क्या अपनी चिता रचने को तैयार हैं हम? जल जंगल जमीन आजीविका के लिए।
इस दुनिया को सँवारना - भवानीप्रसाद मिश्र
इस दुनिया को सँवारना अपनी चिता रचने जैसा है
और बचना इस दुनिया से अपनी चिता से बचने जैसा है
संभव नहीं है बचना चिता से इसलिए इसे रचो
और जब मरो तो इस संतोष से
कि सँवार चुके हैं हम अपनी चिता !
युद्ध घोषणा पहले ही हो चुकी है आम जनता के खिलाफ।जनसंहारी नीतियां आर्थिक सुधारों के मुलम्मे में भारतीय जनगण पर अविराम बमवर्षा कर रही है पिछले तेईस साल से।लेकिन अब तक किसी प्रतिरोध की शुरुआत हुई नहीं है और जनांदोलन सिर से खत्म है।
जल जंगल जमीन बचाने के लिए जनता को खुद सड़क पर उतारना होगा।लेकिन नवउदारवादी जमाने में राजनीति अब धर्मोन्मादी है तो अस्मिताओं में खंड खंड बांट दी गयी है जनता जाति व्यवस्था और नस्ली बिखराव के मध्य। जल, जंगल और ज़मीन ऐसे प्राकृतिक संसाधन हैं, जो इस देश के करोड़ों लोगों के जीवन का मूलभूत आधार हैं। सदियों से नदी के किनारे और जंगल में बसे लोगों का इन संसाधनों पर नैसर्गिक अधिकार रहा है।नवउदारवादी स्थाई बंदोबस्त के तहत बनियातंत्र के कारपोरेट फासीवादी राज ने यह नैसर्गिक अधिकार छीन लिया है।हिंदुत्व की ही भाषा में बात करें तो ईश्वर की सृष्टि के सर्वनाश का चाकचौबंद इतजाम में लगी है शैतानी बाजारु ताकतें।
इसी संदर्भ में भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियां बेहद प्रासंगिक है।सारे लोग मुक्त बाजार में मलाई बटोरने में लगे हैं लेकिन निरंकुश सत्ता ,निरंकुश बनिया तंत्र के खिलाफ फिर स्वतंत्रता संग्राम की अनिवार्यता साज वास्तव है ज्वलंत।
क्या अपनी चिता रचने को तैयार हैं हम? जल जंगल जमीन आजीविका के लिए।
जनसंगठनों ने भूमि अधिग्रहण कानून कारपोरेट हित में बदल दिये जाने के खिलाफ चेतावनी जारी की है। ससदीय समन्वय राजनीति और नीतियों की निरंतरता के पिछले तेईस साल के रिकार्ड से साफ जाहिर है कि ऐसी चेतावनी से कुछ बदलने वाला नहीं है।
नमोसुनामी ने जिस जनादेश की रचना कर दी है,उस पर दांव लगे हैं बाजार के बहुत ज्यादा।निवेशकों की आस्था और अबाध पूंजी प्रवाह,कालाधन के मध्य दिशाएं गायब हैं।
कठिन फैसले खूब हो रहे हैं राष्ट्रहित के नाम।
राष्ट्रहित के नाम जनता के खिलाफ युद्ध जारी है।
आप अपनी चिता सजाने को तैयार हो या नहीं, चिता लेकिन आपकी सज चुकी है।
नया भूमि अधिग्रहण कानून पास होने से पहले पेश विधेयक का कारपोरेट तरफे विरोध इसी दलील पर किया जा रहा था कि निर्माण उद्योग चरमरा जाएगा। परियोजनाएं समय पर शुरू नहीं हो पाएंगी। पीपीपी परियोजनाएं प्रभावित होंगी। खनन उद्योग बाधित होगा। उद्योगों की ढाँचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी। विरोध यह कहकर भी किया जा रहा है कि भूमि अधिग्रहण की सुझाई प्रक्रिया सामाजिक आकलन आदि के लिए गठित की जाने वाली कई समितियों से होकर गुजरेगी। जिनके ज्यादातर सदस्य अधिकारी और सामाजिक-पर्यावरणीय कार्यकर्ता होंगे। अतः पूरी प्रक्रिया ही अधिकारियों और सिविल सोसाइटी की बंधक होकर रह जाएगी।
अब नयी सरकार की प्राथमिकताएं देखें तो कारपोरेट आपत्तियों को खारिज करने के लिए अंधाधुध जमीन अधिग्रहण मार्फत जमीन से बेदखली का सिलसिला जारी रखने के लिए 1984 के कानून को करीब सवा सौ साल तक बहाल रखा गया,लेकिन नया कानून तुरत फुरत बदलने की तैयारी है। नया कानून बनाते समय लोकसभा और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और अरुण जेटली होते थे, उन दोनों की सहमति से बिल पास हुआ था। विपक्ष के साथ सहमति बनाने के लिए सरकार ने कई प्रावधान बदले थे। कांग्रेस का कहना है कि बिल पास हुए छह महीने हुए हैं और इतने में ऐसा क्या हो गया, जिसकी वजह से इसे बदलने की जरूरत आ गई?
केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने राज्यों के साथ विचार विमर्श के बाद भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का संकेत दिया है। इससे 60,000 करोड़ रुपये की अटकी राजमार्ग परियोजनाओं को नया जीवन मिल सकेगा।जाहिर है कि अब खुल्लमखुल्ला जमीन अधिग्रहण कानून में बड़ा बदलाव करने की तैयारी शुरू हो गई है। राज्य सरकारों ने भी कानून में बदलाव की मांग की है।सरकार नए जमीन अधिग्रहण कानून के जरिए इंडस्ट्री और इंवेस्टर्स को सस्ती मुहैया करा सकती है। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नीतिन गडकरी ने कहा है कि सरकार के पास जमीन मालिकों को सहूलियतें देने के लिए कई विकल्प मौजूद हैं। यह बात इशारा करती है कि नए कानून में इंडस्ट्रीज को जमीन खरीदने से जुड़े नियमों में बदलाव आ सकते हैं, ताकि रूके प्रोजेक्ट्स को शुरू किया जा सके। इसके अलावा, प्रोजेक्ट्स की लागत को भी कम किया जा सके। सरकार भूमि अधिग्रहण कानून को संसद में भी पेश किया जा सकता है।
सरकारी दावा है कि किसानों के हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी और सरकार पुनर्वास और मुआवजे के प्रावधानों में कोई समझौता नहीं करेगी।
सरकार का इरादा जमीन अधिग्रहण कानून को आसान बनाने का है ताकि अफोर्डेबल हाउसिंग और लटके पड़े इन्फ्रा और हाइवे प्रोजेक्ट में तेजी लाई जा सके। मौजूदा कानून के मुताबिक, केंद्र और राज्यों के बीच करीब आधा दर्जन कमेटियों से जमीन अधिग्रहण की मंजूरी लेनी होती है।
सरकार मंजूरी की समय सीमा और कमेटियों में बदलाव कर सकती है। इसके अलावा राज्यों के काम की मॉनिटरिंग के लिए सरकार बदलाव के जरिए कानून में नए इंतजाम कर सकती है। मौजूदा कानून में प्राइवेट प्रोजेक्ट और पीपीपी प्रोजेक्ट के लिए सत्तर और अस्सी परसेंट जमीन मालिकों की सहमति जरूरी है। सरकार समय पर प्रोजेक्ट पूरे करने के लिए कंसेंट क्लॉज में कुछ बदलाव ला सकती है।
फिलहाल दस दिन के अंदर ग्रामीण विकास मंत्रालय राज्यों के सुझाव के आधार पर प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा। और प्रधानमंत्री के निर्देश के मुताबिक मंत्रालय कैबिनेट या संसद से कानून में बदलाव की सिफारिश करेगा।
इंडस्ट्री हो या सरकार दोनों की चिंता प्रोजेक्ट की बढ़ती लागत को लेकर है। लेकिन अब जब सरकार ने साफ कर दिया है कि मुआवजे को लेकर कोई समझौता नहीं होगा तो हाउसिंग हो या फिर हाइवे प्रोजेक्ट सभी के लिए जमीन की कीमत दो से चार गुना तक बढ़ना अब तय है।
भाजपा शासित कई राज्यों ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम की आज आलोचना करते हुए कहा कि लोकसभा चुनावों के चलते इसे जल्दबाजी मेें बनाया गया था और इसके कई प्रावधान छोटी परियोजनाओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। केन्द्र द्वारा बुलाई गई राज्यों के राजस्व मंत्रियों की बैठक में भाजपा सरकारों की ओर से इस कानून के बारे में कड़े विचार रखे गए।
संप्रग सरकार द्वारा बनाए गए इस कानून के कुछ प्रावधानों को नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा हल्का किए जाने की खबरें हैं। ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि राजग सरकार किसानों के हितों का ध्यान रखेगी। गडकरी ने कहा, 'जहां तक किसानों के हितों के सवाल है, खासकर मुआवज़े, पुनर्वास और पुनस्र्थापना का, हमारी पार्टी और सरकार ने पहले ही निर्णय किया है कि हम लाभार्थियों, खासकर किसानों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं।'
सूत्रों ने बताया कि भाजपा शासित गोवा, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश ने इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों की तीखी आलोचना करते हुए उनमें 'कुछ छूट' की मांग की है। गडकरी ने कहा, हमने कुछ राज्यों की आपत्तियों पर गौर किया है और हम 10 दिन के भीतर एक रिपोर्ट तैयार करके उसे प्रधानमंत्री को सौंपेगे।
निर्माण उद्योग पूरी तरह रियल्टी कारोबार में तब्दील है और इन्फास्ट्रक्चर भी कहा जाने लगा है प्रमोटर बिल्डर राज को।तो दूसरी ओर,लंबित परियोजनाओं को तो नई सरकार ने पर्यावरण की अनदेखी करके हरीझंडी दे ही है।सामाजिक योजना मनरेगा को भी इंफ्रास्ट्रक्चर से जोड़कर प्रोमोटर बिल्डर हित को बाकायदा राष्ट्रहित में तब्दील कर दिया गया है।रियल्टी अब सरकारी तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर है।
कें द्र सरकार ने अभी सिर्फ संकेत दिया है कि वह भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव पर विचार कर रही है और उसी पर विपक्ष की ओर से विरोध शुरू हो गया है। गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय संभाल रहे नितिन गडकरी ने कहा है कि सरकार इसमें बदलाव कर सकती है। इस पर कांग्रेस, लेफ्ट और कई क्षेत्रीय पार्टियों ने विरोध शुरू कर दिया ।अब गडकरी खुलकर इस कानून को बदल देने की पैरवी कर रहे हैं और मिलीभगत की राजनीति तमाशा देख रही है।
देश में नया भूमि अधिग्रहण कानून पहली जनवरी से लागू हो गया।और नई सरकार के आते न आते उसमें संशोधन।पूरी एक सदी और दो दशक लग गए देश के सबसे महत्त्वपूर्ण और जनाधिकार से जुड़े कानून को बदलने में।हालांकि इस कानून में भी खामिया हैं।
मसलन इस कानून में एक बड़ी खामी आदिवासियों के उचित चिह्नीकरण की है। पांचवें शेड्यूल से बाहर भी देश में आदिवासी समुदाय हैं, जिनकी संख्या जानकारों के मुताबिक कुल आदिवासी आबादी की कोई 50 फीसदी से ज्यादा बैठती है, उनकी जमीनों का क्या होगा,इसका कोई जवाब इस कानून से नहीं मिलता।
फिर पांचवी और छठी अनुसूचियों को जहां लागू ही नहीं किया गया,वहां इस कानून का मतलब क्या है,इसका जवाब भी नहीं है।
फिर आधे से ज्यादा आदिवासी गांव पंजीकृत गांव भी नहीं है,सलवा जुड़ुम जैसे अभियानं से जिन्हें जड़ों से मिटाने का अलग तंत्र है।इस तंत्र के खिलाफ भी नये कानून में प्रावधान नहीं हैं।
