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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, October 8, 2015

अड़तीसवां जनमबार… लेखक : राजीव लोचन साह

अड़तीसवां जनमबार…

लेखक : राजीव लोचन साह :::: वर्ष :: :

हमारा कॉलम

ns-38th-birthdayइस अंक के साथ नैनीताल समाचार अपने प्रकाशन के 38 वर्ष पूरे कर 39वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। ये 38 वर्ष हमने कितनी आर्थिक कठिनाइयों के बीच काटे और आगे का रास्ता भी कितना कंटकाकीर्ण है, यह अरण्यरोदन इस वक्त शायद समीचीन नहीं होगा। हमारे पाठकों के लिये हमारे ये 38 साल कैसे रहे, यह जानना हमारे लिये ज्यादा जरूरी है। मगर हमारे पाठक हमसे न जाने क्यों मुँह फुलाये रहते हैं ! न तो यह कहते हैं कि बन्द कीजिये अपना यह प्रलाप, आज के समय में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं रही। न यह कहते हैं कि आप अच्छा कर रहे हैं, लगे रहिये; हम आपके विचारों को पढ़ भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं। न ही यह शिकायत करते हैं कि हमने तो आपको सदस्यता शुल्क दिया है, फिर हम तक आपका अखबार क्यों नहीं पहुँचता ? किसी भी तरह के आर्थिक कष्टों से अधिक हमारे लिये हमारे पाठकों का यह बेगानापन दुःखदायी है। कहाँ गये वे स्वर्णिम दिन जब चिड़चिड़ाया हुआ डाकिया चिठ्ठियों का ढेर लेकर समाचार के दफ्तर में चला आता और उसे हमारी मेज पर पटक जाता था ? अब एस.एम.एस., ई मेल, वैबसाईट, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, वाइबर, स्काइप और न जाने क्या-क्या सस्ते या एकदम मुफ्त तरीके हैं अपनी बात पहुँचाने के मगर हम अपने पाठकों की राय जानने के लिये मरे जा रहे हैं !

सचमुच बहुत तेजी से बदल रही है दुनिया और इसे हम ठीक से समझ नहीं पाये तो आगामी समय में कुछ नहीं कर पायेंगे। न अपने विचार लोगों को ठीक से समझाने के लिये पत्रकारिता कर पायेंगे और न ही इस निरन्तर असह्य होती जा रही दुनिया को ठीक करने के लिये कोई जनान्दोलन ही खड़ा कर पायेंगे।

1984 आते-आते नैनीताल के 'फ्लैट्स' पर कारों की पार्किंग शुरू होने लगी थी। उसी साल 'शरदोत्सव नाटक प्रतियोगिता' की निर्णायकी करते हुए पहली बार महसूस किया कि खुले रंगमंच में हजारों की संख्या में मौजूद रहने वाले दर्शकों को तो 'दूरदर्शन' में प्रसारित होने लगे धारावाहिक घरों के अन्दर खींच ले गये हैं। तीस साल बाद अब फ्लैट्स पर कारें ही कारें हैं…..बेहिसाब कारें।हॉकी जैसा इतना लोकप्रिय खेल ही खत्म हो गया तो नाटक कहाँ बचने हैं ? 1993 में जर्मनी में था, जब मेरा छोटा भाई प्रमोद मुझे तकनीकी दृष्टि से उन्नत पश्चिमी दुनिया का 'खुल जा सिमसिम' वाला 'खेल' दिखलाने जबर्दस्ती खींच ले गया। शीशे के एक क्युबिकल के दरवाजे पर बने एक छिद्र में उसने एक विजिटिंग कार्ड जैसा क्या घुसेड़ा कि अलीबाबा की गुफा की तरह क्युबिकल का दरवाजा सरक गया। फिर अन्दर जा कर उसने वही कार्ड एक मशीन में डाला तो 'डॉयेच मार्क' के कड़कड़ाते हुए नोट मशीन से बाहर निकल आये। मैं हैरान था। मगर आज वे 'ए.टी.एम.' पहाड़ के छोटे-छोटे कस्बों में मौजूद हैं और बेहद सामान्य व्यक्ति भी उनका उपयोग कर रहा है।

