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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, October 10, 2015

बाबा, आपके नाम पर आनंद तेलतुंबड़े इस बार बता रहे हैं फासीवादी-ब्राह्मणवादी संघ गिरोह और भारतीय राज्य द्वाराबाबासाहेब आंबेडकर के जाति के उन्मूलन के मिशन को दफना कर उनके स्मारक खड़े करने की राजनीति के बारे में. अनुवाद: रेयाज उल हक

बाबा, आपके नाम पर


आनंद तेलतुंबड़े इस बार बता रहे हैं फासीवादी-ब्राह्मणवादी संघ गिरोह और भारतीय राज्य द्वाराबाबासाहेब आंबेडकर के जाति के उन्मूलन के मिशन को दफना कर उनके स्मारक खड़े करने की राजनीति के बारे में. अनुवाद: रेयाज उल हक


Posted by Reyaz-ul-haque on 10/10/2015 01:14:00 PM


आनंद तेलतुंबड़े इस बार बता रहे हैं फासीवादी-ब्राह्मणवादी संघ गिरोह और भारतीय राज्य द्वाराबाबासाहेब आंबेडकर के जाति के उन्मूलन के मिशन को दफना कर उनके स्मारक खड़े करने की राजनीति के बारे में. अनुवाद: रेयाज उल हक

अब बाबासाहेब आंबेडकर के नाम पर लंदन में एक अंतरराष्ट्रीय स्मारक होगा. इस मुद्दे पर नौकरशाही की घपलेबाजी तब सतह पर आई जब मकान के मालिक ने गुस्से में एक अल्टीमेटम दिया, जो महाराष्ट्र सरकार के शेखीबाज मंत्रियों के लिए काफी शर्मिंदगी लेकर आया, जिन्होंने महीनों पहले यह ऐलान कर दिया था कि उन्होंने आंबेडकर के लंदन वाले घर पर दखल हासिल कर ली थी. चीजें तेजी से घटी हैं और ऐसा दिख रहा है कि 31 लाख ब्रिटिश पाउंड में 2050 वर्ग फुट के मकान को अपने कब्जे में लिया जा सका है. भारत के भीतर, नरेंद्र मोदी लुटियन की दिल्ली में जनपथ पर एक भव्य आंबेडकर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र का शिलान्यास कर चुके हैं और एक दूसरा स्मारक बाहरी दिल्ली के 26, अलीपुर रोड पर बनाया जाएगा, जो तब उनका निवास हुआ करता था जब वे संविधान मसौदा समिति की अध्यक्षता कर रहे थे. यह इतना भव्य होगा कि ऊपर, आसमान से देखने वालों को रोमांचित करेगा. आनेवाले दिनों में महू में एक और स्मारक की योजना है, जहां आंबेडकर पैदा हुए थे जब उनके पिता ब्रिटिश फौज में थे. एक और स्मारक मुंबई में इंदु मिल्स के परिसर में बनाने की योजना है जो शायद इन सबमें भव्य स्मारक होगा. इसके लिए 6 दिसंबर 2011 को रिपब्लिकन सेना ने जगह पर जबरन कब्जा किया था और दूसरों द्वारा अपनी आंबेडकर भक्ति दिखाने के दावों की होड़ शुरू की थी. केंद्रीय सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्री थावर चंद गहलोत पहले ही डॉ. आंबेडकर के जीवन से जुड़े सभी अहम जगहों को विकसित करने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता का ऐलान कर चुके हैं. इसलिए, अगर बॉन में भी नहीं तो एक स्मारक न्यू यॉर्क में हो ही सकता है, अगर कोई सिर्फ उन जगहों का पता लगा सके जहां वे बड़ौदा राज्य के मामूली वजीफे पर ठहरे थे.

