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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, June 11, 2014

आत्मघाती हैं आज के वामपंथी लेकिन वाम पंथ के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं

आत्मघाती हैं आज के वामपंथी लेकिन वाम पंथ के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं

आत्मघाती हैं आज के वामपंथी लेकिन वाम पंथ के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं


गरीबी उन्मूलन दरअसल गरीबों के खात्मे का कार्यक्रम है, ठीक वैसा ही जैसे आर्थिक सुधार बहिष्कार और सफाये का जनसंहारी युद्ध।

वाममोर्चा के भूमि सुधार अतीत के वित्तमंत्री अशोक मित्र और मौलिक राष्ट्रीयकरण और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के मुख्य सूत्रधार डॉ.अशोक मित्र का साक्षात्कार छपा है आज आनंद बाजार के संपादकीय पेज में, जिसमें उन्होंने मौजूदा वाम नेतृत्व पर निर्मम प्रहार करते हुए वाम आंदोलन के तमाम अंतर्विरोधों का खुलासा करते हुए साफ-साफ कहा कि आज के वामपंथी आत्मघाती है लेकिन इस देश में वाम पंथ के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है इस जनसंहार बंदोबस्त के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए।

पलाश विश्वास

हफ्तेभर बाद सब्जी बाजार जाना हुआ। शरणार्थी दलित किसान परिवार से हूँ और अपनी इस औकात के मुताबिक हवाई उड़ानें मेरे लिए निषिद्ध हैं। इसलिए पांव जमीन पर ही रहते हैं। लगभग चौथाई शताब्दी जहाँ बिता दिये, उस स्थानीयता में सारे मामूली लोग मेरे परिचित आत्मीयजन हैं और खासमखास मेरे लिए तो कोई भी नहीं है।

दफ्तर से लौटने के बाद रात ढाई बजे से सुबह साढ़े पांच बजे मैं अपने पीसी के साथ रहता हूँ। इसलिए नींद से जागकर बाजार जाने से पहले मैंने अखबार नहीं देखा था। बाजार गये तो छोटे दुकानदारों, सब्जीवालों और बाजार में मौजूद लोगों ने मेरी घेराबंदी कर दी। तमाम प्रश्न करने लगे लोग। मसलन-

क्या नवान्न में कल आप थे?

क्या विमानबोस के साथ दीदी ने आपको भी फिशफ्राई खिलाया?

ये क्यों हमें लड़ाते हैं, लहूलुहान करते हैं जबकि ये भीतर से सत्ता के लिए एक हैं?

आपने आनंद बाजार में अशोक मित्र का लिखा आज का लेख पढ़ा है? ये वाम पंथी लोग कुर्सी क्यों नहीं छोड़ना चाहते?

कारत गये तो येचुरी आयेंगे, फर्क क्या पड़ने वाला है?

मुझे खुशी है कि ज्योतिबसु के पहले वित्तमंत्री और इंदिरा गांधी के मुख्य सलाहकार अशोक मित्र की साख अब भी बनी हुई है, जिनसे समयांतर के लिए कुछ अनुवाद के सिलसिले में मेरी भी बातचीत होती रही है।

वाममोर्चा के भूमि सुधार अतीत के वित्तमंत्री अशोक मित्र और मौलिक राष्ट्रीयकरण और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के मुख्य सूत्रधार डॉ.अशोक मित्र का साक्षात्कार छपा है आज आनंद बाजार के संपादकीय पेज में,जिसमें उन्होंने मौजूदा वाम नेतृत्व पर निर्मम प्रहार करते हुए वाम आंदोलन के तमाम अंतर्विरोधों का खुलासा करते हुए साफ साफ कहा कि आज के वामपंथी आत्मघाती है लेकिन इस देश में वाम पंथ के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है इस जनसंहार बंदोबस्त के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए।

जाहिर है कि आदरणीय अशोक मित्र ने तमाम वामपंथियों की तरह अंबेडकर पढ़ा नहीं है और पढ़ा है तो उसे तरजीह नहीं दी है। वरना वे अंत्यज बहुजनों की बात करते और अंबेडकर की प्रासंगिकता पर भी लिखते।

