अमेरिकी अश्वेत राष्ट्रपति नरसंहार का उत्सव मनाने भारत आ रहे हैं।
गणतंत्र दिवस का उत्सव मनाने नहीं।
पलाश विश्वास
बाराक ओबामा के समर्थन में दुनियाभर के अश्वेत अछूत लोगों ने रंगभेद को पराजित करने और मार्टिन लूथर किंग के सपने को साकार करने के लिए इंटरनेट पर मुहिम चलायी थी।उनके पहले अश्वेत राष्ट्पति निर्वाचित होने के पीछे उस समर्थन का बड़ा हाथ रहा है,जिसने अमेरिका की सामाजिक और उत्पादक शक्तियों की गोलबंदी तेज की थी।तब हमने ओबामा के समर्थन में अपने ब्लागों में विजेट लगाये थे और इन्हीं ब्लागों के जरिये हमने भी उनका धुआँधार प्रचार किया था।
आज दूसरे दफा के राष्ट्रपतित्व में वे नये सिरे से दक्षिण एशिया के सर जमीं से तेल युद्ध शुरु करने आ रहे हैं।
वे आ रहे हैं टूटते हुए डालर और टूट रहे अमेरिका का बोझ हमारे मत्थे पर डालने के लिए।
वे आ रहे हैं फिलीस्तीनी जनता के साथ दुनियाभर के विकासशील देशों और अविकसित देशों मं अपने आर्थिक उपनिवेशों में अमेरिकी कंपनियों के हितों को मजबूत करने के लिए।
उनके आने की तैयारी में भारत ने इजराइल के पक्ष में अपने इतिहास और राजनय के विरुद्ध फलीस्तीन और मध्यएशिया के खिलाफ वैसे ही युद्ध घोषणा की है,जैसे उसने भोपाल गैस त्रासदी,सिखों के नरसंहार, बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार जैसे कारनामों के मध्य हिंदू साम्राज्यवाद के पुनरूत्थान की आधारशिला रखते हुए सौ फीसद हिंदू राष्ट्र का अश्वमेध अभियान शुरु किया है।
संघ परिवार के झारखंड विजय का मतलब है कि आदिवासी बहुल झारखंड का मुख्यमंत्री अब गैर आदिवासी होगा।इसी तरह अमित शाह के बंग विजय का मतलब है गकि गैर बंगाली कोई स्वयंसेवक बंगाल की बागडोर साधेंगे।
हिंदू ह्रदय के असली सम्राट खुदै अमित शाह हो सकते हैं या बंगाल में भूमिगत रही किसी मृतात्मा का चेहरा।इन मृतात्माओं को उनकी कब्र से निकालकर जन पद जनपद में देशभर में छुट्टा छोड़ दिया गया है।
अमित शाह ही हिंदू ह्रदय के असली चक्रवर्ती सम्राट हैं जो किसी विदेशी हमलावर की तरह भारत की सरजमीं और हमारे दिलोदिमाग को बेरहमी से कुचलकर आदिम वजीत का जश्न मना रहे हैं।
सभ्यता और संस्कृति के विरुद्ध,
जल जमीन जंगल के विरुद्ध,
हवाओं और पानियों के विरुद्ध,
नौकरियों और आजीविका के विरुद्ध,
नागरिकता और नागरिको के विरुद्ध,
संविधान और गणतंत्र के विरुद्ध,
नागरिक और मानवाधिकारों के विरुद्ध,
प्रकृति और पर्यावरण के विरुद्ध,
इंसानियत के खिलाफ
उस जश्न में शरीक होने
नस्ली रंगभेद का जयपताका फहराने
अबकी दफा भारत आ रहे हैं
रंगभेद जीतकर दो दो बार
अमेरिका के राष्ट्रपति बनकर
नयाइतिहास रचने वाले
अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति
बाराक हुसैन ओबामा।
बाराक ओबामा धर्मांतरण अश्वमेध को तेज करने भारत आ रहे हैं और जम्हूरियत के इंतकाल के जश्न में शरीक होंगे।
बाहरी और घुसपैठिया बताकर जो घरवापसी का संघ परिवार का एजंडा शत प्रतिशत हिंदू आबादी का है ,वह दरअसल गैर नस्ली भारतीय नागिकों के सफाये का अभियान है।
और विडंबना यह है रंगभेद को जीतकर दो दो बार अमेरिका का अश्वेत राष्ट्रपति बने बाराक ओबामा अमेरिकी और इजरािली हितों के मद्देनजर अपनी भारत यात्रा हरगिज खारिज करने वाले नहीं हैं।
गौर करें कि सौ फीसद हिंदुत्व का यह अश्वमेध राजसूय सिर्फ ईसाइयों और मुसलमानों या सिर्फ पूर्वी बंगाल के अनार्य हिंदू विभाजन पीड़ित शरणार्थियों के खिलाफ नहीं है,देश भर के आदिवासी भूगोल में दौड़ते अश्वमेध के घोड़े बता रहे हैं कि इस जन्नत की हकीकत आखिर क्या क्या हैं।
संसद के शीतकालीन सत्र में एकमुशत 1382 कानून न्यूनतम राजकाजे के वास्ते हलाक कर दिये गे।कौन से कानून,कैसे कानूनकिसी को अता पता नहीं है।अपने बिलियनर मिलियनर सांसदों और मंत्रियों को भी नहीं।शायद अमित शाह और प्रधानमंत्री को भी नहीं मालूम।साध्वी के बयान के कखिलाफ नूरा कुस्ती के मध्य यह कमाल हुआ।
फिर ओबामा के आने से पहले सारे के सारे सुधार लागू करने और गिर रहे तेलमूल्यों को आसमान तक पहुंचाने की मुहिम को अमली जामा पहुंचाने के लिए अध्यादेश राज कायम हो गया है संसद का शीतकालीन अधिवेशन खत्म होते न होते।
बीमा अध्यादेश लागू हो चुका है।
कोयला अध्यादेश लागू होना है।
जो जो कानून संसद में पास नहीं हुए,वे सारे अध्यादेश लागू हो जायेंगे और एनेस्थेसिया के बंदोबस्त के तहत नाना प्रकार की घटनाएं,दुर्घटनाएं और आपदाये रचकर वे कब कानून की शक्ल में मृतात्माओं के हाथों हमारा गला घोंट देंगी,इस भूतबांग्ला देश के तबाह जनपदों के भूगोल में किसी को कानोंकन खबर नही होगी।
अपने कर्नल साहेब यानी सिद्धार्थ बर्वे सेना की सेवा से मुक्त हो गये हैं पिछले 23 दिसंबर को।हम तो उनकी उम्र के लिहाज से सोच रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि वे पहले ब्रिगेडियर बनेंगे ,फिर मेजर जनरल।हम तब कह सकेंगे कि कोई मेजर जनरल भी हमारे मित्र हैं।ऐसा नहीं हो पाया मलाल है।
सेना की सेवा से मुक्त होते ही कर्नल साहेब ने मुंबई में भाभी के हवाले होने के तुरंत बाद जो ईमेल किया है,वह गौरतलब हैः
PSU banks write off over Rs 1.06 lakh crore in last 5 years
The amount of bad loans written off or restructured by the PSU banks has more than doubled in the last three years ending March 2014 to Rs 42,447 crore.
