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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, December 22, 2014

आप भी लिखें ओबामा को खत! कि वे सौ फीसदी हिंदू जनसंख्या के अश्वमेध राजसूय में शामिल होने से फौरन इंकार करें कि अमेरिकी जनता ने उन्हें रंगभेद के खिलाफ दो दो बार राष्ट्रपति बनाया और भारत की सरकार रंगभेदी नरसंहार के पक्ष में है जिससे कारोबार,उद्योग,कृषि खत्म हैं तो बचेंगे नहीं अमेरिकी हित और निवेश भी! पलाश विश्वास


आप भी लिखें ओबामा को खत!

कि वे सौ फीसदी हिंदू जनसंख्या के अश्वमेध राजसूय में शामिल होने से फौरन इंकार करें


कि अमेरिकी जनता ने उन्हें  रंगभेद के खिलाफ दो दो बार राष्ट्रपति बनाया


और भारत की सरकार रंगभेदी नरसंहार के पक्ष में है

जिससे कारोबार,उद्योग,कृषि खत्म हैं तो

बचेंगे नहीं अमेरिकी हित और निवेश भी!


पलाश विश्वास


आप भी लिखें ओबामा को खत

कि वे सौ फीसदी हिंदू जनसंख्या के अश्वमेध राजसूय में शामिल होने से फौरन इंकार करें

कि अमेरिकी जनता ने उन्हें रंगभेद के खिलाफ दो दो बार राष्ट्रपति बनाया

और भारत की सरकार रंगभेदी नरसंहार के पक्ष में है

जिससे कारोबार,उद्योग,कृषि खत्म है तो

बचेंगे नहीं अमेरिकी हित और निवेश भी


कल देर रात रात मैंने अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक हुसैन ओबामा को चेताया है कि क्या वाराणसी में संघ परिवार और उसकी सरकार उनके धर्मांतरण की तैयारी में हैं क्योंकि संघ परिवार अब भारत की जनसंख्या शत प्रति शत हिंदू करना चाहते हैं।


पंजाब के अकाली बल्ले बल्ले भंगड़ा नाच रहे हैं,लोहड़ी मना रहे हैं और शायद गा भी रहे हैंः  बारह बरसी खडन गया सी,खडके लंदा मोदी..


अकाली भी कहते हैं कि सिखधर्म में घर वापसी शुरु करने  की तैयारी में हैं।


क्या सिखों को गणित नहीं आता?


सौ फीसद हिंदू का मतलब पहले समझ  पाजी,लिजो!

फिर गल कर!


त्वाडे नाल राज,त्वाडे नाल मौज

त्वाडे नाल सिखों और सिखी का सत्यानाश!


सौ फीसद हिंदू जनसंख्या में सिखों,बौद्धों और जैनियों की जनसंख्या क्या होगी,समझकर दस्यो पाजी,बीजी।


1984 के पीछे यही अकाली राजनीति है,जो आपरेशन ब्लू स्टार की पृष्ठभूमि और वजह दोनों हैं।


यही अकाली पिछलग्गू मौकापरस्त सिख विरोधी पंजाब विरोधी सिखी विरोधी पंजाबी विरोधी सियासत की वजह से सिखों का कत्लेआम हुआ,सिख औरतें और बच्चे बेसहारा हैं और केंद्र राज्य सरकारों को मुआवजा बांटते रहकर सिखों के जख्म से खेलने का मौका मिल रहा है!


