अब मीडिया का जनविकल्प मोबाइल नेटवर्किंग! मोबाइल से ही जनता की आवाज सुनी जायेगी!
आदिवासी जो जल जंगल जमीन से बेदखल है,उन्हें आप न नेट से, न अखबार से और न अन्य माध्यमों से संबोधित कर सकते हैं।
सुविधा के मुताबिक जनांदोलन, इसीलिए पोलावरम बांध पर खामोशी।
'মোবাইলই ধরতে পারে জনতার প্রকৃত আওয়াজ'
पलाश विश्वास
अगर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) से मिले आंकड़ों पर गौर करें तो इसमें कमी के बावजूद प्रिंट मीडिया उद्योग ने जोरदार वापसी दर्ज की है। आईआईपी के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल में समाचार पत्र उत्पादन में 56.7 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई, जबकि कुल औद्योगिक वृद्धि एक साल पूर्व की इसी अवधि के 5.3 फीसदी की तुलना में महज 0.1 फीसदी रही।
प्रकाशन, प्रिंटिंग और पुनरुत्पादन सहित समूचे मीडिया क्षेत्र की वृद्धि शानदार 52.7 फीसदी रही। वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान 10.78 फीसदी भार वाले इस खंड की वृद्धि 29.6 फीसदी रही।
आईआईपी में 0.2 फीसदी हिस्सेदारी वाले मोबाइल हैंडसेट और अन्य टेलीफोन उपकरणों के उत्पादन में अप्रैल में 30 फीसदी की तेजी दर्ज की गई।
बीबीसी के मुताबिकः
छत्तीसगढ़ के ज़िले कवर्धा में एक वनरक्षक ने जब कुछ बैगा आदिवासियों से कथित तौर पर 99 हज़ार रुपए रिश्वत ली, तो स्थानीय लोगों ने मोबाइल रेडियो स्टेशन 'सीजीनेट स्वर' पर इसकी शिकायत कर दी. शिकायत का पता चलते ही वन अधिकारी को पैसे लौटाने पड़े और उन्होंने माफ़ी भी मांगी. मामले की अब जांच हो रही है.
ये ताक़त है लोकल कम्यूनिटी नेटवर्क की, जिसने स्थानीय लोगों को अपनी आवाज़ सत्ता-प्रशासन में बैठे लोगों तक पहुँचा पाने का एक विश्वास दिया है.
सीजीनेट स्वर' मध्य भारत के आदीवासी क्षेत्रों पर केंद्रित और मोबाइल पर आधारित एक रेडियो स्टेशन है. लोग अपना संदेश फ़ोन के ज़रिए रिकॉर्ड करते हैं और यह संदेश प्रारंभिक जांच के बाद वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया जाता है साथ ही इन्हें मोबाइल पर भी सुना जा सकता हैं. मोबाइल पर सुनने के लिए श्रोताओं को बस एक नंबर पर कॉल करना होता है.
बांग्ला अखबार एई समय में शुभ्रांशुचौधरी की बातचीत का अंश
হাতের মোবাইলটিই নয়া সংবাদমাধ্যম৷ এডওয়ার্ড স্নোডেনকে হারিয়ে একটি আন্তর্জাতিক শিরোপা জিতলেন তার স্রষ্টা শুভ্রাংশু চৌধুরী৷ আলাপে সৌমিত্র দস্তিদার৷
সৌমিত্র দস্তিদার: শুভ্রাংশু, আপনি তো সাংবাদিকতার প্রচলিত ধারাই বদলে দিয়েছেন৷ একটা সমান্তরাল প্রচার মাধ্যমের জন্ম দিয়েছেন৷ বিষয়টা ঠিক কী? একটু বিশদে বলবেন?
শুভ্রাংশু চৌধুরী: দেখুন আমি যেখানে বড়ো হয়েছি তা আদিবাসী অধ্যুষিত এলাকা৷ সেন্ট্রাল ইন্ডিয়া৷ ঐতিহাসিক গোন্ডোওয়ানা ল্যান্ড৷ পরে, বড়ো হয়ে যখন পেশা হিসেবে সাংবাদিকতাকে বেছে নিলাম ওই সব জায়গা তখন সংবাদের শিরোনামে--- মাওবাদী রাজনীতির শক্তিশালী ঘাঁটি বলে৷ আমিও বোঝার চেষ্টা করতাম কেন আদিবাসীরা মাওবাদীদের প্রতি এতটা সহানুভূতি হল৷
আপনি কি নিশ্চিত যে সত্যি সত্যি আদিবাসীরা মাওবাদীদের সমর্থক? দেখুন, দন্ডকারণ্য বস্তারের অন্তত নব্বই শতাংশ আদিবাসী মাওবাদীদের কোনও না কোনও ভাবে সমর্থন করে তা নিয়ে আমার একটুও সন্দেহ নেই৷ তার বড়ো কারণ আমাদের নীতিনির্ধারণ যাঁরা করেন তাঁরা বুঝতেই পারেন না বা চান না যে আদিবাসীরা কী চায় কী বলতে চায়৷ গোন্ড, ভিল বা আপনাদের সাঁওতাল মুন্ডা তরুণের দাবি কতটুকু তা জানার জন্যে কমিউনিকেট করতে হয়৷ তাদের সঙ্গে মিশতে হয়, ভাষা জানতে হয়৷ এই বিষয়টাই তো এ দেশে নেই৷ এই জায়গা থেকেই তো আমাদের বিকল্প ভাবনার শুরু৷ আমরা সমস্যার সমাধান পাই আলোচনার টেবিলে৷ তার জন্যে কমিউনিকেশনকে ভীষণ ভাবে গণতান্ত্রিক হয়ে উঠতে হবে৷ এমন এক প্লাটফর্ম গড়ে তুলতে হবে যেখানে জনসাধারণ নিজেদের কথা বলতে পারবে৷
अब मीडिया का जनविकल्प मोबाइल नेटवर्किंग,मोबाइल से ही जनता की आवाज सुनी जायेगी।छत्तीसगढ़ में यह प्रयोग कामयाबी से लगातार व्यापक होता जा रहा है।सूचना क्रांति ने जनता को सूचनाओं से ब्लैक आउट कर दिया है और सारी चकाचौंध बाजार को लेकर है।अंधेरा का कोई कोना भी रोशन नहीं हो रहा है।
मोबाइल क्रांति ने बाजार को देहात के दूरदराज के इलाके तक विस्तृत कर दिया है।मोबाइल धारकों के मार्फत अत्याधुनिक उपभोक्ता संस्कृति देश के चप्पे चप्पे में है और मुक्त बाजार के शिकंजे में हैं जंगल, पहाड़, मरुस्थल,रण और समुंदर। लेकिन अगर इसी मोबाइल क्रांति को मीडिया का जनविकल्प तैयार कर दिया जाये तो हालात बदल भी सकते हैं।
कम से कम छत्तीस गढ़ में गोंड भाषा में गोंडवाना के आदिवासियों की जनसुनवाई मोबाइल नेटवर्क जरिये करके इसे संभव बना दिया है जनपक्षधर लोगों ने।
बीबीसी ने भी इस पर विस्तृत रपट जारी की है तो बांग्ला में एई समय ने एडवर्ड स्नोडेन की तरह यथास्थिति तोड़ने की मोबाइल पहल करने के सूत्रधार शुभ्रांशु चौधरी का इंटरव्यू संपादकीय पेज पर छापकर इस संभावना के द्वार खोल दिये हैं।