आनंद पटवर्धन, आनंद तेलतुंबड़े, अरुंधति और हम सिर्फ इतना कह रहे हैं कि वामपंथ और अंबेडकरी आंदोलन की मंजिल समता और सामाजिक न्याय है और जनप्रतिरोध के लिए अलग अलग झंडों और पहचान, अस्मिता में बंटी जो जनता है, उसकी गोलबंदी सबसे जरूरी है और इस सिलसिले में सर्वस्वहाराओं के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दें, तो अबंडकरी विचार और वाम आंदोलन में अंतरविरोध नहीं है।

हम सिर्फ इतना कह रहे हैं कि बहुजन समाज का निर्माण ही वामपक्ष बहुजन अंबेडकरी पक्ष का घोषित साझा लक्ष्य हो और अंबेडकरी आंदोलन का प्रस्तानबिंदु फिर वही जाति उन्मूलन हो तो सिरे से गायब सत्तर दशक के प्रतिरोध की वापसी असंभव भी नहीं है। पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ राष्ट्रव्यापी जनांदोलन भी असंभव नहीं है। राज्यतंत्र में बदलाव भी असंभव नहीं है और न ही समता और सामाजिक न्याय का लक्ष्य असंभव है।

राष्ट्रपति के अभिभाषण और नई सरकार के आर्थिक सुधार कार्यक्रम पर लिखने का इरादा था। दंडकारण्य के मध्य महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़ीशा और आंध्र प्रदेश के तमाम आदिवासी इलाकों को डूब में शामिल करने वाले पोलावरम बांध के बारे में तो कई दिनों से लिखने का मन था। लेकिन सुबह ही आनंद बाजार में आशा भोंसले का मुक्त बाजार में सांस्कृतिक अवक्षय पर बेहतरीन साक्षात्कार के मध्य सबकुछ गड़बड़े हो गया। चुनाव से पहले लता मंगेशकर ने खुलेआम नमोमय भारत बानने का भाववेगी परिवेश सृजन में अपनी सुर सम्राज्ञी हैसियत खपा दी थी। तो हालत यह है कि हिन्दुत्व के नाम नमोमय भारत बना देने वाले तमाम हिन्दू जो हिन्दू राष्ट्र के पक्ष में नहीं हैं बल्कि उसके कट्टर विरोधी हैं और हम फासीवाद के खिलाफ युद्ध में धर्मोन्मादी कहकर उन्हें हिसाब से बाहर रख रहे हैं जो कि संजोग से बहुसंख्य भी हैं, यह लिखना बेहद जरूरी हो गया। कल का दिन इसी में रीत गया।

हाल के राजनीतिक बदलावों के बाद अब बाजार की नजर सरकार के आम बजट पर है, जिसमें आर्थिक सुधार का एजेंडा सामने आएगा। मैक्वायरी रिसर्च के वैश्विक प्रमुख (अर्थशास्त्र) रिचर्ड गिब्स ने पुनीत वाधवा को दिए साक्षात्कार में बताया कि भारत अब निवेशकों को मिलने वाले संभावित निवेश के अवसरों की तरफ देख रहा है। उन्होंने कहा कि सुधार का एजेंडा लागू होने से कंपनियों की आमदनी में इजाफा होगा।

आज रोजनामचा फिर गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम से लिखना शुरू करना चाहता था। इंदिरा गांधी का समाजवाद का उद्घोष भी गरीबी हटाओ नारे के साथ हुआ था। जो बजरिये हरित क्रांति और आपरेशन ब्लू स्टार उनके अवसान के बाद नब्वे के दशक तक राजनीतिक अस्थिरताओं के मध्य अबाध पूँजी के कारपोरेट नरसंहार में बदल गया है।

नमोमय भारत की दिशा दशा दुर्गावतार संघ समर्थित इंदिरायुगीन निरंकुश तानाशाह राजनीतिक स्थिरता के परिदृश्य की याद दिला रहा है।

हम एकमुश्त साठ के उथल पुथल और स्प्नभंग के दौर, अस्सी के रक्तप्लावित धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण और इक्कीसवीं सदी के निरकुंश लंपट अबाध पूँजी वर्चस्व के वैश्विक मनुस्मृति राज में हैं।

बीच में से सत्तर दशक का प्रतिरोध और पचास के मध्य के तेलंगाना और ढिमरी ब्लाक सिरे से गायब हैं।