The rise in bad loans is being attributed to slowdown in the economy which slipped to below 5 per cent in the two consecutive financial years — 2012-13 and 2013-14.
The loans written off/compromised by PSU banks soared from Rs 20,752 crore in 2011-12 to Rs 32,992 crore in 2012-13 and further to Rs 42,447 crore in 2013-14.
With Regards,
LT COL SIDDARTH BARVE
जाहिर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति भारत में विधर्मियों के सफाये और उसके साथ ही आदिवासी भूगोल में देशव्यापी सलवाजुड़ुम के इस दुस्समय में भार ते में गणत्तर का उत्सव नहीं मनाने आ रहे हैं।
उनका ईमेल आईडी हैः
अंतर्जाल से अमेरिकी सरकार और प्रशासन से संपर्क साधने के और भी उपाय है, जिसका खुलासा वांछनीय नहीं है।
सुधिजन उन उपायों को भी चाहें तो आजमा सकते हैं।
जाहिर है, ऐसे दुस्समय में गणतंत्र दिवस का उत्सव बेमायने हैं। मुर्दा लाशों के देश में अब जम्हूरियत का कोई भी जश्न गैर जरूरी है।
हमने रंगभेद के खिलाफ अमेरिका का इतिहास और बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति उनके कहे का हवाला देकर ओबामा महाशय से इस नरसंहार के राजसूय में शामिल होने से इंकार करने के लिए निवेदन किया है।
आप भी लिखें खत ओबामा को तुरंत।
जो अंग्रेजी में नहीं लिख सकते और लिखना जरूर चाहते हैं, जो मुझे अब तक साथ देते रहे हैं। जिनका समर्थन मुझे हैं देश भर में, उन साथियों से निवेदन है कि "हस्तक्षेप" पर मेरा खत सजा है।
संघ परिवार के झारखंड विजय के बाद वहींच से लिखा है एके पंकज नेः
दो प्रमुख अतिवादी नेता मार गिराए जाते हैं और फिर अतिवादियों के खिलाफ मुख्यमंत्री का बयान आता है. इसके तुरंत बाद अतिवादी बयान देने वाले मुख्यमंत्री की नस्ल या पुलिस बल के खिलाफ नहीं, अपने ही जैसे नस्ल का जनसंहार कर 60 से अधिक निरीह लोगों को मार डालते हैं. क्या यह कार्रवाई और बयान चेतावनी थी या जनसंहार का अप्रत्यक्ष आदेश? एकदूसरे को लड़वा कर मारनेवाली सत्ता किसकी है? बंदूकें, बम और बारूद किसने और क्यों बनाया है?
पंकज जी आपने सीधे सवाल दागा है,जिसका जवाब सुधिजन दें तो आभार।
वैसे भी मैं किसी पर्व त्योहार को मनााता नहीं हूं और न किसी को बधाई भेजता हूं।फिलवक्त तो हैप्पी क्रिसमस कहने की मानसिकता में नहीं हूं।माफ करें।हिंदु राष्ट्र भारत में क्रिसमस दिवस मनाया भी नहीं जा रहा है।
आज सुशासन दिवस है।जिसे अच्छी तरह मनाने के लिए सलवाजुड़ुम के तहत नरमेध यज्ञ असम के बोडो भूगल से शुरु हो चुका है।
इतिहास के कायकल्प में संघ परिवार की अनंत दक्षता का मंजर यह हुआ कि आज क्रिसमस दिवस होकर भी क्रिसमस दिवस नहीं है। नहीं है।
आज भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई का जन्मदिन है।
सरकार इस दिन को सुशासन दिवस के रूप में तो मना ही रही है।
वाजपेई को भारत रत्न देने का ऐलान कर यह दिन और खास हो गया है।
आज उन्ही पंडित मदनमोहन मालवीयको अटल हिंदुत्व के साथ जुड़वा भारत रत्न का जश्न है,जिनने बाबासाहेब अंबेडकर के मुकाबले में खड़ा होने के लिए बाबू जगजीवन राम को पाल पोसकर पढ़ा लिखाकर तैयार किया लेकिन बाबासाहेब के खिलाफ सक्रिय रहे।
मनुस्मृति शासन में बाइसवीं बार क्षत्रियों के संहार के बाद शूद्र राजकाज में कल्कि के अवतार समय में हिंदू साम्राज्यवाद के पुनरूत्थान के लिए फिर उनका आवाहन।
क्रिसमस पर मुकम्मल हिंदुस्तान की प्लुरल तस्वीर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर बधाई देने के लिए उनके निवास पहुंचे। मोदी ने खुद ट्वीट कर इसकी जानकारी दी। वाजपेयी का आज 90वां जन्मदिवस है। पिछले कुछ सालों से खराब स्वास्थ्य के चलते वाजपेयी सार्वजनिक समारोहों और मीडिया से दूर रह रहे हैं। मोदी पहले शाम को वाजपेयी से मिलने जाने वाले थे लेकिन खराब मौसम के चलते उनके कार्यक्रम में अचानक बदलाव किया गया। वाजपेयी के जन्मदिन को बीजेपी 'सुशासन दिवस' के तौर पर मना रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा इस दिन को 'सुशासन दिवस' के रूप में मनाने से बड़ा कोई सम्मान नहीं।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुरूवार को पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को उनके 90वें जन्मदिन पर बधाई दी। पीएम मोदी ने वाजपेयी से मुलाकात कर उन्हें उनके जन्मदिन और भारत रत्न से सम्मानित किए जाने पर बधाई दी। मोदी ने सुबहवाजपेयी के घर जाकर उनसे मुलाकात की और उन्हेे गुलदस्ता भेंट किया। सरकार ने बुधवार को वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने की घोषणा की थी। वाजपेयी का आज 90वां जन्मदिन है, जिसे देश सुशासन दिवस के रूप में मना रहा है। प्रधानमंत्री नेवाजपेयी के जन्मदिन को सुशासन दिवस के रूप में मनाए जाने को लेकर खुशी जाहिर की।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 90 साल के हो गए हैं। 2014 में यानि उनके 91वें जन्मदिन पर उनको बेशकीमती तोहफा मिला। उनके जन्मदिन के एक दिन पहले देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किए जाने का एलान किया गया। राष्ट्रपति के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से इसकी जानकारी दी गई। साथ ही केंद्र सरकार उनके जन्मदिन को सुशासन दिवस के रूप में मना रही है। वाजपेयी हमेशा से अपने नेतृत्व क्षमता के लिए जाने जाते हैं।
हम चाहे क्रिसमस मनायें या न मनायें,मेरे घर में आज क्रिसमस है।
सोदपुर की संगीतबद्ध महिलाओं के एक जत्थे ने मेरे घर पर आज कब्जा कर लिया है।
उन्होंने मुझसे मटन का पैसा वसूल लिया है।पड़ोसी डाक्टर एके रायचौधरी केक का स्पांसर करने वाले हैं।
