गया और बोध गया
कुछ छोटी-छोटी पहाडि़यों से परिवृत गया। विज्ञापन करने में महारथी पौराणिकों ने कथा बना दी कि इसकी यह भौगालिक संरचना विष्णु के द्वारा अपने पैरों तले पिचका कर मारे गये गयासुर की देह की देन है। गयासुर ने मरते समय विष्णु से वरदान माँगा कि उसकी देह का स्पर्श भी नरक से मुक्ति दिलाने वाला हो। बस क्या था, उसके मरते ही देवताओं ने उसके शरीर पर अपनी कालोनी बना दी। दूर-दूर से अपने पितरों को नरक से मुक्ति दिलाने के लिए लोगों के समूह उमड़ पड़े। गयासुर की देह तीर्थ बन गयी।
आज भी गया पिचका कर मारे गये असुर की देह सी ही लगती है। चारों ओर भयंकर गंदगी। लोभ और अंधविश्वासों के सहारे पलते पंडे और पुरोहित। यहाँ इतना रख, वहाँ उतना रख, नहीं तो तेरे पूर्वज की मुक्ति नहीं होगी। एक नहीं, दो नहीं पूरे 54 स्थानों पर पिंडदान का विधान। स्वयं नरक की ओर बढ़ते, स्वर्ग का परमिट देते मुक्ति के ठेकेदार। निर्मला जी की जिद पर पंडे को पाँच सौ रुपये देकर, मातापिता के लिए स्वर्ग का परमिट माँगा। श्राद्ध के समापन में पंडा बोला, अब आपके मातापिता को स्वर्ग मिल गया है। मैंने अनुरोध किया कि उनका मोबाइल नंबर तो बता दो ताकि उनसे पूछ सकूँ कि इतना व्यय करने के बाद भी उन्हें सही सीट मिली या नहीं? पंडा बोला यह तीर्थ है, परिहास की जगह नहीं।
विष्णुपद पर विष्णु की भव्य मूर्ति के दर्शन किये। सूखी पीली पड़ी फल्गु नदी के तट पर बालू के पिंड बनाते लोगों को देखा, ब्रह्मयोनि में एक संकरी सी कंदरा को पार कर पुनर्जन्म से मुक्ति के परमिट के लिए भीड़ लगाए श्रद्धालु दिखायी दिये। प्रेतशिला में अपने पापों के बोझ से तो नहीं, उदर के बोझ से छुटकारा पाने के अभ्यस्त लोगों के योगदान से निर्मित नरक के बीच मंदिर में बैठी धर्मराज यम की पाषाणी प्रतिमा के भी दर्शन किये। लगा इन नरकों के कारण ही शायद गया में पितरों की मुक्ति की कल्पना की गयी होगी। जो इस नरक से मुक्त हो गया, उसके लिए तो सर्वत्र स्वर्ग ही स्वर्ग है।
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गया से मात्र सत्रह कि.मी. दूर फल्गु नदी के तट पर स्थित बोधगया। बोधिवृक्ष के वर्तमान वंशज की छाया में महबोधि विहार। रम्य और शान्त। उसके चारों ओर एक वृत्त सा बनाते हुए तिब्बत, नेपाल, भूटान, म्याँमार, श्रीलंका, चीन, कोरिया, थाइलैंड और जापान, के बौद्ध विहार। हर एक की अपनी विशिष्ट वास्तु और शिल्प रचना। चीनी बौेद्ध विहार में बुद्ध की दो सौ वर्ष पुरानी प्रतिमा स्थापित है तो जापान के बौद्व विहार में बुद्ध की ध्यान मुद्रा में आसनस्थ विशाल मूर्ति के अलावा उनके दस प्रिय शिष्यों-सारिपुत्र, मौद्गल्यायन, महाकश्यप, सुभूति, पूरण मैत्रायनीपुत्र, कात्यायन, अनिरुद्ध, उपालि, राहुल और आनन्द की आदमकद प्रतिमाएँ स्थापित हैं।
महाबोधि विहार के स्वच्छ, शान्त और स्निग्ध परिवेश में आज भी बुद्ध की उपस्थिति का आभास होता है। देशविदेश के उपासकों द्वारा निर्मित भव्य मंदिर और शिल्पाकृतियाँ, जाति, प्र्जाति, प्रदेश और देश से परे उपासकों का समूह, शंख और घडि़यालों के हंगामे से मुक्त शान्त भाव से होती प्रार्थनाएँ। किसी भी मंदिर में जाने के लिए शुल्क नहीं, चढ़ावा नहीं, पीछे पड़ा परेशान करता पंडा नहीं। लगता है हम गया के निकट नहीं, भगवान बुद्ध के सान्निध्य में हैं।
मुझे याद आया, यही फल्गु नदी बुद्ध के युग में नीरंजना कहलाती थी। इसी के तट पर पीपल के पेड़ के नीचे उनचास दिनों तक निराहार समाधि लगाने के बाद, आदिवासी कन्या सुजाता द्वारा अर्पित खीर का पहला ग्रास ग्रहण करते ही सिद्धार्थ गौतम को लगा कि दुष्कर, क्लेशकर तपस्या का मार्ग न तो श्रेयस्कर है और न जन साधारण के लिए साध्य। शरीर को अनावश्यक क्लेश देना दुखों से मुक्ति का मार्ग नहीं हो सकता और न कपिलवस्तु के राजमहल का भोगविलास।
यह उनकी प्रयोग सिद्ध उपलब्धि थी। राहुल के जन्म तक वे वैभव और विलास में रहते हुए भी अशान्त रहे। घर छोड़ा, प्रवज्या ली, अनेक गुरुओं के संपर्क में रहे पर संतोष नहीं हुआ। निराश होकर कठोर साधना में प्रवृत्त हुए। कठोर साधना से भी उनके मन को चैन नहीं मिला। लेकिन पायस के पहले ही ग्रास ने उनकी अन्तर्दृष्टि को जगा दिया। दुखों से मुक्ति का उपाय मिला, मज्झिम पटिपदा या मध्यम प्रतिपदा, या बीच का मार्ग। न अतिशय क्लेशकारी कठोर तप (अतिकल्मशप्रनुयोग) और न कामसुख में संलिप्ति (कामसुखल्लकयोग)।
जब भी मैं तथागत का स्मरण करता हूँ, मुझे उनकी धीरगंभीर वाणी सी सुनाई देने लगती है जैसे कह रहे हों - "जो उत्पन्न होता है, वह सब कर्मों का हेतु होता है। सब धर्मों का हेतु होता है। ईश्वर अनीश्वर की कल्पना, उस पर विचार करना व्यर्थ है। यह जगत् है, यह रहेगा। श्रेयस्कर है उत्तम आचरण। श्रेयस्कर है उत्तम शासन (आत्मानुशासन)। दुख से भागने की आवश्यकता नहीं है। जगत् से भागने की आवश्यकता नहीं है। भाग कर कोई बच नहीं सकता। कर्म का चक्र सबको चलाता रहेगा। हम स्वयं अपने कर्मो के परिणाम हैं।"
उत्तम आचरण और उत्तम आत्मानुशासन, यही सिद्धार्थ गौतम का बुद्धत्व है। बोध गया इसी की स्मारक है।
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