विवेकानंद की राह पर एक एल टी अध्यापक …..
लेखक : शमशेर सिंह बिष्ट ::अंक: 01 || 15 अगस्त से 31 अगस्त 2015:: वर्ष :: 39:
विश्वविद्यालय आन्दोलन के अन्तिम चरण में हमने वर्ष 1972 में अल्मोड़ा छात्र संघ की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को एक ज्ञापन दिया था। ज्ञापन में यह बात जोर दे कर कही गई थी कि कुमाऊँ विश्वविद्यालय की आवश्यकता इसलिए है कि एक ओर जहाँ यह विद्यार्थियों की देश-दुनिया की व्यापक दृष्टि देगा, वहीं स्थानीय सामाजिक, सांस्कृतिक व वैज्ञानिक क्षेत्र में नई-नई उपलब्धियाँ करायेगा तथा विश्वविद्यालय को आम जनता से जोड़ेगा। कुमाऊँ विश्वविद्यालय को बने चालीस साल से अधिक हो गये हैं, लेकिन तत्कालीन छात्रसंघ की इस अवधारणा का दस प्रतिशत भी जमीन पर नहीं उतर पाया। केवल पहले कुलपति डॉ. डी. डी. पन्त ही ऐसे रहे, जिन्होंने अपने स्तर से विश्वविद्यालय को आम जन से जोड़ने का भरसक प्रयास किया। उसके बाद के कुलपतियों को तो विश्वविद्यालय में चलने वाली राजनीति से निपटने या अपनी राजनीति चलाने से ही फुर्सत नहीं मिली। इसका प्रभाव शिक्षा और शोध कार्यों पर भी पड़ा। शिक्षा की तो अब बात ही क्या करें ? इन 42 वर्षों में ऐसे शोध कार्य भी दुर्लभ रहे, जिनका कोई वास्तविक महत्व हो। हालाँकि इन सालों में सैकड़ों पीएच.डी. धारक विश्वविद्यालय से निकले। विश्वविद्यालय के विद्वान प्रोजेक्टों में फँसे रह गए और गोष्ठियाँ व सेमिनार करते रहे।
ऐसे में यह एक सुखद आश्चर्य है कि इसी विश्वविद्यालय के एक पूर्व छात्र, मोहन सिंह मनराल ने बीस साल की तपस्या के बाद स्वामी विवेकानंद पर अपना अध्ययन अपने ही प्रयासों से संसार के सामने रखा है। इसके लिये उन्हें न तो पीएच.डी. की उपाधि की दरकार रही और न ही किसी प्रोजेक्ट की। अपने वेतन से बचाए हुए पचास हजार रुपये से ही उन्होंने इस किताब का प्रकाशन किया। मनराल सन् 1974 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के छात्र रहे और इन दिनों सुरईखेत (द्वाराहाट) में एल.टी. के अध्यापक हैं। एक साल बाद वे सेवानिवृत्त होंगे। 16 अगस्त 2015 को रामकृष्ण कुटीर, अल्मोड़ा में कुटीर के अध्यक्ष स्वामी सोमदेवानन्द द्वारा नगर के गणमान्य लोगों की उपस्थिति में इस किताब को लोकार्पित किया गया। इस अवसर पर श्री मनराल ने कहा कि यदि इस पुस्तक से लोगों के भीतर स्वामी विवेकानन्द को लेकर जिज्ञासा पैदा होगी तो वे अपनी मेहनत सफल मानेंगे।
पाँच खण्डों में विभक्त 'उत्तराखंड में स्वामी विवेककानन्द' के प्रथम खंड में उत्तराखंड के आध्यात्मिक-ऐतिहासिक सन्दर्भ के साथ स्वामी विवेकानंद का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। द्वितीय खण्ड में उनकी प्रथम उत्तराखंड की यात्रा का वर्णन है। तृतीय व चतुर्थ खण्ड में विश्वविजयी विवेकानंद की पश्चिमी देशों के शिष्यों के साथ शिक्षा, प्रशिक्षण के लिए की गई यात्राओं का वर्णन है। अपनी यात्राओं के दौरान स्वामी जी ने उत्तराखंड में अपना भावी मठ स्थापित करने का संकल्प सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया था। स्वामी जी की उत्तराखंड की अन्तिम यात्रा सन् 1901 में अपने हिमालय मठ अद्वैत आश्रम मायावती (चम्पावत) में हुई थी। उनकी अन्तिम इच्छा यही थी कि वे हिमालय में ही अपने को समाहित कर दें।