हमारी बेटी मुन्ना डकैत इस गिरोह की सुर सरगना हैं।
गौरतलब है कि सोदपुर में एक फीसद भी ईसाई नहीं हैं।
लेकिन सुबह अखवबार का बिल देने गया रेलवे स्टेशन और बाजार जाकर मधुमेह की दवा खरीदी तो देखा कि कोई कुछ नहीं खरीद रहा है केक के सिवाय।
देखा बाजार में केक के सिवाय कुछ भी नहीं बिक रहा है।
रेलवे लाइन और फुटपाथों पर भी केकपात है।
दूध और पावरोटी लाने कांफेक्शनरी की दुकान पहुंचा तो वे समामान सहेजते मिले कि अब उन्हें फुरसत हुई कि देर रात तक केक बेचने से उन्हें फुरसत नहीं मिली है।
बंगाल को केसरिया बना देने के कश्मीर घाटी सरीखा हकीकत दरअसल यही है।
बंगाल को केसरिया बना देने के कश्मीर घाटी सरीखा हकीकत दरअसल यही है कि मुंबई दिल्ली हाईवे पर मुस्लिम आबादी में भी देर रात तक क्रिसमस का जश्न मानया लोगों ने।
अंकुरहाटी में एक्सप्रेसभवन के बगल में जो मजार है,वहां कल रात उर्स थी सालाना ।पूरे अंकुरहाटी में लाउडस्पीकर से पाक कुरान और हदीस का मतलब समझा रहे थे इस्लाम के विशेषज्ञ।
साइंस से इस्लामी नजरिये का फर्क समझा रहे थे इस्लमा के विशेषज्ञ।वहां और आसपास सलप कोना से लेकर धूलागढ़,पांचला से लेकर उलूबेड़िया,आमता और बागनान हावड़ा जिले में और आरामबाग हुगली जिले में मुस्लमि आबादी मूसलाधार है और वहां उर्स के मध्य क्रिसमस मना रहे थे सर्द रातों में।
जो नेत्रहीन हैं ,वे देख नहीं सकते।
जो बहलरे हैं,वे सुन नहीं सकते।
जो विकलांग हैं, वे चल नहीं सकते।
बहरहाल मुकम्ल दिलोदिमाग की इंसानियत के लिए ये चीजें उतनी जरुरी भी नहीं हैं।
बस,खिड़कियों और दरवज्जों को खुल्ला रखने की जरुरत है।
यह क्रिसमस पर प्लुरल हिंदुस्तान की मुकम्मल तस्वीर है जो सिर्प हिंदू नहीं है और जहां हर पर्व त्योहार साझा हैं,चाहे हम निजी तौर पर मनाये या न मनायें।
सीमेंट के जंगल में अंतहीन वातानुकूलित गुफाओं में जी सहमी दुबकी जरुर है इंसानियत इस कयामत समय में कि सुनामियों ने हमें अपने अपने घर से तड़ीपार कर दिया है और घरों,खेतों,खलिहान,जल, जंगल जमीन, पहाड़,समुंदर,मरुस्थल और रण से हम बेदखल जरुर हो गये हैं,बेदखल हो गये हैं प्रकृति और पर्यावरण से लेकिन जनपदों में सुशासन की जयडंका का शोर हर कहीं नहीं है।जहां नहीं है,वहां फिर फिर सलवा जुडुम है,आफसा है और हैं फर्जी मुठभेड़.दंगे और काले कानून चित्र विचित्र।
इसीलिए ग्लेशियर रेगिस्तान में तब्दील हैं।
इसीलिए सुंदरवन तबाह है।
इसीलिए समुंदरों में सुनामियों का बवंडर है।
इसीलिए भावी अन्न संकट की आशंका में वयोवृद्ध सुंदरलाल बहुगुणा ने अन्न का परि्याग किया है।
लेकिन गौर से देख लीजिये बंधु अगर आंखें सहीं सलामत हैं और आंखें होने के बवजूद धर्मांध नहीं है,मृतात्माओं के शिकंजे में नहीं है,साझा चूल्हा लेकिन हर कहीं चालू है।
इस देश का हर गांव दरअसल सोया हुआ बसंतीपुर है।
जिसके दरवाजों और खिड़कियों पर जोर से दस्तक देने की जरुरत है।
जरुरत है कि साझे हर चूल्हे की आग जलायी जायें।
मुक्तबाजारी अर्थ व्यवस्था में बिरयानी हुए हम
दरअसल मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में देश के आमहुए हों,मिलियनर बिलियनर राजनीति तबके की पांचों उंगलियां घी में हैं और सर हंडिया में है.जहां बिरयानी में तब्दील है में तब्दील हैं हमारी हड्डियां,हमारा खून और हमारी जिंदगी,जिसका भोग यह हिंदुत्व की कारपोरेट राजनीति है।
हकीकत लेकिन यह है कि शत प्रतिशत हिंदू करण अभियान से सिर्फ मुसलमान और ईसाई ही नहीं,बाकी सारे विधर्मी भी एकमुश्त पर नरसंहार के लक्ष्य बन गये हैं।
मुसलमानों के खिलाफ अमेरिका के आतंकविरोधी महायुद्ध में इजराइल के साथ पार्टनर बन गये भारत ने जो अपनी पुरानी राजनीति कोछोड़कर फलीस्तीन के खिलाफ इजरायल का साथ देने का फैसला कर लिया इसी हिंदुत्वकरण अभियानके तहत ,वह यरुशलम मस्जिद कब्जाने के लिए बाबरी विध्वंस के जरिये ड्रेस रिहरसल का हादसा दोहरा रहा है।
एक तरफ पड़ोसी मुस्लिम बहुल देशों में अखंड भारत के हिंदुओं केअब भी फंसे होने पर लज्जा के दिन वापस होने के माहौल बन गये हैं और हिंदुत्व के सिपाहसालारों को उसकी चिंता कतई नही है।
जैसे अस्सी के दशक में केश और पगड़ी देककर जिंदा जलाये जा रहे थे इंसान वैसे ही अब बजरंगी वाहिनियां देश भर में टोपी और दाढ़ी देखकर मुसलमान पहचानने की मुहिम छेड़ चुके हैं।
बंग के विजय के बिना भारत विजय अधूरा कहने वाले अमित शाह झारखंड और कश्मीर जीतने के दावे कर रहे हैं और बाकी भारत की राज्य सरकारों को कब्जाने के लिए जो हिंदुत्व का अभियान है ,वह पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर भारत में धार्मिक ध्रूवीकरण तेज करने की रणनीति पर आधारित है।
असम को गुजरात बनाने की मुहिम शुरु से
नरसंहार की संस्कृति के लिए बदनाम असम को दूसरा गुजरात बनाने की मुहिम पहले से जारी है अस्सी के दशक से जब विदेशी घुसपैठियों को खदेड़ने का आंदोलन चला रहा था संघ परिवार और उसके तमाम स्वयसेवक वहां जमीनी काम कर रहे थे।
मुसलमानों के खिलाफ असम में आदिवासियों और बोड़ो अल्फा उग्रवादियों को लगाते रहने की राजनीति से साठ के दशक से असम लगातार लहूलुहान होता रहा है।
ताजा हालात
मृतकों की संख्या सेंचुरी पार
वैसे मीडिया नरसंहार कवरेज में भी पिछड़ रहा है।
बहरहाल
गुवाहाटीहा: असम के सोनितपुर और कोकराझार में एनडीएफबी उग्रवादी हमले में मरने वालों की संख्या 70 पार पहुंच गई है। राज्य में हालत तनावपूर्ण बने हुए हैं। रिपोर्टों का कहना है हजारों की संख्या में लोग अपने घरों को छोड़कर स्कूलों और चर्चों में पनाह ले रहे हैं। गौरतलब है कि इससे पहले बुधवार को उग्र आदिवासी प्रदर्शन में पुलिस फायरिंग में पांच लोगों की मौत हो गई थी। आदिवासी अपने परिजनों की हत्या के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे। आदिवासियों ने बोडो कार्यकर्ताओं के घरों में आग लगा दी थी।