इस शंका का भी निराकरण अभी हुआ नहीं है कि देश का 90 फीसदी कोयला आदिवासी इलाकों में हैं. 50 प्रतिशत के करीब प्रमुख खनिजों के स्रोत वहीं हैं और ऊर्जा संभावनाएं भी वहीं बिखरी हुई हैं, तो निशाने पर सबसे ज्यादा यही समुदाय है जो पूरे देश में बिखरा हुआ है। तो क्या यह कानून आर्थिक उदारवाद के अगले चरण की आंधी में इन इलाकों को बचाएगा या उन्हें खोदने के लिए इस कानून की ढाल लेकर जाएगा।मुआवजे और भागीदारी का लालीपाप बांटकर,जो उन तक कभी पहुंचता ही नहीं है।पुरानी तमाम विकास परियोजनाओं में जिन लोगों को जल जमीन जंगल और आजीविका से विस्थापित किया गया है,उन्हें अभी तक न मुआवजा मिला है और न पुनर्वास।
ये सवाल भी अनुत्तरित है कि नये कानून के तहत पांच साल पुराने अधिग्रहण इसके दायरे में होंगे और मुआवजा भारी भरकम होगा और पुनर्वास के नियम नए सिरे से ही तय होंगे। लेकिन वे मामले जो और पहले के हैं, वे लोग जो अपनी अपनी जमीनों से विस्थापित होकर अन्य असहाय ठिकानों को कूच कर गए हैं. उनका क्या होगा। मिसाल के लिए टिहरी बांध या नर्मदा के बांधों के विस्थापितों को देखिए।सिंगुर, जैतापुर और कुडनाकुलम तो हाल के ही अधिग्रहण हैं, और यूपी के एक्सप्रेस हाइवे और फॉर्मूला वन रेस सर्किट के विस्थापित भी नये हैं।
भूमि अधिग्रहण विधेयक में यह प्रावधान भी होना चाहिए कि पिछले सौ वर्षों में जिन्हें अपनी मूल भूमि से विस्थापित कर दिया गया है, उनके वर्तमान पीढ़ी को पुनर्वास एवं पुन:स्थापन किया जाए।लेकिन ऐसा है नहीं। पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों में जिस बड़े पैमाने पर लगातार वंचितों को जमीन से बेदखल किया जाता रहा है,उसके लिए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने के साथ ही भूमि सुधार लागू करने की अनिवार्यता है और जाहिर है कि समूचा सत्ता वर्ग इसके खिलाफ है।
लेकिन इससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि नया कानून हक के रास्ते पर एक बड़ी राहत की तरह आया है। इसमें विकास के उपनिवेशी मॉडल का मुखरता से विरोध करते आ रहे जनसंघर्षों और उनके पक्ष में खड़ी आवाजों का भी योगदान है।तत्कलीन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के उस बयान को ही ले लीजिए जिसमें उन्होंने कहा है कि यदि भूमि अधिग्रहण कानून सही ढंग से लागू हो जाए, तो आदिवासी इलाक़ों में माओवाद का ख़ात्मा हो जाएगा।जयराम रमेश ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण कानून के पीछे पश्चिम बंगाल का सिंगूर जैसे आंदोलन है। इस कानून के बन जाने से किसानों गरीब, दलित और जनजातीय वर्ग को अपना हक मिलेगा।
गौरतलब है कि बिल में 26 सब्स्टैन्शल यानी पक्के संशोधन किए गए हैं. नये कानून के लागू होने के बाद लाजिमी हो गया है कि 13 और कानूनों में भी संशोधन किए जाएं जिनका संबंध किसी न किसी रूप में भूमि अधिग्रहण और विकास परियोजनाओं से है। इनमें सबसे प्रमुख तो कोयला क्षेत्र अधिग्रहण और विकास कानून 1957, भूमि अधिग्रहण (खदान) कानून 1885, और राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 हैं.
यह सारी उपलब्धि अब ठंडे बस्ते में है।
बहरहाल आधे अधूरे इस जनाधिकार कानून को बदलने में सत्ता वर्ग की नई सरकार साल भर भी नहीं लगाने वाली है।इसके तहत जो भी हक हकूक मिलने के आसार थे,उनके दरनाजे और खिड़कियां अब बंद हैं।आजाद भारत में 66 साल से अंग्रेजों का बनाया 1894 का भूमि अधिग्रहण कानून चला आ रहा था तो नये कानून को अभीतक उन तमाम नाइंसाफियों का जवाब बताया जा रहा है जो ब्रिटिश हुकूमत से अब तक तक चली आ रही थी।2वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक आजादी के बाद से देश के करीब छह करोड़ लोग विकास प्रोजेक्टों के नाम पर बेदखल किए गए हैं. इनमें से 40 फीसदी आदिवासी है।
गौरतलब है कि भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और दोबारा स्थापन अधिनियम, 2013 का मूल स्वर टिका है मुआवजे के अधिकार और पारदर्शिता पर। इसी स्वर के आसपास भूमिधरी समुदाय के हक हकूक के मसलों को कानून में तब्दील किया गया है। न्यायसंगत, दीर्घकालीन और मुकम्मल पुनर्वास इस कानून का मूल आधार है।प्रावधान है कि बिना उसके कोई भी जमीन किसी भी किसान से देश के किसी भी हिस्से में किसी भी कीमत पर नहीं ली जा सकेगी। सरकारी और पब्लिक प्राइवेट भागीदारी के जिन भी उपक्रमों के लिए जमीन चाहिए होगी उसका अधिग्रहण वहां के 70 फीसदी लोगों की रजामंदी के बाद हो जाएगा और विशुद्ध निजी उपक्रमों के लिए जन सहमति का ये प्रतिशत 80 होगा।आदिवासी और अनुसूचित इलाकों में जमीन अधिग्रहण अव्वल तो किया ही नहीं जा सकेगा और अगर होगा भी तो इसके लिए वहां जो भी स्थानीय जन प्रतिनिधित्व ढांचा सक्रिय होगा, मिसाल के लिए ग्राम सभा, तो उसके अनुमोदन के बाद ही जमीन ली जा सकेगी अन्यथा नहीं। ओडीशा नियमागिरी में वेदांता के खनन प्रोजेक्ट को वहां के आदिवासियों ने अपनी ग्राम सभाओं के जरिए ही पीछे धकेला था।
अब हिंदुत्व की सरकार का फरमान है कि यह देश में विकास दर को बाधित करने वाला कानून है इसलिए इसका बदला जाना जरुरी है।इसके लिए गारंटी दी जा रही है कि मुआवजे की रकम बदली नहीं जायेगी।लेकिन मौजूदा कानून के मुआवजे की रकम को छोड़कर सारे सरक्षक प्रावधान बदल दिये जायें तो वह मुआवजा किस कीमत पर मिलेगा समझने वाली बात है।
जाहिर है कि बनियातंत्र को अबाध मुनाफे में अड़चनें जिस भी कानून से आ रही हैं,उन सबको उलट पलट दिया जाना है।भूमि अधिग्रहण कानून के साथ ही खाद्य सुरक्षा कानून,खनन अधिनियम,पर्यावरण कानून,आदि भी निशाने पर हैं।श्रम कानून भी बदल दिये जाने हैं।