स्मारकों के अलावा, सरकार ने ऐलान कर रखा है कि आंबेडकर की 125वीं सालगिरह का पूरा साल विभिन्न कार्यक्रमों के साथ मनाया जाएगा, जिसने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को इसी लीक पर चलते हुए दलित बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन के साथ-साथ कोलंबिया में उनके ग्रेजुएशन की सौवीं सालगिरह के मौके पर महू में एक भव्य रैली के साथ जश्न मनाने के लिए उकसाया. पिछले चुनावों में भाजपा के हनुमानों की भूमिका अदा करनेवाले 'तीन दलित राम' वाजिब तौर पर इसका श्रेय ले सकते हैं. असल में, आंबेडकरी इससे ज्यादा और क्या मांग सकते हैं? लेकिन इन सभी घटनाओं से जो अकेला इंसान उदास होगा, वो खुद बाबासाहेब आंबेडकर ही हैं. अफसोस है कि पहचान के झूठे गुरूर के जहर से भरे हुए उनके अनुयायी कभी भी अपनी हकीकत की तरफ से उन्हें अंधा कर देने की शासक वर्ग की इस चाल को नहीं समझेंगे.

स्मारकों का रहस्य

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आंबेडकर इन स्मारकों के और शायद इससे भी ज्यादा के हकदार हैं, बावजूद इसके कि वे खुद किसी भी नायक पूजा के खिलाफ थे. स्मारक अवाम की तरफ से आभार का प्रतीक होते हैं और वे आनेवाली पीढ़ियों के लिए रोशनी की मीनार के बतौर भी काम करते हैं जो उन लोगों की मिसालों को रोशन करते हैं जिन्होंने अपने से ऊपर उठ कर दूसरों के लिए काम किया हो. यहां तक कि कम्युनिस्ट लोग भी, जो मजबूती से जनता को इतिहास का निर्माता मानते हैं, अपने नायकों के स्मारक बनाते हैं. बाबासाहेब आंबेडकर के मामले में, 1965 में उनके निधन के ठीक बाद, उनके शिष्यों ने अपने छोटे से चंदे से दादर चौपाटी में उस जगह पर एक शालीन ढांचा बनवाया, जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ था. यह ढांचा बौद्ध स्तूप के आकार का है, जो जाति के उन्मूलन के उनके जीवन भर चले संघर्ष के शिखर का प्रतीक है. उसका नाम चैत्य भूमि रखा गया. यह छोटा सा ढांचा पूरे देश भर से लोगों के एक सैलाब को अपनी तरफ आकर्षित करता है, जो उनकी बरसी 6 दिसंबर को करीब बीस लाख की तादाद पार कर जाता है. इसको छोड़ कर, हाल तक आंबेडकर का कोई स्मारक नहीं था. जब दलितों ने इसके लिए संघर्ष किया तो किसी भी राजनीतिक दल या राज्य ने सहानुभूति तक नहीं दिखाई.