जबकि सारे कातिल जिनके हाथ चेहरे सिखों के खून से लाल हैं,वे बेखटके छुट्टा सांढ़ करोड़पति अरबपति बिरादरी में शामिल हैं,जो हमारी जिस्म और रुह पर लगातार लगातार, हर ,लम्हा दर लम्हा कीलें ठोंके जा रहे हैं।


गुजरात नरसंहार का अपराध माफ कर चुका है अमेरिका।


भारत की आजादी के बाद से लगातार लगातार हम फलीस्तीन आंदोलन का साथ देते रहे हैं।


इंदिरा गांधी के साथ मुस्कराते हुए यासिर अराफात के साथ.सादात और सुकर्ण के साथ जवाहर की तिकड़ी,ये छवियां भारत की राजनय रही है।


विधर्मियों को आग के हवाले करने से पहले संघ परिवार की सरकार ने सेकुलर उन सारी छवियों में आग लगा दी है और फलीस्तीन के मुकाबले इजराइल के साथ खड़े होने का जंगी ऐलान कर दिया है।


अमेरिकी कारोबार और राजकाज में इजरायली वर्चस्व के मद्देनजर कार्पोरेट इंडिया और कार्पोरेटमीडिया को यह मास्टर स्ट्रोक या चेंजिंग गेम वगैरह वगैरह लग सकता है,जैसे श्रम कानूनों में बदलाव के साथ किसानों के बाद पूरी मेहनतकश जमात के सफाये का जश्न सुशासन दिवस क्रिसमस पर मनाकर मनाया जा रहा है।


और मालिकान को हर किस्म की छूट देकर पीएफ ग्रेच्युटी को बाजार में डालने की तैयारियों के बीच पीएफ की अनिवार्यता खत्म करने के बहाने इनक्लुजन की आड़ में कर्मचारियों के अनिवार्य भुगतान के बराबर मालिकों को उनके पेंशन में दिये जाने वाले अंशदान की अनिवार्यता खत्म की जा रही है।


जिस जमीन में आग लगी हो,जहां पानियों और हवाओं में जहर घोल दिया गया हो,जहां इंसानी हड्डियों के चिटखने की आवाज एकमात्र संस्कृति हो और इंसानी लहू से दरिंदे प्यास बुझाते हों और जहां कुशबू में इंसानी गोश्त लिपटी हों,उस कयामती फिजां में जैसे खेती संभव नहीं है,वैसे आर्थिक सुधार चाहे जितनी लागू कर दो,चाहे जितने कानून बनाओ,बदलो,बिगाड़ों,खत्म करो,चाहे शेयर बाजार में उछाला लाख हो,कारोबार और उद्योग का भी हाल वही होगा ,जो खेती का हो रहा है।


हम उस पेशा में हैं जनाब,जहां किसी के बिना कोई भी काम चल सकता है,इतनी तकनीक आ गयी है।इतना आटोमेशन है कि मृतात्माें भी काम कर सकती हैं और इंसानियत की कहीं कोई जरुरत नहीं है अब।


चालीस साल हो गये हैं जनाब।


पूरे चालीस साल।


इस पेशा से 1973 में हाईस्कूल पास करने के बाद सीधे जुड़ने के बाद।


1979 में बाकायदा नौकरी कर रहै हूं परमानेंट रात्रि पाली में।

चालीस साल से लगातार हिंदी बांग्ला और अंग्रेजी में तो कभी कभार मराठी में भी आपकी नींद में खलल डालने की बदतमीजियां करता हूं।


कोई खुदा मेरा गुनाह माफ नहीं करेगा।

मैं बदतमीज आपका भी गुनाहगार हूं।

चाहे सुली पर चढ़ाइयों चाहे फांसी पर लटकाइयो,हम ते अब ज्यादा वखत मैदान में टिकने वाले न हैं और आज कल परसो टपकने वाले हैं।

कि फर्क पंदा ?


