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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Tuesday, November 4, 2014

बाजार में मारकेज की यादःAuthor: पंकज बिष्ट

बाजार में मारकेज की यादःAuthor: पंकज बिष्ट

बीजिंग डायरी  

अंग्रेजी की खोज में बीजिंग मेरे जैसे स्वभाषा समर्थक और औपनिवेशिक अवशेषों के विरोधी आदमी के लिए भी किसी दु:स्वप्न से कम नहीं है। निश्चय ही चीनी के साथ अंग्रेजी देखने को मिल अवश्य जाती है पर यह हवाईअड्डों, सार्वजनिक यातायात और विशाल जगमागाते विज्ञापनों तक ही सीमित है। ये विशाल बिल बोर्ड कुल मिलाकर केएफसी, पीजा हट, कोका कोला से लेकर डोलसे एंड गब्बाना, गुकी, जॉर्जिओ अर्मानी जैसी दुनिया की कुछ जानी-मानी और कई मेरे लिए अनजानी फैशन कंपनियों के हैं। और मात्र हवाई अड्डे से शहर जानेवाले रास्ते की गगनचुंबी इमारतों की कतारों में ही नहीं बल्कि पूरे शहर में देखे जा सकते हैं। एक साम्यवादी देश की राजधानी में इन की सर्वव्यापिता थोड़ा-सा ही चकित करती है वरना चीन में हो रही 'क्रांति' के नए अध्याय से अब कौन अपरिचित है! खैर बात अंग्रेजी की हो रही थी। सच यह है कि शहर में किसी स्थानीय आदमी को, अंग्रेजी बोलते या उसके दो-एक शब्द भी समझते, पा जाना लाटरी लगने से कम नहीं है। सौभाग्य से भूमिगत मेट्रो, जो पूरे महानगर को जोड़ती है – यह चार सौ किलो मीटर लंबी बतलाई जाती है – अपनी सूचनाएं, स्टेशनों और मेट्रो के डिब्बों में की सार्वजनिक घोषणा व्यवस्था और इलेक्ट्रानिक बोर्डों के माध्यम से अंग्रेजी में भी देती है। यद्यपि यहां बोली जाने वाली अंग्रेजी का उच्चारण सप्रयास अमेरिकी नजर आता है इस पर भी उच्चारण में चीनी लहजा चुनौती बना रहता है। इसके अलावा जबड़ा तोड़ कहिए या अजनबी यीहीयुआन, सनलीतुन याशीयू, कांग मियाओंगुआजीजिएन, माओ जूशी जिनीएनतांग, झौंगाओ लैश बोऊगुआन जैसे शब्दों का सही उच्चारण रोमन अक्षरों के माध्यम से समझना लगभग असंभव है। (यहां भी ये कितने गलत हैं कहा नहीं जा सकता!) पर ये शब्द ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थानों के नाम हैं जो हर किसी के लिए देखने जरूरी हैं। इस कठिनाई के बावजूद चीनियों की अपनी भाषा के लिए प्रतिबद्धता काबिले तारीफ है। इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी इस जटिल चित्रात्मक लिपि को, किस तरह से इस हद तक कंप्यूटर-सहज बना लिया है कि लगता है मानो कंप्यूटर का निर्माण ही चीनी लिपि के लिए हुआ हो।

मेट्रो का किराया स्थानीय लिहाज से सस्ता है। तीन युआन (चीनी मुद्रा जिसका आधिकारिक नाम रिन मिन बो या आरएमबी है) टिकट में आप जहां तक जाएं जा सकते हैं। यानी टिकट सिर्फ एक ही दर का है और लंबी यात्राओं के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। निश्चय ही यह सड़कों की भीड़ को घटाने की मंशा से किया गया होगा। मेट्रो जिस तरह से ठसा ठस भरी रहती हैं उससे स्पष्ट है कि लोग, पहुंचने की सुनिश्चितता के कारण, मेट्रो में आना-जाना ज्यादा पसंद करते हैं। बीजिंग के ट्रैफिक जाम कुख्यात हैंभी, और हों भी क्यों ना, सड़कों पर शायद ही दुनिया का कोई ऐसा कार का ब्रांड हो – रॉल्स रॉयस से लेकर फरारी, लंबोरगिनी, एस्टोन मार्टिन, पोर्श आदि आदि, जो नजर न आता हो। हुंदाई, टोयोटा, फोर्ड, सुजूकी, रेनो आदि की तो बात ही मत कीजिए।