सिर्फ 1960 के दशक के मध्य में जाकर जब नई नई सशक्त हुई, बड़ी आबादी वाली मध्यवर्ती जातियों द्वारा चलाए गए क्षेत्रीय दलों के उभार से चुनावी राजनीति में होड़ बढ़ी तब जाकर राजनीतिक दलों ने दलितों का वोट पाने के लिए उन्हें गोलबंद करने में एक छवि के रूप में आंबेडकर की ताकत को महसूस करना शुरू किया. हमने ज्यादा वोट पाने वाले को विजेता घोषित करने वाली जो चुनावी पद्धति अपना रखी है, उसने छोटे से मतदाता समूह की अहमियत को भी उसकी हिस्सेदारी के लिहाज से कहीं अधिक बढ़ा रखा है. लोकसभा में 84 (और इसी तरह विधान सभाओं और स्थानीय निकायों में) आरक्षित सीटें होने तथा दूसरी जातियों की तुलना में ज्यादा संगठित होने के चलते दलित राजनीतिक दलों के लिए लुभाने के लिहाज से ज्यादा फायदेमंद निशाना हैं. बेशक रवैए में इस बदलाव की झलक देने वाली पहली पार्टी कांग्रेस थी, जिसने 1965 में मिला लेने (कोऑप्शन) की रणनीति शुरू की. आंबेडकर की छवि का निर्माण इस रणनीति का पूरक बन गया. अचानक आंबेडकर की प्रतिमाएं शहरों और कस्बों में फैल गईं; सड़कों को उनका नाम दिया जाने लगा, इसी तरह की बातें हुईं. तब भी, आंबेडकर का कोई स्मारक नहीं था. चैत्य भूमि के बाद याद की जाने वाली सबसे अहम जगह डाबक चॉल में उनके दो कमरे थे, जहां वे 1931 तक रहे थे और राजगृह था, जिसे उन्होंने अपनी किताबें रखने के लिए खास तौर से डिजाइन किया और बनवाया था. यह 1942 में दिल्ली चले आने तक उनका घर भी हुआ करता था. इसमें से पहली जगह तो वैसे भी आम तौर पर भुलाई जा चुकी है, लेकिन राजगृह को एक स्मारक बनाया जाना चाहिए था. लेकिन यह महाराष्ट्र की सियासत के मकड़जाल में फंस गई और अब भी इसकी अनदेखी जारी है, हालांकि बड़ी संख्या में दलित हर रोज महज इसे एक नजर देखने के लिए आते हैं. एक दिन यह अहम स्मारक जनता के हाथों से हमेशा के लिए खो जाने वाली है. भाजपा के सत्ता में आने के साथ, आंबेडकर पर दावेदारी की होड़ बढ़ गई है, और स्मारकों का यह हास्यास्पद शोरशराबा महज इसकी अभिव्यक्ति है.

स्मारक बनाओ, मिशन को दफनाओ

स्मारक तभी मायने रखते हैं, जब उस इंसान के मिशन (अभियान) को भी मुनासिब सम्मान दिया जाए और उसे आगे बढ़ाया जाए. आंबेडकर का मिशन जाति का जड़ से खात्मा था ताकि एक ऐसा समाज बनाया जा सके जो 'आजादी, बराबरी, भाईचारे' पर आधारित हो. लेकिन आंबेडकर के लिए जितना प्यार का दिखावा किया जाता है, उतनी ही हिकारत उनके सपनों को लेकर बनी हुई है. जातियों को भूल जाइए, जिन्हें संविधान में जज्ब कर दिया गया था और जिन्हें ऊपर से लेकर नीचे तक पूरे समाज को अपनी चपेट में लेना था; छुआछूत जिसको असल में गैरकानूनी करार दिया गया था, अब भी अपने सबसे क्रूर शक्ल में मौजूद है. 21वीं सदी की शुरुआत से तीन बड़े सर्वेक्षण, 11 राज्यों में 565 गांवों में एक्शन एड सर्वेक्षण (2001/2), गुजरात राज्य के 1589 गांवों में नवसर्जन सर्वेक्षण (2007/10) और हाल में आई नवंबर 2014 की एनसीईएआर रिपोर्ट सभी ने छुआछूत के दहला देने वाली घटनाएं उजागर की हैं. असल में छुआछूत जाति का महज एक पहलू है और जातियां बनी रहीं तो छुआछूत भी कभी भी खत्म नहीं होगी. आंबेडकर का आजादी, बराबरी और भाईचारे का आदर्श बेशक कई प्रकाश वर्ष दूर है और हरेक गुजरते हुए दिन के साथ यह और भी दूर होता जा रहा है. अवाम की व्यापक बहुसंख्या के लिए आजादी एक कल्पना है, यह आबादी गुजर बसर की बुनियादी चिंताओं में जकड़ी हुई है और इसके ऊपर से यह पुलिसिया राज्य की गिरफ्त में है जो कामयाबी के साथ उसकी आवाजों को घोंटता है. बराबरी तो अब सार्वजनिक विमर्शों तक में नहीं बची है; इसकी जगह को अब विश्व बैंक की समावेशिता और हिंदुत्व गिरोह के समरसता ने हथिया लिया है. आज भारत की गिनती दुनिया के सबसे गैरबराबरी वाले समाज में होती है! एक जातीय समाज में भाईचारा वैसे भी कल्पना से बाहर थी, 1991 के बाद के नए जातीय भारत में तो और भी कल्पनातीत हो गया है.