रोज हमें कुंआ खोदना पड़ता है,रोज कुंआ खोदकर देश में लगी आग बुझाना दरअसल हमारा पेशा है।


उस कुएं के पानी में जो जहर है,उसका जायका हमसे बेहतर कौन जाने हैं।


उस जहर से हमारी जिस्म नीली नीली है और उस जहर से हमारी रुह भी नीली नीली।जिस्मोजां नीली नीली और हम कोई महजबीं भी नहीं।


हम हर पंक्ति के ऊपर नीचे जे हरफ छुपी हैं,उन्हे पढ़ सकते हैं।जो कहा जाता है,उसका मतलब हम जानते हैं और जो कहा नहीं जाता उसका मतलब भी हम बेहतर जाने हैं।


सौ फीसदी हिंदू जनसंख्या का सीधे मायने यह कि सिर्फ इकतीस फीसद लोगों के समर्थन से तैयार हिंदू साम्राज्यवादी संघ परिवार की ये केंद्र और राज्यों की सरकारें भारत देश में इस्लाम और ईसाइयत को जो 2021 तक खत्म कर देने की युद्धघोषणा को अमल में लाने लगी हैं,उसमें सिखों,इसाइयों और जैनियों और दीगर विधर्मियों के लोगों के सफाया के बिना सौ फीसद का गणित पूरा माफिक नहीं होता।


या ते जैसे हिंदुत्व के झंडेवरदार दावा करते हैं ,सिख भी मान लें कि दरअसल सिख हिंदुत्व की फौजें हैं और हुक्मउदुली के एवज में 1984 को सिखों के सजा ए मौत का कोर्ट मार्शल हुआ।


बौद्ध भी मान लें कि गौतम बुद्ध और बाबासाहेब अंबेडकर दोनों विष्णु भगवान के अवतार हैं और सनातन धर्म की वैदिकी सभ्यता की कोख से निकला है बौद्धमय भारत तो उसका अवसान भी वहीं हाोना चाहिए।


जैनी तो बाकायदा मनुस्मृति अनुशासन के धारक वाहक बने बैठे हैं और भगवान महावीर और तमाम दिगंबर श्वेतांबर तीर्थांकरों की विरासत बिसार चुके हैं।हिंदुत्व के विजयरथ तले रौंदे जाकर उनके जनम शायद सार्थक हो जायें।


घर वापसी का नजारा यह कि गुजरात की नरसंहार भूमि में व्यापक धर्मांतरण की तैयारी में बोहरा समुदाय के मुसलमानो को घर बुलाया जा रहा है और उनकी तरजीह की वजह यह बतायी जा रही है कि वे पहले बाम्हण थे,इसीलिए वे विशुद्ध हिंदू बन सकते हैं।


ऐसे विशुद्ध हिंदू तो सारे सारे के सारे सियासती शिया मुसलमान बी बन सकते हैं,जो अपने रगों में बाम्हण खून की कळबली में पहले ही हिंदुत्व की छत्रछाया में हैं।


दलितों और अछूतों और आदिवासियों का जो हाल हवाल है,उसमें पसमिंदा मुसलमान और बाकी धर्म के दलित अछूत समझ लें कि वे हिंदुत्व के किस पायदान में खड़े होने के लिए बुलाये जा रहे हैं।


बहरहाल रंगभेद ते खिलाफ अमेरिका के राष्ट्रपति जो चुने गये बाराक ओबामा महाशय,उनको मिले अमेरिकी मतों में विश्वभर के अश्वेत अछूतों, शूद्रों, दलितों और आदिवासियों के मत भी उनमें शामिल हैं।


हमने खुद ओबामा के पहले चुनाव में उनके पक्ष में नेट मार्फत उनकी जीत का अभियान चलाया भारत में जारी नस्ली रंगभेद के खात्मे के मकसद से।


नंदीग्राम शीर्षक हमराे ब्लागों और दूसरे ब्लागों के पुराने पाठकों को याद होगा।


हम मुक्त बाजार जरुर बन गये हैं।


हम इमर्जिंग मार्केट जरुर हैं।


लेकिन भारत अभी अभी कभी कभी लोक गणराज्य भी हुआ करता था।


अभी अभी कभी कभी भारत में बहुसंस्कृति का वृंदगान भी बहुत मुखर था।


अभी अभी कभी कभी भारत में बिना समामाजिक न्याय और समता के असंभव लोकतंत्र भी नस्ली भेदभाव और जनसंहार संस्कृति की मौजूदगी में बचा हुआ था।


