अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!
हमारे वजूद के लिए बेहद जरुरी है इस मर्दवादी सामंती साम्राज्यवादी सड़ी गली व्यवस्था का अंत और उसके लिए हमें स्त्री नेतृत्व को मंजूर करना ही होगा।
पलाश विश्वास
3rd January to be declared as woman's day of India
अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!
मुझे यह कहने में गर्व महसूस हो रहा है कि भले ही कोई दूसरा ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दूसरा राजा राममोहन राय, दूसरा हरिचांद ठाकुर,दूसरी सावित्री बाई फूले की नजीर भारतीय इतिहास में नहीं है,लेकिन हमारी बेटियां और बहुएं खूब समझने लगी हैं कि अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का अब है मौका!
बिजनौर के पास अपने ससुराल, गांव धर्मनगरी में मैं अपने दिवंगत मित्र का घर खोज नहीं पा रहा था।
गली में दिग्भ्रमित खड़ा था तो भीतर अपने घर से एक किशोरी बाहर निकल आयी और पूछा कि किसके घर जाना है तो मैंने मित्र की बेटियों कंकना और कांदु के नाम बताये तो उसने फटाक से घर वह दिखा दिया।
मैंने धन्यवाद कहने के साथ उसका नाम पूछा,बोली सुप्रिया विश्वास।
मैंने फिर पूछा कि किस क्लास में पढ़ती हो,बोली,बारहवीं में।मैंने फिर यूं ही कह दिया,ठीक से पढ़ती हो न!
इसके बाद उस बेटी ने जो कहा,मैं हतप्रभ रह गया।वह बोली,मेरे मां बाप इतना कष्ट उठाकर पढ़ा रहे हैं,मैं क्यों नहीं पढ़ुंगी?
कंकणा मित्र की बड़ी बेटी है और उसका विवाह हो गया है।वह पोस्ट ग्रेजुएट है शायद और उसका एक बच्चा भी है।वह गांव में नहीं,बिजनौर में रहती है और कालेज में पढ़ाती है।
मित्र की असामयिक मृत्यु कैंसर और मधुमेह से हुई।छोटा बेटा चांदसी डाक्टर है और बाहर रहता है।
अधूरा घर बनाकर मित्र ने बीए फाइनल पढ़ रही छोटी बेटी कांदु की शादी करा दी।लेकिन वह शादी उसके लिए नर्क बन गयी।साल भर पहले उस नरकयंत्रणा से उसे बजरिये तलाक मुक्ति मिली।वह नये सिरे से पढ़ रही है और घर में अकेली मां को संभालते हुए नौकरी करके घर भी चला रही है।उसका बच्चा अभी छोटा है।
बाद में मैं सुप्रिया कोखोजते हुए रात को उसके घर पहुंचा तो उसके पिता नशे की हालत में उलजुलूल बक रहा था।
विचित्र स्थिति थी और वह मासूम सी बिटिया जार जार रो रही थी।
तभी उसकी छोटी बहन कक्षा आठ में पढ़ने वाली पूजा ने कहा,अब नहीं कैद चूल्हा चौका,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!