अंग्रेजी बोलने का चीनियों का लहजा एक मायने में देश के दैनंदिन जीवन में अमेरिकी प्रभाव का ही प्रतीक माना जा सकता है। वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और पहली को पीटने को प्रतिबद्ध है। यद्यपि चीन को पहली अर्थव्यवस्था को पीटने में समय लगेगा पर आश्चर्यजनक रूप से अपनी जीवन शैली में वे अमेरिकियों को पीछे छोड़ने के निकट हैं। मेट्रो संभवत: इस बात का सबसे अच्छा संकेतक है कि चीनी मन पर अमेरिका ने किस हद तक कब्जा जमा लिया है। बिजनेस सूट, जीन्स, मिनी स्कर्टस और निश्चय ही हॉट पैंट – सब मिल कर एक लंबी कहानी को संक्षेप में कह देते हैं। मेट्रो के भूमिगत रास्तों में बोटेक्स और स्तन बढ़ाने के विशाल विज्ञापनों की पृष्ठभूमि में युवा-युवतियों का स्वच्छंद आचरण और प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन असहज कर देता है। नवीनतम केश सज्जाएं – पंक-शंक जो भी हों, पर पश्चिम, विशेषकर हॉलीवुडी, बड़े पैमाने पर युवा-युवतियों के सरों पर सजी देखी जा सकती हैं। क्या बालों को इतने बड़े पैमाने पर नौजवानों द्वारा सुनहरा रंगना महज एक फैशन कहा जा सकता है? संभवत: अब पूर्व के लिए भी आधुनिकता का अर्थ पश्चिम ही हो गया है। या उसकी नकल हो गया है। चीन ही अपवाद नहीं कहा जा सकता। जापान को देखिए, दक्षिण कोरियो को लीजिए, यहां तक कि स्वयं भारत को ही देखिए, क्या हो रहा है? हम 'अपनी' आधुनिकता को विकसित करने में क्यों असमर्थ हो गए हैं? इसके असान जवाब – दिल्ली से बीजिंग, बीजिंग से तोक्यो तक – शायद किसी के पास नहीं हैं।

मॢट्रो की भूमिगत दुनिया जितनी चमकीली और स्वच्छ नजर आती है बाहर उतनी ही धुंध रहती है। उस समय तो कुछ ज्यादा ही थी। पता चला उत्तर में मंगोलिया के रेगिस्तान से आने वाली धूल ने पूरे देश को त्रस्त कर रखा है फिर बीजिंग तो उत्तर में ही है। (बी का अर्थ ही उत्तर और जिंग का राजधानी होता है) उसके साथ स्मॉग (धुंआरे) ने, जो शुद्ध शहर की देन था, मिल कर रही-सही कसर पूरी की हुई थी। चेहरे पर हरे-सफेद मेडिकल मॉस्क लगाए लोग जगह-जगह नजर आ रहे थे। पर आश्चर्य की बात दूसरी ही थी। वह थी लोगों, विशेषकर युवाओं का धूम्रपान प्रेम। विशेषकर जब दुनिया में लोग धूम्रपान बड़े पैमाने पर छोड़ रहे हैं चीन में इतने सारे लोगों का सिगरेट पीते मिल जाना, कम अजीब नहीं लगता। क्या चीनी सरकार युवाओं के सिगरेट पीने को लेकर चिंतित नहीं होगी? एक सर्वव्याप्त धुंआ था जिसे लगता था, स्वीकार कर लिया गया था। विशेषज्ञों का कहना है यह विकास की कीमत है जो चीन चुका रहा है।