अभी अभी बहारे थीं कि पतझड़ का मौसम आ गया।


अभी अभी हम जी रहे थे कभी कभी कि हमारी रुह में जहर दौड़ने लगी है।


अभी अभी जिंदा रही है हमारी जिस्म जिसमें अब रुह लापता है।अब यह मुहब्बत जिस्मानी है,जिसमें न लहू का सुराग है और न रुह का अता पता।


कल रात हमने माननीय बाराक ओबामा को उनके व्हाइट हाउस को एक खुला पत्र ईमेल किया है।

उनका ईमेल आईडी हैः

president@whitehouse.gov


अंतर्जाल से अमेरिकी सरकार और प्रशासन से संपर्क साधने के और भी उपाय है,जिसका खुलासा वांछनीय नहीं है।


सुधिजन उन उपायों को भी चाहें तो आजमा सकते हैं।


आज कश्मीर में और झारखंड में मतपेटियां खुलने वाली हैं।सवेरे सवेरे सविता को यह सूचना दी तो झल्ला पड़ी कि क्या फर्क पड़ता है।


सही कह रही हैं वे ,कोई फर्क नहीं पड़ता।


कत्ल हर हाल में होना है,सिरफ कातिल का चेहरा बदल जाना है।


जम्हूरियत का इंतकाल हो गया है।


संविधान की हत्या हो चुकी है।


जैसे हमारा कोई लोकतंत्र नहीं है,वैसे ही हमारा को जंगल जमीन जल पर्यावरण आजीविका पेशा नौकरियां नहीं हैं।


हमारा कोई घर नहीं है।सीमेंट के जगंल में भटक रहे हैं हम और सारी जहां हमारी है।


हम विस्थापित और शरणार्थी हैं,हमें इसका अहसास नहीं है।

बेदखल हैं हम।

बेनागरिक हैं हम।

लावारिश हैं हम।

फांसी के सजायाफ्ता मौत के इंतजार में हैं हम लोग।

डूब हैं हम।


हम हैं तबाह हिमालय।

हम हैं तबाह समुंदर।


बंधी अनबंधी मृत नदियां हैं हम।


हम हैं सड़ रही नीली झीलें तमाम।


हम केदार जलप्रलय की लाशे हैं।


हम आपदाओं में तबाह होते जनपद हैं।

हम सलवाजुडुम और आफसा में मारे जा रहे लोग हैं।

हमारी जुबान पर ताला जड़ा हुआ है।


हमारे हाथों और पैरों में लेकिन जंजीरें हैं।रुह हमारी कैद है और जिस्म लेकिन आजाद है।


नंबर में तब्दील हम यंत्र है लेकिन हम महज हिंदू हैं।


 और इस पहचान के अलावा गैर महजबी हर सूरत के लिए मौत का जश्न है संघ परिवार और जो संघ में नहीं हैं,उन पार्टियों की सरकारें  जो भी दरअसल संघी हैं,उनका यह राजसूय अश्वमेध ।


मसलन सारधा कांड में निवेशकों के तमाम पैसे ममता बनर्जी के झोले में हैं,ऐसा आरोप जेल में बंद उनके ही सांसद कुणाल घोष लगा रहे हैं।


हम नहीं।


वे सारे सबूत अदालत और सीबीआई को सौंपने की गुजारिश करते हुए सींखचों के पार से चिल्ला चिल्लाकर जमीन आसमान एक कर रहे हैं।


ममता बनर्जी और उनके समर्थक दिल्ली से लेकर कोलकाता तक में मोदी सराकरा के खिलाफ जिहाद छेड़े हुए हैं।


संसद में और संसद के बाहर भी।


जबकि बंगाल पूरी तरह उनके राजकाज में केसरिया है।


सौ फीसद हिंदू जनसंख्या की युद्ध घोषणा उनके ही दिलोदिमाग की जमीन पर कोलकाता में मोहन भागवत और प्रवीण तोगाड़िया ने की।