आशा भोंसले के मुताबिक स्मृति लोप का समय है यह और भाई लोग तो न केवल इतिहास, सभ्यता, विधाओं और विचारधारा के अंत का ऐलान कर चुके हैं,बल्कि वे तमाम प्रतिबद्ध चेहरे अब जनसंहारी व्यवस्था में समाहित समायोजित हैं। मलाईदार महिमामंडित अरबपति तबके में शामिल होकर क्रांति अता फरमा रहे हैं।

ऐसे में इंदिरा के ही समाजवादी समय के वित्तमंत्री और मनमोहनी जनसंहारी आर्थिक नीतियों के वास्तुकार प्रणव मुखर्जी के श्रीमुख से गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम कसमन्वित आर्थिक सुधार एजंडा मार्फत समाजवादी हिन्दुत्व का पुनरूत्थान दुश्चक्र के उस तिलिस्म को नये सिरे से तामीर करने का भयानक खेल है, जिसमें भारतीय जनगण और भारत लोकगणराज्य का वजूद आहिस्ते आहिस्ते खत्म होता रहा है वही साठ के दशक से लगातार लगातार।

शायद उससे पहले से धर्म के नाम पर भारत विभाजन के ब्रह्म मुहूर्त से अखंड सनातन हिन्दुत्व के प्रचंड वैदिकी ताप से। जिसे हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सीमाबद्ध मानने की भूल बारंबार कर रहे हैं जबकि यह लाल नीले हरे पीले हर झंडे में समान रूप से संयोजित है।

मैं कोलकाता में हूँ लेकिन हवाओं में बारूदी गंध, हड्डियों की चटकने की आवाजें, क्षितिज में आग और धुआं और गगनभेदी धर्मोन्मादी रणहुंकार से उसी तरह घिरा हुआ हूँ जैसे अस्सी के दशक में मेरठ के मलियाना हाशिमपुरा समय में था।

गरीबी उन्मूलन दरअसल गरीबों के सफाये का कार्यक्रम है, ठीक वैसा ही जैसे आर्थिक सुधार बहिष्कार और जनसंख्या नियंत्रण का जनसंहारी युद्ध।

हम कांशीराम के फेल होने की वास्तविकता को नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं और बहुजन समाज का निर्माण होने से पहले ही उसके बिखराव को रेखांकित करते हुए अंबेडकरी आंदोलन की प्रासंगिकता बता रहे हैं।

यह मामला आनंद तेलतुंबड़े के शब्दों में उतना सहज सपाट भी नहीं है।

अंबेडकर को मूर्तिबद्ध करने में ही भारत में कारपोरेट राज के हित सधते हैं क्योंकि पहचान अस्मिता से खंड-खंड भारतीय समाज एकता बद्ध हुए बिना हत्यारों के राजपाट राज्यतंत्र को बदल नहीं सकते।

जाहिर है कि इस कारोबार में शेयरबाजारी दांव अरबों खरबों का है।

तमाम झंडेवरदारों की दुकाने बंद होने वाली हैं अगर भारतीय जनगण कारपोरेट राज के खिलाफ गोलबंद हो जाये।

हम बार-बार जो कह रहे हैं कि जाति व्यवस्था दरअसल नस्ली भेदभाव है और उसका अहम हिस्सा भौगोलिक अस्पृश्यता भी है तो हम बार-बार यह भी कह रहे हैं कि मनुस्मृति कोई धर्मग्रंथ नहीं है, यह वर्ग वर्चस्व का मुकम्मल अर्थव्यवस्था है, जो नींव बन गयी है वैश्विक जायनवादी जनसंहारी स्थाई बंदोबस्त की।

हम बार-बार कह रहे हैं कि जाति मजबूत करने से हिन्दुत्व मजबूत होता है और इसी का तार्किक परिणति नमोमय भारत है।

हम बार-बार कह रहे हैं कि जाति पहचान अस्मिता केंद्रित धर्म निरपेक्षता दरअसल धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण की ही दिशा बनाता है, प्रतिरोध का नहीं।