राइटर की रिपोर्ट के मुताबिक, असम में ताजा उग्रवादी हमले की बात कही जा रही है। एक ग्रामीण के मुताबित, उग्रवादियों ने पानी मांगा और उसके बाद फायरिंग शुरू कर दी। वहीं, हिंसा प्रभावित इलाकों में कर्फ्यू जारी है। सेना और पुलिस हालात पर काबू पाने की कोशिश में जुटी हुई है। बुधवार को गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राज्य का दौरा किया था। उन्होंने इस नरसंहार को 'आतंकी' कार्य बताया और इससे सख्ती से निपटने की बात कही। गृहमंत्री ने हमले के लिए राज्य सरकार की लापरवाही को भी जिम्मेदार माना और कहा कि जानकारी मिलने के बाद भी राज्य सरकार हमलों को रोकने में नाकाम रही है।
उदलगुड़ी के पुलिस अधीक्षक बीर बिक्रम गोगोई का कहना है कि संदिग्ध एनडीएफबी (एस) उग्रवादियों ने मजबत थानांतर्गत लामाबारी में गोलीबारी की और कुछ घरों को जला दिया। एक पुलिस दल मौके पर पहुंचा और उग्रवादियों पर गोली चलाईं, तो वे मौके से भाग गए। उन्होंने कहा कि गोलीबारी में एक आदिवासी घायल हो गया। उसे तेजपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती कराया गया है। पुलिस ने कहा कि हमले के बाद नाराज आदिवासियों ने लामाबारी और उदलगुड़ी साप्ताहिक हाट में 60 से अधिक घरों को आग के हवाले कर दिया। लोगों के घर छोड़ने के चलते कोई घायल नहीं हुआ। उग्रवादियों ने मंगलवार रात से कोकराझार, चिरांग, सोनितपुर और उदलगुड़ी जिलों में सिलसिलेवार हमलों में कई आदिवासियों को मार दिया।
साठ के दशक में ही पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों के खिलाफ बांगाल खेदाओ दंगा भड़क गये तो कामरुप कछार ग्वालपाड़ा नौगांव करीमगंज जैसे दगा पीड़ित इलाकों में तंबू डालकर पड़े हुए थे पिताजी पुलिनबाबू और उनके छोटे भाई डा.सुधीर कुमार विश्वास।
2003 के जनवरी महीने में ब्रह्मपुत्र बिच फेस्टीवल में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार मुख्य अतिथि थे।वे जा नहीं पाये तो उनकी जगह दलित कवि और त्रिपुरा के सीनियरमोस्ट मेंत्री अनिल सरकार मुख्यअतिथि बतौर गुवाहाटी गये।मैं भी उस उत्सव में असम सरकार का अतिथि था और तब भी तरुण गगोई ही मुख्यमंत्री थे। मैं कोलकाता से उड़कर गुवाहाटी पहुंचा और सीधे एअर पोर्ट से पर्वोत्तर के लेककों,कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों के सम्मेलन में क्योंकि हमारी फ्लािट सुबह के बदले शाम को गुवाहाटी पहुंची थी मौसम की गड़बजड़ी की वजह से।
उस सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे थे अनिल सरकार।
हमें गमछा पहिनाकर सम्मानित करने के बाद मंच पर खड़ा कर दिया तो हमने उस सम्मेलन को संबोधित करते हुे पूर्वोत्तर के लोगों को पूछा था कि क्यों आप एक दूसरे की पीठ पर खंजर भोंकने के अभ्यस्त हैं क्यों नहीं वह खंजर उन के खिलाफ इस्तेमाल में लाते हैं जो आप सबकी मौत का समामन जुटाते हैं?
निरुत्तर थे सारे विद्वतजन।
आम लोगों से यह सवाल करने की तब हमारी हैसियत नहीं थी।
न अब है।हमारे बस में हो तो भारत के हर नागरिक कसे आज यह सवाल करना चाहता हूं।
बिच फेस्टिवल के शुभारंभ के बाद अतिविशिष्टों का काफिला ब्रह्मपुत्रपार हो गया लेकिन अनिल सरकार पूर्वोत्तर की झांकिया देखने में मगन रहे देर रात तक और मैं उनके साथ नत्थी हो गया।
गुवाहाटी में भोगाली बिहु के उत्सव में हम दावतों से सुबह शाम परेशान रहे और बिहु उत्सव में जहा तहां शरीक होते रहे। गनीमत है कि असम में मसालों का चल नहीं है और टमाटर के साथ मछलियों का बिना फ्राई टेंगा हजम करते रहने में हमें खास तकलीफ भी नहीं हुईषबिना नाच सीखे बिहु दूसरों के साथ नाचने में हमें शर्मिंदगी का सामना करना नहीं पड़ा।
गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र तट पर चितोल मछलियों की बहार भी हमने पहली बार देखी।कोलकाता में बेहद महंगी,ईलिश से भी महंगी जिंदा चितोल मछलियों को दोनों हाथों में विजयपताका की तरह लहराते असम के भलमानुष लोगों के हुजुम को हमने देखा।
उन्हें पीढियों के गुजर जाने का बाद भी याद हैं पुलिनबाबू और उनके डाक्टर भाई
अनिल सरकार को मालेगांव अभयारण्य का उद्घाटन करना था।
हम गुवाहाटी से सुबह ही निकल पड़े।एक ही कार में मैं और अनिल सरकार।
असम सरकार के जनसंपर्क अधिकारी ब्रह्मपुत्र से ताजा मछलियां लेकर आता हूं वरना वहां जंगल में आप रलोग खायेंगे क्या,कहकर निकल गये।
हम लोग पुलिस पायलट के साथ निकल पड़े।
अभयारण्य से महज तीन किमी दूर रास्ता कटा हुआ था।स्थानीय लोगो ने बताया कि घूमकर जाना होगा।
उनने रास्ता दिखा दिया औऐर कहा दसेक किमी घूमकर अभयरम्य पहुंच जायेंगे वरना शिलांग रोड पकड़कर जाइये।
पुलिस अफसर ने कहा कि अल्फा उग्रवादियों की हरकत है।
हम तो मामूली पत्रकार ठेरे,लेकिन न तब हम समझे कि अभयारम्य में अल्फा की मौजूदगी की खबर असम पुलिस को क्यों नहीं हुई होगी और जब उन्हें मालूम हो गया तो वहां पड़ोसी राज्य के मंत्री को ले जाने का जोखिम उनने कैसे उठाया,न अब समझ रहे हैं कि उग्रवादियों की खबर से बेखबर क्यों रहता है असम पुलिस प्रसासन।हमारा सवाल यह है कि राज्य के मुख्यसचिव जब बोड़ों उग्रवादियों के नरसंहार की खबर जानकर भी काजिरंगा में एलीपेंट सफारी पर हों और पुलिस प्रशासन के अफसरान मौके पर जाने से इंकार करते हों तो महज कर्फ्यू लगाकर और केंद्र से अर्द्धसैनिक बल की कंपियां मंगाकर या सेना लगाकर दंगो की आग पर कैसे काबू पाया जा सकता है।