जाहिर है टुकड़ा टुकड़ा टल्लीदार विरोध से बात बनने वाली नहीं है।बनियातंत्र से आजादी की एक मुकम्मल लड़ाई की तैयारी इस थोक जनसंहार के विरुद्ध सबसे जरुरी है।धर्मोन्मादी तिलिस्म,जाति और नस्ल की तमाम दीवारे ढहाये बिना जो सिरे से असंभव है। अब खास बात तो यह है कि आजादी की इस लड़ाई में आपको जितना त्याग करना है,उससे कहीं ज्यादा बलिदान तो तिलिस्म और दीवारों को ढहाने के लिए करना होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार यूपीए सरकार की ओर लाए गए भूमि अधिग्रहणअधिनियम में पुन: संशोधन करने की तैयारी कर रही है। सरकार को मकसद किसानों को मुआवजा और समयबद्ध पुनर्वास को सुनिश्चित करना है। भूमि अधिग्रहण कानून के लागू होने से नक्सली समस्या में कमी आएगी. झारखंड, ओडि़शा, छत्तीसगढ़ जैसे नक्सल प्रभावित राज्यों में एक साल में नतीजा दिखने लगेगा. नये कानून के तहत आदिवासी इलाकों में ग्रामसभा की अनुमति जरूरी ...
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के कड़े फैसलों में भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव भी शामिल हो सकता है। राज्यों के राजस्व मंत्रियों के साथ बैठक के बाद ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने इस मुद्दे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने रखने का भरोसा दिया है।सरकार ने जमीन अधिग्रहण कानून में बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर दी है। बजट सत्र से पहले इस बदलाव को हरी झंडी मिल जाएगी। हालांकि सरकार ने साफ किया है कि किसानों के पुनर्वास और मुआवजे में किसी तरह का बदलाव नहीं किया जाएगा।
जिस जमीन अधिग्रहण कानून को यूपीए सरकार अपनी एक बड़ी उपलब्धि बता रही थी, मोदी सरकार उसे बदलने जा रही है। राज्यों के साथ बैठक से इसकी शुरूआत हो गई है।
मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में सुधार को लेकर मंथन में जुटी है। इस सिलसिले में केंद्रीय ग्रामीण विकास और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने राज्यों के राजस्व मंत्रियों के साथ दिल्ली में बैठक की। इस बैठक में गडकरी के सामने भूमि अधिग्रहण कानून की खामियां गिनाने के साथ ही राज्य के राजस्व मंत्रियों ने उसमें सुधार की सख्त जरूरत पर जोर दिया, जिस पर केंद्र की तरफ से गौर करने का भरोसा दिलाया गया है।
दरअसल, मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून में 70 फीसदी जमीन मालिकों से उनकी जमीन खरीदने की इजाजत का प्रावधान निजी क्षेत्र के प्रोजेक्ट में सबसे बड़ी बाधा है। ये सरकार के पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानि पीपीपी कॉन्सेप्ट के लिए सबसे बड़ी रुकावट है। सड़क, खनिज, कोयला खदान जैसे क्षेत्रों के लिए इस कानून के तहत जमीन लेना बेहद मुश्किल है। लिहाजा 10 दिनों में इससे जुड़े प्रस्ताव को प्रधानमंत्री के सामने रखा जाएगा और फिर आगे कदम बढ़ाया जाएगा।
मोदी सरकार के कड़े फैसलों की कड़ी में ये अगला कदम होगा। जाहिर है इसके चलते सरकार को विपक्ष के हमले तो झेलने ही होंगे। साथ ही उस पर किसान विरोधी होने के साथ ही उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने का आरोप भी लगेगा। इससे निपटना भी उसके लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
गौरतलब है कि भाजपा शासित कई राज्यों ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम की आज आलोचना करते हुए कहा कि लोकसभा चुनावों के चलते इसे जल्दबाजी मेें बनाया गया था और इसके कई प्रावधान छोटी परियोजनाओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। केन्द्र द्वारा बुलाई गई राज्यों के राजस्व मंत्रियों की बैठक में भाजपा सरकारों की ओर से इस कानून के बारे में कड़े विचार रखे गए।
संप्रग सरकार द्वारा बनाए गए इस कानून के कुछ प्रावधानों को नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा हल्का किए जाने की खबरें हैं। ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि राजग सरकार किसानों के हितों का ध्यान रखेगी। गडकरी ने कहा, 'जहां तक किसानों के हितों के सवाल है, खासकर मुआवज़े, पुनर्वास और पुनस्र्थापना का, हमारी पार्टी और सरकार ने पहले ही निर्णय किया है कि हम लाभार्थियों, खासकर किसानों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं।'
सूत्रों ने बताया कि भाजपा शासित गोवा, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश ने इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों की तीखी आलोचना करते हुए उनमें 'कुछ छूट' की मांग की है। गडकरी ने कहा, हमने कुछ राज्यों की आपत्तियों पर गौर किया है और हम 10 दिन के भीतर एक रिपोर्ट तैयार करके उसे प्रधानमंत्री को सौंपेगे।
प्रोजेक्ट्स की लागत बढ़ेगी
हाइवे मंत्रालय ने कहा है कि कानून की वजह से परियोजनाओं की लागत में बेतहाशा इजाफा हुआ है। एनएचएआई ने कहा है कि दिल्ली जयपुर एक्सप्रेसवे की जमीन लागत तीन गुना बढ़कर 18,000 करोड़ रुपए पहुंच गई है। वहीं रियल एस्टेट डेवलपर्स ने कहा है कि नए भूमि अधिग्रहण कानून की वजह से प्रॉपर्टी की कीमतों में इजाफा होगा क्योंकि प्रोजेक्ट्स की लागत 30 फीसदी तक बढ़ जाएगी।
अलटे हुए प्रोजेक्ट्स
सड़क नेटवर्क के साथ समस्या यह है कि 60,000 करोड़ रुपये की परियोजनाएं अटकी हुई हैं। उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय सभी जगह मामले हैं। इसके अलावा कई अन्य समस्याएं भी हैं। वहीं, इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी 7 लाख करोड़ रुपए के प्रोजेक्ट्स पूरे नहीं हो पा रहे हैं। गडकरी ने कहा है कि कई राजमार्ग परियोजनाओं के पीछे रहने की वजह भूमि अधिग्रहण में विलंब है।
सरकार का रुख
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राज्यों ने जमीन अधिग्रहण अधिनियम में बदलाव की मांग की।
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अगर जरूरत पड़ी तो जमीन अधिग्रहण अधिनियम को संसद में पेश किया जाएगा।
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10 दिनों में प्रधानमंत्री को रिपोर्ट भेजी जाएगी।
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सरकार के पास भुगतान के कई विकल्प।
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जमीन रिकॉर्ड सिस्टम को अपग्रेड किया जाएगा।