हम बार-बार कह रहे हैं कि यह विशुद्ध सत्ता समीकरण है।

इसी सिलसिले में समाज वास्तव की चीरफाड़ बेहद जरूरी है और यह सत्य हम नजरअंदाज नहीं कर सकते कि तकनीकी वैज्ञानिक विकास के चरमोत्कर्ष समय़ में मुक्त बाजार के शापिंग माल में हम दिलोदिमाग से अब भी मध्ययुग के अंध तम में हैं और हर शख्स के भीतर सामंती ज्वालामुखी का स्थगित महाविस्फोट है और रंग बिरंगी क्रांतियों के बावजूद हम हिन्दुत्व से मुक्त नहीं हैं। क्योंकि जैसे कि बाबासाहेब कह गए हैं कि हिन्दुत्व धर्म नहीं, राजनीति है और सत्ता की राजनीति हिन्दुत्व के बिना इस भारत देश में हो ही नहीं सकती।

पेय पानीय जहर नरम और गरम रसायन है। बाकी इंदिरा गांधी के गले में रुद्राक्षमाला और धीरेंद्र ब्रह्मचारी के योगाभ्यास और नमो उपनिषद पुराण के साथ बाबा रामदेव में प्रकार भेद जरूर है, लेकिन गुणवत्ता और प्रभाव समान है।

उत्पेरक वहीं शाश्वत वैदिकी मनुस्मृतिनिर्भर जाति जर्जर नस्ली हिन्दुत्व और वही संघ परिवार जो सिखों और मुसलमानों, शरणार्थियों, आदिवासियों और बहुजनों के संहार और स्त्री आखेट के पुरुषतांत्रिक वर्चस्व के लिए समान रूप से जिम्मेदार है।

इस बात को समझ लेना शायद सबसे मददगार साबित हो सकता है सत्ता की राजनीति और अर्थव्यवस्था के अंतहीन दुश्चक्र को समझने के लिए कि हिन्दू राष्ट्र किसी अकेले संघ परिवार का एजेंडा नहीं है, इस राजसूय यज्ञ के पुरोहित या यजमान तो इंद्रधनुषी भारतीय राजनीति के सारे रंग हैं, केसरिया थोड़ा ज्यादा चटख है, बस।

इस बात को समझ लेना शायद सबसे मददगार साबित हो सकता है आम जनता की गोलबंदी के लिए कि मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति प्रेम मनुष्यता और सभ्यता के अनिवार्य गुण हैं और स्वभाव से मनुष्य सामाजिक है। राजनीतिक गोलबंदी की तुलना में सामाजिक मानवबंधन ज्यादा व्यावहारिक और कारगर है। बाबा साहेब ने भी इसीलिए सामाजिक आंदोलन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है तो कामरेड माओ ने सांस्कृतिक आंदोलन को। मातृभाषा की पूँजी लेकर बांग्लादेश में तो लोकतंत्र कट्टर धर्मांध राष्ट्रवाद को लगातार शिकस्त दे रहा है।

इस बात को समझ लेना शायद सबसे मददगार साबित हो सकता है गोलबंदी के लिए अनिवार्य अलाप संलाप के लिए कि अंध राष्ट्रवाद राष्ट्रद्रोह हैं और मनुष्य स्वभाव से राष्ट्रद्रोही होता नहीं है चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान या ईसाई।

इसीलिए यह समझना बेहतर है कि हर मुसलमान कट्टरपंथी नहीं होता और न हर हिन्दू धर्मोन्मादी, चाहे राजनीतिक लिहाज से उनका रंग कुछ भी हो। आप राजनीतिक पहल के बजाये सामाजिक पहल करके तो देखिये कि रंगरोगन कैसे उड़कर फुर्र हो जायेगा।

हालांकि हम इतने दृष्टि अंध हैं कि पंजाब की सत्ता राजनीति में अकाली सिखों के लिए न्याय की गुहार लगाते हुए जैसे सत्ता की भागेदारी के लिए हत्यारों की पांत में बैठने से हिचकते नहीं हैं वैसे ही बहुजन हिताय हिन्दुत्व और ब्राह्मणवाद के साथ अबाध पूँजीवाद के त्रिफला आहार का भोग लगाकर बाबासाहेब का श्राद्धकर्म कर रहे हैं बहुजन रंग बिरंगे झंडेवरदार।

लेकिन इन सबमें सबसे भयानक वर्णवर्चस्वी पाखंडी तो विचारधारा की जुगाली और वैज्ञानिक दृष्टि के स्वयंभू अवतार जनविश्वास घाती और आत्मघाती भी, जनसंहार पुरोहित भारत में लाल झंडे को घृणा का प्रतीक बना देने वाले, सामाजिक शक्तियों को बेमतलब बना देने वाले और जनांदोलनों को एनजीओ में तब्दील करने वाले वाम झंडेवरदार हैं।