बहरहाल जम्हूरियत का मंजर यही है कि पहले दंगा भड़काओ और फिर सेना के हवाले कर दो पूरे के पूरे इलाके। ताकि गुलशन का कारोबार खूब चलें। ताकि जो नागरिक मानवाधिकार का हवाला देकर कुच ज्यादा ही भौंके ,उसे देशद्रोह के मुकदमे में सींखचों के भीतर कर दिया जा सके।
हम अभयारण्य के मुहाने से मुड़कर फिर चले।तो चलते ही रहे।चलने से पहले मैंने पुलिसवालों से कहा भी था कि बेहतर हो कि जे पहचाने रास्ते पर घूमकर ही चला जाये।शिलांग रोड माफिक रहेगा।
असम पुलिस ने कहा कि वे अपने इलाके अपने हाथ की तरह जानते हैं और जमीन और आसमान में होने वाली सारी हरकतें उन्हें मालूम हो जाती है।
कैसे उनको सबकुछ मालूम हो जाता है,आगे चलकर देखना था।
बीसेक किमी चलने पर भी अभयरण्य का अता पता न था।
कुछ ही दिनों पहले अनिलजी के दिल काआपरेशन हुआ था और वे शुगर के मरीज भी हैं।इंसुलिन पर जीते हैं।सुबह हल्का नास्ता लेकर चले थे।बूख भी लगने लगी थी और सड़क तो जैसे पाताल में धंस रही थी।जहां तहां बड़े बड़े खड्ड।अचानक अनिल जी खुशी के मारे चीख पड़े।
बोले,देखिये कि अग बगल सारे घर हमारे हैं।शरणार्थियों का इसलाका है यह।हमने देखा और फौरन पहचान लिया।
अगले गांव में ही गाड़ी रुकवा दी कवि ने और गाड़ी से उतर कर उमड़ आयी भीड़ से जब पूछकर पता चला कि वे विभाजन के बाद कुमिल्ला से विस्थापित होने के बाद वहां लाकर बसा दिये गयेत हर चेहरे की पहचान जानने को बेताब हो गये अनिल सरकार।
किस गांव से आये वे लोग और कौन थे उनके पिता दादा वगैरह वगैरह सवाल वे ब्चे की तरह दागने लगे।
पीढ़ियां मर खप गयीं तो क्या पता लगने वाला ठैरा।लेकिन जो बजुर्ग थे,वे कुछ कुछ बताने याद करने वाले भी थे।
अनिल सरकार ने असम के अफसरों और पुलिस से कह दिया कि हम अभयारण्य नहीं जाते अब।गोगोई से कह देंगे कि किसी और से उद्घाटन करवा लें।
बोले वे कि अब हम हरगांव के लोगों से मिलेंगे।
अनिल बाबू के साथ हम पूरा त्रिपुरा घूम चुके हैं लेकिन ऐसी दीवनगी हमने कभी नहीं देखी थी।
तब अनिल बाबू ने जब पूछा कि कौन कौन यहां आते हैं।तो उनके जवाब से हम हैरत में पड़ गये।तीन पीढ़ियों के बाद भी वे बोल रहे थे और उन्हें याद था।बोले वे साठ में नैनीताल से जो पुलिनबाबू और उनके भाई दंगों के दौरान हमारे यहां थे,उसके बाद आप ही लोग आ रहे हों।
तब अनिल बाबू ने उनसे हमारा परिचय कराया और कहा कि ये पुलिनबाबू के बेटे हैं।
उस वक्त मेरे पिता के गुजरे हुए छाई साल हो चुके थे।
मैंने जब बताया कि वे रीढ में कैंसर की वजह से थम गये,उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि वे कैसे थम सकते हैं।
फिर तो गांव गांव हमें लभाें बी करनी पड़ी और रात को हम लोग गुवाहाटी वापस आये।
हमने उनसे दोबारा जाने का वायदा किया था।हम जा नहीं सकें।
असम सरकार के सौजन्य से हम अपनों बीत फोकट में घूम आये तब,फिर जाना न हुआ।
पुलिन बाबू की चेतावनी
तबसे पुलिनबाबू बंगाली शरणार्थियों को हुिंदुत्व का एजंडा समझाते रहे हैं और आगाह करते रहे हैं कि आर्य हिंदुत्ववादी गैरनस्ली अनार्य हिंदुओं को देश भर से खदेड़ने की तैयारी में हैं,जो नागरिकता संशोधन कानून की शक्ल में देश व्यापी शरणार्थी भगाओं अभियान से साफ हुआ है अब।लेकिन हिंदुत्व की खुराक से शरणार्थियों का पेट अभी भरा नहीं हैं ।
बंगाल और असम में ये हिंदू शरणार्थी ही संघ परिवार के आधार हैं।मतुआ भी अब संघ परिवार।
भारत विभाजन का सारा दोष मुस्लिम लीग और मुसलमानों के मत्त डालकर इन्ही हिंदुओं को संघपरिवार के हक में गोलबंद करने की मुहिम में चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी और संघ परिवार के तमाम नेता लगे हुए हैं।
गौरतल ब है कि असम में बोडो आबादी अच्छी खासी है ,उन्हें अब आदिवासियों के खिलाफ झोंककर छत्तीसगढ़ की तरह सलवा जुड़ुम भी तैयार कर चुका है संघ परिवार।
पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर भारत जीतने की जुगत में हैं,तो नतीजा सामने हैं।झारखंड और जम्मू जीतने के बाद संघियों के मंसूबे और मजबूत हो गये हैं।
जाहिर है कि नतीजे आगे इससे भी भयानक होंगे क्योंकि देश भर में घरवापसी के बहाने संघ परिवार दरअसल विधर्मियों और खासतौर पर आदिवासियों के खिलाफ युद्ध छेड़ चुका है,जो सरासर रंगभेदी गृहयुद्ध है।
दूसरी ओर तेल के लिए अब भी परमाणु ऊर्जी कोई विकल्प नहीं बना है जबकि ऐसा कोई बना तो पूरे देश में भोपाल गैस त्रासदी जैसी रेडियोएक्टिव दुर्घटनाओं का सिलसिला शुरु होने वाला है।
बाराक ओबामा के आने से पहले देशभक्त सरकार ने अमेरिकी कंपनियों को भविष्य में होने वाली औद्योगिक और परमाणु दुर्घटनाों की जि्मेदारी से बरी कर दिया है।
तेल खपत और वित्त व्यवस्था पर तेल आयात खर्च को देखते हुए भारत को सबसे पहले सस्ते तेल और ईंधनका इंतजाम करना चाहिए ।
इसे समझने के लिए अर्थशास्त्र का विद्वान बनना जरुरी भी नहीं हैं।साधारण जोढ़ घटाव की विद्या पर्याप्त है।
तेल की कीमतें घटना डालर और अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सर्वनाश है।
सभी जानते हैं कि मध्यपूर्व से सबसे ज्यादा तेल आता है लेकिन भारत सरकार ने राष्ट्रहित और तेलअर्थव्यवस्था के सामाजिक यथार्थ और अर्थशास्त्र के विपरीत इजराइल के पक्ष में खड़े होकर ग्लोबल हिदुत्व और हिंदू साम्राज्यवाद के हितों के मुताबिक तमाम तेल उत्पादक देशों से दुश्मनी मोल ले ली है,जो दरअसल अमेरिकी हित ही मजबूत बनाते हैं।
डालर की प्रासंगिकता बनाये रखने की पहल है यह तो इजरायल के इस्लाम विरोधी महायुद्ध से ग्लोबल हिंदुत्व का सीधा गठजोड़ खुल्ला खेल फर्रूखाबादी है।