कुछ विदेशी बाकी सब देशी

हमारा गाइड अंग्रेजी धाराप्रवाह बोल रहा था। अमेरिकी उच्चारण के बावजूद बात समझने में दिक्कत नहीं हो रही थी। कार्यक्रम के अनुसार हमें उस दिन चीन की दीवार देखनी थी पर उस चतुर-सुजान व्यक्ति ने बिना किसी सूचना के ऐन मौके पर कार्यक्रम में परिवर्तन कर दिया और सीधे शहर दिखलाने ले गया। रास्ते में समझाया, कल रविवार होने से गु गांग (फॉरबिडन सिटी या प्रतिबंधित शहर) में बहुत भीड़ रहेगी। प्रत्यक्षत: वह गलत नहीं था। हमारा पहला पड़ाव ही गु गांग था। वहां अनगिनत समूह नजर आ रहे थे। कुछ तो एक-ही रंग की टोपियां पहने थे मानो आइपीएल की किसी टीम के सदस्य हों। सबका नेतृत्व एक झंडाधारी कर रहा था। किसी तार जैसी धातु की लचीली डंडी पर टंकी ये झंडियां विभिन्न रंगों की थीं। नेतृत्व करने वाले के पास एक छोटा लाउडस्पीकर भी था जिसका इस्तेमाल वह सूचनाएं देने के लिए कर रहा था। ये छोटे कस्बों और गांवों के लोग थे। इनमें से कई पहली बार यहां आए होंगे, गाइड ने हमें समझाया। उसके स्वर में एक परिचित हीनता थी जैसी कि बाहरी गांवों से आनेवालों के प्रति सारी दुनिया के नगरवासियों में रहती है। इसके बाजवूद ये सारे लोग खासे आधुनिक नजर आ रहे थे, उतने ही फैशनेबुल जितने कि उनके शहरी भाईबंद हो सकते हैं। विशेष कर युवा बहुत ही आधुनिक और भड़कीले पहनावे में थे। वे उतने ही स्वस्थ और चमकते नजर आ रहे थे जितने कि बीजिंग के लोग। कुपोषण या और किसी तरह की कोई कमी कहीं नजर नहीं आ रही थी। मेरे लिए यह कौतुहल का विषय था कि भीड़ में कुछ माओ कोट और टोपियां भी थीं। यह अपने आप में खासा बड़ा प्रमाण था कि वे लोग बाहर के तो हैं बल्कि पिछड़े, बुजुर्ग माओवादी दौर के अवशेष भी हैं।

उस कंडक्टेड टूर में सिर्फ विदेशी थे और संख्या में 10-12 से ज्यादा नहीं थे। हमारे साथ तीन ब्रिटिश नागरिक थे। बुजुर्ग रिटायर्ड दंपत्ति और उनकी एक भतीजी या भांजी जो आस्ट्रेलिया में जाकर बस गई थी। हमें दोस्ती करने में देर नहीं लगी। आखिर अंग्रेजों से हमारा पुराना रिश्ता है। फिर वह भारत आए हुए भी थे। हम पहले दरवाजे जो 'व्युमनÓ या मध्याह्निक (मैरिडियन) कहलाता है से घुसे ही थे कि एक युवती ने अपने साथ फोटो खिंचवाने का अनुरोध कर किया। बुढ़ापे में यह मजेदार अनुरोध था। हम दोनों जम कर उस लड़की के साथ खड़े हो गए। पर हमें अंदाज नहीं था कि इस अनुरोध के साथ ही हमारा सेलिब्रिटि स्टेटस समाप्त नहीं होनेवाला है। कहना चाहिए अनुरोधों की अप्रत्याशित शृंखला का तांता ही लग गया। स्पष्ट था कि विदेशी, विशेषकर श्वेत योरोपीयों की भारी मांग है। योरोपीयों के साथ का यह अयाचित लाभ हमें भी मिल रहा था।
हम फॉरबिडन सिटी का कम और भीड़ का ज्यादा आनंद लेने लगे थे। रिचर्ड ने, जो मेरी ही उम्र के थे, एक मजेदार बात की ओर ध्यान आकर्षित किया। बोले, आपने देखा, मेरे और आप के अलावा यहां कोई भी दाढ़ी वाला नहीं है। रिचर्ड के बाल भी थोड़े बढ़े हुए थे। वह किसी चित्रकार से कम नहीं लग रहे थे। मैं ने यों ही इधर-उधर नजर दौड़ाई। बात सामान्य थी पर थी वाक ई ध्यान देने योग्य। न कोई युवा और न ही कोई बुजुर्ग, दाढ़ी या बाल बढ़ाए था। सब लोग करीने से बाल कटाए थे। सामान्यत: क्लीन शेव वाले ही लोग थे। मूंछें भी लगभग नहीं थीं। ऐसे लोग जो अपने बालों के प्रति इतने सजग हों आखिर दाढ़ी से क्यों बच रहे थे? या उनके बालों में सप्रयास पैदा वैसा ओजस्वी औघड़पन क्यों नहीं था जैसा हमारे यहां या दुनिया में और जगह कलाकारों या उस तरह की प्रकृति के लोगों में देखने को मिलता है। बाल दाढ़ी तो छोड़िए किसी ऐसे व्यक्ति का भी मिल जाना असंभव था जो अपनी वेशभूषा को लेकर बेपरवाह हो।