वाम झंडेवरदार सत्ता के लिए कुछ भी करेंगे लेकिन वर्ण वर्चस्व को तोड़ेंगे नहीं। पद छोड़ेंगे नहीं। दूसरी तीसरी पंक्ति के नेतृत्व को उभरने देंगे नहीं। भौगोलिक अस्पृश्यता के तहत वाम से वंचित करेंगे बंगाल, त्रिपुरा और केरल को छोड़कर बाकी देश को।

अब संभावना यह प्रबल है कि आगामी पार्टी कांग्रेस में प्रकाश कारत की जगह सीताराम येचुरी वाम कमान संभालेंगे। हो गया नेतृत्व परिवर्तन। बूढ़े चेहरे के बदले नये चेहरे खोजे नहीं मिल रहे वाम को जो अवाम में जाते ही नहीं हैं।

हम जब कहते हैं कि सारे हिन्दू, हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं तो हम तमाम अश्वेतों की बात करते हैं जो गोरा रंग पर फिदा हैं और गोरा बनाने के उद्योग के सबसे बड़े खरीददार हैं और जिन्हें काला होने पर शर्म आती है।

हम जब कहते हैं कि सारे हिन्दू हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं तब हम उन तमाम आदिवासियों की बात करते हैं,जिनके खिलाफ अनवरत युद्ध जारी है, जारी है देश व्यापी सलवा जुड़ुम।

हम जब कहते हैं कि सारे हिन्दू हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं, तब उन धर्मान्तरित लोगों के बारे में कह रहे हैं जो हिन्दुत्व का परित्याग तो कर चुके हैं लेकिन जाति का मोह छोड़ नहीं पाये हैं और जाति को मजबूत करने के लिए पूरा दम खम लगा रहे हैं।

हम जब कहते हैं कि सारे हिन्दू, हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं, उन बहुजनों की बात करते हैं जो कर्मकांड वैदिकी संस्कृति में ब्राह्मणों से मीलों आगे हैं और हिन्दू राष्ट्र के पैदल सेनाओं मे तब्दील हैं। वे तमाम लोग बेशक रामराज चाहते हैं।वे बेशक मर्यादा पुरषोत्तम राम के पुजारी हैं और गीता उपदेश के मार्फत कर्म सिद्धांत के मुताबिक जन्म पुनर्जन्म और मोक्ष के सबसे बड़े कारोबारी यदुवंशी कृष्ण के अनुयायी हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि वे जैसे राज्यतंत्र और अर्थव्यवस्था नहीं समझते वैसे ही वे रामराज और कारपोरेट राज के संयुक्त मनुस्मृति उपक्रम को समझते नहीं हैं और उन्हें हकीकत बताने की कोई कोशिश भी अब तक नहीं हुई है।

इस प्रसंग की चर्चा से लेकिन जिनकी दुकानें बंद होती है, वे हमें हिन्दुत्व के दलाल और ब्राह्मणों के पिट्ठू कहकर केसरिया बहुजनों के साथ संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं रखेंगे।

आर्थिक मुद्दों पर बात करने की मानोपोली हमने वामपंथियों और माओवादियों के हवाले कर दी है। इसलिए अरुंधति हो या आनंद तेलतुंबड़े या यह नाचीज यह रोजनामचाकारसारे लोग माओवादी घोषित हैं।

अब अगर मैं माओ को उद्धृत करके कहूँ कि हमें जनता से सीखना चाहिए क्योंकि जनता अपने अनुभवों से बेहतर जानती है, तो हमें माओवादी मार्क कर देना बहुत सरल होगा। लेकिन लगभग यही बात तकनीकी क्रांति में समाहित कला साहित्य परिवेश के बारे में कही है बॉलीवुड में वाणिज्य के लिहाज से सुरसाम्राज्ञी से भी ज्यादा कामयाब, ज्यादा सक्रिय उनकी सगी बहन आशा भोंसले ने।