शुभ्रांशु चौधरी गोंडवाना में पले बढ़े और वहां से ही पत्रकारिता की।वे हमारी तरह ऐरे गैरे पत्रकार भी नहीं हैं।बीबीसी से जुड़े रहे हैं।उनका मानना है कि कथित मुख्यधारा की मीडिया में जनता के मुद्दों को आवाजन नहीं मिलती।
शुभ्रांशु बेहिचक मानते हैं कि दडकारण्य और गोंडवाना में नब्वे फीसद आदिवासी माओवाद के समर्थक हैं सिर्फ इसलिए क्योंके वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के किसी भी स्तर पर अपने दुःख दर्द की सुनवाई से वंचित हैं।मोबाइल नेटवर्क से उन्होंने इस जन सुनवाई को आदिवासियों की उनकी ही भाषा में अंजाम देने का बीड़ा उठाया ताकि कम से कम वैकल्पिक मीडिया के जरिये आदिवासियों के साथ एक संवाद सेतु तो तैयार किया जा सकें और संचार क्रांति के मार्फत ही उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल किया जा सकें।शुभ्रांशु के मुताबिक इस देश में नीति निर्धारण करने वाले लोगआदिवासी क्या चाहते हैं और उनकी क्या मांगें हैं,इसे समझते ही नहीं हैं।गोंड,भील या संथाल मुंडा जनभावनाओं को समझने के लिए उनसे कम्युनिकेट करना बेहद जरुरी है।हमें ऐसा मंच जरुर बनाना चाहिए,जहां जनता की समस्याओं,शिकायतों की सुनवाई हो।
वैकल्पिक मीडिया अब तक बुद्धिजीवी मध्यवर्गीय अभिव्यक्ति का माध्मम रहा है।वंचित तबके के लिए वैकल्पिक मीडिया का दरवाजा खोलने के लिए यह एक चामत्कारिक पहल है और हमें इसको विस्तत करने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।
इसी बीच मेरा पीसी फिर क्रैश कर गया है।पंद्रह दिन में दूसरी बार। कंगाली में आटा गीला है।मेरा इरादा इस मामले को अगले महीने तक टालने का था।लेकिन दो दिन से घर में सिर्फ पढ़ाई करते देखकर सविता को मालूम पड़ गया कि फिर कंप्यूटर खराब है।नेट का कनेक्शन भी कटा था।पिछले महीने के बिल मय समाचार पत्र और बिजली बिल का भुगतान अभी हुआ नहीं है।इसपर भी सविताबाबू के दबाव में आज नेट का कनेक्शन फिर जोड़ा है और इंजीनियर रविवार को आयेगा।
जाहिर है कि वेब का मामला बेहद खर्चीला है और नेट प्रयत्नों के नतीजे भी बेहद सीमाबद्ध हैं। हम लंबे समय तक माइक्रोसाफ्ट की दादागिरी के मध्य नेट पर मौजूद नहीं रह सकते और रहें तो भी सत्ता वर्ग को संबोधित करके कुछ हासिल नहीं कर सकते।
दरअसल हम एकदम शुरुआती दौर से यानी जबसे इंटरनेट का प्रचलन हुआ,अविराम नेट पर लिख रहे हैं।यह हमारी मजबूरी भी है कि जो बात हम कहना चाहते हैं,वह कहने का मंच हकीकत की जमीन पर कहीं है नहीं। नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के समय में शुरु से ही हम जैसे लोग हाशिये पर हैं। हम नेट के जरिये महज अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं और शायद खुद के जीवित होने का सबूत भी पेश कर रहे हैं। लेकिन हो कुछ नहीं रहा है।
शरणार्थी समस्या पर डाक्यूमेंटेशन का अभाव था, उसे पूरा करने में करीब दो दशक लगा दिये।लेकिन शरणार्थियों को उनके वजूद के संकट में हम किसी भी स्तर पर गोलबंद नहीं कर सकें।
सबसे ज्यादा समस्या आदिवासियों और बाकी बहुजनों को संबोधित करने की है।बहुजन साहित्य और राजनीति के नाम पर पैसा कमा चुके लोगों ने इतना लिख दिया है कि नई आवाज सुनने को कोई बहुजन तैयार नहीं है।
दूसरी ओर, आदिवासी जो जल जंगल जमीन से बेदखल है,उन्हें आप न नेट से, न अखबार से और न अन्य माध्यमों से संबोधित कर सकते हैं।
आज सरदार सरोवर और नर्मदा बचाओ से लेकर कुड़नकुलम को लेकर बड़े बड़े जनांदोलन हो रहे हैं लेकिन वही आंदोलनकारी दंडकारण्य के पांच राज्यों के लाखों आदिवासी और शरणार्थी परिवारों को डूब में विसर्जित करने के अध्यादेश और प्रस्तावित कानून के खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं।जबकि कम से कम ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ सरकारं ने इस परियोजना का लगातार विरोध किया है।
कारपोरेट फ्रेंड नवीन पटनायक तो ओड़ीशा में बहुसंख्य आदिवासियों की जनसुनवाई न होने के राजनीतिक नतीजे से वाकिफ 2007 से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं तो छत्तीसगढ़ की सलवा जुड़ुम सरकार भी आदिवासी इलाकों को डूब में शामिल होते देख नहीं सकती।तेलंगाना ने भी इस परियोजना का विरोध शुरु कर दिया है।सीमांध्र में भी विरोध हो रहा है।सिर्फ महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में खामोशी है।
ताज्जुब तो यह है कि पर्यावरण के नाम पर तूफान खड़ा करने वाले और आदिवासी हितों के स्वयंभू झंडेवरदार बाकी मामलों में प्रचंड मुखर होने के बावजूद पोलावरम मामले में खामोश हैं।
इस सिलसिले में अंग्रेजी में मेरा यह आलेख जरुर पढ़ लेंः
Tribals rally together to protest Polavaram. I stand with them,Would You? Partition Victim Dandakaranya Refugees have to be ejected for Polavaram project. They experienced partition Holocaust and Marichjhanpi Genocide. Now they have a close encounter with Sensex India! Now Polavaram disaster is certainty not to be aborted.400,000 have to be displaced and entire tribal humansacpe of central India,Dandakaranya and five states have to be submerged. Telangana Rashtra Samithi wants Polavaram dam ordinance withdrawn.
