न मोदी कोई हिंदुओं के प्रधानमंत्री हैं और न उनकी सरकार का हिंदुत्व से कोई लेना देना है,बिजनेस फ्रेंडली कारपोरेट सरकार को हिंदुत्व की सरकार बताकर उसे महिमामंडित न करें!
पलाश विश्वास
हम शुरु से हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता कुरुक्षेत्र के खिलाफ थे।हमारे मेधावी,मीडिया विशेषज्ञ,जनपक्षधरता के झंडेवरदार,पाखंडी रंग बिरंगे राजनेता और बुद्धिजीवी संप्रदाय ने संघ परिवार से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभायी नरेंद्र मोदी के राज्याभिषेक में उन्हें हिंदुत्व का मसीहा घोषित करके।जबकि वे मामूली कारपोरेट कारिंद हैं और उनका हालिया स्टेटस कारपोरेट सरकार का पीएमसीईओ है।इस तकनीकी गलती को समझने के लिए बाजार विशेषज्ञों,रेटिंग एजंसियों और आर्थिक अखबारों,चैनलों के विश्लेषणों पर गौर करें ,जहां भाजपा की महाबलि बहुमति सरकार को कहीं भी हिंदुत्व की सरकार नहीं बताया जा रहा है।बिजनेस फ्रेंडली य़ूएसपी है मोदी का।
बाबासाहेब डा.अंबेडकर ने जाति उन्मूलन असंभव मानकर हिंदुत्व का परित्याग करके बौद्धधर्म अपनाया।जाहिर है कि धर्मान्तरण से पहले वे अपने को हिंदू ही मानते थे।वे दलितों के नेता थे,लेकिन हिंदू थे।अगर नहीं होते हिंदू तो उन्हें हिंदुत्व को तिलांजलि देना नहीं पड़ता।बहुजन आंदोलन से लेकर रंग बिरंगी वितचारधाराओं के धारक वाहक तमाम लोग धार्मिक संस्कारों के मुताबिक अब भी हिंदुत्व के कर्म कांड, रीति रिवाज, अनुशासन की जंजीरों से बंधे हुए हैं।इस देस के दलितों,पिछड़ों ने सामूहिक तौर पर हिंदुत्व का परित्याग नहीं किया है।इसके उलट धर्मान्तरित अन्यतर धर्मालंबियों में तेजी से हिंदुत्व संक्रमित हुआ है।आदिवासियों का भी तेजी से हिंदूकरण हुआ है।
इसके बावजूद तथ्य यह है कि समस्त हिंदू न मोदी को अपना नेता मानते हैं और न संघ परिवार की विचारधारा से सहमत है।
जिस जनादेश को केसरिया बताया जा रहा है,उसका खुलासा तो मतदान के आंकड़ों से साफ जाहिर है।कुल मतदान 66 प्रतिशत हुआइस अभूतपूर्व लोकसभा चुनाव में।हिंदुत्व ध्रूवीकरण और पुरकश कारपोरेट मदद के बावजूद भाजपा को आधे मत भी नहीं मिले।
जिन्होंने नरेंद्र मोदी को वोट नहीं दिये,हम क्या उनको हिंदू नहीं मानते
जिन प्रदेशों में जैसे ओड़ीशा,बंगाल,तमिलनाडु,केरल में भाजपा को एक दो सीटों पर संतोष करना पड़ा,क्या वह बहुसंख्य हिंदुओं ने संघ परिवार को खारिज नहीं कर दिया है
फिर जिस रामराज्य के नाम पर दलितों पर मजबूत जातियों की भगाना संस्कृति का मनुस्मृति राजकाज है,जहां स्त्री पर हर रोज देशभर में अत्याचार हो रहे हैं,जहां अल्पसंख्यकों का सफाया हो रहा है,वहां बहुसंख्यक हिंदुओं के विरोध के बावजूद,बहुसंख्यक बहिस्कृत मूक हिंदुओं की नरक यंत्रणा के बावजूद विशुद्ध अंबानी राज के कारपोरेट प्रतिनिधित्व की बिजनेस फ्रेंडली सरकार को महिमामंडित करते हुए मोदी को हिंदुओ का नेता और भारत सरकार को हिंदुत्व की सरकार बताकर हम हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघ माफिक दुश्चक्र में फिर देश को फंसाने काकाम कर रहे हैं और कारपोरेट विध्वंस और जनसंहारी नीतियों के प्रतिरोध में दरअसल कुछ भी पहल करने से बच रहे हैं।