सुनते ही सुप्रिया की आंखें चमक उठीं और देर तक उसने मुझसे बातें कीं।
इसके विपरीत चित्र कोलकाता में देखने को मिला।
नई दिल्ली में मेट्रो रेलवे के करिश्मे से परिवहन अब सुहाना है और सड़क पर दिनदहाड़े डकैती नहीं होती यात्रियों के खिलाफ।कोलकाता में मेट्रो रेलवे सबसे पहले आया,लेकिन राजनीति की वजह से परिवहन नरकयंत्रणा है अब भी।
कश्मीरी गेट से जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम के पास आटोरिक्शा से मैं बिना किसी हुल हुज्जत के ढाई सौ रुपये में चला गया। बाद में कहीं भी मेट्रो से आता जाता रहा तो लौटते वक्त नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक सामान सहित आटोरिक्शा वाले ने सिर्फ 120 रूपये लिये।यह मेरे लिए सुखद अनुभव है इस बार दिल्ली यात्रा का।
सियालदह से सोदपुर का रेल किराया पांच रुपये मात्र है।दूरी पंद्रह किमी।
सामान सहित उतरकर मेरी और सविता की लोकल ट्रेन से यात्रा करने की हिम्मत नहीं हुई तो टैक्सीवाल ने सीधे सात सौ रूपये मांग लिये।
एक बूढ़ा सज्जन से टैक्सीवाले को मना लिया साढ़े चार सौ रुपये में घर तक पहुंचाने के लिए।मजबूरन हम तैयार हो गये।
रास्ते भर उनकी सांसें उखड़ रही थीं।खांसते हांफते जब वह हमें लेकर सोदपुर पहुंचे तो रुपये गिनने तक की उनकी हालत नहीं थी।
मैंने पूछा कि जब आपकी हालत इतनी खराब है,सड़क पर क्यों निकलते हैं।
इस पर उन्होंने जो कहा,मैं सन्न हो गया।
वे बोले उन्हें दिल की बीमारी है और बाल्व बेकार हो गये हैं।फेफड़े खराब हैं और ऊपर से दमा है।शुगर भी है।
उनने कहा कि सारी बीमारियां लाइलाज हैं और इलाज के पैसे भी नहीं हैं।
फिरभी मैंने पूछा तो आखिर निकलते क्यों है।
बोले वे,न निकलें तो जियेंगे कैसे।सारे लड़के कामयाब हैं।अच्छा खासा कमाते हैं षमुड़कर भी नहीं देखते।
सड़क पर उतरे बिना गुजारा नहीं है,ऐसा कहकर वे फिर टैक्सी लेकर निकल पड़े।
शर्म कि ऐसे बेटों की ख्वाहिश में तमाम पर्व त्योहार और भ्रूणहत्या तक की हमारी परंपरा और हमारी संस्कृति है और बेटियां हमारे लिए बोझ,परायाधन है।
इस बार बसंतीपुर में हमने खास ख्याल रखा कि अपने गांव के सारे घरों में जाऊं।
जो बचे खुचे बुजुर्ग हैं,लड़के हैं,बहू बेटियां हैं और बच्चे हैं,उन सबके साथ कुछ वक्त बिताऊं कि फिर हो न हो कि ऐसी मुलाकात मिले या न मिले।
दशकों बाद हम दिवाली पर घर में थे।हमारे यहां दिवाली पर न काली पूजा की परंपरा है और न लक्ष्मी पूजन की।
इस दीप पर्व पर पूर्वी बंगाल के किसान अपने पुरखों को याद करते हैं।दिवाली पर मिठाइयां और शुभकामनाएं बांटने के बजाय पुरखों को टाद करने की लोक परंपरा है।
शाम के बाद हम सारे घरवाले श्मशान घाट निकल चले और साथ में गांव के लोग भी जुट चले।बच्चे पटाखा फोड़ रहे थे और रोशनी कर रहे थे तो हम अपने पिता,मां,ताऊ,ताई और पद्दो के असमय दिवंगत बड़े बेटे विप्लव के लिए श्मशान पर मोमबत्तियां जला रहे थे।दिवंगत गांव वालों के लिए भी।
हमारे गांव वालों ने अब दो साल पहले अंत्येष्टि स्थल को पक्का बना लिया है और एक ही स्थान पर विश्राम करती हैं गांव की दिवंगत आत्माएं।
पक्का बनाने के बाद पंदर्ह बीस लोगों की अंत्येष्टि वहां हो चुकी है।हम उन तमाम दिवंगत आत्माओं के मुखातिब भी हुए और उनकी याद में मोमबत्तियां जलायीं।
श्मशान घाट के आस पास भूमिहीनों की बस्तियां हैं और अब वे संपन्नता में भूमिधाारियों से कम नहीं है।
वहां जाने का मौका चुूंकि कम ही होता है क्योंकि हम हमेशा घोड़े पर सवार गांव पहुंचते हैं और घोड़े पर ही निकल जाते हैं।लेकिन इसबार ज्यादातर अनचीन्हे अपने लोगों के हुजूम से भी मेरी अंतरंग बातें हुईं।मैं घर घर गया।
खास बात यह रही जिन घरों में मैं दस बारह साल की उम्र में बेटियों को विदा करते देखने का अभ्यस्त रहा हूं,उन सभी घरों में,पूरे गांव भर में न सिर्फ बेटियां बल्कि बहूएं भी पढ़ लिख रही हैं या कामकाजी हैं।
स्त्री सशक्तीकरण के इस खामोश भारत को हमारा सलाम और कहना न होगा कि बिटिया जिंदाबाद।जिंदाबाद बिटिया।