उस के बाद मैंने जितना चीन देखा, अंग्रेज की बात मुझे उतनी ही याद आती रही, और चकित करती रही। शायद ही कहीं कोई दाढ़ीवाला मिला हो। हां, शीयान के मुस्लिम मुहल्ले में अवश्य कुछ इस्लाम धर्मी दाढ़ियां बढ़ाए नजर आए थे पर वे भी लगभग अपवाद जैसे ही थे। बहुत हुआ तो मुस्लिम गोल टोपी पहने हुए जरूर मिल जाते थे। ऐसा क्यों होगा? यह कोई बड़ा सवाल नहीं था, पर हैरान करने वाला तो था ही। क्या इसका मतलब यह लगाया जा सकता है कि चीनी समाज ऐसे लोगों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है जो जरा भी, प्रतिकात्मक स्तर पर ही सही, बोहमियन, फकीराना, लापरवाह या असामान्य दिखने या सोचने की कोशिश करते नजर आते हों? फैशन के वे पश्चिमी तरीके – स्पाईक्ड बालों से लेकर कसी जीनों और हॉट पैंट तक – जो युवाओं को जरूरी-बेजरूरी आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध बनाते हों, जरा भी आपत्तिजनक नहीं हो सकते हों पर फैशन की वे अभिव्यक्तियां जो सामान्यता को नकारती लगें, सिरे से गायब हों, असामान्य नहीं कहा जाएगा? तो क्या चीनी युवा स्टैब्लिशमेंट के वे संकेत बखूबी समझ रहे हैं कि जो मन में आए करो – सिगरेट पियो, शराब पीकर झूमो, बेलगाम फैशन में डूबे रहो, हमें कोई आपत्ति नहीं है, पर असामान्य होने की कोशिश न करो?
बीजिंग में देखने को बहुत कुछ है। नगर दर्शन करते-करते शाम तक हम थक चुके थे। लौटते हुए जब हमने पूछा आप कल चीन की दीवार देखने चलेंगे तो ब्रिटिश दंपत्ति ने बतलाया, हम दीवार देख चुके हैं। कल स्वदेश लौट रहे हैं। अब मेरी समझ में आया कि गाइड ने हमारे कार्यक्रम में तब्दीली क्यों की। उसने हम तीनों को भी उनके साथ नत्थी कर लिया था।