राज्य आन्दोलन के अगले ही साल हमने कम्प्यूटर की दुनिया में प्रवेश किया. शीशे के टाईप को हाथ से जोड़ कर कम्पोजिंग करने की तकनीकी खत्म हो गई और 19 साल के बाद तो हम भी भूलने लगे हैं कि नैनीताल समाचार की कुल जमा जिन्दगी का आधा हिस्सा तो कम्पोजिटरों के हाथ काले करने से ही कटा है। पन्द्रह साल पहले इण्टरनैट की दुनिया से परिचय हुआ। पहले ई मेल आई.डी. बनी, फिर कुछ सालों के बाद कमल कर्नाटक के प्रयासों सेवैबसाईट। वैब संस्करण के हिट्स संकेत करते हैं कि आगामी समय में उसके पाठक हार्ड कॉपी पढ़ने वालों की संख्या से आगे निकल जायेंगे। मगर फिर हमारे उस सपने का क्या होगा कि उत्तराखंड के हर गाँव तक 'नैनीताल समाचार' की कम से कम एक प्रति अवश्य पहुँचे ?

व्यावसायिक मीडिया द्वारा फैलाये जा रहे झूठ के कुहासे को हम उसी एक प्रति की रोशनी से नष्ट करें। तमाम हमलों के बावजूद गाँवों का बचना जरूरी है और यूनान के दीवालिया हो जाने के साथ आर्थिक उदारीकरण की पोल खुलने के बाद ग्राम गणराज्य के अलावा देश को विनाश से बचाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। मगर गाँव का इंटरनैट से रिश्ता क्या उतना ही स्थायी, मजबूत और विश्वसनीय हो सकता है, जितना अब तक तार, चिठ्ठी और मनीऑर्डर से रहा है ?

आधुनिक उपकरणों को कॉरपोरेट साम्राज्यवाद, बाजारवाद और उपभोक्तावाद का षड़यंत्र मानने की जिद के तहत कई सालों तक मोबाइल फोन खरीदने से कतराता रहा। फिर जब दोस्तों ने फटकारना शुरू किया और इधर सामान्य मजदूर के हाथ में तक मोबाइल दिखाई देने लगा तो वर्ष 2007 में खरीद ही डाला। अब आठ साल के बाद वह मोबाइल इस तरह जिन्दगी से चिपक गया है कि किताबें भी उसी में पढ़ी जा रही हैं, इंटरनैट की दुनिया में भी उसी के रास्ते घुस कर मीडिया या सोशल मीडिया से सम्पर्क रखा जा रहा है और कम्प्यूटर वाले छोटे काम भी उसी से किये जा रहे हैं। मोबाइल पर आश्रितता इतनी बढ़ गई है कि किसी दिन गलती से उसे घर पर भूल कर बाहर चले आये तो घबराहट में धुकधुकी बनी रहती है कि कुछ अघट घट गया तो कैसे नैया पार लगेगी ? कहाँ गया वह युग जब गिने-चुने घरों में 'नम्बर प्लीज' वाले फोन हुआ करते थे ? एस.टी.डी.-पी.सी.ओ. वाला जमाना आया और आ कर चला भी गया। पाँच साल पहले फेसबुक से रिश्ता जुड़ा, दो साल पहले ट्विटर से और साल भर पहले व्हाट्सएप और वाइबर से। मोबाइल फोटोग्राफी के क्रम में दो साल पहले तक 'सैल्फी' शब्द का नाम भी नहीं सुना था। आज हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस 'सैल्फी' को हथियार बना कर विश्वविजय करने का सपना देख रहे हैं।

