फिल्म ल्या ठुंगार - पर्दे से परे
उत्तराखण्ड की बहुप्रतिक्षित फिल्म ल्या ठुंगार का आडियो कैसेट का विमोचन 6 दिसम्बर को देहरादून में तथा मीडिया शो मुंबई में सम्पन्न हो गया है । अब यह फिल्म 26 दिसम्बर से दिल्ली व देहरादून के सिनेमाघरों में आम दर्शकों के लिए प्रदर्शित हो रही है तथा शीघ्र ही मुंबई तथा अन्य महानगरों में भी दिखाई जाएगी ।
फिल्म कैसी बनी या कसौटी पर कितनी खरी उतरी है, इसका निर्णय तो अब आम दर्शक ही करेंगे, परन्तु इस फिल्म निर्माण में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े होने के कारण मेरा भी अपना कर्तव्य है कि मैं एक समीक्षक के तौर पर फिल्म से परे के तथ्यों को अपने आम उत्तराखण्डिवासियों के सामने लाऊं ।
मोहिनी ध्यानी पटनी ने चार वर्ष पहले अपनी एस बी वी कम्पनी के बैनर तले मेरू उत्तराखण्ड महान नामक वीडियो कैसेट बनाया था जिसमें मेरे गीतों का भी समावेश किया था । उम्मीद के विपरीत इस कैसेट को बाजार नहीं मिल पाया । इस दौर में पायरेसी व यूटयूब बाजार पर हावी हो गया था । स्वाभाविक था कि मोहिनी जी हिम्मत हार जाती व वह अपना ध्यान हिन्दी इंडस्ट्री की ओर लगाती जहां रिक्स कम और मुनाफा ज्यादा है । पर रणकोट (सफदरखाल) की मोहिनी नहीं मानी और उन्होंने बडे पर्दे की फिल्म बनाने की ठानी ।
मैंने भी पटनी दंपति को बहुत समझाना चाहा कि आज जबकि उत्तराखण्ड में सिनेमाघर बंद हो रहे हैं, लोग हिन्दी फिल्मों के दीवाने हैं और इस दौरान उत्तराखण्ड के कई निर्माताओं के कटु अनुभव भी सामने हैं, परन्तु मेरी आवाज उनके स्टुडियो के शोर में दब जाती थी ।
तो ठीक है, बनाइए उत्तराखण्डी फिल्म पर ज्यादा रिस्क मत लीजिए । परन्तु धारा के विपरीत चलने वाली पहाडी नारी की तरह (कि बल तुमन ना बोली, त मिन जरूर कन) मोहिनी जी ने रिस्क लेना नहीं छोड़ा और बना डाली ल्या ठुंगार ।
बंधुओं रिस्क क्या होता है । केवल क्षेत्रीय फिल्म बनाना ही रिस्क नहीं है, बल्कि फिल्म बनाने का तरीका भी महत्वपूर्ण विषय है । इससे पहले मोहिनी जी ने जिस मेरू उत्तराखण्ड महान नामक वीडियो का निर्माण किया था, उसमें भी चार नए गीतकारों से गीत लिखवाकर व उन्हें नए गायकों से गवाकर धमाका किया था । उस एलबम से लाभ मुनाफा का हिसाब लगाने के बजाए उन्होंने उसी तरह से ल्या ठुंगार में भी नए गीतकारों से गीत लिखवाकर 3-4 नए गायकों को बड़े पर्दे पर गाने का सुनहरा अवसर दिया है ।
मैं यह प्रशंसा इसलिए नहीं कह रहा हूं कि इस फिल्म में मेरा भी गीत है, बल्कि मैं यह दोहराना चाहता हूं कि सारे गीतकार नए हैं । आज के दौर में इतना बड़ा रिस्क लेना ठीक नहीं होता है । परन्तु यह बात भी सत्य है कि जो चुनौती लेते हैं, इतिहास भी वही रचते हैं । मोहिनी ध्यानी जी का यह रिस्क क्या संदेश देता है इसकी सभी को प्रतिक्षा रहेगी ।