'सिद्धार्थ' नाम की फिल्म

किसी शो रूम की तरह चमचमाता बीजिंग हलचलों से भरा शहर है। इस का कारण अप्रैल का वह महीना हो सकता था जब हम सौभाग्य से वहां थे। इस दौरान अधिकतम तापमान 20 और न्यूनतम 11 डिग्री के आसपास रहने से यह साल का सबसे खुशनुमा मौसम था। बीजिंग की ठंड बदनाम है और गर्मी भी कम नहीं पड़ती। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह एक दिन पहले शुरू हुआ था और अखबार बतला रहे थे कि आने वाले दिनों में ऑटोमोबाइल प्रदर्शनी के अलावा फैशन शो भी कतार में है। वांगफूजिंग में हमें एक सिनेमा हाल मिला जिसमें फिल्म समारोह चल रहा था। आधिकारिक सरकारी अंग्रेजी अखबार चाइना डेली में उस दिन एक मजेदार रिपोर्ट थी। उसके अनुसार, "राजधानी में चौथे वार्षिक बीजिंग अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की शुरुआत के दौरान हॉलीवुड के दुनिया के दूसरे सबसे बड़े फिल्म बाजार (यानी चीन) के साथ संबंध पूरे शबाब पर देखने को मिले।"

रिपोर्ट में आगे कहा गया था कि ग्रेविटी फिल्म के निर्देशक अलफांसो क्युवारोन्स भी समारोह में उपस्थित थे। इस फिल्म ने चीन में सन 2013 में छह करोड़ 90 लाख युआन यानी लगभग 66 करोड़ 60 लाख का धंधा किया था। ऐसा नहीं है कि जनता हॉलीवुड की डब की हुई फिल्मों को ही पसंद करती है, हॉलीवुड के हीरो- हीरोइन भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। जहां-तहां हालिवुड की फिल्मों के पोस्टर देखे जा सकते हैं। बुलेट ट्रेन में भी हॉलीवुड की फिल्म चीनी डबिंग के साथ चल रही थीं। एमेजिंग स्पाइडरमैन का दूसरा भाग भी उन दिनों चर्चा में था।

एक सप्ताह बाद भारत लौट कर पता चला कि चौथे बीजिंग फिल्म समारोह में उत्कृष्ट फिल्म का पुरस्कार भारतीय फिल्म सिद्धार्थ को मिला। फिल्म का निर्देशन एक एनआरआइ रिची मेहता ने किया था पर वह बॉलीवुड में बनी थी न कि हॉलीवुड में। मजे की बात यह थी कि फिल्म का संबंध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध से नहीं था, जिसके माननेवाले चीन में बड़ी संख्या में हैं। बल्कि यह फिल्म एक पिता के अपने खोए बच्चे की तलाश की कहानी है। चीन में बच्चों को लेकर जबर्दस्त भावात्मक उथल-पुथल है और इसका संबंध वहां एक बच्चे की पाबंदी-से है।

इससे यह तो समझा ही जा सकता है कि चीन भारतीय फिल्मों का बड़ा बाजार हो सकता है, चीन की सारी अमेरिका परस्ती के बावजूद, हॉलीवुड को बॉलीवुड की फिल्में पीटने में देर नहीं लगाएंगी। चीन अंतत: है तो एशियाईदेश ही।

बाजार में मारकेज की याद

वांगफूजिंग शहर के बीच में बहुत सुंदर और फैशनेबुल बाजार है। ताइनामेन चौक, माओ की समाधि, फॉरबिडन सिटी सब इसके आसपास ही हैं। यहां सबसे आकर्षक चीज संभवत: वांगफूजिंग बुक स्टोर नाम की एक छह मंजिली विशाल किताबों की दुकान है जिसमें लगे एलिवेटर पुस्तक प्रेमियों को सतत विभिन्न मंजिलों में पहुंचाते रहते हैं। दुनिया भर के विषयों की किताबें से सजे इसके हर मंजिल के विशाल कक्ष हमारी कनॉटप्लेस की किताबों की दुकान से दो गुने चौड़े तो होंगे ही। लेकिन सब किताबें चीनी में थीं। हमें थोड़ा आश्चर्य हुआ, क्या अंग्रेजी में कुछ नहीं होगा? हम चलते रहे और अंतत: तीसरी मंजिल में कुछ अल्मारियां मिल ही गईं जो अंग्रेजी के लोकप्रिय लुगदी कथा साहित्य के अलावा चीनी संस्कृति, इतिहास, कुछ पेंगुइन क्लासिक्स, चीन पर अंग्रेजी में लिखे कुछ उपन्यास और गेब्रियल गार्सिया मारकेज के दो उपन्यासों से भरी थीं। जिस किताब ने मुझे विशेषकर आकर्षित किया वह थी अमिताव घोष की द सी ऑफ पॉपीज। यह अफीम युद्ध पर लिखा गया उपन्यास है। इन के पीछे के रैकों में मात्से दोंग के कई खंडों वाला भारी भरकम वाङ्मय था।

