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भीड़ से जरा भी खतरा नहीं दिखता है। क्या आंदोलन ऐसे हो सकते हैं जहां किसी को कोई खतरा या चुनौती न दिखती हो? इससे जुड़ी बात यह कि क्या यह भरोसे से कहा जा सकता है कि इस तरह के आंदोलन कब शुरू हो सकते हैं और कब खत्म हो जाएंगे? पिछले कुछेक आंदोलनों को भी यहां याद कर सकते हैं। क्या यह आंदोलन सही मायने में पहला ऐसा आंदोलन है जिसका नेतृत्व मीडिया कर रहा है और मीडिया ने देश में वह ताकत हासिल कर ली है जब वह किसी आंदोलन को शुरू कर सकता है और उसे किसी मुकाम पर खत्म कर सकता है?आंदोलन की मांग पर गौर करें। क्या बलात्कार की घटनाओं को एक और कानून बना कर रोका जा सकता है? कड़े कानून की कसौटी क्या होती है? क्या आरोपी की मौत या अंग भंग ही कड़े कानून का नाम है? सोलह दिसंबर के बाद सबसे प्रमुख मांग यह उभर कर सामने आई कि आरोपियों को फांसी की सजा दी जाए। धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी और उससे पहले रंगा, बिल्ला को भी। लेकिन सोलह दिसंबर की काली रात फिर भी डराने आ गई। पूरे आंदोलन के चरित्र को समझने के लिए यह याद करना जरूरी है कि पिछले कुछ आंदोलनों में हर इस तरह की समस्या का समाधान फांसी की सजा में देखा गया है। आखिर यह गुस्सा बलात्कार या दूसरे बड़े अपराधों को खत्म करने के लिए है या फिर यह किसी और काम में आ रहा है? गुस्सा अभिव्यक्त होते क्या तभी दिख सकता है जब व्यवस्थागत तौर पर कानूनी मशीनरी को फैसले में मनचाहा करने की छूट मिलती हो। आंदोलन लोकतंत्र की एक प्रक्रिया है, पर क्या यह प्रक्रिया व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा निरंकुश बनाने में इस्तेमाल की जा रही है? क्या यह संभव है कि भीड़ न जानती हो कि वह क्या मांग रही है और किससे मांग रही है? शायद यह संभव है। एक दूसरा विश्लेषण यह भी करना चाहिए कि जिस बलात्कार के विरोध को महिलाओं के उत्पीड़न और उन पर हमले के विरोध के बतौर ही देखा जा रहा है वहां महिलाओं के हाथों में किस तरह के नारों की तख्तियां थीं? लड़कियां और महिलाएं उत्पीड़न और बलात्कार के कारणों को अपने नारों में प्रदर्शित करने से चूक जाती हैं। पूंजीवाद और पुरुषवाद एक दूसरे की सहायक शक्तियां हैं। पूंजीवाद, पुरुषवाद के सामंती रूप का आधुनिकीकरण कर देता है। पूरी पूंजीवादी संरचना को बचाती तख्तियां लगी थीं। यानी एक तरफ जड़वादी राजनीतिक विचार हैं जो लड़कियों के पहनावे और बाजार में चलने-फिरने के तौर-तरीकों को खत्म करने की मांग करते हैं और उन्हें पुरुषों को उकसाने वाली प्रवृत्तियों के रूप में देखते हैं। दूसरी तरफ नारों की तख्तियां उन्हें ही संबोधित कर रही थीं। नहीं सहेंगे नारी का अपमान, जैसे नारे। सामंतवादी, पूंजीवादी प्रवृत्तियों को विकसित करने की एक लड़ाई इस आंदोलन में दिखाई दे रही थी। क्या बलात्कार और छेड़खानी का संबंध शराब, अश्लील फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों से लेकर पूरी एक सामाजिक संरचना से है? लेकिन तमाम स्थितियों पर कोई सवाल खड़े नहीं हो रहे हैं। बस फांसी का कानून बनाने की मांग प्रचारित की जाती रही है। इस तरह एक ऐसे आंदोलन का विश्लेषण इस रूप में सामने आता है कि लोकतंत्र में एक निरंकुशता की पक्षधर भीड़ का गुस्सा तैयार हो गया है? उसके पास सूचनाओं के लिए अपने संसाधन तो हो गए हैं लेकिन संवाद का नजरिया आकार नहीं ले पा रहा है। वह सामाजिक तौर पर सुधारवादी और राजनीतिक तौर पर परिवर्तनवादी से दूर खड़ा दिखाई देता है? पिछले तमाम आंदोलनों से भिन्न इस शहरी आंदोलन का विश्लेषण किया जाना चाहिए। इस दौर में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न न केवल बढ़ा है बल्कि वह कई नए रूपों में तैयार हुआ है। शराबबंदी की मांग गांवों और पिछड़े इलाकों में तेजी से बढ़ी है। पूंजीवाद के जो सहायक उत्पाद हैं, उन पर दिल्ली में कोई सवाल खड़ा नहीं हुआ। आंदोलन केवल कानून बनने के गिर्द बहस में सिमटा दिखा। आखिर वे क्या कारण हैं कि शहरों और गांवों से छोटी उम्र की लड़कियां बड़े पैमाने पर गायब की जा रही हैं; बलात्कार की खबरें रोज आती हैं। पूरी दुनिया में आमतौर पर गरीब महिलाओं पर हमले बढ़े हैं। लोकतंत्र में सामाजिक सुरक्षा चक्र और सामाजिक चेतना ही वास्तविक कानून होता है। व्यवस्थागत कानून की भूमिका महज सहायक की होती है। अगर सचमुच देश में इतनी बड़ी आबादी महिला उत्पीड़न के विरोध में हो तो वहां ऐसी घटनाएं अतीत की बात हो जानी चाहिए। या फिर स्थिति यह है कि हम इसके बहाने उत्पीड़न का एक नया हथियार तैयार कर रहे हैं? कानून किनके हाथों में सौपा जा रहा है, लोकतंत्र में यह भी आंदोलनों के लिए बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Wednesday, January 16, 2013
इस आंदोलन की परतें
इस आंदोलन की परतें
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