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किसानों के हितों का ध्यान रखा जाएगा।
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सभी राज्यों के राजस्व मंत्रियों से बैठक हुई।
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भूमि अधिग्रहण कानूनू में उचित मुआवजा, जमीन अधिग्रहण में पारदर्शिता, विस्थापन और पुनर्वास जैसे बिन्दुओं को शामिल किया गया है।
गडकरी ने कहा कि एक महीने में मेरा लक्ष्य संतुलन पाने का है। हम ठेकेदारों को खत्म नहीं करना चाहते। सड़कों का निर्माण जल्द से जल्द होना चाहिए। उन्होंने कहा कि उनके मंत्रालय ने पहले ही 20,000 करोड़ रुपये की परियोजनाओं की समस्याओं को हल कर लिया है।
हाइवे प्रोजेक्ट को मंजूरी मिलनी शुरू
इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने 40,000 करोड़ रुपये के हाइवे प्रोजेक्टों को मंजूरी दी है। ये प्रोजेक्ट अगले 2 से 3 सालों में तैयार होंगे। ये प्रोजेक्ट जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में प्रस्तावित हैं।
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Any Changes in the new Land Acquisition Act is UNACCEPTABLE to People's Movements and will Face Stiff RESISTANCE
Consent and SIA Provisions are the Most Important Features of the Act
NDA Government Should Ensure Strict Implementation of the New Act
Ministry of Environment must Back Off from making amendments to the FC and EC Processes
Environment and Development are Matters of Livelihood and Basic Survival
New Delhi, June 28, 2014 : The news that two of the key provisions, 'consent' and 'Social Impact Assessment' of the Right to Fair Compensation, Transparency in Land Acquisition, resettlement and Rehabilitation Act, 2013 is to be amended by the NDA government is completely unacceptable to the people's movements and will face tough opposition across the country. It may well be reminded that the new Act was framed in the wake of protests across the nation at places like Nandigram, Singur, Kalinganagar, Kakrapalli, Bhatta Parsaul, where many people died and years of struggle by Narmada Bachao Andolan, Niyamgiri Suraksha Parishad and Anti SEZ protests in Raigarh, Jhajhar for repeal of the colonial act and enactment of a new development planning act marking people's participation and provisions for livelihood based R&R.
The consent and SIA provision was introduced to do away with the anomalies in the colonial act, since farmers and those dependent on the land were never consulted or made a participant in the process of development planning. Huge tracts of fertile land were acquired at throw away prices and given to private and public corporations in the name of public purpose and industrialization. The stiff opposition to the land grab has led in past to cancellation of numerous SEZs and other projects and any discussion on the question of land for industrialization has to take in account.
Ministry of Rural Development should work on implementing the Act by drafting the rules for its implementation and get States to do the same. It is shocking that most of these states demanding an amendment have not even bothered to frame the rules for the new Act. As of now, Karnataka and Maharashtra are the only two states who have framed draft rules for the same, how can they demand an amendment?
It will be a retrograde step if we were to go to back to the colonial process of forced land acquisition and no regard for impact of land acquisition on the people, environment and democratic institutions which need to be consulted and their consent taken in the process of SIA. If any amendment has to be made to the act then it needs to be made more stringent in following terms :
1. Consent for the public purpose projects to be mandatory for the government projects too.
2. Limited definition of the 'Public Purpose'. Infrastructure doesn't equal development. We have seen how Reliance has been creating infrastructure for nation, they work for profit alone and in the process loot the citizens and arm-twist the government, prime example being Delhi and Mumbai Metro and KG Basin Gas projects ?
3. Mandatory SIA provisions for the irrigation projects as well, given the huge displacement, in case of Sardar Sarovar dam the sword of displacement is hanging on 2.5 lakh people even after three decades.
4. Urgently establish a National resettlement and Rehabilitation Commission to deal with the grievances of 10 crores of people who have sacrificed their land and livelihood in the process of development.
Since, the time NDA government has come to power a slew of changes have been proposed to the existing provisions of environment and forest clearances, as if Ministry of Environment and Forests sole job was to clear projects and allow destruction of forests, wildlife, rivers and so on in the name of development. The government seems to be in a hurry but this mandate from people need not be confused as a license to trample upon the rights of the people and tinker with the existing laws which are to protect life, livelihood and environment.