हां, मैं भी इस बात से पूर्णतया सहमत हूं कि बिंडी बिरोला मूसा नि मरदा । शायद अगली फिल्म में श्री सुनील पटनी जी व मोहिनी ध्यानी जी इस बात का अवश्य ध्यान रखेंगे ।
दूसरी बात यह है कि मोहिनी ध्यानी जी इन दिनों हिन्दी फिल्मों की तरह इस फिल्म के प्रमोशन हेतु काफी व्यस्त हैं । मेरा मानना है कि उत्तराखण्ड बहुत बड़ा नहीं है । यहां जंगल में आग और छुयालों की बात पलक झपकते ही बड़ी दूर तक पहुंच जाती है । फिल्म अच्छी व देखने लायक होगी तो हमारे उत्तराखण्ड की छुंयाल देवियां इसका प्रचार खुद व खुद कर इस फिल्म को सुपर डुपर हिट करवा देंगी । बस भविष्य में फिल्म बनाते समय इतना ध्यान अवश्य रखें कि फिल्म का कथानक छुयांलों के मन को भा जाए और छुंयाल चाहती हैं अच्छी कहानी, अच्छी पटकथा, सुंदर गीत व उच्च तकनीक से सजी हुई हमारी उत्तराखण्डी फिल्म । बस आप उसके मन का कर दीजिए और बाकी वह सब संभाल लेगी ।
एक बात और - उत्तराखण्ड भले ही आर्थिक रूप से पिछडा हुआ राज्य हो, परन्तु यह बौद्धिक संपदा से भरा हुआ प्रदेश है । हम लोग दूसरों के कृतित्व पर कमियां ढूंढने में माहिर होते हैं । बेचारी घासियारिन दिनभर घास काटकर जब उसे बांधती है तो सास बोल उठती है - ब्वारी तै ग्डोलू बंधणू कु सगौर भि नी । हम उसकी दिनभर की मेहनत की, उसके पसीने की, उसके श्रम की सराहना करने के बजाए उसकी एक छोटी सी कमी पर उसके सारे परिश्रम की उलाहना कर देते हैं । इसलिए उत्तराखण्डी फिल्म बनाने से पहले निर्माता-निर्देशकों को उत्तराखण्ड के भावनात्मक पहलुओं व लोक जीवन का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए ।
परंतु आज के दौर का कोई निर्माता - निर्देशक क्या मेरी बात मानेंगे - सच्चाई यह है कि निर्माता चाहे वह वालीवुड का हो या हिलिवुड का, वह फिल्म बनाते समय आमजन से कट सा जाता है, जबकि वह यह भूल जाता है कि जो फिल्म वह बना रहा है, वह आमजन के लिए ही तो है । अत: यहां विशेषकर क्षेत्रीय फिल्मों के निर्माता निर्देशकों को काफी सोच समझकर फिल्म निर्माण करना चाहिए ।
विचार मंथन की यह प्रक्रिया चलती रहेगी । बुद्धिजीवी, समाज सेवी, मीडिया व जागरूक उत्तराखण्डी इस विषय पर अपनी राय जरूर देंगे । परन्तु सबसे बडी बात है कि इन सबके लिए फिल्में बनती रहनी चाहिए और इस हेतु हम इस इंडस्ट्री को उठाने हेतु अपनी भूमिका अदा करते रहें । हमारी भूमिका है कि हम फिल्म देखें ताकि फिल्में जिंदा रहें, बनती रहें । जब फिल्में बनेंगी तो तभी हम उनमें से अच्छी फिल्मों को छानकर कह पाएंगे - कि बल ये तै बोलदन फिल्म । ल्या ठुंगार फिल्म एक नए प्रयोग के तौर पर सामने आ रही है । आइए हम सब इसका स्वागत करें और ठंड के मौसम में हंसी का भरपूर ठुंगार लें ।
- डा. राजेश्वर उनियाल, मुंबई
09869116784
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