनी स्वरूप और लोगों के बीच इसकी पैठ की वजह से यह आज का सबसे शक्तिशाली आर्थिक इंजन और सकारात्मक सामाजिक ताकत बन गया है। मगर इसकी सफलता ही दुनियाभर की ताकतों के लिए चिंता का विषय भी बन गयी है। अपनी तानाशाही से सारी दुनिया को मुंह चिढ़ाते बहरीन, मिस्र, ट्यूनीशिया, सीरिया और लीबिया जैसे देश हों या अभिव्यक्ति की आजादी का ढिंढ़ोरा पीटता अमेरिका और वहां हुआ अकूपाई मूवमेंट हो, इंटरनेट ने न सिर्फ हंगामा खड़ा कर दिया बल्कि सूरत भी बदली। यही वजह है कि सारी दुनिया की दमनकारी सरकारें (जिसमें हमारा देश भी शामिल है) इस माध्यम से मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए या तो कई तरह के कानून बना रही हैं या इस प्रक्रिया में हैं। समूचे विश्व में इंटरनेट को सेंसर करने वाली सरकारों की संख्या 2002 में 4 के मुकाबले आज 40 पहुंच गयी है। भयावह यह है कि यह संख्या तेजी से बढ़ रही है और इंटरनेट के उस स्वरूप को पूरी तरह बदलने में लगी है, जिसे हम और आप आज जानते हैं।

इनमें से कुछ कदम तो उन कारणों से उठाये जा रहे हैं, जो कि आमतौर पर इंटरनेट को बदनाम और नियंत्रित करने के लिए जिम्मेदार हैं। कहा गया कि इंटरनेट धार्मिक विद्वेष फैला रहे हैं, इंडिविजुअल को टार्गेट कर रहे हैं और नेशनल सेक्योरिटी के लिए खतरा बन रहे हैं। पर हमें मानना होगा कि लगभग हर बुनियादी ढांचे की तरह इंटरनेट का भी दुरपयोग किया जा सकता है और इसके उपभोक्ताओं को नुकसान भी पहुंचाया जा सकता है। हमें यह भी ध्यान जरूर रखना चाहिए कि कहीं ऐसा न हो कि हम बीमारी का इलाज करते-करते बीमार को ही मार डालें। ओपेन और सुलभ इंटरनेट के फायदे गिना पाना तो शायद असंभव ही है और इसके बिना इंटरनेट की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

आश्चर्यजनक रूप से सारी दुनिया के इंटरनेट को नियंत्रित करने के लिए यूनाइटेड नेशंस का एक संगठन, इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन (आईटीयू), जो कि अपने साथ 193 देशों के होने का दावा करता है, अपना मोर्चा खोल रहा है। यह टेलीकम्युनिकेशंस को नियंत्रित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समझौतों की समीक्षा कर रहा है और दिसंबर में दुबई में हो रही इंटरनेट सम्मिट में इंटरनेट पर यूनियन के अधिकारों को बढ़ाये जाने का प्रस्ताव रख सकता है। यह कदम काफी खतरनाक है, क्यूंकि इससे इंटरनेट का स्वरूप शायद वैसा नहीं रह जाएगा, जैसा कि आज है। वर्तमान में आईटीयू का नियंत्रण रेडियो फ्रीक्वेंसीज पर है और वह इन फ्रीक्वेंसीज का एलोकेशन करता है, न कि इंटरनेट का। कुछ सदस्य आईटीयू के दायरे में इंटरनेट को भी लाना चाह रहे हैं। 193 सदस्‍यों में हर एक के पास वोट करने का अधिकार है, बिना इसे जाने कि मौलिक अधिकारों पर इनका रुख क्या है, और एक सामान्य बहुमत भी आईटीयू के दायरे को बढ़ा कर इंटरनेट तक ला सकता है।

दुनियाभर में इंटरनेट को डेवलप करने वाली कंपनियों और आईटी एक्सपर्ट्स ने इसे ओपेन और एक्सेसबल बनाते हुए खुद भी नहीं सोचा होगा कि यह इंसान और इंसानी दुनिया के इतने आयामों को अपने आगोश में ले लेगा। फिलहाल जब इंटरनेट की कमान किसी एक देश या एक शक्ति के हाथ में नहीं है, दुनिया भर के अलग अलग देशों में यह समाज, शिक्षा, निजी क्षेत्रों, सेल्फ स्टैंडर्ड्स के डेवलपमेंट के साथ साथ आपसी सहयोग के तमाम पत्थर गाड़ता जा रहा है। खुले और स्वैक्षित नेट के ही ये सारे वरदान हैं। इसके विपरीत आईटीयू के होते सिविल सोसाइटी की भागीदारी में तमाम बाधाएं आएंगी।