2021 तक हिंदुओ के हिंदुस्तान के लिए मुसलमानों और ईसाइयों के सफाये का अभियान भी बंगाल की सरजमीं से शुरु हुआ जहां से शुरु हुई मुस्लमिम लीग की राजनीति।


और हिंदू महासभा के अलावा भारतीय जनसंघ का जन्म कर्म की मातृधातृभूमि भी बंगाल है।


बतौर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोई कार्रवाई नहीं की।


वे सारधा के पैसे चुराने वाले बटमार मंत्री की रिहाई के लिए संसद से सड़क तक में अवतरित हो सकती हैं,लेकिन संघ परिवार के इस धर्मयुद्ध के खिलाफ उनने एक लफ्ज भी नहीं कहा है।


प्रगतिशील बंगाल,जहां पैंतीस साल तक मुसलमानों के खुला समर्थन से वाम राजकाज संपन्न हुआ और मुसलमानों के समर्थन के ही दम पर मां माटी मानुष की सरकार ने राजकाज संभाला,वहां टोपियों और दाढ़ी देखकर मुसलामान पहचानने का समय है,जैसे अस्सी के दशक में पगड़ी देखकर हिंदू सिखों की शिनाख्त कर रहे थे।


जाहिर है,ऐसे दुस्समय में गणतंत्र दिवस का उत्सव बेमायने हैं।मुर्दा लाशों के देश में अब जम्हूरियत का कोई भी जश्न गैर जरुरी है।


हमने रंगभेद के खिलाफ अमेरिका का इतिहास और बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति उनके कहे का हवाला देकर ओबामा महाशय से इस नरसंहार के राजसूय में शामिल होने से इंकार करने के लिए निवेदन किया है।


आप भी लिखें खत ओबामा को तुरंत।

जो अंग्रेजी में नहीं लिख सकते और लिखना जरुर चाहते हैं,जो मुझे अब तक साथ देते रहे हैं।जिनका समर्थन मुझे हैं देशभर में,उन सातियों से निवेदन है कि हस्तक्षेप पर मेरा खत सजा है।


Should Obama cancel his visit to India? He would not.

It is all about Modi`s so much so hyped Making in. In fact, it is all about making in aHindu Nation free of non Hindus.

RSS which chose Narendra Bhai Modi as the prime minister of India has declared to adjust demography to make Indian population One Hundred percent.

What else should be treated as ethnic cleansing?

What else should be racial apartheid?

The Modi government and Obama administration are working to explore whether the US President can find time to visit Varanasi during his visit here next month.

why?

Do RSS and its government intend to convert the US President?

The prompt answer should be a determined NO.

But the real time social reality in India screams it may be!

ARe you ready for conversion to Hinduism, Mr President?

पूरा खत पढ़ेंः

http://www.hastakshep.com/english/opinion/2014/12/23/should-obama-cancel-his-visit-to-india-he-would-not


फिर चाहें तो यही खत कापी पेस्ट करके या खुद इससे ज्यादा कारगर कोई खत ओबामा को तुरंत लिखें।


हमसे आपको तनिक मुहब्बत है तो उस मुहब्बत की कस्म है यारों कि सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है कयामती।


अब इस कयामत के खिलाफ खड़ा होने के सिवाय कोई रास्ता दूसरा कोई नहीं है।

वीरेन दा ने कल आधी रात से पहले फोन करके पिता पुलिनबाबू के नाम दिनेशपुर के अस्पताल करने पर खुशी जताई।


कौन कहता है कि वीरेनदा बीमार है और उनको कैंसर है?


हमने शुरु से ही लिखा है कि वीरेनदा को कैंसर वैंसर छू नहीं सकता!