कल ही लंदन में अति सक्रिय बहुरालता कांबले Bharulata Kambleसे लंबी बातें हुई ।
माता सावित्री बाई फूल के नाम पर भारत में तीन जनवरी को महिला दिवस मनाने कीउनकी मुहिम के सिलसिले में लंबी चैटिंग हुई।
हम उनकी मांग का समर्थन करते हैं और सभी लोकतांत्रिक ताकतों को पुरुष वर्चस्व की इस व्यवस्था के खिलाफ स्त्री सशक्तीकरण के इस अभियान में शामिल होने का आग्रह भीा करते हैं।
वे मुझे जानती न होंगी लेकिन में उन्हें करीब एक दशक से जानता हूं और मैंने जब कहा कि हम स्त्रियों को चौके में कैद करने के खिलाफ हैं और हम स्त्रियों से रोज सीखते हैं तो वह लगातार हमसे बातें करती रहीं।मैं दफ्तर के लिए लेट भी हो रहा था,लेकिन उनकी बातें खत्म नहीं हो रही थी।अचानक वे इतनी अंतरंग,मैं दंग रह गया।
जैसा कि कोलकाता के उस बूढ़े ड्राइवर की व्यथा कथा है,वह हर गांव हर शहर में अब उपभोक्तावादी मुक्तबाजारी संस्कृति में अपरिहार्य है।
सिर्फ बदली नहीं हैं हमारी बेटियां और बहूएं भी अब उस परिवार का बोझ उठाने को तैयार हैं,जिसकी जिम्मेदारियां हमारे बेटे उठाने से मुकर रहे हैं,जिन्हें पैतृक संपत्ति के अलावा परिवार से कुछ लेना देना नहीं है।
यह उनका अपराध भी नहीं है।बेटियों और बहुओं को मालूम हो गया है नर्क हुई जिन्दगी को बदलना है तो कुछ बनकर दिखाना है।
बेटों को तो मां बाप की जागीर मिली हुई है।कुछ करें तो भी अच्छा। नहीं कर पाये तो भी ऐश करेंगे।कमसकम चूल्हा चौके की जिम्मेदारी तो उनकी नहीं है।
दरअसल हम पिता माता बतौर उपभोक्ता हैं और अपनी अपनी जड़ों से कटे हुए हैं तो हमारे बच्चे अगर मुक्त बाजार की संस्कृति की संतानें हैं,तो यह उनका नहीं,हमारा अपराध है।हम उन्हें दोषी ठहरा नहीं सकते।
इसी समाज की वे संताने हैं,जिन्हें हमने रचा है।जो जहर हम बोते रहे हैं दशकों से घर बार परिवार समाज देश तोड़कर,अब उसके नतीजे भी हमें ही भुगतने होंगे।
हम सिर्फ उम्मीद कर सकते हैं कि स्त्री सशक्तीकरण के मार्फत कमसकम हमारी बहनें,बेटियां और बहुएं दिशाहीन युवापीढ़िय़ों को सही रास्ता दिखायें।
बचने का इसके सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
हमारे वजूद के लिए बेहद जरुरी है इस मर्दवादी सामंती साम्राज्यवादी सड़ी गली व्यवस्था का अंत और उसके लिए हमें स्त्री नेतृत्व को मंजूर करना ही होगा।
हम तो अपनी बेटियों को काबिल बनाने की हर चंद कोशिश करेंगे ही और साथ ही हर हाल में चाहेंगे कि हमें अपनी बेटियों के साथ ही पढ़ी लिखी जिम्मेदार सचेतन कामकाजी बहुएं जरुर मिलें।
क्योंकि वे ही हमारी किस्मत बदल सकती हैं।अगर उन्हें हम बेटी बना सकें।
हमने घर घर अपने गांव में यही चर्चा चलायी और कमसकम बसंतीपुर में अब कोई स्त्री चूल्हे चौके में कैद न हों,यह हमारी निजी जिम्मेदारी है।जिसे निभाना हमारी बची खुची जिंदगी का मकसद है सबसे बड़ा।इससे ज्यादा हमारी औकात भी नहीं है।
अपने ही गांव में ज्यादातर वक्त बिताने के लिए इसबार मैं दिनेशपुर और रूद्रपुर,तराई और पहाड़ के ज्यादातर मित्रों और आत्मीयजनों से मिल नहीं सका।
इसका अफसोस तो है लेकिन मुझे खुशी है कि हम अपने गांव में स्त्री सशक्तीकरण की बहस छेड़ सके हैं,जो शायद भावुक भरत मिलाप से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
इसी सिलसिले में निवेदन है कि बहुरालता कांबले के पिटीशन पर जरुर गौर करें और सचमुच अगर भारत को आप हजारों साल की गुलामी से मुक्त करना चाहते हैं तो सबसे पहले अपने घर के अंदर कैद अपनी बहनों,बेटियों और बहुओं को आजाद करने की मुहिम में अवश्य शामिल हों।
इसीलिए सावित्री बाई फूले को याद करना अनिवार्य है।
Petition by
Luton, United Kingdom
To the government of India
Re: 3rd January to be declared as woman's day of India
There is no better way to pay tribute to the supreme name, Savitribai Phule, other than declaring her birthday as woman's day of India. India observed the 180th birth anniversary of one such feminist on Jan 3 — Savitribai Phule. She not only fought for the right to education, but for the right to dignity for widows, unwed mothers, and women with unwanted pregnancies. In the nineteenth century, her work was revolutionary.