कृपया मेरे ब्लाग अंबेडकर एक्शन एलर्ट पर कारपोरेट लोगों की प्रधानमंत्री की विनेवेश परिषद की रपट को देखे और समझें कि नरसिम्हा राव की सरकार के निजीकरण में फेल हो जाने के बाद कैसे अटल केसरिया सरकार ने आर्थिक नरसंहार का रोडमैप तैयार किया और फिर सिलसिलेवार दूसरे रपटों में देखें कैसे यूपीए एक और यूपीए दो सरकारों ने बहुजन वाम समाजवादी गांधीवाद समेत सर्वदलीय संसदीय सहमति से कैसे भारत देश को बहुराष्ट्रीयकंपनियों को बेच डालने और प्राकृतिक संसाधनों की अबाध लूट के लिए नरसंहार संस्कृति का गेस्टापो संगठित किया है।
How to get Disinvestment Going Building India's Future Report of the Special Subject Group Members : Shri GP Goenka Shri Rajeev Chandrasekhar Shri Nusli Wadia How to Get Disinvestment Going "Building India's Future" |
http://ambedkaractions.blogspot.in/
कृपया गेस्टापो को गेस्टापो कहें,कारपोरेट राज को कारपोरेट कहे और फासीवाद को फासीवाद कहे।हिंदुत्व से जोड़कर हम इन्हें सर्वशक्तिमान अप्रतिरोध्य बनाने की भूल करने का खामियाजा अब तक भुगत रहे हैं और अब फिर वही गलती दोहराते हुए हम साबित कर रहे हैं कि यह हरगिज गलती नहीं,बल्कि या तो वैचारिक पाखंड है,प्रतिबद्धता के नाम विश्वासघात है और अपने जान मल की हिफाजत और कुनबे की बेहतरी के लिए विशुद्ध सत्ता में साझेदारी की सौदेबाजी या मौकापरस्ती है।
आनंद तेलतुंबड़े ने बहुत साफ साफ लिखा हैः
उत्पीड़न को महज आंकड़ों में न देखें
''हरेक घंटे दो दलितों पर हमले होते हैं, हरेक दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या होती है, दो दलितों के घर जलाए जाते हैं,' यह बात तब से लोगों का तकिया कलाम बन गई है जब 11 साल पहले हिलेरी माएल ने पहली बार नेशनल ज्योग्राफिक में इसे लिखा था. अब इन आंकड़ों में सुधार किए जाने की जरूरत है, मिसाल के लिए दलित महिलाओं के बलात्कार की दर हिलेरी के 3 से बढ़कर 4.3 हो गई है, यानी इसमें 43 फीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है. यहां तक कि शेयर बाजार सूचकांकों तक में उतार-चढ़ाव आते हैं लेकिन दलितों पर उत्पीड़न में केवल इजाफा ही होता है. लेकिन तब भी ये बात हमें शर्मिंदा करने में नाकाम रहती है. हम अपनी पहचान बन चुकी बेर्शमी और बेपरवाही को ओढ़े हुए अपने दिन गुजारते रहते हैं, कभी कभी हम कठोर कानूनों की मांग कर लेते हैं – यह जानते हुए भी कि इंसाफ देने वाले निजाम ने उत्पीड़न निरोधक अधिनियम को किस तरह नकारा बना दिया है. जबसे ये अधिनियम लागू हुआ, तब से ही जातिवादी संगठन इसे हटाने की मांग करते रहे हैं. मिसाल के लिए महाराष्ट्र में शिव सेना ने 1995 के चुनावों में इसे अपने चुनावी अभियान का मुख्य मुद्दा बनाया था और महाराष्ट्र सरकार ने अधिनियम के तहत दर्ज किए गए 1100 मामले सचमुच वापस भी ले लिए थे.