जिसे और तेज करने के लिए अमरिकी अश्वेत राष्ट्रपति नरसंहार का उत्सव मनाने भारत आ रहे हैं।
गणतंत्र दिवस का उत्सव मनाने नहीं।
अब तेल महंगा होना भारतीय कारपोरेट मीडिया के लिए सबसे अच्छी खबर हैं।
मसलन वैश्विक रेटिंग एजेंसी फिच रेटिंग्स का अनुमान है कि 2015 में कच्चे तेल की कीमतें कुछ सुधार के साथ 80 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंचेंगी।
फिच रेटिंग्स ने कहा है कि इस कारोबार में लगी कंपनियों की क्रेडिट रेटिंग्स उनकी निवेश और लाभांश में उनकी कटौती करने की इच्छा या उत्पादन बढ़ाने पर निर्भर करेगी।
फिच रेटिंग्स ने बयान में कहा, तेल एवं गैस कंपनियों के संदर्भ में हमारा रुख चक्र के आधार पर रेटिंग करने का है। यदि उनकी वित्तीय और व्यावसायिक परिस्थितियां कमजोरी वाली है और हमारे अनुसार यह अस्थायी है, तो हम किसी तरह की नकारात्मक रेटिंग की कार्रवाई नहीं करेंगे।
इसके साथ ही फिच ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि मौजूदा समय में कीमतें 60 डॉलर पर आने पर उनकी रेटिंग नहीं घटाई जाएगी।
ऐसा क्यों है इसे समझने के लिए इस रपट को पढ़ेंः
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को 2013.14 में 90 प्रतिशत चंदा कंपनी समूहों एवं उद्योग घरानों से मिला है तथा भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने चुनाव आयोग को चंदे के बारे में अपना ब्यौरा नहीं सौंपा है।
यह बात एडवोकेसी ग्रुप एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) ने आज कही।
एडीआर ने एक रिपोर्ट में कहा कि कांग्रेस, राकांपा एवं भाकपा को 2013-14 के दौरान मिले कुल दान की राशि में 62.69 करोड़ रूपये की वृद्धि दर्ज की गयी जो पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 517 प्रतिशत अधिक है। रिपोर्ट के अनुसार कांग्रेस को 2012-12 में 11.72 करोड़ रूपये का चंदा मिला था जो 2013-14 में बढ़कर 59.58 करोड़ रूपये हो गया। इसमें 408 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी।
वर्ष 2012-13 में भाजपा द्वारा घोषित किया गया चंदा कांग्रेस, राकांपा, भाकपा एवं माकपा द्वारा 2013-14 में घोषित समग्र दान से अधिक था। भाजपा ने दिखाया कि इस अवधि में उसे 20 हजार रूपये की राशि से अधिक वाले राजनीतिक चंदों के जरिए कुल 83.19 करोड़ रूपये प्राप्त हुए।
एडीआर के संस्थापक न्यासी जगदीप छोंकर ने कहा, '90 प्रतिशत चंदा कंपनी जगत से मिलना दिखाता है कि राजनीतिक दलों में कंपनी जगत का दबदबा बढ़ रहा है जो थोड़ा परेशान करने वाली बात है। सत्ताधारी दल का चंदे की रिपोर्ट नहीं सौपना शुभ संकेत नहीं है।'
एडीआर के अनुसार राजनीतिक दलों को 2013-14 के राजनीतिक चंदों का ब्योरा 31 अक्तूबर तक प्रस्तुत कर देना चाहिए था। भाजपा एकमात्र ऐसा राष्ट्रीय दल है जिसने चुनाव आयोग को अभी तक अपना ब्योरा नहीं दिया है। राष्ट्रीय दलों द्वारा 20 हजार रूपये से अधिक वाले घोषित चंदे की कुल राशि 76.93 करोड़ रूपये रही। यह 881 चंदों के जरिए प्राप्त हुई। कांग्रेस को प्रति चंदादाता से 11.07 लाख रूपये, राकांपा को एक करोड़ रूपये, भाकपा को 3.23 लाख रूपये और माकपा को 4.03 लाख रूपये हासिल हुए।
रिपोर्ट में कहा गया कि माकपा को 2012-13 में 3.81 करोड़ रूपये का चंदा मिला था जो 2013-14 में घटकर 2.097 करोड़ रूपये रह गया। बसपा ने घोषित किया कि उसे 2013-14 में 20 हजार रूपये से अधिक का कोई चंदा प्राप्त नहीं हुआ। उसने पूर्व के वर्षों में भी इस 20 हजार रुपये से अधिक के चंदे नहीं मिलने की रपट दी थी।
The ADR said donations to Congress rose from Rs 11.72 crore in 2012-13 to Rs 59.58 crore in 2013-14 which is an increase of 408 per cent.
Santanu Bhattacharya
Just now ·
এই হল এই দেশের রত্ন!!!
লজ্জা হয় দেশের এই দুটি প্রধানমন্ত্রীর জন্য। একটা গুজরাট দাঙ্গার মুখ মোদী আরেকটা এই লোকটা।
https://www.youtube.com/watch?v=-EhMmJEwbTg&feature=youtu.be
Vajpayee's inciting speech on Babri Masjid
Watch how former PM of India, Atal Bihari Vajpayee, instigated the BJP/ RSS crowd a day before the Babri Masjid was demolished. He clearly, indirectly, told ...
( 25 दिसंबर को ' मनुस्मृति दहन दिवस' के रूप में भी मनाया जाता है , जिसे स्त्रीवादियों का एक समूह ' भारतीय महिला दिवस' के रूप में मनाने का आग्रह भी रखता रहा है . मनुस्मृति शूद्रों -अतिशूद्रों के साथ -साथ स्त्रियों को भी अपने विधानों का शिकार बनाता है . मनुस्मृति से मुक्ति स्त्री की मुक्ति के लिए भी एक पहल है, जिसकी शुरुआत 25 दिसंबर 1927 को डा आम्बेडकर ने मनुस्मृति के दहन के साथ की थी. डा आम्बेडकर ने अपने आलेख ' हिन्दू नारी का उत्थान और पतन ' में स्त्रियों की दुर्दशा का विध...
मनुस्मृति दहन के आधार : डा आम्बेडकर - स्त्री काल
डा आम्बेडकर पितृसत्ता मनुस्मृति विचार मनुस्मृति दहन के आधार : डा आम्बेडकर बुधवार, दिसंबर 24, 2014 ( 25 दिसंबर को ' मनुस्मृति दहन दिवस' के रूप में भी मनाया जाता है , जिसे स्त्रीवादियों का एक समूह ' भारतीय महिला दिवस' के रूप में मनाने का आग्रह भी रखता रहा है ....
बीबीसी ने इस सिलसिले में मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ का लेख जारी किया है,जिसके मुताबिकः
सोलवहीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों के दौरान मीडिया में तमाम भ्रांतियां बनाई गईं.
सामाजिक कल्याण की नीतियों और योजनाओं की आलोचना करते हुए उन्हें देश की ख़राब विकास दर के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया.