http://ambedkaractions.blogspot.in/2014/06/tribals-rally-together-to-protest_11.html
पोलावरम मामले में बस इतना ही। लेकिन ऐसे मुद्दे और उनपर पसरा देशव्यापी सन्नाटा साबित करता है कि वैकल्पिक मीडिया की खोज का सिलसिला अभी खत्म हुआ नहीं है और इसी सिलसिले में व्रात्य और अंत्यज लोगों की आवाज की गूंज सर्वत्रहो तो मोबाइल क्रांति के इस्तेमाल की छत्तीसगढ़ी पहल कितनी महत्वपूर्ण है।
असल बात तो यह कि हवाई बातों से कुछ हो ही नहीं सकता अगर हमारे पांव जमीन पर न हो।छत्तीसगढ़ में मोबाइल नेटवर्किंग के जरिये सीधे जनसुनवाई की जो पद्धति आजमाई जा रही है,उसे देश भर में मोबाइल क्रांति से जोड़ने में हमारे तकनीक दक्ष मित्र कुछ मदद कर सकें तो बेहतर नतीजे निकल सकते हैं।इसीलिए आज का यह रोजमामचा इसी मुद्दे पर।
अखबारों के मार्फत खुद पत्रकारिता पेशे से जुड़े लोगों की जनता के हक हकूक की आवाज उठाने की मनाही है।कारपोरेट प्रबंधन कारपोरेट हित में मीडिया की नीतियां तय करते हैं।संपादक अब सीईओ हैं तो मैनेजरों के पालतू गुलाम होकर घुट घुटकर जी मर रही है जनपक्षधर पत्रकारिता।
अखबारों के प्रसिद्ध स्तंभकार के नियमित कालम में भी मीडिया मालिकों की इच्छा का मुताबिक रंगबिरंगा लेखन चल रहा है और मुक्तबाजार,विकास,आर्थिकसुधार, नमोमय शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश,निजीकरण और विनिवेश,पीपीपी माडल,प्रोमोटर बिल्डर राज,जनसंहारी राजकाज के खिलाफ चूं तक करने की गुंजाइश नहीं है।
लघु पत्रिकाओं का जो आंदोलन सत्तर के दशक में वैकल्पिक मीडिया बतौर सामने आया था,वह भी अब पार्टीबद्ध सीमाबद्धता होते हुए अस्तित्व की लडा़ई में बाजार निर्भर है तो साहित्य कला के दायरे से वैचारिक राजनीतिक बहस के अलावा वहां भी कोई जनसुनवाई नहीं हो रही है।
सोशल मीडिया का कारोबार अब कमोबेश केसरिया है। मजीठिया अन्याय के खिलाफ क्रांति के आवाज के दम तोड़ने से यह साबित हो गया है कि मीडियाकर्मी किस तरह निःशस्त्र चक्रव्यूह में एकदम अकेले मारे जाने को अभिशप्त है।
निजी तौर पर ब्लाग लेखन और समूह संवाद को सर्च इंजन के जरिये खोजने की गुंजाइश वैसे भी नहीं रही और गंभीर लेखन जनप्रतिबद्ध लेखन मोबाइल कंप्यूटर से जनता के बीच पहुंचता ही नहीं है और न कोई गोलबंदी उसके जरिये अब संभव है।
रियल टाइम मीडिया फेसबुक ट्विटर से संपर्क तो तुरत फुरत मध्य वर्गीय नेटनागरिकों से हो सकता है,लेकिन उनके वर्गीय जातिगत हित उन्हें सीधे तौर पर जनसरोकारों से जोड़ते नहीं है।
दूसरी ओर,मोबाइल इंटरनेट और ब्रांड से आनलॉइन जुड़ने का प्रमुख जरिया बनता जा रहा है। इन्मोबी द्वारा तैयार मोबाइल मीडिया खपत रपट के मुताबिक मोबाइल मीडिया की मांग लगातार बढ़ रही है और मोबाइल सिर्फ उपभोक्ताओं के संचार की जरूरत ही पूरी नहीं कर रहा है बल्कि एक प्रमुख जरिया है बनता जा रहा है जिसके माध्यम से वे इंटरनेट और विभिन्न ब्रांड से आनलाइन जुड़ते हैं।
'মোবাইলই ধরতে পারে জনতার প্রকৃত আওয়াজ'
হাতের মোবাইলটিই নয়া সংবাদমাধ্যম৷ এডওয়ার্ড স্নোডেনকে হারিয়ে একটি আন্তর্জাতিক শিরোপা জিতলেন তার স্রষ্টা শুভ্রাংশু চৌধুরী৷ আলাপে সৌমিত্র দস্তিদার৷
সৌমিত্র দস্তিদার: শুভ্রাংশু, আপনি তো সাংবাদিকতার প্রচলিত ধারাই বদলে দিয়েছেন৷ একটা সমান্তরাল প্রচার মাধ্যমের জন্ম দিয়েছেন৷ বিষয়টা ঠিক কী? একটু বিশদে বলবেন?