Savitribhai Phule, the supreme lady who fought against the totalitarianism of caste and other social evils in India. Savitiribai Phule, who dared to pursue the Nobel profession of 'teaching' in the 'Dark Age' and became first lady teacher in India. This is the supreme name who started first school for females in India.
One of the supreme name who fought against the unpardonable boundaries imposed on the women society of India. Savitribai Phule, the lady who started first ever woman's school. This is the supreme name who started first ever school downtrodden females. Savitribai Phule, struggled and suffered with her revolutionary husband in an equal measure, but remains obscured due to casteist and sexist negligence. Apart from her identity as Jotirao Phule's wife, she is little known even in academia. Modern India's first woman teacher, a radical exponent of mass and female education, a champion of women's liberation, a pioneer of engaged poetry, a courageous mass leader who took on the forces of caste and patriarchy certainly had her independent identity and contribution.
It is indeed a measure of the ruthlessness of elite-controlled knowledge-production that a figure as important as Savitribai Phule fails to find any mention in the history of modern India. Her life and struggle deserves to be appreciated by a wider spectrum, and made known to non-Marathi people as well as others not in India but in the world. Savitribai Phule was the mother of modern poetry stressing necessity of English and Education through her poems. Savitribai Phule was the first Dalit women, in-fact first women whose poems got noticed in the British Empire.
Mahatma Jotiba Phule and his wife Savitribai Phule were first among the people who declared war against Casteism and Brahminic-Casteist culture. The Maharashtrian pioneering couple led mass movement of uniting oppressed class against the Brahminic values and thinking. Savitribai Phule worked as an equal partner in the mission of uplifting the poor and oppressed people. Though, she was formerly uneducated, she was encouraged, motivated by Mahatma Jotiba Phule to study. Later on she became the first lady teacher of school started by her husband. Life of Savitribai Phule as a teacher in the school at the time when upper caste orthodox people used to look down wasn't easy and many a they times used to pelt stones and throw dung on her. The young couple faced severe opposition from almost all sections. Savitribai was subject to intense harassment everyday as she walked to the school. Stones, mud and dirt were flung at her as she passed. But Savitribai Phule faced everything peacefully and with courageously.
At the time when even a shadow of untouchables were considered impure, when the people were unwilling to offer water to thirsty untouchables, Savitribai Phule and Mahatma Jotiba Phule opened the well in their house for the use of untouchables.
Savitribia Phule's thinking accurately that education is necessary for the restoration of social and cultural values. Savitribai Phule started 'Mahila Seva Mandal' in 1852, which worked for raising women's consciousness about their human rights, dignity of life and other social issues.