स्मारक निर्माताओं के आंबेडकर प्रेम को मापने का एक और पैमाना दलितों की दशा हो सकती है, जिनके लिए आंबेडकर ने अपनी पूरी जिंदगी काम किया. विकास का ऐसा कोई पैमाना नहीं है, जिसमें दलितों और गैरदलितों (बदकिस्मती से इसमें मुसलमान भी शामिल हैं, जिनकी दशा दलितों जितनी ही खराब है, इसलिए यह आंकड़ों को और भी धुंधला बना देता है) के बीच की खाई बड़ी नहीं है. चाहे वह गरीबी, शहरीकरण, रोजगार, मृत्युदर (शिशु, नवजात, बाल आदि), पेशों का वितरण, खून की कमी (बच्चों, गर्भवती औरतों आदि में), बॉडी-मास इंडेक्स, साक्षरता, रोजगार (शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर), स्कूल छोड़ने की दर (ड्रॉप आउट रेट) और विभिन्न सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुंच का मामला हो, दलित लोग गैर दलित आबादी से कहीं पीछे हैं. इस खाई की सबसे चिंताजनक विशेषता यह है कि यह पहले चार दशकों के दौरान घटती हुई नजर आई, वह भी धीरे-धीरे, लेकिन सामाजिक डार्विनवादी नवउदारवादी सुधारों को अपनाने के बाद से यह बड़ी तेज गति से और चौड़ी हुई है. इन नीतियों ने दलितों को कड़ी चोट पहुंचाई है और उन्हें हर मुमकिन मोर्चे पर हाशिए पर धकेला है. अगर उत्पीड़नों को जातीय चेतना के प्रतिनिधि के रूप में लिया जाए तो कोई भी इस नतीजे पर पहुंचने से नहीं बच सकता कि पिछले नवउदारवादी दशकों में जातीय चेतना अभूतपूर्व गति और तेजी से बढ़ रही है. उनमें लगातार बढ़ोतरी होकर आज वे 40,000 के निशान पर पहुंच गए हैं. 1968 में किल्वेनमनी में, जहां 44 दलित औरतों और बच्चों को जिंदा जला दिया गया था, अपनी नई शक्ल में सामने आने से लेकर आंध्र प्रदेश (करमचेडु, चुंदरू) के बदनाम अत्याचारों, बिहार के दलित जनसंहारों (1996 में बथानी टोला जहां 21 दलितों की हत्या कर दी गई, 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे जहां 61 लोगों को काट डाला गया, 200 में मियांपुर जहां 32 लोग मारे गए, नगरी बाजार जहां 10 लोगों की 1998 में हत्या कर दी गई और शंकरबिगहा जहां 1999 में 22 दलितों का जनसंहार किया गया था) अब तक अत्याचारियों के लगातार छूटते जाने के अब तक कायम रुझान ने साफ साफ स्थापित किया है कि राज्य दलितों के खिलाफ जातिवादी अपराधियों को शह दे रहा है.