শুভ্রাংশু চৌধুরী: দেখুন আমি যেখানে বড়ো হয়েছি তা আদিবাসী অধ্যুষিত এলাকা৷ সেন্ট্রাল ইন্ডিয়া৷ ঐতিহাসিক গোন্ডোওয়ানা ল্যান্ড৷ পরে, বড়ো হয়ে যখন পেশা হিসেবে সাংবাদিকতাকে বেছে নিলাম ওই সব জায়গা তখন সংবাদের শিরোনামে--- মাওবাদী রাজনীতির শক্তিশালী ঘাঁটি বলে৷ আমিও বোঝার চেষ্টা করতাম কেন আদিবাসীরা মাওবাদীদের প্রতি এতটা সহানুভূতি হল৷
আপনি কি নিশ্চিত যে সত্যি সত্যি আদিবাসীরা মাওবাদীদের সমর্থক?
শুভ্রাংশু চৌধুরী: দেখুন, দন্ডকারণ্য বস্তারের অন্তত নব্বই শতাংশ আদিবাসী মাওবাদীদের কোনও না কোনও ভাবে সমর্থন করে তা নিয়ে আমার একটুও সন্দেহ নেই৷ তার বড়ো কারণ আমাদের নীতিনির্ধারণ যাঁরা করেন তাঁরা বুঝতেই পারেন না বা চান না যে আদিবাসীরা কী চায় কী বলতে চায়৷ গোন্ড, ভিল বা আপনাদের সাঁওতাল মুন্ডা তরুণের দাবি কতটুকু তা জানার জন্যে কমিউনিকেট করতে হয়৷ তাদের সঙ্গে মিশতে হয়, ভাষা জানতে হয়৷ এই বিষয়টাই তো এ দেশে নেই৷ এই জায়গা থেকেই তো আমাদের বিকল্প ভাবনার শুরু৷ আমরা সমস্যার সমাধান পাই আলোচনার টেবিলে৷ তার জন্যে কমিউনিকেশনকে ভীষণ ভাবে গণতান্ত্রিক হয়ে উঠতে হবে৷ এমন এক প্লাটফর্ম গড়ে তুলতে হবে যেখানে জনসাধারণ নিজেদের কথা বলতে পারবে৷
আপনি নিজে সাংবাদিক৷ বিবিসি-তে ছিলেন৷ তবু আপনার কথা শুনে মনে হচ্ছে মিডিয়া, মেনস্ট্রিম মিডিয়ার ভূমিকা নিয়ে কিছু দ্বিধা আছে৷ না হলে কমিউনিকেশনের কাজটা তো মিডিয়াই করে৷
মেনস্ট্রিম মিডিয়ার ঠিকঠাক খবর পরিবেশন করার ক্ষমতাই নেই৷ ছোট্টো একটা উদাহরণ দিচ্ছি৷ দু'হাজার এগারো সালের ১১ মার্চ, এখনও মনে আছে , বস্তারের তাদমেটলা গ্রামে টানা পাঁচ দিন যে আদিবাসী মহল্লায় আগুন লাগানো হয়েছিল , দন্তেওয়ারায় অন্তত উনত্রিশ জন সাংবাদিক আছেন, তাদের কেউ হয়তো খবরও পেয়েছিলেন৷ কিন্ত্ত একটা রিপোর্টও কোথাও ছাপা হয়নি৷ তারা ছাপবে না বলে ছাপা হয়নি তা হয়তো নয়, এটা অনেক সময় স্ট্রাকচারের সমস্যা৷ ঘটনার অন্তত দু'সন্তাহ বাদে খবরটি ন্যাশনাল মিডিয়ায় বের হয়, আগুন, লুঠ, ও ধর্ষণের খবর৷ আর স্ট্রাকচারের সমস্যা বলছিলাম এই জন্যে যে, সরকার বা স্টেট নিজেরাই যখন অত্যাচার করে তা কখনও মিডিয়ায় বের হয় না৷ তাদমেটলা গ্রামে যাওয়ার সব রাস্তা বন্ধ করে দেওয়া হয়েছিল৷ কেউ ঢুকতে পারছিল না৷ খবরের সোর্স বলতে সাংবাদিকেরা অতিমাত্রায় সরকারের উপরেই নির্ভর করে৷ ফলে জনগণের সমস্যা সঠিক ভাবে সংবাদমাধ্যমে প্রতিফলিত হয় না৷
এটা তো তা হলে বড়ো সমস্যা, এর বিকল্প পথ তা হলে কী ?
এটাই তো আসল সমস্যা৷ গণতন্ত্রের অন্যতম স্তম্ভ সংবাদমাধ্যম৷ কিন্ত্ত সেখানেই আসল ভারত প্রতিফলিত হয় না৷ কর্পোরেট, পলিটিক্যাল পার্টি মিডিয়া--- এ এক অশুভ আঁতাত৷ এরা দেশে সত্যিকারের গণতন্ত্র চায় না৷ এই যে দেশে নির্বাচন চলছে রোজ আমরা কী দেখছি, শুনছি? শুধু পরস্পরের উপর দোষারোপ, কেচ্ছা ও প্রতিশ্রুতি৷
এখানে ভারতের জনগণের আসল অবস্থা কোথাও নেই৷ মিডিয়া এখন এন্টারটেনমেন্টের কাজ করে৷ ছাপতে তো বিরাট ভর্তুকি লাগে৷ দেয় কে? অবশ্যই কর্পোরেট হাউস৷ আমাদের মিডিয়া ভিখারির মতো হাত পেতে টাকা নিচ্ছে৷ ভিখারির নিজস্ব পছন্দ অপছন্দের মূল্য নেই৷ অথচ এই মিডিয়াই আমাদের ইনটেলেকচুয়াল ভারতকে গ্রহণযোগ্য করে তুলছে৷ আমি বলি, মার্কস যেমন বলতেন, ধর্ম আফিমের নেশার মতো৷ তেমনই মিডিয়াও আজ আফিমের মতো জনগণকে মিথ্যে নেশায় বুঁদ করে রেখেছে৷
তাই কি আপনি বিকল্প পথের কথা বলছেন? হ্যাঁ, 'সিজিনেট স্বর' বলে একটা ছোট্টো সংস্থা করেছি, অনেক দিন ধরে ভাবছিলাম৷ অবশেষে দু হাজার বারো থেকে কাজটা শুরু করতে পারলাম৷
কাজটা কী? চেয়েছিলাম একটা কমিউনিটি রেডিও করব৷ কিন্ত্ত সরকার অনুমতি দিল না৷ ইন্টারনেটের কথা ভাবলাম৷ কিন্ত্ত নেট আর ক'জন ব্যবহার করে? তখন ঠিক করলাম মোবাইল নেটওয়ার্ক গড়ে তুলব৷ কারণ মোবাইল এখন প্রায় সবাই ব্যবহার করে৷