आशा भोंसले ने साफ-साफ कहा है कि कला साहित्य अब तकनीकी चकाचौंध के अलावा कुछ भी नहीं है और न कविता लिखी जा रही है और न कोई गीत तैयार हो रहा है। वे कह रही हैं कि जीवनयापन का अनुभव न होने से कला और साहित्य प्राणहीन चीत्कार का रियेलिटी शो है और कुछ भी नहीं। जैसा कि कई साल पहले हमने अपनी कविता ई अभिमन्यु में कही है।

राजनीति के संदर्भ में भी यही चरम सत्य है। जिस जनता के प्रति उत्तरदायी यह संसदीय लोकतंत्र है, जिस जनता के आदेश से यह राज्यतंत्र का कारपोरेट मैनेजमेंट है, वोट देने के आगे पीछे वह कहीं भी नहीं है। उसके प्रति कोई जवाबदेह नहीं है। न राष्ट्र, न कानून व्यवस्था, न संविधान, न संसद, न भारत सरकार, न राज्य सरकारें, न्याय पालिका, न मीडिया और न वे अरबपति खरबपति या न्यूनतम करोड़पति भ्रष्ट देश बेचो काला बाजारी जमात, जिसमें उसकी अगाध आस्था अखंड हरिकथा अनंत है।

एंटरटेइनमेंट के लिए कुछ भी करेगा, तीन प्रख्यात रामों का अत्याधुनिक रामायण गाया जा चुका है। क्षत्रपों के हवाई करतब देखे जा चुके हैं। अब वामपक्ष के बेपर्दा होने की बारी है। कलाबाजी और सत्ता सौदेबाजी में विचारधारा को तिलांजलि देने में वे भी कहीं पीछे नहीं रहे, ममताम् शरणाम् करते उन्होंने भी साबित कर दिया कि जैसे वे धर्मनिरपेक्षता के नाम दस साल तक मनमोहिनी जनसंहार के हिस्सेदार रहे, वैसे ही संघ परिवार की बढ़त रोकने के लिए वे ममता के पांव भी चूम सकते हैं, जो खुद वजूद का संकट झेलते हुए वाम सहारे के भरोसे मरणासण्ण वाम को आक्सीजन देने के लिए पलक पांवड़े बिठाये हुए हैं।

याद करें कामरेड कि सतहत्तर में फासीवाद और तानाशाही के खिलाफ अटल आडवाणी के साथ गलबहियां ले रहे थे वाम नेता किंवदंती तमाम तो वीपी को भ्रष्टाचार विरोधी प्रधानमंत्री बनाने के लिए वाम दक्षिण एकाकार हो गये थे।

कारपोरेट राज के लिए जरूरी हर कानून को बनाने बिगाड़ने की संसदीय सहमति निर्माण में भी वाम दक्षिण नवउदारवादी जमाने में एकाकार है। भारत में धर्म निरपेक्षता की सौदे सत्ताबाजी का यह सार संक्षेप है।

अब तो रामराज्य फूल ब्लूम है। कमल खिलखिला रहा है बाजार में। दिग्गजों के मुताबिक निवेश का यही सही मौका है। आज का निवेश 5 साल में आपको करोड़पति बना सकता है। आपका दिवालिया भी तय है अगर आप अर्थव्यवस्था समझते नहीं हैं। हाल के वर्षों में साल 2014 भारतीय इक्विटी निवेशकों के लिए बेहतर वर्षों में से एक रहा है। बेंचमार्क एसऐंडपी बीएसई सेंसेक्स हर हफ्ते नई ऊंचाई को छू रहा है और साल की शुरुआत से अब तक 20 फीसदी से ज्यादा उछल चुका है। साथ ही इसके और ऊपर जाने की संभावना है। दलाल स्ट्रीट के तेजडिय़े अब नई तेजी की शुरुआत की बात कर रहे हैं, जो नरेंद्र मोदी की अगुआई में विकासोन्मुखी सरकार के सत्ता संभालने के कारण देखने को मिल सकती है। उम्मीद यही है कि मोदी सरकार आर्थिक विकास दर में तेजी से सुधार लाएगी। इसके साथ-साथ कंपनियों की आय में इजाफे की भी संभावना है, जिससे शेयरों की ऊंची कीमत उचित दिखेगी।

जाहिर है कि अगर आप ऐसे कुत्ते को देख रहे हैं जो नहीं भौंकता है तो फिर आपको सरकार के हालिया आर्थिक नीति की घोषणाओं को अलग हटकर देखने की जरूरत नहीं है।

About The Author

पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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