एक भ्रम खड़ा किया गया कि भारत सामाजिक मद में ज़रूरत से ज़्यादा ख़र्च कर रहा है.
ऐसा प्रचार किया गया कि यूपीए सरकार अपनी इन्हीं सामाजिक कल्याण और 'अधिकार' वाली नीतियों के कारण चुनाव हारी है लेकिन यह तथ्यसंगत नहीं है.
यूपीए सरकार में मजबूत हो चुकी कॉरपोरेट लॉबी भाजपा गठबंधन की सरकार में और ज़्यादा उत्साहित है. कारोबारी जगत को आम तौर पर ग़रीबों को दी जाने वाली छूट नागवार गुजरती है.
पढ़िए ज्यां द्रेज़ का लेख विस्तार से
आज शायद ही किसी को वह चिट्ठी याद होगी जिसे सात अगस्त 2013 को नरेन्द्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा था.
इस चिट्ठी में मोदी ने दुख जताया था कि "खाद्य सुरक्षा का अध्यादेश एक आदमी को दो जून की रोटी भी नहीं देता."
खाद्य-सुरक्षा के मामले पर लोकसभा में 27 अगस्त 2013 को बहस हुई तो उसमें भी ऐसे ही मनोभावों का इज़हार हुआ.
तब भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं ने इसको ऊँट के मुंह में ज़ीरा डालने की क़वायद कहा था.
इन बातों के भुला दिए जाने की एक वजह है इनका सामाजिक नीति विषयक उस कथा-पुराण से बेमेल होना जिसे मीडिया ने गढ़ा है.
कई भ्रांतियों की कथा
यह कथा-पुराण कई भ्रांतियों को एक में समेटकर बना है.
एक, कि राज्यसत्ता के रूप में भारत अपने नागरिकों के लिए "नानी का घर" बनता जा रहा है, सामाजिक मद में सरकार दोनों हाथ खोलकर धन लुटा रही है जो ज्यादा दिन नहीं चलने वाला.
दो, कि सामाजिक मद में होने वाला ख़र्च ज्यादातर बर्बाद जाता है - यह एक "भीख" की तरह है और भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक निकम्मेपन की वजह से ग़रीब तबक़े को हासिल नहीं होता.
तीन, कि इस भारी-भरकम फिजूलख़र्ची के पीछे उन पुरातनपंथी नेहरूवादी समाजवादियों का हाथ है जिन्होंने यूपीए शासनकाल में देश को ग़लत राह पर धकेल दिया.
चार, कि मतदाताओं ने इस रवैए को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है, लोग वृद्धि (ग्रोथ) चाहते हैं, अधिकार नहीं.
और, पांचवीं भ्रांति कि भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने इन नादानियों को दुरुस्त करने और लोक-कल्याणकारी राज्य के पसारे को समेटने का मन बना लिया है.
ये पाँचों दावे बार-बार दोहराए जाने के कारण सच जान पड़ते हैं लेकिन वो दरअसल निराधार हैं. आइए, इन दावों की एक-एक जाँच करें.
तथ्य और गप्प
यह कहना कि भारत में सामाजिक मद में किया जाने वाला ख़र्चा बहुत ज़्यादा है एक चुटकुले जैसा है.
वर्ल्ड डेवलपमेंट इंडिकेटर्स (डब्ल्यूडीआई) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, "सबसे कम विकसित देशों" के 6.4 प्रतिशत की तुलना में भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा के मद में सरकारी ख़र्चा जीडीपी का महज़ 4.7 प्रतिशत, उप-सहारीय अफ्रीकी देशों में 7 प्रतिशत, पूर्वी एशिया के देशों में 7.2 प्रतिशत तथा आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीसीडी) के देशों में 13.3 प्रतिशत है.
एशिया डेवलपमेंट बैंक की एशिया में सामाजिक-सुरक्षा पर केंद्रित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत इस मामले में अभी भी बहुत पीछे है.
रिपोर्ट के अनुसार भारत में सामाजिक सहायता के मद में जीडीपी का महज 1.7 फीसद हिस्सा ख़र्च होता है, जबकि एशिया के निम्न आय-वर्ग की श्रेणी में आने वाले देशों में यह आंकड़ा 3.4 प्रतिशत, चीन में 5.4 प्रतिशत और एशिया के उच्च आय-वर्ग वाले देशों में 10.2 प्रतिशत है.
जाहिर है, भारत सामाजिक मद में फिजूलख़र्ची नहीं बल्कि कमख़र्ची का चैंपियन है.
ख़र्च की कथित बर्बादी
सामाजिक मद में होनेवाला ख़र्च बर्बाद जाता है, इस विचार का भी कोई वस्तुगत आधार नहीं हैं.
आर्थिक विकास के लिए लोगों के जीवन में बेहतरी और शिक्षा को जन जन तक पहुंचाने की क्या अहमियत है ये आर्थिक शोधों में साबित हो चुका है.
केरल से लेकर बांग्लादेश तक, सरकार ने जहां भी स्वास्थ्य के मद में हल्का सा ज़ोर लगाया है वहां मृत्यु-दर और जनन-दर में कमी आई है.
भारत के मिड डे मील कार्यक्रम के बारे में दस्तावेजी साक्ष्य हैं कि इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति, उनके पोषण और तथा पढ़ाई-लिखाई की क्षमता पर सकारात्मक प्रभाव हुआ है.
मात्रा में बहुत कम ही सही लेकिन सामाजिक सुरक्षा के मद में दिया जाने वाला पेंशन लाखों विधवाओं, बुज़ुर्गों और देह से लाचार लोगों की कठिन जिंदगी में मददगार साबित होता है.
ग़रीब परिवारों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) आर्थिक सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण ज़रिया बन चला है. बिहार और झारखंड जैसे राज्यों जहां पीडीएस बड़ा खस्ताहाल हुआ करता था, में भी इसका लाभ हुआ है.
अतीतमोह
यह बात ठीक है कि सामाजिक सुरक्षा के मद में होने वाले ख़र्चे में कुछ अपव्यय होता है कुछ वैसे ही जैसे कि विश्वविद्यालयों में.
लेकिन इन दोनों ही मामलों में समाधान पूरी व्यवस्था को खत्म करने में नहीं बल्कि उसे सुधारने में है और इस बात के अनेक साक्ष्य हैं कि ऐसा किया जा सकता है.
भारत में सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा के हुए विस्तार से नेहरूवादी समाजवाद के अतीतमोह का कोई खास लेना-देना नहीं.
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना स्वाभाविक ही है. बड़े पैमाने पर ऐसा ही विस्तार बीसवीं सदी में सभी औद्योगिक देशों में हुआ था (संयुक्त राज्य अमेरिका आंशिक तौर पर इस प्रक्रिया का अपवाद है).
ऐसा साम्यवादी विचारधारा के देशों में भी हुआ भले ही वजह कुछ और रही. कई विकासशील देश, खासकर लातिनी अमरीका और पूर्वी एशिया के देश हाल के दशकों में ऐसी ही अवस्था से गुज़रे हैं.
भारत के केरल और तमिलनाडु जैसे राज्य, जहां वंचित तबक़े की तनिक राजनीतिक गूंज है, ऐसी ही प्रक्रिया से गुज़रे हैं.
हार का कारण
ऐसे में सवाल यह है कि क्या यूपीए चुनाव इसलिए हारी क्योंकि मतदाता "भीक्षादान" के इस चलन से उकता चुके थे?