Lets pay tribute the supreme lady by recognizing her birthday to be the woman's Day of India.
Yours faithfully
Bharulata Kamble
Here is a brief story about Savitribai Phule:
Savitribai lived under the British Raj, and along with her husband Jyotirao Phule was one of the most prominent social reformists between 1847 and her death in 1897. As was the tradition in those days, Savitribai married Jyotirao when she was nine, and he thirteen. She has always had a fascination for words, and was also impressed by Jyotirao's cousin Saguna, who was a nanny in the house of a British official and spoke English.
At 16, Savitribai joined Saguna and sparked revolution by setting up a school for young people of the lower castes and economic classes. This in those days was taboo. Stories suggest that orthodox Hindu men of the upper classes attacked Savitribai whenever she visited her school. Sometimes, they abused her verbally, and at other times they pelted her with cow dung, rotten vegetables and stones. But Savitribai's determination never wavered. With her husband's help, she set up five other schools, and by the age of 19 was an accomplished teacher herself.
Savitribhai led the battle for women's liberation along several other fronts. As a young wife, she saw that several women her own age were already widowed. Some of them were forced to sacrifice their lives at their husband's pyre (Sati), and others were condemned to a life of seclusion. Savitribai joined social reformists of her time and worked to efface the stigma against these women, and to incorporate them into society. With her husband, she ran a home for pregnant widows and orphaned children, and took personal care of the destitute women who took refuge in that home.
She soon discovered that women are often stigmatized for unwanted pregnancies. She ran a delivery home for such women, and took care of their abandoned children. Her husband even let one child take on his name, an act that earned him criticism.
Savitribai was a soldier of reform, and she died taking care of women affected by an epidemic of plague. She was one of the only women of the time whose death was reported in a newspaper.
Young Indian women of today owe a debt of gratitude to women like Savitribai who braved stigma. She voluntarily lived on the fringes of her society – an outcast in some ways, because of what she believed in. Yet, it never deterred her from her goal – the advancement of women through education. She was also one of the first women to work hard against misogyny during the period of the British Raj.
Coming back to today, education still remains elusive to young girls around the world. Across Asia, child labour and child marriage rob children of their right to complete basic school education. Without education, these young girls are unable to read and access information about their own bodies and health, let alone about their rights and choices.
While there are several attempts at providing illiterate women information in simplified forms, there is nothing like sending a girl to school and helping her develop the skills to think and form opinions of her own. What we need is for women to come together as a fitting tribute to the Savitribais of yesteryears, and support education among women. After all there is only one way to combat misogyny and stigma – education. But to achieve that we first need to protest the stigma against educating young girls.
To:
to the government of India
3rd January to be declared as woman's day of India
Sincerely,
[Your name]
सावित्रीबाई फुले
http://hi.wikipedia.org/s/6hwa
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) भारत की एक समाजसुधारिका एवं मराठी कवयित्री थीं। उन्होने अपने पति महात्मा ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर स्त्रियों के अधिकारों एवं शिक्षा के लिए बहुत से कार्य किए। सावित्रीबाई भारत के प्रथम कन्या विद्यालय में प्रथम महिला शिक्षिका थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत माना जाता है। १८५२ में उन्होने अछूत बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।
अनुक्रम
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परिचय[संपादित करें]
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।
सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछात मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।
'सामाजिक मुश्किलें
वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 160 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था कितनी सामाजिक मुश्किलों से खोला गया होगा देश में एक अकेला बालिका विद्यालय।
महानायिका
सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।
विद्यालय की स्थापना[संपादित करें]
1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे शहर में।
निधन[संपादित करें]
10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी छूत लग गया। और इसी कारण से उनकी मृत्यु हुई।
Bharulata Kamble added 5 new photos to the album Salute to Mamta and her parents.
Salute to these parents who despite being in poverty are happy raising this girl who was born with only parts of limbs. My heart fell for the brave and cheerful girl and great parents who are not cursing god or their fate but raising this girl selflessly. I heard mamta's father is blind and mother doing her best to do the needful to run a happy family. I initiated help for Mamta from my personal funds and manages to raise some funds under the Social Amity Foundation for Equality. If you wish to help then please send me personal message.
— with Subodh Kamble and Bharulata Kamble.
अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!
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