এই মোবাইল নেটওয়ার্ক কী ভাবে কাজ করে? আগেই বলেছি আমরা চেয়েছিলাম প্রথমে একটা রেডিও নেটওয়ার্ক গড়ে তুলতে৷ কারণ গরিব মানুষ এখনও রেডিও কিনতে পারে৷ অথচ, সরকার ব্যক্তিগত বা সমষ্টিকে খবরের জন্যে রেডিও ব্যবহারের অনুমতি দেয় না৷ তখন মোবাইল নিয়ে ভাবনাচিন্তা করতে শুরু করি৷ প্রচুর ভাবনাচিন্তার পরে আমাদের কিছু প্রযুক্তি বিশেষজ্ঞ বন্ধু বলে কাজটা করা সম্ভব৷ তারা একটা সার্কিট তৈরি করে, ভোপালে আমরা একটা সেন্টার করেছি সেখানে সেই সার্কিটে দুটো বোতাম, একটার আলো জ্বললে বোঝা যায় গোন্ডি ভাষায় কেউ কোনও অভিযোগ করছে--- তখন অন্য বোতাম টিপলে কে বলছে সে-ও বুঝতে পারে যা যা বলছে তা আমরা ঠিকঠাক রেকর্ড করছি কি না৷ এ ভাবে অজস্র আদিবাসী সারা দিনে অজস্র অভিযোগ, খবর মোবাইল মারফত্ পাঠিয়ে দেয়৷ কেউ জানিয়ে দেয়, তারা একশো দিনের কাজ পাচ্ছে না, কেউ বলে তাদের গ্রামের অমুককে মাওবাদী বলে পুলিশ তুলে নিয়ে গিয়ে অত্যাচার করছে--- কারও আবার অভিযোগ বহুজাতিক কোম্পানি তাদের জমি থেকে উচ্ছেদ করতে এসেছে৷ আমরা সব খবর গুরুত্ব দিয়ে শুনি৷ একটু প্রায়োরিটি দিয়ে সরাসরি পুলিশ প্রশাসনের কাছে কখনও আবার আইনজীবীদের কাছেও খবরটা পৌঁছে দিই৷ এ ভাবেই তৈরি হয় পিপলস্ ভয়েস বা জনগণের সত্যিকারের আওয়াজ৷
এখন কত দূর বিস্তৃত আপনাদের এই নেটওয়ার্ক? বিরাট এলাকায় নয়৷ এ-ও তো পুরোপুরি এক্সপেরিমেন্ট৷ কিন্ত্ত ইতিমধ্যে এটা পরিষ্কার যে, এই পরীক্ষা সফল হলে সংবাদ মাধ্যমও যথার্থ গণতান্ত্রিক হয়ে উঠবে৷ এখনকার মতো কর্পোরেট চেহারা বদলে যাবে৷ তা না হলে কোনও দিনই দেশে গণতন্ত্র আসবে না৷
আপনাদের কি নিজস্ব সাংবাদিক আছেন? টেকনিক্যাল ম্যান, সাংবাদিক সব মিলিয়ে ১২ জন স্টাফ আছেন৷ এ ছাড়া ওডিশা, ছত্তিশগড়, মধ্যপ্রদেশ অন্ধ্রে আমাদের প্রতিনিধি আছেন৷ পশ্চিমবঙ্গেও জঙ্গলমহলে আদিবাসীদের এই কাজে যুক্ত করতে আমরা সক্রিয় হব৷
আপনারা এই বিকল্প মাধ্যমের জন্যে ট্রেনিং দেন? নিশ্চয়৷ ওয়ার্কশপ করি৷ কখনও তিন বা কখনও পাঁচ সাত দিনের৷ নানা ভাবে ব্যাখ্যা করি মেনস্ট্রিম মিডিয়ার সীমাবদ্ধতা, আমরা কী করতে পারি এমন নানা বিষয়৷ আমাদের একেবারে প্রথম আদিবাসী সাংবাদিক হিসেবে ট্রেনিং নিয়েছিল তার নাম লিঙ্গারাম কোডোপি৷ সে সোনি সোরির ভাইপো৷
আপনি তো এই কাজে কিছু দিন আগে বিখ্যাত সাংবাদিক স্নোডেনকে হারিয়ে এক আন্তর্জাতিক পুরস্কারও জিতলেন? হ্যাঁ, গুগল সার্চ ডিজিটাল অ্যাকটিভিস্ট জার্নালিজম অ্যাওয়ার্ড৷ এটা খুবই গুরুত্বপূর্ণ এ জন্যে যে সারা পৃথিবীর ইন্টারনেট ইউজাররা ভোট দিয়ে সরাসরি অ্যাওয়ার্ডের জন্যে আমাকে মনোনীত করেছেন৷ তবে পুরস্কার তো আর আমি পাইনি, পেয়েছে আমার, আমাদের কাজ৷
নীতিনির্ধারণ যাঁরা করেন তাঁরা বুঝতেই পারেন না বা চান না যে আদিবাসীরা কী বলতে চায়৷ গোন্ড, ভিল বা সাঁওতাল মুন্ডা তরুণের দাবি কতটুকু তা জানার জন্যে তাদের সঙ্গে মিশতে হয়, ভাষা জানতে হয়৷
डिजिटल इंडियंस: जहां अखबार, रेडियो, टीवी नहीं, 'वहां मोबाइल मीडिया'
तुषार बनर्जी
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
बुधवार, 11 सितंबर, 2013 को 06:32 IST तक के समाचार
छत्तीसगढ़ के ज़िले कवर्धा में एक वनरक्षक ने जब कुछ बैगा आदिवासियों से कथित तौर पर 99 हज़ार रुपए रिश्वत ली, तो स्थानीय लोगों ने मोबाइल रेडियो स्टेशन 'सीजीनेट स्वर' पर इसकी शिकायत कर दी. शिकायत का पता चलते ही वन अधिकारी को पैसे लौटाने पड़े और उन्होंने माफ़ी भी मांगी. मामले की अब जांच हो रही है.
ये ताक़त है लोकल कम्यूनिटी नेटवर्क की, जिसने स्थानीय लोगों को अपनी आवाज़ सत्ता-प्रशासन में बैठे लोगों तक पहुँचा पाने का एक विश्वास दिया है.