गौर कीजियेगा,यह महज जज्बाती बयां लेकिन नहीं है।


मैंने सतात्त्तर साल की उम्र में रीढ़ की हड्डियां सारी की सारी कैंसर में सड़ जाने के बावजूद इस देश के हर कोने में दौड़ते एक इंसान को बिना कैंसर का इलाज कराये सिर्फ अपनी रुह और अपने लोगों की बेपनाह मुहब्बत के दम पर बिना रोके दौड़ते देखा है।


संजोग से वे मेरे पिता हैं।


वे तराई और पहाड़ के पुलिनबाबू हैं।


कोई शख्सियत नहीं वे मुकम्मल एक गांव हैं।

बसंतीपुर।


जिसके हर कण में मेरे पिता ,मेरी मां और मेर परिजन समेत उस गांव को बसाने वाले लोग और पूर्वी बंगाल में छूट गये तमाम उनके पुरखे जिंदा हैं और जिंदा रहेंगे।


उन सबकी रुह दरअसल मेरी रुह है।


रुह की ताकत जमीन और आसमान के दायरे से बाहर है।


मैंने यह सबक अपने पिता से सीखा,जिनने कैंसर होने की कोई खबर तक किसी को नहीं दी।


जब दौड़ते दौड़ते आखिर कार गिर पड़े तो पता चला।

यकीन कीजिये,उनके दिलो दिमाग मरत दम तक जिंदा रहे।


उनके परम मित्र नारायण दत्त तिवारी जब मृत्युशय्या पर उन्हें देखने आये तो पिताजी से उनकी अंतिम इच्छा पूछा था विकास पुरुष तिवारी महाराजज्यू ने।


पिता ने कहा थाः कैंसर का दर्द झेल रहा हूं।नेरा इलाज नहीं हो सका।लेकिन मैं चाहता हूं कि तराई में कोई दूसरा शख्स कैंसर से हारे नहीं,मरे नहीं।


पिता ने तिवारी से कहा थाः मेरी गुजारिश है कि दिनेशपुर में कैंसर अस्पताल बना दें।

तब तिवारी के साथ उत्तराखंड और तराई के तमाम नेता थे।सत्येंद्र गुड़िया से लेकर हरीश रावत के खास सिपाहसालार यशपाल आर्य भी गवाह हैं।


फिर तिवारी मुख्यमंत्री बने पिता के अवसान के बाद और पिता से किया वायदा भूल गये।


हरीश रावत ज्यू ने कोई नया अस्पताल नहीं बनवाया।


तिवारी जी ने चित्तरंजन राहा के नाम पर 1956 में बने जीआीसी का नामकरण करके पिता को भूल गये तो उनने 1956 में ही बने अस्पताल का नाम पिता के नाम पर रख दिया।


1956 के आंदोलन के नेता थे पुलिनबाबू जिससे दिनेशपुर में सारी चीजें बनी और शरणारथी कालोनियां बसीं।


फिरभी हरीश रावत ने पिता को याद किया तो उनका आभार।


बेहतर है कि वे बाकी उत्तराखंड की भी सुधि लें।


हम तो पिता के लाइलाज कैंसर की विरासत ढो रहे हैं,जो दरअसल उनके जलते हुए सरोकार हैं।


उसके आगे कैंसर की क्या औकात ठैरी।


वीरेनदा का कुछो न बिगाड़ सकै हैं कैंसर।


हमारे पिता जिस उम्र में कैंसर से इस देश की माटी में महमहाते रहे,उस उम्र के लिहाज से तो वीरेनदा जवान ही ठऐरे।


हमारे मुकाबले उस बच्ची अनुराधा मंडल को भी याद कीजिये कि किस बहादुरी से वे कैंसर का मुकाबला करती रहीं और कैंसर को हराते हराते आखिरी बाजी में हार गयीं।


जबतक कवि वीरेनदा जिंदा है,कैंसर उनका कुछ न बिगाड़ सके हैं।


Rajiv Lochan Sah ने लिखा है, मुझे भी अच्छा लगा कि अन्ततः सरकार को पुलिन बाबू की याद तो आई। कभी-कभी चीजें कितनी अनायास हो जाती हैं।