यह धारणा कई कारणों से असंगत है. एक तो यही कि "भीक्षादान" इतना था ही नहीं कि उससे उकताहट हो.
यूपीए ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की शुरुआत ज़रूर की लेकिन यह साल 2005 की बात है और इससे यूपीए को बाधा नहीं पहुंची बल्कि 2009 के चुनावों में फ़ायदा ही हुआ.
इसके बाद से यूपीए ने सामाजिक क्षेत्र में नीतिगत तौर पर कोई बड़ी पहल नहीं की सिवाय राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम के जिसपर अमल होना अभी शेष है.
साल 2014 के आते-आते यूपीए सरकार के पास अपने पक्ष में कहने के लिए बहुत कम रह गया था. जबकि ऐसी बहुत सारी चीज़ें थीं जिसके लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता था.
चुनाव में काम की चीज़ें
बहरहाल, चुनाव में धन, संगठन और भाषणबाजी, ये तीन चीज़ें बड़े काम की साबित होती हैं और बीजेपी के पास ये तीन चीज़ें मौजूद थीं.
ऐसे में क्या अचरज है कि हर दस में से तीन मतदाता ने उसे एक मौक़ा देने का फैसला किया?
जहां तक पांचवें बिन्दु का सवाल है, इस बात के कोई प्रमाण नहीं कि सामाजिक-कल्याण की योजनाओं को समेटना बीजेपी के मुख्य एजेंडे में शामिल है.
जैसा कि इस आलेख में ऊपर जिक्र आया है, बीजेपी के नेताओं ने राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम को और भी ज्यादा महत्वाकांक्षी बनाने की मांग की थी.
स्वर्गीय गोपीनीथ मुंडे ने ग्रामीण विकास मंत्री का पदभार संभालते ही इस अधिनियम को अपना समर्थन ज़ाहिर किया था.
स्पष्टता की जरूरत
सभी बातों के बावजूद ऐसे सामाजिक कार्यक्रमों के संभावित प्रतिकूल प्रभाव होने के संकेत मिलते हैं.
कॉरपोरेट जगत के मन में सामाजिक मद में होने वाले खर्चे को लेकर हमेशा वैरभाव रहता है क्योंकि उसके लिए इसका मतलब होता है ऊँचे टैक्स, ब्याज-दर में बढ़ोत्तरी या फिर व्यवसाय के बढ़ावे के लिए मिलने वाली छूट का कम होना.
कारपोरेट लॉबी यूपीए के जमाने में ही प्रभावशाली हो चुकी थी. यह लॉबी अब और भी जोशीले तेवर में है कि सरकार की कमान उनके आदमी यानी नरेन्द्र मोदी के हाथ में है.
कारोबार जगत की ख़बरों से ताल्लुक रखने वाले अख़बारों के संपादकीय पर सरसरी निगाह डालने भर से ज़ाहिर हो जाता है कि वे सामाजिक क्षेत्र में भारी "सुधार" की उम्मीद से भरे हैं.
सामाजिक नीति के कथा-पुराण की वास्तविकता यही है.
रचनात्मकता की ज़रूरत
कहने का आशय यह नहीं कि स्वास्थ्य, शिक्षा तथा सामाजिक-सुरक्षा के मद में रचनात्मक सुधार की ज़रुरत नहीं है.
स्कूली भोजन में अंडा देने की बात अथवा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कंप्यूटरीकृत करने या फिर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में निशुल्क दवा देने की बात - बीते दस सालों का एक अदद सबक तो यही है कि सार्वजनिक सेवाओं को सुधारा जा सकता है.
लेकिन ये छोटे-छोटे क़दम तभी शुरू हो पाते हैं जब यह माना जाए कि ग़रीब की जिंदगी में सरकारी सामाजिक सहायता का बुनियादी महत्व है.
नई सरकार के लिए अगामी बजट इन मुद्दों पर अपना रुख स्पष्ट करने का एक अवसर है.
अगर सामाजिक नीतियां विवेक-सम्मत ना हुईं तो फिर 'ग्रोथ-मैनिया' के बूते नयी सरकार पिछली सरकार की अपेक्षा ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/07/140707_social_policy_upa_bjp_rns
तो क्या भारत रत्न के जरिए नौ बरस बाद जनता को दिखेंगे वाजपेयी?
नई दिल्ली। ठीक आज से नौ बरस पहले दिसंबर 2005 में मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई एक रैली में जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने सक्रिय राजनीति से संन्यास का ऐलान किया था, देश में मौजूद करोड़ों प्रशंसक निराश हो गए थे। फैंस की ख्वाहिश उस घटना को नौ बरस हो गए हैं और एक भी दिन ऐसा नहीं है जब उनके प्रशंसकों ने उनकी एक झलक देखने की इच्छा न जाहिर की हो। देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेई ने न सिर्फ राजनीति को एक नया स्वरूप दिया बल्कि कई दिलों पर अपनी छाप छोड़ी जो आज तक कायम है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की 5 कविताएं
नई दिल्ली : साल 2014 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को जन्मदिन का बेशकीमती तोहफा मिला. यह तोहफा था देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किए जाने का ऐलान. राष्ट्रपति के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से जैसे ही यह सूचना साझा की गई, उनके प्रशंसकों में खुशी की लहर दौड़ गई.
अटल भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के उदारवादी चेहरा रहे और एक लोकप्रिय जननेता के तौर पर पहचाने गए. लेकिन उनकी एक छवि उनके साहित्यिक पक्ष से भी जुड़ी है. अटल बिहारी वाजपेयी एक माने हुए कवि भी हैं. उन्होंने अपने जीवन काल में कई कविताएं लिखीं और समय-दर-समय उन्हें संसद और दूसरे मंचों से पढ़ा भी. उनका कविता संग्रह 'मेरी इक्वावन कविताएं' उनके समर्थकों में खासा लोकप्रिय है. इस मौके पर पेश हैं, उनकी चुनिंदा कविताएं.
1: दो अनुभूतियां
-पहली अनुभूति
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
-दूसरी अनुभूति
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
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2. दूध में दरार पड़ गई
खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया.
बंट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई.
दूध में दरार पड़ गई.
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है.
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई.
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता.
बात बनाएं, बिगड़ गई.
दूध में दरार पड़ गई.
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3. कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.
----------------------
4. मनाली मत जइयो
मनाली मत जइयो, गोरी
राजा के राज में.
जइयो तो जइयो,
उड़िके मत जइयो,
अधर में लटकीहौ,
वायुदूत के जहाज़ में.
जइयो तो जइयो,
सन्देसा न पइयो,
टेलिफोन बिगड़े हैं,
मिर्धा महाराज में.
जइयो तो जइयो,
मशाल ले के जइयो,
बिजुरी भइ बैरिन
अंधेरिया रात में.
जइयो तो जइयो,
त्रिशूल बांध जइयो,
मिलेंगे ख़ालिस्तानी,
राजीव के राज में.
मनाली तो जइहो.
सुरग सुख पइहों.
दुख नीको लागे, मोहे
राजा के राज में.
----------------------
5. एक बरस बीत गया
झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
- See more at: http://newspost.co.in/Description/?NewsID=876&sthash.mofsedGI.mjjo#sthash.mofsedGI.LIKtcDUX.dpuf
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