सीजीनेट स्वर' मध्य भारत के आदीवासी क्षेत्रों पर केंद्रित और मोबाइल पर आधारित एक रेडियो स्टेशन है. लोग अपना संदेश फ़ोन के ज़रिए रिकॉर्ड करते हैं और यह संदेश प्रारंभिक जांच के बाद वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया जाता है साथ ही इन्हें मोबाइल पर भी सुना जा सकता हैं. मोबाइल पर सुनने के लिए श्रोताओं को बस एक नंबर पर कॉल करना होता है.
सीजीनेट पर सामाजिक मुद्दों से लेकर सांस्कृतिक विषयों से जुड़े कार्यक्रम तक प्रसारित किए जाते हैं.
इंटरनेट और मोबाइल ने कम्यूनिटी बिल्डिंग के तरीक़े को बदलकर इसे काफ़ी सहज बनाया है. किसी जगह लोगों की वास्तविक मौजूदगी की ज़रूरत ख़त्म कर इंटरनेट और मोबाइल ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचने का एक रास्ता दिया है.
आम लोगों का 'हथियार'
राजधानी दिल्ली से दूर देश के एक राज्य के अंदरूनी इलाकों में, जहां सरकारी नीतियां और सहूलियतें तक नहीं पहुंच पातीं, वहां 'सीजीनेट स्वर' जैसी पहल को लोग अपना हथियार मान रहे हैं.
सीजीनेट स्वर पर ऑडियो प्रकाशित किए जाने से पहले उसे सुना और संपादित किया जाता है.
इसे शुरू करने वाले शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं, "रेडियो, मोबाइल और इंटरनेट- इन तीनों को जोड़कर क्या एक ऐसा मीडिया प्लेटफ़ॉर्म बनाया जा सकता है जो लोकतांत्रिक हो, जहां हर किसी को पूरी हिस्सेदारी मिले. हम लोग एक ऐसा ही मीडिया बनाने की कोशिश कर रहे हैं."
सिर्फ 'सीजीनेट स्वर' ही नहीं, कुछ और भी संगठन हैं जो लोगों को अपनी बात रखने का मंच दे रहे हैं.
'ग्रामवाणी' ऐसी ही सेवा है, जिसके ज़रिए श्रोता अपने संदेश सामुदायिक रेडियो स्टेशनों तक पहुंचाते हैं.
'मिस कॉल करें और सुनें'
श्रोताओं को दिए गए नंबर पर सिर्फ एक कॉल करना होता है और उनका संदेश स्वचालित तरीके से रिकॉर्ड होना शुरू हो जाता है.
यही रिकॉर्डिंग सामुदायिक रेडियो स्टेशन के संचालक अपने कार्यक्रम में सुना देते हैं.
सरल तकनीक से बने एक आसान सूचना मॉडल के ज़रिए ग्रामवाणी 15 भारतीय राज्यों समेत अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका में क़रीब 20 लाख लोगों तक पहुंचने का दावा करता है.
ग्रामवाणी से संबंधित 30 ग्रामीण रेडियो स्टेशन इंटरनेट और मोबाइल फोन के ज़रिए खबरें और लोगों की शिकायतें जुटाते हैं. साफ-सफाई से जुड़े मुद्दे हों या फिर स्थानीय राशन केंद्रों में भ्रष्टाचार के मामले, ग्रामवाणी इन सभी मुद्दों पर सिटिज़न रिपोर्टर्स के ज़रिए रोशनी डालती है.
लेकिन भारत के उन इलाकों में जहां टेरेस्ट्रियल रेडियो के सिग्नल नहीं पहुंच पाते, वहां ये सेवा नहीं पहुंचती.
इस समस्या को देखते हुए ग्रामवाणी ने मोबाइल फ़ोन पर आधारित तकनीक अपनाई जिसे नाम दिया- मोबाइल वाणी.
मोबाइल वाणी
"मोबाइल वाणी के ज़रिए हम जिन लोगो से जुड़े हैं, वो ऐसे लोग है जो 60-70 साल से एक ही गांव में रह रहे हैं. अब उन्हें ये एहसास हो रहा है कि उनकी कम्युनिटी गांव की सीमा तक सीमित नहीं है. मोबिल वाणी के ज़रिए अब तो एक दूसरे से जुड़ रहे हैं और कम्युनिटी के आकार का विस्तार हो रहा है."
आशीष टंडन, संचालक, मोबाइल वाणी
मोबाइल वाणी एक ऐसी कम्युनिटी नेटवर्किंग सेवा है जिसमें मोबाइल फ़ोन के ज़रिए कार्यक्रम भेजे और प्रसारित किए जाते हैं. लिहाज़ा इसके लिए न तो इंटरनेट और न रेडियो सेट की ज़रूरत पड़ती है.
इसके संचालक आशीष टंडन बताते हैं, "ऐसी कम्युनिटीज़ जो बिल्कुल दूर-दराज़ के इलाकों में रहती हैं, जिनके पास ऐसा कोई ज़रिया नहीं ताकि वो अपने आपको देश से जोड़ पाए. देश में जो हो रहा है उस पर अपनी बात रख पाएँ, उन लोगों को हमने एक ज़रिया दिया है."
झारखंड में धनबाद ज़िले के महुदा बस्ती गाँव में रहने वाले राधू राय इस सेवा का इस्तेमाल करने वालों में से हैं.
उन्होंने हमें बताया, "इस सेवा के ज़रिए हमें एक दूसरे के अनुभवों से भी सीखने का मौक़ा मिला है. इस क्षेत्र में कई तरह की मिट्टी है और उससे जुड़ी अगर कोई परेशानी है या उसका समाधान है तो लोग उसे यहाँ रिकॉर्ड कराते हैं. इससे दूसरे क्षेत्र के अनभिज्ञ लोगों को जानकारी हो जाती है."
राय के मुताबिक़, "झारखंड में धान और मक्का की प्रमुख फ़सल होती है तो उससे जुड़े जो विशेषज्ञ हैं, वे हमें खेती के तरीक़ों के बारे में बताते हैं. बुज़ुर्ग लोग भी अपना अनुभव बाँटते हैं, तो बाक़ी लोग उसे सुनते हैं और फ़ायदा उठा पाते हैं."
इस तरह मोबाइल वाणी उन लोगों को भी जोड़ता है, जिन्होंने अपना दायरा वर्षों से अपने गांवों तक ही सीमित रखा हो.