इस पुस्तक से यह जानकारी प्राप्त होती है कि विवेकानंद देहरादून और तराई क्षेत्र से कैसे नैनीताल पहुँचे, फिर नैनीताल से अल्मोड़ा आगमन के बाद बागेश्वर, चम्पावत, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग से होते हुए अलकनंदा के तट पर ज्ञान प्राप्त किया। लेकिन उनकी अल्मोड़ा यात्रा इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ उन्होंने सर्वाधिक समय तक निवास किया। इस यात्रा का आरम्भ 6 मई 1897 को कलकत्ता से हुआ और 2 अगस्त तक लगभग 81 दिन उन्होंने अल्मोड़ा व आसपास के स्थानों में बिताए। उन्होंने यहाँ के निर्जन स्थानों में साधना, शक्ति व ज्ञान संचित किया तथा भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा भी तैयार की। स्थानीय युवकों को व्याख्यान देते हुए उनमें देश के लिए समर्पण की भावना पैदा की। ये युवक बाद में स्वतंत्रता आन्दोलन के स्तम्भ बने। अल्मोड़ा से लगभग 50 किमी. दूर, आज के बागेश्वर जनपद के देवलधार में वे 45 दिन रहे। उन्होंने यहाँ अपने प्रखर भाषणों को लिपिबद्ध किया, लेकिन उनके स्टेनो गुडविन के उनके साथ न रहने के कारण वे दस्तावेज उपलब्ध नहीं हुए। उनकी दूसरी यात्रा भी महŸवपूर्ण रही, क्योंकि तब उनकी कीर्तिपताका पूरे विश्व में लहराने लगी थी। पहली बार तो वे एक सामान्य साधु के रूप में अल्मोड़ा आए थे। स्वामी जी की दूसरी यात्रा आगमन का चित्र इस प्रकार खींचा गया है, ''स्वामी जी के आगमन का संवाद पाकर बद्रीप्रसाद के छोटे भाई दौड़ कर अल्मोड़ा से डेढ़ मील तक चले गए थे। सभी फूल माला लेकर दौड़ रहे थे। रास्ते के दोनों ओर देशी-विदेशी नागरिक स्वागत में खड़े थे। फूल और अक्षतों की वर्षा हो रही थी। अल्मोड़ा के लोधिया नामक स्थान में स्वामी जी को एक सुसज्जित जुलूस के रूप में लाया गया। भीड़ इतनी अधिक थी कि जिस स्थल पर कार्यक्रम था, वहाँ पाँच हजार से अधिक लोगों की भीड़ थी। पंडित जोशी जी ने स्वागत भाषण पढ़ा। पंडित हरिराम पांडे ने स्वामी जी की अतिथेय लाला बद्रीप्रसाद ठुलघरिया की ओर से दूसरा भाषण और उसके बाद एक प्रखंड संस्कृत में भाषण दिया।'' मोहन सिंह मनराल ने उनके आगमन का विस्तृत वर्णन किया है। स्वामी जी के आगमन से जुड़े स्थलों के चित्र भी इस पुस्तक में दिए गए हैं, जिनमें काकड़ीघाट, विश्राम गृह करबला, लाला बद्री साह का घर, कसार देवी मंदिर, कसार देवी पहाड़ी, स्याही देवी पहाड़ी, श्री रामकृष्ण कुटीर, सैमसन हाउस अल्मोड़ा, निवेदिता कुटीर अल्मोड़ा, देवलधार स्टेट, भगिनी निवेदिता, मायावती अद्वैत आश्रम, चम्पावत आदि के चित्र प्रमुख हैं।
शुक्रवार, 4 जुलाई 1902 की रात 9 बज कर 10 मिनट पर 39 वर्ष और 7 माह की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया और अपनी इस भविष्य वाणी को सच कर दिखाया कि ''मैं अपने 40 वर्ष पूरे देखने के लिए जीवित नहीं रहूँगा।'' इसी दिन प्रातः बरामदे में सीढ़ी से उतरते हुए उन्होंने कहा था, ''यदि एक और विवेकानंद होता तो समझ पाता कि यह विवेकानंद क्या कर गया है।'' युवकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ''प्रथम तो हमारे युवकों को बलवान बनना होगा, धर्म पीछे आएगा। हे मेरे युवक बन्धुओ, तुम बलवान बनो यही तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीता पाठ करने की अपेक्षा तुम्हें फुटबॉल खेलने से स्वर्ग सुख सुलभ होगा। बलवान शरीर व मजबूत पुष्ठों से तुम गीता को और अधिक समझ सकोगे।''
इसी 17 अगस्त को जब इस किताब के विमोचन का समाचार अखबारों में छपा तो इतिहासकार व नेहरू युवा केन्द्र गोपेश्वर के समन्वयक डॉ. योगेश धस्माना का टेलिफोन आया कि मैं तत्काल उस लेखक से मिलना चाहता हूँ, जिसने विवेकानंद जी की यात्रा को इतने विस्तार से लिपिबद्ध किया है। आप तत्काल उनका टेलिफोन नंबर मुझे प्रेषित करें। अध्ययन किए बिना ही जब इस किताब का ऐसा प्रभाव इतना पड़ा है तो पढ़ने के बाद क्या प्रभाव पड़ेगा, समझा जा सकता है।
उत्तराखंड में स्वामी विवेकानन्द / लेखक: मोहन सिंह मनराल / प्रकाशक- अल्मोड़ा किताब घर, निकट यूनिवर्सिटी कैम्पस, गांधी मार्ग, अल्मोड़ा (फोन: 9412044298, 9917794700) / मूल्य: 150 रु. (पेपर बैक), 300 रु. (सजिल्द)।
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