इसमें शंका नहीं कि वांगफूजिंग बाजार कम से कम एक बार तो देखने लायक है। मॉल जैसी विशाल दुकानें डिजाइनर कपड़ों से लेकर लक्जरी घड़ियों जैसे फैशनेबुल सामानों से भरीं थीं। शायद ही ऐसा कोई मल्टी नेशनल ब्रांड न हो जो नजर न आ रहा हो। विशेषकर घड़ियों के इतने बड़े शो रूम मेरी कल्पना से परे थे। रोलेक्स, राडो, डिओर, बेंटले, टेग हेयुर, हुबोल्ट, पेनराई एक से एक नाम थे। सुना जाता है कि अब से स्विस घड़ियां यहीं बनती हैं और पचास हजार की घड़ी को फ्ली मार्केट में हजार दो हजार में आम खरीदा जा सकता है। चीन अपनी प्रगति और समृद्धि के रहस्यों को छिपाने में ढाई हजार वर्ष पहले रेशम युग से ही माहिर रहा है।

पटरियां ही नहीं बल्कि लगभग एक किमी लंबी मुख्य सड़क भी खरीदारों के चलने के लिए खुली थी और वहां गाड़ियां पूरी तरह वर्जित थीं। कहीं कोई फेरीवाला या पटरी पर बैठनेवाला नजर नहीं आ रहा था। लेकिन उन्हें व्यवस्थित तरीके से बाजार के बीच-बीच में बड़े-बड़े हालों में जगह दी हुई थी। ये जगहें भीड़ और हल्ले-गुल्ले से भरी थीं। मेरी पत्नी कुछ हल्के-फुल्के और सस्ते सामानों की तलाश में ऐसी ही एक हाल में घुसीं। साथ में बेटा था। जैसा कि होता है मैंने दाम-युद्ध की चिकचिक से बेहतर बाहर ही इंतजार करना ठीक समझा। चीनी संगीत के हमारी ही तरह जबर्दस्त प्रेमी हैं। पर पश्चिमी संगीत के प्रति उनका लगाव कुछ ज्यादा उमड़ता नजर आ रहा था। पश्चिमी धुनों पर चीनी गानों की भी कमी नहीं थी। जो भी हो म्यूजिक सिस्टम हर कदम पर जोशो-खरोश से बज रहे थे।

मैं उस खोमचा-बाजार के ऐन बाहर खड़ा हो गया। भीड़ में स्थानीय लोग तो थे ही विदेशी भी कम नजर नहीं आ रहे थे। योरोपियों के अलावा अफ्रीकी और एशियाई भी। एशियाईयों से मेरा तात्पर्य हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, बंग्लादेशी और श्रीलंकाइयों से है। पाकिस्तानी कुछ ज्यादा ही थे। मुझे ज्यादा खड़ा नहीं होना पड़ा। फुटपाथ के समानांतर लगी एक पत्थर की बैंच पर जल्दी ही जगह खाली हो गई और मैं एक कोने पर बैठ गया। शाम ठंडी थी इस पर भी आरामदायक थी। मैं एक पूरी बाजू के स्वेटर में ढटा हुआ था।
इस बैंच ने मुझे वह एकांत दे दिया था जिसकी मुझे सुबह से तलाश थी। उस अविराम जन प्रवाह और इलेक्ट्रानिक हल्ले से कटने में मुझे कुछ ही क्षण लगे होंगे।