आशीष टंडन कहते हैं, "मोबाइल वाणी के ज़रिए हम जिन लोगों से जुड़े हैं, वो ऐसे लोग हैं जो 60-70 साल से एक ही गांव में रह रहे हैं. अब उन्हें ये अहसास हो रहा है कि उनकी कम्युनिटी गांव की सीमा तक सीमित नहीं है. मोबाइल वाणी के ज़रिए अब तो एक दूसरे से जुड़ रहे हैं और कम्यूनिटी के आकार का विस्तार हो रहा है."
डिजिटल माध्यम से एक दूसरे से जुड़ने का विचार शायद लोगों को भी पसंद आ रहा है, इसीलिए मोबाइल वाणी और सीजीनेट स्वर के कार्यक्रमों में लोग जमकर हिस्सा भी ले रहे हैं.
तकनीकी विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत में जैसे-जैसे मोबाइल और इंटरनेट का फैलाव बढ़ेगा और तकनीक सुधरेगी, वैसे-वैसे इस तरह के टूल्स का महत्व भी बढ़ेगा.
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http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/09/130910_digital_indians_gramvaani_cgnetswar_tb.shtml
सोमवार, 24 दिसंबर 2012
मीडिया की भूमिका सिर्फ सूचना देना ही नहीं, समाज को नेतृत्व प्रदान करना भी है
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MP POST:-23-12-2012 मीडिया की भूमिका सिर्फ सूचना देना ही नहीं, समाज को नेतृत्व प्रदान करना भी है पत्रकारिता के बदलते परिदृश्य और न्यू मीडिया पर संगोष्ठी में श्री काटजू के विचार मोबाइल मीडिया अच्छा माध्यम, इसकी आचार संहिता बने श्री काटजू द्वारा मोबाइल इंडिया (मोबाइल मीडिया) का शुभारंभ भोपाल। मोबाइल मीडिया नया माध्यम है। बदलती तकनीक के साथ यह समाज के लिए आवश्यक है। यह अच्छा माध्यम है। लेकिन मोबाइल मीडिया के दुष्परिणाम को रोकने के लिए एक आचार संहिता बनना चाहिए। यह बात प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमेन जस्टिस मार्कडेय काटजू ने रविवार 23 दिसम्बर को होटल पलाश रेसीडेंसी भोपाल में न्यू मीडिया के क्षेत्र में एमपीपोस्ट की अनूठी पहल मोबाइल इंडिया (मोबाइल मीडिया) का शुभारंभ करते हुए कही। उन्होंने इस अवसर पर ''मीडिया मंथन'' पत्रकारिता के बदलते परिदृश्य और न्यू मीडिया विषय पर आयोजित संगोष्ठी में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में पत्रकारिता के विभिन्न पहलूओं पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने पत्रकारिता के बदलते परिदृश्य का जिक्र करते हुए कहा कि मीडिया को घटना की तह तक जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज के जो लोग आजकल सड़कों पर आ रहे हैं। उसकी असल वजह मध्यम वर्ग के लोगों को मंहगाई और बेरोजगारी से तंग आना है। इसलिए मीडिया को इन तथ्यों का भी ध्यान रखना चाहिए। जस्टिस काटजू ने प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के विस्तार की चर्चा करते हुए कहा कि हमने इसके दायरे को बढ़ाने के लिए टीवी चैनल यानि इलेक्ट्रानिक मीडिया के बीस ओर सदस्यों को प्रेस काउंसिल आफ इंडिया में शामिल करने की पहल प्रारंभ की है। जो प्रक्रियागत है। वर्तमान में काउंसिल में 28 सदस्य है। उन्होंने कहा कि प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के सदस्य प्रेस के लिए स्वयं आचार संहिता बनाने की पहल करें। श्री काटजू ने राजधानी भोपाल के वरिष्ठ पत्रकारों से विस्तार से चर्चा करते हुए पत्रकारों की जिज्ञासाओं का समाधान किया एवं पत्रकारों के सभी सवालों के उत्तर दिये। उन्होंने पेड न्यूज, इलेक्ट्रानिक चैनल, न्यू मीडिया, पत्रकारों की आचार संहिता सहित अनेक विषयों पर बेवाक विचार रखे। उन्होंने कहा कि अब किसी को गरीब रहने की आवश्यकता नहीं है इतनी वेल्थ जनरेट हो सकती है। मगर हकीकत है कि अभी भी 80 फीसदी दुनिया की जनता गरीब है या 70 फीसदी। उन्होंने कहा कि 21वीं शताब्दी के जो संघर्ष होंगे वो इसलिये होंगे कि जब जनता कह रही है कि जब हमको गरीब रहना जरूरी नहीं है तो हम क्यों गरीब रहें लेकिन 21वीं शताब्दी के संघर्ष इसी वजह से होंगे। उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान में भी 75 से 80 फीसदी जनता अभी भी गरीब है, इसलिये सारा संघर्ष हो रहा है। उन्होंने कहा कि अधिकांश लोग इस देश में कितने पिछड़े है, कितना जातिवाद है। कि लोग जब वोट देने जाते हो तो क्या केंडीडेट का मेरिट देखते हो लोग उसकी जात बिरादरी देखते हैं। आज समाज में कितना पिछड़पन है। 