दलितों के खिलाफ उत्पीड़न के मामलों को इस अधिनियम के तहत दर्ज करने में भारी हिचक देखने को मिलती है. यहां तक कि खैरलांजी में, जिसे एक आम इंसान भी जातीय उत्पीड़न ही कहेगा, फास्ट ट्रैक अदालत को ऐसा कोई जातीय कोण नहीं मिला कि इस मामले में उत्पीड़न अधिनियम को लागू किया जा सके. खैरलांजी में एक पूरा गांव दलित परिवार को सामूहिक रूप से यातना देने, बलात्कार करने और एक महिला, उसकी बेटी और दो बेटों की हत्या में शामिल था, महिलाओं की बिना कपड़ों वाली लाशें मिली थीं जिन पर हमले के निशान थे, लेकिन इन साफ तथ्यों के बावजूद सुनवाई करने वाली अदालत ने नहीं माना कि यह कोई साजिश का मामला था या कि इसमें किसी महिला की गरिमा का हनन हुआ था. यहां तक कि उच्च न्यायालय तक ने इस घटिया राय को सुधारने के लायक नहीं समझा. उत्पीड़न के मामलों में इंसाफ का मजाक उड़ाए जाने की मिसालें तो बहुतेरी हैं. इंसाफ दिलाने का पूरा निजाम, पुलिस से लेकर जज तक खुलेआम असंगतियों से भरा हुआ है. किल्वेनमनी के पहले मामले में ही, जहां 42 दलित मजदूरों को जिंदा जला दिया गया था, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि धनी जमींदार, जिनके पास कारें तक हैं, ऐसा जुर्म नहीं कर सकते और अदालत ने उन्हें बरी कर दिया. रही पुलिस तो उसके बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा. ज्यादातर पुलिसकर्मी तो वर्दी वाले अपराधी हैं. वे उत्पीड़न के हरेक मामले में दलितों के खिलाफ काम करते हैं. चाहे वो खामियों से भरी हुई जांच हो और/या आधे-अधूरे तरीके से की गई पैरवी हो, संदेह का दायरा अदालतों के इर्द गिर्द भी बनता है जिन्होंने मक्कारी से भरे फैसलों का एक सिलसिला ही बना रखा है. हाल में, पटना उच्च न्यायालय ने अपने यहां चल रहे दलितों के जनसंहार के मामलों में एक के बाद एक रणवीर सेना के सभी अपराधियों को बरी करके दुनिया को हैरान कर दिया. हैदराबाद उच्च न्यायालय ने भी बदनाम सुंदुर मामले में यही किया, जिसमें निचली अदालतों ने सभी दोषियों को रिहा कर दिया था.
आदरणीय सुभाष गाताडे के लिखे पर गौर करेंः
निस्सन्देह अल्पसंख्यक अधिकारों के सबसे बड़े उल्लंघनकर्ता के तौर पर हम राज्य और दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवादी संगठनों को देख सकते हैं मगर क्या उसे सामाजिक वैधता नहीं होती। यह बात रेखांकित करनेवाली है कि एक ऐसे मुल्क में जहां अहिंसा के पुजारी की महानता का बखान करता रहता है, एक किस्म की हिंसा को न केवल 'वैध' समझा जाता है बल्कि उसे पवित्रता का दर्जा भी हासिल है। दलितों, अल्पसंख्यकों और अन्य उत्पीड़ित तबकों के खिलाफ हिंसा को प्राचीन काल से धार्मिक वैधता हासिल होती रही है और आधुनिकता के आगमन ने इस व्यापक परिदृश्य को नहीं बदला है। भारत एकमात्रा ऐसा मुल्क कहलाता है जहां एक विधवा को अपने मृत पति की चिता पर जला दिया जाता रहा है। अगर पहले कोई नवजात बच्ची को बर्बर ढंग से खतम किया जाता था आज टेक्नोलोजी के विकास के साथ इसमें परिवर्तन आया है और लोग यौनकेन्द्रित गर्भपात करवाते हैं। यह बात आसानी से समझ आ जाती है कि आखिर क्यों भारत दुनिया का एकमात्रा मुल्क है जहां 3 करोड 30 लाख महिलाएं 'गायब' हैं। रेखांकित करनेवाली बात यह है कि ऐसी तमाम प्रथाओं एवं सोपानक्रमों की छाप – जिनका उदगम हिन्दू धर्म में दिखता है – अन्य धर्मों पर भी नज़र आती है। इस्लाम, ईसाइयत या बौद्ध धर्म में जातिभेद की परिघटना – जिसकी बाहर कल्पना नहीं की जा सकती – वह यहां मौजूद दिखती है।