मारकेज का, अपनी पीढ़ी के कई लोगों की तरह, मैं भी प्रेमी रहा हूं। साहित्य का पहला नोबेल पुरस्कार पानेवाले चीनी लेखक मो यान उनके प्रशंसक हैं। मो यान पर मारकेज का जबर्दस्त प्रभाव है। सच यह है कि मारकेज चीन में बहुत लोकप्रिय हैं। वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के चीनी अनुवाद की लाखों प्रतियां वहां बिकी हैं। वह कैंसर से पिछले कुछ वर्षों से पीड़ित थे। उनका देहांत 87 वर्ष की भरीपूरी उम्र में हुआ था। इस पर भी यह सुनना दुखद था कि वह आदमी जिसके आप इतने बड़े प्रशंसक थे, नहीं रहा है। उनका देहांत पिछली रात हुआ था और सुबह के अखबारों में समाचार नहीं था। इस दुखद समाचार के बारे में मेरे बेटे ने बतलाया था जिसे यह जानकारी इंटरनेट से मिली थी। होटल के हमारे कमरे में टीवी था पर देखने का अवसर नहीं मिला था। उस महान कोलंबियाई लेखक को याद कर मैं उदास-सा महसूस करने लगा। जो भी हो वह हमारे दौर के बड़े लेखकों में थे और एक मायने में समकालीन भी, जिसने एक लेखक के रूप में दुनिया को देखने की हमें एक नई ही दृष्टि दी थी। उनका जाना एक पीढ़ी के खत्म होने का संकेत था।
मेरी पत्नी आने का नाम नहीं ले रही थीं। मैंने महसूस किया कि भीड़ घटने लगी है और ठंड भी बढ़ गई है। बैंच पर मैं अकेला रह गया था। अचानक कोट पहना एक अधेड़-सी उम्र का आदमी मेरे सामने आकर रुका और उसने कोट की जेब से इतने अप्रत्याशित तरीके से हाथ निकाला मानो पिस्तौल निकाल रहा हो। मैं थोड़ा झसका। पर मेरे सामने पिस्तौल नहीं एक हाथ था। ऐसा हाथ जिसका पंजा कटा था। ठूंठ जैसे हाथ को समझने में मुझे समय लगा। पर तब तक मेरा सर नकार में हिल चुका था। वह आदमी खरगोश की तरह चौकन्ना था। उसने इधर-उधर देखा, नि:शब्द अपना हाथ समेटा और बिना किसी आग्रह के आगे बढ़ गया। यह असहायता का हाथ था जो न जाने कैसे कटा होगा। मुझे बुरा लगा, इतना कठोर नहीं होना चाहिए था।

मैं फिर से सोचने लगा था उस मौत के बारे में जिसकी विशद् का अंदाजा मुझे अब लग रहा था। यह जाना एक दौर के पटाक्षेप का भी संकेत था। मारकेज की वह बात जो एक लेखक के रूप में मैं कभी नहीं भूल पाता हूं उन्होंने कई वर्ष पहले एक साक्षात्कार में कही थी। किसी भी रचना का पहला वाक्य लिखना ही सबसे कठिन और चुनौती भरा होता है। वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूट (हिंदी में एकांत के सौ वर्ष) का पहला वाक्य याद कीजिए: "कई वर्ष बाद जब कर्नल ऑरेलिआनो बुंदिआ फायरिंग स्क्वैड के सामने खड़े थे उन्हें विगत की वह दोहर याद आई थी जब उनके पिता उन्हें बर्फ दिखलाने ले गए थे।'।' इसी तरह ऑटम ऑफ द पैट्रियार्क का पहला वाक्य है: "सप्ताहांत को गिद्ध राष्ट्रपति के महल में बालकनी की खिड़कियों के कांच को चौंच मार-मार कर तोड़ते हुए घुस गए थे और उन्होंने पंखों की फड़फड़ाहट से अंदर ठहर गए समय को चैतन्य कर दिया था और सोमवार की सुबह शहर एक मरे हुए बड़े आदमी की गलित भव्यता की गुनगुनी हवा के झोंके से अपने सदियों के आलस्य से जागा था।" या फिर लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा का यह अद्भुत पहला वाक्य: "यह अपरिहार्य था: कड़ुए बादामों की गंध उसे सदा अप्रतिदत्त प्रेम की नियति की याद दिलाती थी।"ये सब इतने स्वयंस्फूर्त और चमत्कारी लगते हैं कि आप इनके पीछे की मेहनत को भूल जाते हैं। वह पाठकों के लेखक तो थे ही लेखकों के भी उतने ही बड़े लेखक थे। हमने उनसे कई चीजें सीखी हैं और अब भी कई बातें सीखनी बाकी हैं।