80 प्रतिशत हिन्दु और मुसलमान कम्यूनल हो गया है । यह दुर्भाग्य है लेकिन यह सत्य है। उन्होंने कहा कि जनता समृद्ध हो, खुशहाल हो। इसलिए मोर्डन माइंड डेवलप करना है 120 करोड़ जनता में। और यह बड़ा लंबा सफर है। इसके लिए सब बुद्धजीवी वर्ग को नेतृत्व देना है आमजन में। क्योंकि बुद्धजीवी ही जनता की आंख होता है। बिना बुद्धजीवी के जतना अंधी होती है। और पत्रकार बुद्धजीवी वर्ग के हैं इसलिए पत्रकारों का दायित्व बनता है कि वे जनता को न केवल रास्ता दिखायें बल्कि उनकों विचार भी देना है। उन्होंने दिल्ली गैंग रेप को कंडम करते हुए कहा कि जिन्होनंे यह अपराध किया उन लोगों को सख्त सजा मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक पक्ष यह है कि दिल्ली में ये कांड न हुआ होता मध्यप्रदेश में हुआ होता और खासकर गांव में होता तो क्या इतना हो हल्ला होता। क्या दिल्ली ही पूरा हिन्दुस्तान है। दूसरी बात यह है कि और और कोई समस्या नहीं है क्या रेप के अलावा हिन्दुस्तान में। गरीबी कोई समस्या नहीं है क्या। उस पर तो कोई हो हल्ला होता नहीं है। इतनी भीषण मंहगाई हो गई है उस पर तो इतना हो हल्ला होता नहीं है। बेरोजगारी का क्या आलम है, स्वास्थ्य की कितनी समस्या है। क्या अन्ना हजारे के आंदोलन से शोर मचाने से एक फीसदी भी भ्रष्टाचार कम हुआ है। उन्होंने मीडिया से अपेक्षा की है कि मीडिया का रोल सिर्फ इंफारमेशन देना ही नहीं होता है, समाज को नेतृत्व प्रदान करना तथा जनता में वैज्ञानिक विचार फैलाना भी होता है। उन्होंने कहा कि जो पिछड़े विचार हैं जातिवादी और कम्यूनिलिज्म, सुपरस्टीशन इन पर बड़ा जोरदार प्रहार करना है। एमपीपोस्ट मोबाइल इंडिया (मोबाइल मीडिया) के संपादक सरमन नगेले ने स्वागत भाषण में कहा कि न्यू मीडिया सूचना का ''लोकतंत्रीकरण'' करने में कारगर ढ़ंग से व्यापक पैमाने पर अपनी महती भूमिका निभा रहा है। इसी कड़ी में न्यूज पोर्टल www.mppost.com इंटरनेट आधारित सकारात्मक पत्रकारिता के आठ वर्ष पूर्ण करते हुए न्यू मीडिया के साथ-साथ मोबाईल मीडिया के जरिए आमजन तक उनके मोबाईल फोन पर सीधे सूचना एवं रोजगार के साथ-साथ ताजा खबरें व अन्य जानकारी पहुंचाने तथा सूचना का ''लोकतंत्रीकरण'' करने की दिशा में एक महत्वकांक्षी प्रयास की शुरूआत करने जा रहा है। उन्होंने एमपीपोस्ट के इस विनम्र प्रयास के बारे में बताया कि नागरिक पत्रकारिता बेहतर पत्रकारिता के तहत मोबाइल मीडिया के माध्यम से साढ़े सात करोड़ पत्रकारो का प्रदेश मध्यप्रदेश के तहत प्रदेश के हर नागरिक को अपनी बात रखने का मंच उपलब्ध कराया जाएगा। मोबाईल मीडिया के जरिए शासन-प्रशासन की रोजगार की सूचना निशुल्क उपलब्ध कराएंगे। एमपीपोस्ट की ताजा खबरें मोबाइल पर mppost.mv1.in मोबाइल वेबसाइट के जरिए मिलेंगी। मोबाईल पर समाचार और रोजगार की जानकारी सुनने तथा एसएमएस पर प्राप्त करने के लिए एमपीपोस्ट मोबाईल इंडिया (मोबाईल मीडिया) लिखकर नंबर 53030 पर एसएमएस करें। हिन्दी में एसएमएस, वोट करें के तहत कौन बनेगा मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री वोट करें इसकी अपडेट जानकारी जनमानस के बीच पहुंचाने का प्रयास किया जाएगा। वीडियो न्यूज एसएमएस पर, डिजिटलडिवाइस के माध्यम से सार्वजनिक स्थान पर हर नजर पर खबर के जरिए रोजगार की सूचनाएं और समाचार आमजन को निशुल्क दिखाये जाएगे। श्री नगेले ने बताया कि आम जन के बीच अब एक ऐसा मीडिया घर-घर में पहुंच गया है जिसका नाम मोबाईल मीडिया। इस मीडिया ने जिस रफ्तार से न केवल अपनी पहुंच भारत के लगभग प्रत्येक घर में बनाई है। वरन् दुनिया के अनेक देशों में इस मीडिया ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। मोबाईल मीडिया अब नागरिकों का एक जीवन अंग जैसा बना गया है। एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि मोबाइल फोन सेवा के विस्तार की मौजूदा गति के मुताबिक वर्ष 2014 तक दुनिया की आबादी से अधिक सेल फोन नम्बर हो जाएंगे। यह बात इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस युनियन (आईटीयू) ने एक नई रिपोर्ट में कही। आईटीयू के मेजरिंग द इनफोर्मेशन सोसायटी 2012 के मुताबिक अभी ही 100 से अधिक ऐसे देश हैं, जहां आबादी से अधिक मोबाइल फोन नम्बरों की संख्या हो चुकी है। आईटीयू के मुताबिक मोबाइल फोन नम्बर की मौजूदा संख्या छह अरब 2014 तक बढ़कर 7.3 अरब हो जाएगी, जबकि जनसंख्या सात अरब रहेगी। चीन एक अरब से अधिक मोबाइल फोन नम्बरों वाला पहला देश बन चुका है। जल्द ही भारत भी इस सूची में शामिल हो जाएगा। इस अवसर पर कार्यक्रम में प्रमुख वक्ता के रूप में वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया, श्री शीतला सिंह, सदस्य, प्रेस काउंसिल अॉफ इंडिया, नई दिल्ली श्री अरूण कुमार, सदस्य, प्रेस काउंसिल अॉफ इंडिया, नई दिल्ली, श्री मनीष दीक्षित, राजनीतिक संपादक, दैनिक भास्कर, भोपाल, श्री मृगेन्द्र सिंह, प्रभारी संपादक, दैनिक जागरण, भोपाल, डॉ. श्री राकेश पाठक, संपादक, प्रदेश टुडे, ग्वालियर, श्री दीपक तिवारी, ब्यूरो चीफ, म.प्र., द वीक, श्री मनीष गौतम, समाचार संपादक, दूरदर्शन, भोपाल, श्री अक्षत शर्मा, संपादक, स्वदेश, भोपाल, श्री अमित कुमार, ब्यूरो चीफ, म.प्र., आज तक, श्री बृजेश राजपूत, ब्यूरो चीफ, म.प्र., एबीपी न्यूज (स्टार न्यूज) ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम का संचालन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभागाध्यक्ष पुष्पेन्द्र पाल सिंह ने किया। |
Posted by sarmannagele editor. www.mppost.org,www.mppost.com at 12/24/2012 01:22:00 am
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