NAPM calls upon progressive forces, people's movements and political parties to join this fight against corporate loot of the natural resources at the cost of livelihood of the millions. The corporate designs of loot of the natural resources will not be allowed to succeed by the people's movements and every move will be resisted by the farmers, workers, fisherfolks, forest dwellers, adivasis, urban poor of this country. The NDA government will do itself good to remember that the power of people have forced radical changes and overthrown parties from power in past, the good days will not last forever!
Medha Patkar - Narmada Bachao Andolan - National Alliance of People's Movements (NAPM); Prafulla Samantara - Lok Shakti Abhiyan, Lingraj Azad – Niyamgiri Suraksha Parishad, NAPM, Odisha; Dr. Sunilam, Aradhna Bhargava - Kisan Sangharsh Samiti, NAPM, MP; Gautam Bandopadhyay – Nadi Ghati Morcha, NAPM, Chhattisgarh; Suniti SR, Suhas Kolhekar, Prasad Bagwe - NAPM, Maharashtra; Gabriel Dietrich, Geetha Ramakrishnan – Unorganised Sector Workers Federation, NAPM, TN; C R Neelakandan – NAPM Kerala; Saraswati Kavula, P Chennaiah – NAPM Andhra Pradesh, B S Rawat– Jan Sangharsh Vahini, Rajendra Ravi, Sunita Rani, Madhuresh Kumar, Seela M – NAPM, Delhi; Arundhati Dhuru, Richa Singh, Nandlal Master - NAPM, UP; Sister Celia - Domestic Workers Union, Maj. Gen (Retd) Sudhir Vombatkere - NAPM, Karnataka; Sumit Wanjale – Ghar Bachao, Ghar Banao Andolan, NAPM, Mumbai; Manish Gupta - Jan Kalyan Upbhokta Samiti, NAPM, UP; Vimal Bhai - Matu Jan sangathan, NAPM, Uttarakhand; Vilas Bhongade - Gosikhurd Prakalpgrast Sangharsh Samiti, NAPM, Maharashtra; Ramashray Singh - Ghatwar Adivasi Mahasabha, Jharkhand; Anand Mazhgaonkar, Krishnakant - Paryavaran Suraksh Samiti, NAPM Gujarat; Kamayani Swami, Ashish Ranjan – Jan Jagran Shakti Sangathan, NAPM Bihar; Mahendra Yadav – Kosi Navnirman Manch, NAPM Bihar
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भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
भूमि अधिग्रहण को सरकार की एक ऐसी गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा यह भूमि के स्वामियों से भूमि का अधिग्रहण करती है, ताकि किसी सार्वजनिक प्रयोजन या किसी कंपनी के लिए इसका उपयोग किया जा सके। यह अधिग्रहण स्वामियों को मुआवज़े के भुगतान या भूमि में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के भुगतान के अधीन होता है। आम तौर पर सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण अनिवार्य प्रकार का नहीं होता है, ना ही भूमि के बंटवारे के अनिच्छुक स्वामी पर ध्यान दिए बिना ऐसा किया जाता है।
संपत्ति की मांग और अधिग्रहण समवर्ती सूची में आता है, जिसका अर्थ है केन्द्र और राज्य सरकारें इस मामले में कानून बना सकती हैं। ऐसे अनेक स्थानीय और विशिष्ट कानून है जो अपने अधीन भूमि के अधिग्रहण प्रदान करते हैं किन्तु भूमि के अधिग्रहण से संबंधित मुख्य कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 है।
यह अधिनियम सरकार को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए भूमि के अधिग्रहण का प्राधिकरण प्रदान करता है जैसे कि योजनाबद्ध विकास, शहर या ग्रामीण योजना के लिए प्रावधान, गरीबों या भूमि हीनों के लिए आवासीय प्रयोजन हेतु प्रावधान या किसी शिक्षा, आवास या स्वास्थ्य योजना के लिए सरकार को भूमि की आवश्यकता। इससे उपयुक्त मूल्य पर भूमि के अधिग्रहण में रूकावट आती है, जिससे लागत में विपरीत प्रभाव पड़ता है।
इसे सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए शहरी भूमि के पर्याप्त भण्डार के निर्माण हेतु लागू किया गया था, जैसे कि कम आय वाले आवास, सड़कों को चौड़ा बनाना, उद्यानों तथा अन्य सुविधाओं का विकास। इस भूमि को प्रारूपिक तौर पर सरकार द्वारा बाजार मूल्य के अनुसार भूमि के स्वामियों को मुआवज़े के भुगतान के माध्यम से अधिग्रहण किया जाता है।