तभी मैंने सुना जैसे कोई अंग्रेजी में कुछ बोल रहा हो। मेरी तंद्रा टूटी। "हैलो सर!" जैसा कुछ था।
मुझे समझने में कुछ क्षण लगे। बैंच पर मेरे अलावा कोई नहीं था। दोहराया हुआ संबोधन मेरे ही लिए था। मैंने दाईं ओर गर्दन फेरी। एक चीनी युवती मुस्करा रही थी। उसने पूछा, "आर यू एलोन सर?" (क्या आप अकेले हैं?) उसके प्रश्न में किसी तरह की शंका की गुंजाइश नहीं थी इसपर भी वह इतना अप्रत्याशित था कि यकायक जवाब देना मुश्किल हो गया। वह अब तक मेरी अचकचाहट भांप गई थी। उसने मुस्कराकर दोहराया, "आर यू एलोन सर ऑर वेटिंग फॉर यूअर फ्रेंड?" (आप अकेले हैं या अपने मित्र का इंतजार कर रहे हैं?)

अब तक मैं संभल चुका था। किसी तरह मुस्कराने का प्रयत्न करते हुए मैंने कहा, "ओह नो थैंक्स। यस आई एम वेटिंग …" (अरे धन्यवाद! हां में इंतजार…) अंतत: मैंने कह ही दिया था। और कुछ भी कहना चाहता था पर उसके पास मेरे उत्तर के लिए ज्यादा समय नहीं था। वह सिर्फ 'हां' या 'ना' में जवाब चाहती थी। बाकी उत्तर मेरे मुंह में ही रह गया था। उसने हाथ हिलाया और "बाई, बाई!" कहने के साथ ही नियोन लाइटों की रंग-बिरंगी रोशनी में नहाई भीड़ में बिला गई। मैं उसके तौर-तरीकों की तारीफ किए बिना नहीं रह पाया।
यह मारकेज का दिन था। मुझे अप्रयास ही उनकी आत्मकथा लिविंग टु टैल द टेल की घटना याद आ गई। शुरुआती दिनों की बात थी जब वह एक युवा लेखक के तौर पर संघर्षरत थे। वह अपनी माता जी के साथ नदी के रास्ते अपने शहर अर्काटाका जा रहे होते हैं। धीमी गति से चलनेवाला स्टीमर यात्रियों से भरा है। वहां एक युवा वेश्या जबर्दस्त धंधा कर रही होती है। मारकेज की मां उस महिला की स्थिति पर अफसोस प्रकट करती हैं, इस पर भी उसकी मजबूरी समझती हैं।

पर संभवत: मुझे किसी और चीज ने परेशान किया हुआ था। आखिर वह क्या हो सकता है जिसने कि मुझे मारकेज की मृत्यु के अगले दिन, बीसवीं सदी के मध्य के कोलंबिया की, 21वीं सदी के दूसरे दशक के बीजिंग से, तुलना करने को मजबूर किया? क्या यह मेरी कल्पना की बेलगाम अर्थहीन भटकन थी या फिर वास्तव में जरूर कुछ ऐसा था जो चीजों को इस तरह जोड़ रहा था? मेरे पास तत्काल कोई उत्तर नहीं था।

वह बीजिंग का आखिरी दिन था। अगली सुबह जब हम लौट रहे थे, अखबार मारकेज के निधन के समाचार और शृद्धांजलियों से भरे हुए थे।

मित्रों को पढ़ायें

 समयांतर से साभार 

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