और भी लोगों से संदेश आ रहे हैं।


उन सबका आभार।

उस मुहब्बत का भी आभार जिसके सहारे

हम रोज रोज जीते हैं।


रोज रोज मरते हैं।


मर मर कर अग्निपाखी की तरह रोज फिर जीते हैं।


मोदी राज में कार्पोरेट सीधे मोदी को निर्देश देकर अपने काम करवा रहे हैं



'देश का इस हद तक कॉर्पोरेटाजेशन हो चुका है कि भूमि हस्तांतरण और पर्यावरण जैसे गंभीर मसले पर इन्हें सरकार से इजाज़त लेने की कोई ज़रूरत नहीं है. हमारी संसद जहां धर्मांतरण के मुद्दे पर बाधित हैं, वहीं पूंजीपतियों के हितों के क़ानून संसद में बड़ी आसानी से पास किये जा रहे हैं. हर तरफ कार्पोरेट छाये हुए हैं, मोदी राज में कार्पोरेट सीधे मोदी को निर्देश देकर अपने काम करवा रहे हैं और किसी कैबिनेट मंत्री तक की यह हैसियत नहीं है कि वह अपने उनके मंत्रालय के अधीन बातों पर भी स्वयं कोई निर्णय ले सके. सारा निर्णय मोदी और कार्पोरेट के गठजोड़ से तय हो रहे हैं.'


ये बात मेधा पाटकर ने  भारतीय सामाजिक संस्थान में फादर पॉल डे ला गुरेवियेरे स्मृति व्याख्यान में कही.

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पाटकर ने कहा कि कार्पोरेट का धन सभी पार्टियों को मिल रहा हैं. परन्तु हमें निराश नहीं होना चाहिए,क्योंकि हमारे सामने जनांदोलन की सफलता के भी कुछ उदाहरण हैं. पश्चिम बंगाल का सिंगुर ऐसी ही एक सफलता है जहां गैर कृषि भूमि को छोड़कर कृषियोग्य भूमि पर कार्पोरेट अपना कब्ज़ा जमाने की फिराक में थी.

हालांकि यहां हमें पूरी सफलता नहीं मिल पायी है, क्योंकि टाटा ने अपना उद्योग गुजरात में हस्तांत्रित कर दिया जहां सरदार सरोवर बांध से प्रतिदिन 60 लाख लीटर पानी इस कार फैक्ट्री को दिया जा रहा है.

गुजरात से सानंद में कोका कोला कंपनी को प्रति दिन 30 लाख लीटर पानी दिया जाता है. वहीं दूसरी तरफ झुग्गी बस्तियों और सार्वजनिक स्थानों से नल गायब किये जा रहे हैं, ताकि लोग बोतल का पानी खरीदने के लिए मजबूर हो.

मंच पर बिसलेरी की बोतल की और इशारा करते हुए मेधा पाटकर ने आगे कहा कि कम से कम जब तक संभव हो सके हमें करोपोरेट के उत्पादों के इस्तेमाल से बचना चाहिए.

कार्यक्रम के आरम्भ में अध्यक्षता कर रहे जेएनयू  के प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र जोधका ने कहा कि आज लोकतंत्र खतरे में है. इस बात की ओर डॉ. अंबेडकर पहले ही इशारा कर चुके थे. और इसीलिए उन्होंने कहा था कि हम केवल संवैधानिक रूप से लोकतंत्र है परन्तु हमारे देश में सामाजिक लोकतंत्र का अभाव है. कार्यक्रम में शरीक हुए प्रख्यात समाजशास्त्री आशिस नंदी ने कहा कि इस कार्पोरेट के जाल से बचाना इसलिए कठिन है, क्योंकि वह किसी एक पार्टी को नहीं बल्कि तमाम राजनैतिक पार्टियों के एक साथ चन्दा देते हैं, ताकि जो भी पार्टी सत्ता में आये वह कार्पोरेट हित के खिलाफ कोई क़दम नहीं उठा सके.


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