इस अधिनियम का उद्देश्य सार्वजनिक प्रयोजनों तथा उन कंपनियों के लिए भूमि के अधिग्रहण से संबंधित कानूनों को संशोधित करना है साथ ही उस मुआवज़े का निर्धारण करना भी है, जो भूमि अधिग्रहण के मामलों में करने की आवश्यकता होती है। इसे लागू करने से बताया जाता है कि अभिव्यक्त भूमि में वे लाभ शामिल हैं जो भूमि से उत्पन्न होते हैं और वे वस्तुएं जो मिट्टी के साथ जुड़ी हुई हैं या भूमि पर मजबूती से स्थायी रूप से जुड़ी हुई हैं।
इसके अलावा यदि लिए गए मुआवज़े को किसी विरोध के तहत दिया गया है, बजाए इसके कि इसे प्राप्त करने वाले को इसके प्रभावी होने के अनुसार पाने की पात्रता है, तो मामले को मुआवज़े की अपेक्षित राशि के निर्धारण हेतु न्यायालय में भेजा जाता है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 को प्रशासित करने वाली नोडल संघ सरकार होने के नाते समय समय पर कथित अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के संशोधन हेतु प्रस्तावों का प्रसंसाधन करता है।
पुन: इस अधिनियम में सार्वजनिक प्रस्तावों को भी विनिर्दिष्ट किया जाता है जो राज्य की ओर से भूमि के इस अधिग्रहण के लिए प्राधिकृत हैं। इसमेंकलेक्टर, उपायुक्त तथा अन्य कोई अधिकारी शामिल हैं, जिन्हें कानून के प्राधिकार के तहत उपयुक्त सरकार द्वारा विशेष रूप से नियुक्त किया जाता है। कलेक्टर द्वारा घोषणा तैयार की जाती है और इसकी प्रतियां प्रशासनिक विभागों तथा अन्य सभी संबंधित पक्षकारों को भेजी जाती है। तब इस घोषणा की आवश्यकता इसी रूप में जारी अधिसूचना के मामले में प्रकाशित की जाती है। कलेक्टर द्वारा अधिनिर्णय जारी किए जाते हैं, जिसमें कोई आपत्ति दर्ज कराने के लिए कम से कम 15 दिन का समय दिया जाता है।
सभी राज्य विधायी प्रस्तावों में संपत्ति के अधिग्रहण या मांग के विषय पर कोई अधिनियम या अन्य कोई राज्य विधान, जिसका प्रभाव भूमि के अधिग्रहण और मांग पर है, में शामिल हैं, इनकी जांच राष्ट्रपति की स्वीकृति पाने के प्रयोजन हेतु धारा 200 (विधयेक के मामले में) या संविधान की धारा 213 (1) के प्रावधान के तहत भूमि संसाधन विभाग द्वारा की जाती है। इस प्रभाग द्वारा समवर्ती होने के प्रयोजन हेतु भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में संशोधन के लिए राज्य सरकारों के सभी प्रस्तावों की जांच भी की जाती है, जैसा कि संविधान की धारा 254 की उपधारा (2) के अधीन आवश्यक है।
কমানো হবে না ক্ষতিপূরণ
শিল্পের স্বার্থে জমি আইন বদলের চিন্তা
নিজস্ব সংবাদদাতা
নয়াদিল্লি, ২৮ জুন, ২০১৪, ০৩:২১:৩১
যেমন কথা তেমন কাজ!
কেন্দ্রে সরকার গড়েছেন সবে এক মাস হয়েছে। এর মধ্যেই শিল্পের জন্য জমি অধিগ্রহণ প্রক্রিয়া সহজ করতে ইউপিএ জমানায় তৈরি জমি আইন বদলে দিতে সক্রিয় হলেন প্রধানমন্ত্রী নরেন্দ্র মোদী। শিল্পমহলের দাবি মেনে বেসরকারি শিল্পের জন্য জমি অধিগ্রহণে সরকারের এক্তিয়ার আরও বাড়াতে চাইছে কেন্দ্র। সেই সঙ্গে জমি আইন থেকে সামাজিক সুরক্ষার নামে জনমোহিনী মেদও ছেঁটে ফেলার কথা ভাবা হচ্ছে।
আজ কেন্দ্রীয় গ্রামোন্নয়ন মন্ত্রী নিতিন গডকড়ীর সঙ্গে বিভিন্ন রাজ্যের রাজস্বমন্ত্রীদের বৈঠক হয়। সেখানেই সুনির্দিষ্ট ভাবে প্রস্তাবগুলি উঠে আসে। তবে পশ্চিমবঙ্গের কোনও মন্ত্রী এই বৈঠকে ছিলেন না। ছিলেন রাজস্ব দফতরের কমিশনার অমরেন্দ্রকুমার সিংহ। তিনি জানান, পশ্চিমবঙ্গ তার নিজস্ব জমি নীতি তৈরি করেছে। সরকারি প্রকল্প হোক বা বেসরকারি প্রকল্প, জোর করে এক ছটাক জমিও অধিগ্রহণ করবে না তারা।
জমি আন্দোলন করে ক্ষমতায় আসা মমতা বন্দ্যোপাধ্যায় প্রথম থেকেই জানিয়ে দিয়েছিলেন, জোর করে জমি নেওয়ার বিরোধী তাঁর সরকার। গত তিন বছরে তিনি যত বার শিল্পমহলের সঙ্গে আলোচনা করেছেন, তত বারই এই প্রসঙ্গ উঠেছে। রাজ্য বলে এসেছে, জমি কোনও সমস্যা হবে না। কিন্তু শুধু কাটোয়া তাপবিদ্যুৎ কেন্দ্রে মধ্যস্থতা করা ছাড়া এখনও জমি-জট মেটানোর কোনও দৃষ্টান্ত সরকার রাখতে পারেনি। রাজ্যে শিল্প না আসার পিছনে এটাকেই বড় কারণ বলে মনে করে শিল্পমহলের বড় অংশ।
জমি প্রশ্নে শিল্পমহলের এই মনোভাব মাথায় রেখেই নতুন জমি আইনটি বদলাতে উদ্যোগী হয়েছেন মোদী। এই পরিবর্তনে যেমন শিল্পের জন্য জমি অধিগ্রহণে সরকারের এক্তিয়ারের কথা ভাবা হচ্ছে, তেমনই সামাজিক সুরক্ষার দিকটিও ছেঁটে কেটে বাস্তবমুখী করতে চাইছে কেন্দ্র।