विरासत को मैला करना, छवि को बिगाड़ना

इस पर गौर करना दिलचस्प है कि एक तरफ संघ परिवार और इसकी भाजपा सरकार आंबेडकर पर बड़ी बड़ी बातें करती जा रही है, लेकिन दूसरी तरफ यह व्यवस्थित तरीके से आंबेडकर की धर्मनिरपेक्ष विरासत को दागदार कर रही है और उनकी छवि को बिगाड़ रही है. हिंदू धर्म और हिंदुत्व पर उनकी तीखी टिप्पणियां उन्हें उनका सबसे बड़ा दुश्मन बनानी चाहिए थीं, लेकिन त्रासदीपूर्ण तरीके से, दलितों के विचारधारात्मक भटकाव की वजह से, संघ परिवार और भाजपा सरकार ने इस खतरे को एक सुनहरे मौके में बदल दिया है. उन्होंने आंबेडकर को प्रात:स्मरणीय बना दिया है और धीरे धीरे लेकिन व्यवस्थित तरीके से उन्हें तोड़ने-मरोड़ने लगे हैं ताकि वे [आंबेडकर], उनके सबसे बड़े संरक्षक बन जाएं. आंबेडकर के जीवन में बारीक सच्चाई के धागों के चारों ओर झूठ का मकड़जाल बुनते हुए वे गोएबलीय जोश के साथ अपने भगवा आंबेडकर का प्रचार करते रहे हैं. बेशर्मी से इस आंबेडकर को घर वापसी के पक्ष में पेश किया जा रहा है. वे हिंदुओं का महानतम उपकारक हैं. क्योंॽ क्योंकि उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया जो हिंदू धर्म का महज एक पंथ था! कितना भव्य झूठॽ वे मुसलमानों के खिलाफ थे. वे हेडगेवार और उस जहरीली विचारधारा के गुरु, गोलवलकर के दोस्त थे. उन्होंने संघ की तारीफ की और इसी तरह की बातें. यह सही है कि हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर और आरएसएस के दूसरे चापलूसों ने उनसे जाकर भेंट की थी (न कि आंबेडकर उनसे मिलने गए थे), लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि आंबेडकर उनके दोस्त थे या उन्होंने उनकी करतूतों की तारीफ की थी. यह सही है कि बी.एस. मुंजाल ने अपने दोस्तों के साथ आंबेडकर से बंबई हवाई अड्डे पर उनसे मुलाकात की थी, उन्हें एक भगवा झंडा दिया था और याचना की थी कि ध्वज समिति के एक सदस्य के रूप में उन्हें इसकी कोशिश करनी चाहिए कि यह राष्ट्र ध्वज बन जाए. क्या इसका मतलब यह है कि आंबेडकर ने सचमुच हिंदू झंडे को राष्ट्र ध्वज या मुट्ठी भर पुरोहितों की मरी हुई भाषा संस्कृत को राष्ट्र भाषा बनाने की वकालत की थी? वे आंबेडकर को बौना बना रहे हैं ताकि वे उन्हें अपने ही जैसे एक गिरे हुए सांप्रदायिक की मामूली सी हैसियत पर ले आएं. 

यह आंबेडकर की सीधी तौहीन है, लेकिन तरस आती है कि आंबेडकरी लोग स्मारकों के नशे में इस कदर चूर हैं कि उन्हें इसका खयाल ही नहीं है.

Let Me Speak Human!In thy name, Ambedkar!
Ambedkar`s maiden speech in CA and last speech of Jogendra Nath Mandal!
Please declassify the classified,topmost secret documents of cabinet proposals of Partition,transfer of power and transfer of population!
Palash Biswas

बाबासाहेब ईश्वर नहीं थे।उन्हें कृपया ईश्वर न बनाइये।सच का सामना कीजिये। विडंबना है कि हिंदू राष्ट्र भारत ने नेपाल को चीन की झोली में डाल दिया।क्या यह राष्ट्रद्रोह नहीं है? भारतले मधेसवादी आन्दोलनकारीहरूको मागप्रतिसहमति जनाउंदै नेपालको नयां संविधान २०७२ लाईसमर्थन गरेन। यसै वहानामा विगत दुई हप्तादेखिभारतले नेपालविरुद्ध अघोषित नाकावन्दी गरेकोलेनेपालीको जन-जीवन अति कष्टकर भएको छ।

 Palash Biswas



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