इस परिदृश्य को बदलना होगा अगर भारत एक मानवीय समाज के तौर पर उभरना चाहता है। यह चुनौती हम सभी के सामने है। अगर इस उपमहाद्वीप के रहनेवाले लोग यह संकल्प लें कि 'दुनिया का यह सबसे बड़ा जनतंत्रा' भविष्य में 'जन अपराधों की भूमि' के तौर पर न जाना जाए तो यह काम जल्दी भी हो सकता है। इसे अंजाम देना हो तो सभी न्यायप्रिय एवं अमनपसन्द लोगों एवं संगठनों को भारत सरकार को इस बात के लिए मजबूर करना होगा कि वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के जनसंहार के लिए बने कन्वेन्शन के अनुरूप अपने यहां कानून बनाए। गौरतलब है कि भारत ने इस कन्वेन्शन पर 1959 में दस्तख़त किए थे मगर उसके अनुरूप अपने यहां कानूनों का निर्माण नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जनअपराधों को लेकर न्याय करने की भारत के आपराधिक न्याय प्रणाली की क्षमता हमेशा ही सन्देह के घेरे में रही है। यह बात रेखांकित करनेवाली है कि उपरोक्त 'कन्वेन्शन आन द प्रीवेन्शन एण्ड पनिशमेण्ट आफ द क्राइम आफ जीनोसाइड' के हिसाब से जीनोसाइड अर्थात जनसंहार की परिभाषा इस प्रकार है:
- ऐसी कोईभी कार्रवाई जिसका मकसद किसी राष्ट्रीय, नस्लीय, नृजातीय या धार्मिक समूह को नष्ट करने के इरादे से अंजाम दी गयी निम्नलिखित गतिविधियां
क) समूह के सदस्यों की हत्या ;
ख) समूह के सदस्यों को शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचाना ;
ग) किसी समूह पर जिन्दगी की ऐसी परिस्थितियां लादना ताकि उसका भौतिक या शारीरिक विनाश हो
घ) ऐसे कदम उठाना ताकि समूह के अन्दर नयी पैदाइशों को रोका जा सके
च) समूह के बच्चों को जबरन किसी दूसरे समूह को हस्तांतरित करना
Status Report of state SC Commissions !!!!!!!!
Status Report of state SC Commissions !!!!!!!!
At this juncture of time when lot of discussion and debate on atrocity against Dalits is going on due to recent gang rape & murder of two Dalit girls in Badaun (UP), it become important that we have to look in to the status of state commissions of scheduled caste .
A status report on state commissions of scheduled caste has been released by PACS-India & PRIA (Society for Participatory Research In Asia), India, N Delhi.
Please see these video documented by PMARC ! :
Status of State Commissions- Dr Alok Pandey
https://www.youtube.com/watch?v=_3Z7uD7cTjU
We are Watch Dog's
https://www.youtube.com/watch?v=JhRChNYVOrA&list=UUHvoAhfbMy7MklsByHdMcHw
Violence of Dalit Human Rights Dr Narendr Kumar
https://www.youtube.com/watch?v=EJVAkj_AajE&list=UUHvoAhfbMy7MklsByHdMcHw
Toothless Tigers-Vidyanad Vikal
https://www.youtube.com/watch?v=DwoykX1XUjo&list=UUHvoAhfbMy7MklsByHdMcHw
Question Hour 1st Session-2nd Day 14.02.20104
https://www.youtube.com/watch?v=3vILi66AyWo&list=UUHvoAhfbMy7MklsByHdMcHw
Way Forward- Paul Diwakar
https://www.youtube.com/watch?v=vMf_YqhV2eI&list=UUHvoAhfbMy7MklsByHdMcHw
ILLUSTRATION BY SORIT
OPINION
It's Not Red Vs Blue
Ambedkar was more about class than caste, but the Left won't see it that way
India is a land of paradoxes. But no paradox may be as consequential as the divergent histories of the Dalit and the Communist movements. Both were born around the same time, spoke for or against the same issues, grew or splintered similarly, and find themselves equally hopeless today. And yet, they refuse to see eye to eye. A large part of the blame for wallowing in this attitudinal abyss is attributed to Ambedkar, simply because of his explicit critique of the Communists and Marxism. This is simplistic, if not grossly wrong.