কী রকম? সরকারি সূত্রে খবর, অধিগ্রহণের আগে যে 'সামাজিক প্রভাব' সমীক্ষা করার কথা ইউপিএ-র তৈরি আইনে বলা হয়েছে, তার ধারাগুলি শিথিল করা হবে। রেট্রোস্পেকটিভ ধারা বিলোপ করা হবে। রেট্রোস্পেকটিভ বা পূর্বাপর ধারা অনুযায়ী, নতুন আইন চালু হওয়ার আগে যে সব জমি অধিগ্রহণের নোটিসই শুধু জারি হয়েছিল, কিন্তু প্যাকেজ ঘোষণা হয়নি, তারা নতুন আইন মোতাবেকই প্যাকেজ পাবে। এই ধারাটি নিয়ে শিল্পমহল এবং রাজ্যগুলির আপত্তি হল, এর ফলে যে খরচ হবে ধরে নিয়ে প্রকল্প ছকা হয়েছে, সে সরকারিই হোক বা বেসরকারি, সব ক্ষেত্রেই খরচ তার থেকে অনেকটাই বেড়ে যাবে। অনেক ক্ষেত্রে প্রকল্পটাই আর্থিক দিক থেকে অলাভজনক হয়ে পড়বে। (পশ্চিমবঙ্গ সরকারের একটি সূত্র বলছে, এই ধারা বলবৎ থাকলে বিভিন্ন সরকারি প্রকল্পের জন্য রাজ্যের খরচ বাড়বে প্রায় ১০ হাজার কোটি টাকা।) সেই কারণে ওই ধারাটি বাতিল করতে চায় কেন্দ্র। বর্তমান জমি আইনটি ভেঙে দিয়ে অধিগ্রহণ ও পুনর্বাসনের জন্য দু'টি আলাদা আইন প্রণয়নের কথাও ভাবা হচ্ছে।
তবে এটাও ঠিক যে, শিল্পমহলের দাবি সত্ত্বেও বর্তমান বিলে পুনর্বাসন ও ক্ষতিপূরণের যে শর্ত রয়েছে, তা কিন্তু এক ধাক্কায় অনেকটা লঘু করার ঝুঁকি নিতে চাইছে না বিজেপি। সেটা হলে তার রাজনৈতিক অভিঘাত কী হতে পারে, তা আঁচ করে ডাকাবুকো প্রধানমন্ত্রীও মেপে পা ফেলতে চাইছেন। তাই আইনে সংশোধনের প্রস্তাব দিলেও ক্ষতিপূরণ প্যাকেজে যে কোনও বদল হবে না, তা আজ স্পষ্ট করে দিয়েছেন গডকড়ী।
মজার বিষয় হল, এক বছর আগেও ইউপিএ জমানায় জমি আইন কতটা কৃষক-বন্ধু করে তোলা যায়, তারই প্রতিযোগিতা চলছিল। তখন বিজেপি-ও সেই স্রোতে গা ভাসিয়েছিল। প্রেক্ষাপটে ছিল সিঙ্গুর-নন্দীগ্রাম-ভট্টা পারসোলে জমি অধিগ্রহণকে কেন্দ্র করে উপর্যুপরি কৃষক অসন্তোষের ঘটনা।
এখন পরিস্থিতি বদলাল কীসে?
নির্বাচনের আগে থেকেই জমি আইন সংশোধনের জন্য শিল্পমহলের চাপ ছিল মোদীর উপরে। নতুন জমি আইন দিয়ে যে আখেরে শিল্প হবে না, সেটা এখন হাড়ে হাড়ে বুঝছে রাজ্যগুলিও। কংগ্রেস-শাসিত রাজ্যগুলিও এর ভুক্তভোগী। মোদী আজ সেই সুযোগটাই নিয়েছেন।
অবশ্য সুনির্দিষ্ট ভাবে সংশোধনের প্রস্তাব দিতে বিজেপি-শাসিত রাজ্যের মন্ত্রীদেরই ব্যবহার করেন মোদী-গডকড়ী। গুজরাত, মধ্যপ্রদেশ, রাজস্থান, ছত্তীসগঢ়, গোয়ার মতো রাজ্য দাবি করে, বর্তমান জমি আইনটি একেবারেই বাতিল করে দেওয়া হোক। সমন্বয়ের মাধ্যমে যুক্তরাষ্ট্রীয় ব্যবস্থার আড়ালেই কৌশলে তৎপর হয়েছেন জমি আইন সংশোধনে।
বস্তুত ইউপিএ জমানায় জমি আইন পাশের দিন থেকেই হাহাকার করছিল শিল্পমহল। তাদের বক্তব্য ছিল, এই আইনে অধিগ্রহণ প্রক্রিয়া এতটাই জটিল যে, বেসরকারি শিল্পস্থাপন প্রায় অসম্ভব। তা ছাড়া ক্ষতিপূরণের যে বোঝা চাপানো হয়েছে, তা-ও বাণিজ্যিক অঙ্কের সঙ্গে সঙ্গতিপূর্ণ নয়। আজকের বৈঠকে কেন্দ্রীয় গ্রামোন্নয়ন সচিব বলেন, নতুন আইন পাশের পর দেশে শিল্পের জন্য এক ইঞ্চি জমিও অধিগৃহীত হয়নি। তাই আইনে সংশোধন অনিবার্য হয়ে পড়েছে। এই প্রস্তাবে কংগ্রেস-শাসিত রাজ্যের মন্ত্রীরাও কমবেশি সায় দেন।
রাজ্যগুলির দাবি, বর্তমান আইন অনুযায়ী ৮০ শতাংশ জমির মালিকের সম্মতি নেওয়াটা বাড়াবাড়ি। খুব বেশি হলে ৬০ শতাংশ জমির মালিকের মত নেওয়াটাই যথেষ্ট। রাজস্থান তো দাবি করে, শিল্পের জন্য জমি অধিগ্রহণে সরকারের ১০০ শতাংশ এক্তিয়ার থাকা উচিত। তাৎপর্যপূর্ণ হল, পশ্চিমবঙ্গে জমির মালিকানা ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র অংশে বিভক্ত হওয়ার কারণে, অতীতে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য সরকারও এই শর্তের পক্ষেই সওয়াল করেছিল।
অধিকাংশ রাজ্য আজ এ-ও দাবি করে, সামাজিক প্রভাব সমীক্ষার নিয়ম লঘু করা হোক। বিশেষ করে যে সব প্রকল্পের জন্য একশো একর বা তার কম জমি প্রয়োজন, সেই সব ক্ষেত্রে এ ধরনের কোনও সমীক্ষারই প্রয়োজন নেই। সেই সঙ্গে রেট্রোস্পেকটিভ ধারা বিলোপ করা হোক। আপৎকালীন ভিত্তিতে জমি অধিগ্রহণের জন্য সংসদের অনুমতি নেওয়ার প্রস্তাবও বিলোপ করার দাবি ওঠে। এ দিন বৈঠকের পরে গডকড়ী বলেন, রাজ্যগুলির মনোভাব জানার পর দশ দিনের মধ্যে সংশোধন বিলের খসড়া তৈরি করবে সরকার। আসন্ন বাজেট অধিবেশনে তা পেশ করা হবে।
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