ताज्जुब कि आधुनिक तकनीकी इस घोषित उद्देश्य के साथ पनपी है कि मनुष्य के श्रम को कम कर उसको कुछ अतिरिक्त समय उपलब्ध करायेगी। संचार और यातायात सहित जीवन के तमाम हिस्सों में उसने यह किया भी है। अब हमें टी.वी. के चैनल बदलने के लिये बिस्तर से नहीं उठना पड़ता। मगर वह अतिरिक्त समय है कहाँ ? मनुष्य तो आज पहले से कहीं ज्यादा हबड़-तबड़ में दिखाई देता है। और पहाड़ की औरत, जिसका दिन तड़के चार बजे शुरू हो जाता है और हाड़ तोड़ने के बाद रात दस बजे कहीं खत्म हो पाता है, का श्रम तो कम होता कहीं दिखता नहीं। समर्थ व्यक्ति से उसका श्रम छीन कर, उसे आलसी बना कर व्याधियों के रास्ते पर धकेल भी दिया तो उसका क्या भला किया ?

इन तकनीकी चमत्कारों से हो क्या रहा है ? दैनंदिन जिन्दगी में इनके हस्तक्षेप से व्यक्ति और समाज के रिश्तों में किस तरह का बदलाव आया है ? राजनीति का अर्थ क्या अब भी वही है, जो बीसवीं शताब्दी तक था ? इन सारी बातों को समझने की कोशिश की जानी चाहिये। बचपन में पढ़ते थे, ''उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान।'' अब हमारे भाग्यविधाताओं की मेहरबानी से 'उत्तम' खेती तो अधम से भी अधम हो गई है और 'अधम' चाकरी इतनी लुभावनी व सर्वग्रासी कि हमारे बच्चे होश सम्हालते ही कहने लगते हैं कि मैं तो 'जॉब' करूँगा। जॉब के चक्कर में वे घर में भी ज्यादा उम्र तक नहीं रह पाते और टूट कर सिकुड़ते हुए, छोटे-छोटे परिवारों में उन संस्कारों से भी वंचित हो जाते हैं, जो एक पीढ़ी पहले के हम भाग्यशाली लोगों के हिस्से में जैसे-तैसे आ गये थे। इस 'जॉब' के वे इतने वशीभूत हैं और इस पर उनका ध्यान इतना अधिक केन्द्रित है कि वे भूल जाते हैं कि एक समाज होता है, जिसमें वे रहते हैं; एक राजनीति होती है, जो इस समाज को बेहतर बनाने का काम करती है। मॉल, मल्टीप्लेक्स, महानगर और गाडि़यों के बीच सिमटी उनकी जिन्दगी के मूल्य क्या हैं, हमारी जड़बुद्धि तो समझ भी नहीं पाती। हमारी पीढ़ी का काम तो इतना ही रह गया है कि रिटायरमेंट के बाद जाकर अपने इन साइबर गिरमिटिये बच्चों के बच्चों की 'बेबी सिटिंग' करें।

हमारी पीढ़ी का काम तो इतना ही रह गया है कि रिटायरमेंट के बाद जाकर अपने इन साइबर गिरमिटिये बच्चों के बच्चों की 'बेबी सिटिंग' करें।

यह एक अबूझ दुनिया है, जो बदलनी भले ही आजादी के बाद शुरू हो गई हो, मगर पिछले बीस-पच्चीस सालों में जिसने जबर्दस्त छलाँग लगाई है। इसे समझे बगैर बदलने की कोशिश करना, दुनिया में न्याय और समानता के मूल्य स्थापित करने के सपने देखना बहुत बड़ी मूर्खता है। मुझे बहुत हँसी आती है, जब मैं अपने राजनीतिक और आन्दोलनकारी साथियों को पहले की तरह बन्द, चक्काजाम, धरने, उपवास और रैलियों से बदलाव की खामखयाली में रहते देखता हूँ।

इरादा था कि 'नैनीताल समाचार' के अड़तीसवें जनमबार पर अपने विद्वान मित्रों की मदद से इस बदल गई और पल-प्रतिपल बदल रही दुनिया की पड़ताल करेंगे। मगर नहीं कर सके या अंश भर ही कर सके। क्या करें ? अपनी नाकामयाबियों की सफाई देने के लिये तो अड़तीस साल भी पूरे नहीं पड़े!


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