Ambedkar was not a Marxist. His intellectual upbringing had been under the Fabian influence at Columbia University and the London School of Economics. John Dewey, whom Ambedkar held in such high esteem as to owe him his entire intellectual making, was an American Fabian. Fabians wanted socialism, but not as Marx had proposed. Fabians believed socialism could be brought about through evolution, not through revolution. Despite these influences, Ambedkar, without agreeing with Marx, took Marxism not only seriously, but also used it as the benchmark to assess his decisions throughout his life.
Ambedkar practised class politics, albeit not in the Marxian sense. He always used "class" even for describing the untouchables. In his very first published essay, 'Castes in India', written when was 25, he described caste as "enclosed class". Without indulging in theorising, this reflected an essential agreement with Lenin, who stressed that class analysis must be done in "concrete conditions", not in a vacuum. Castes were the pervasive reality of India, and hence could not escape class analysis. But the then Communists, claiming monopoly over Marx and Lenin, used imported "moulds" and relegated castes to the "superstructure". In one stroke, they made a range of anti-caste struggles a non-issue. They were only reflecting a brahminical obsession with the "sanctity" of the Word, a la vedavakya.
One instance of Communists ignoring the discrimination against Dalits came from Bombay's textile mills. When Ambedkar pointed out that Dalits were not allowed to work in the better-paying weaving department, and that other practices of untouchability were rampant in mills where the Communists had their Girni Kamgar Union, they didn't pay heed. Only when he threatened to break their strike of 1928 did they reluctantly agree to remedy the wrong.
In the wake of the 1937 elections to provincial assemblies, he founded his first political party, the Independent Labour Party, in August 1936, which he declared was a "working class" party. Its manifesto had many pro-people promises, the word "caste" occurring only once, in passing. Scholars like Christophe Jaffrelot have termed ILP the first leftist party in India, the Communists until then being either underground or under the umbrella of the Congress socialist bloc.
During the 1930s, he was at his radical best. He formed the Mumbai Kamgar Sangh in 1935 which anticipated the merger of caste and class that happened with ILP. Despite differences, he joined hands with the Communists and led the massive strike against the Industrial Dispute Act in 1938. The Cripps Report in 1942, which excluded the ILP on the plea that it did not represent any community, impelled him to dissolve the ILP and form the seemingly caste-based Scheduled Castes Federation (SCF). However, his left leanings continued despite his being a member of the Viceroy's Executive Council. It culminated in his writing States and Minorities, a blueprint for a socialist economy to be hardcoded into the Constitution of India. The Communists, however, saw his movement as dividing their proletariat. This is the attitude that precipitated in Dange's vile call to voters to waste their votes but not to cast it in favour of Ambedkar in the 1952 elections. As a result, he was defeated.
His conversion to Buddhism is also read superficially as the spiritual craving of a frustrated soul or further evidence of his anti-Marxism. Although many scholars have refuted this misreading, it needs to be said this was almost his last reference to Marx. In comparing Buddhism with Marxism barely a fortnight before his death, he validated his decision as conforming to Marxism, minus the violence and dictatorship. Sadly, the folly of embracing Marx and jettisoning Ambedkar still persists.
(The writer teaches at IIT Kharagpur.)
This piece was edited to fix typos on August 15, 2012.
Pl read ;http://economictimes.indiatimes.com/
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