दुनिया भर में इंटरनेट पर राय रखने वाली दो तरह की सरकारें हैं, एक जो इंटरनेट को नियंत्रित करने के लिए लचीला रुख अपनाए हुए हैं और दूसरी जो कि संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में इंटरनेट को नियंत्रित करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था की मांग कर रही हैं। दूसरे ग्रुप का नेत्रत्व करने वाले वे देश हैं, जो अपने राज्यों में इंटरनेट को तेजी से सेंसर कर रहे हैं। पिछले जून में रूस के प्रधानमंत्री पुतिन ने रूस और उसके सहयोगी देशों की आईटीयू के माध्यम से 'इंटरनेट पर अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण' की वकालत की थी। सितंबर 2011 में रूस, चीन, तजाकिस्तान और उजबेकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में 'सूचना सुरक्षा पर एक अंतर्राष्ट्रीय आचार संहिता' बनाने का प्रस्ताव भी रखा। इसमें यह भी मांग की गयी कि देशों के लिए साइबर स्पेस से जुड़े हुए तमाम पहलुओं पर अंतर्राष्ट्रीय मानक और नियम बनाए जाएं।

आईटीयू के अंदर से भी कुछ प्रस्ताव आये हैं। कई सत्तावादी देश इंटरनेट की एनानिमिटी यानि पहचान छुपाने की खूबी को भी खत्म करने का प्रस्ताव रख रहे हैं। इससे उन आवाजों को नियंत्रित करना आसान हो जाएगा, जो उन दमनकारी ताकतों के खिलाफ आवाज उठा रही हैं। कुछ और प्रस्ताव भी आये हैं, जिनमें कहा गया है कि डोमेन के नाम और इंटरनेट ऐड्रेसेस का अधिकार संयुक्त राष्ट्र को दे दिया जाए। अगर इन सब प्रस्तावों को मान लिया जाता है तो इंटरनेट का वास्तविक स्वरूप ही बदल जाएगा। कई देशों ने इन प्रस्तावों के साथ अपनी सहमति जतायी है। कुछ इस कारण से इसके साथ हैं कि इंटरनेट का नियंत्रण संयुक्त राष्ट्र के हाथों में दिया जा रहा है। कुछ इसे अमेरिका और यूरोपीय देशों के हाथों से खिसकती ताकत के रूप में देखते हैं। कुछ का मानना है वर्तमान परिस्थितियों में इंटरनेट बड़ी वैश्विक कंपनियों के हाथों का खिलौना बना हुआ है, जबकि कुछ देश मानते हैं कि आईटीयू के पास इंटरनेट अधिकारों के आ जाने से विकासशील देशों का भला होगा और इंटरनेट तेजी से इन देशों में जा पहुंचेगा।

अब सोचने वाली बात यह है कि जिस संयुक्त राष्ट्र में चीन और रूस अपना वीटो पावर रखते हैं और जिसके सदस्य देश खुद फ्री स्पीच के सबसे बड़े दुश्मन हैं, इंटरनेट के वर्तमान स्वरूप से कितना संतुष्ट होंगे। संयुक्त राष्ट्र खुद में ही कितना स्वतंत्र और शक्तिशाली है कि सीरिया जैसे छोटे से देश को रूस और चीन के वीटो के चलते नियंत्रित नहीं कर सकता, भला इंटरनेट को क्या और कैसे नियंत्रित करेगा। तो क्या अब हम इंतजार करेंगे उस दिन का जब यूएन में बैठा चीन, डाट तिब्बत (.tibet) डोमेन के लिए वीटो कर रहा होगा? क्या हम चाहेंगे कि अब तक स्वतंत्र और स्वायत्त रहा इंटरनेट संयुक्त राष्ट्र की राजनीति और ब्यूरोक्रेसी के पिंजरे में कैद होकर अपनी रफ्तार को गंवा दे? दिसंबर में दुबई में लिये गये निर्णयों में इंटरनेट को सरकारी शिकंजे में कस देने की पर्याप्त क्षमता है। इसे इसके वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाने के लिए हमें अब बुनियादी बदलावों की जरूरत है। आप इस तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रह सकते हैं। समय कम है और खतरे ज्यादा। सेंसरशिप के खिलाफ हमारे इस अभियान में आपका साथ अनिवार्य है। साथियो चेतो।

(आलोक दीक्षित। अपनी आवाज बचाओ (सेव योर वॉयस) अभियान के सक्रिय सदस्‍य। टीवी9 और दैनिक जागरण के साथ टीवी और प्रिंट की पत्रकारिता करने के बाद पिछले कुछ सालों से न्‍यू मीडिया में सक्रिय। आलोक से writeralok@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


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