क्या यही असहिष्णुता अब हमारी राष्ट्रीयता है?
कमल हसन ने रोजी रोटी का सवाल भी उठाये हैं,गौर करें।
एक पिता की लहूलुहान रुह को समझ सकें तो समझ लीजिये।
जवाब में हमारी जितनी गोलबंदी है,उससे कहीं ज्यादा संगठित,सुनियोजित,संस्थागत सत्ता प्रायोजित गोलबंदी है असहिष्णुता विरोधी आंदोलन के खिलाफ।
https://www.youtube.com/watch?v=7OhKSEBJsBc
पलाश विश्वास
असहिष्णुता विरोधी आंदोलन के जरिये दुनियाभर के संस्कृतिकर्मियों,फिल्मकारों, वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों की अभूतपूर्व गोलबंदी का कितना असर सत्ता के फासीवादी नस्ली रवैये पर होगा,कहना काफी मुश्किल है।
क्योंकि जिस वैश्विक इशारों के तहत उसका राजकाज है,उसकी भी यह मनुस्मडति सत्ता की अटूट जमींदारी हुक्मउदुली कर रही है।
अमलेंदु ने लिखा है कि मूडीज की तो सुन लें,वह किसी की सुनने के मूड में नहीं है।वह बेलगाल सांढ़ पर सवार नंगी तलवार से सबके सर कलम कर देने के तेवर में है।
फासिज्म के एजंडे को विश्व व्यवस्था की भी परवाह नहीं है ,जाहिर है और उसकी मंशा विश्वव्यवस्था को भी अपने राजसूय का बलिप्रदत्त अश्व बनाकर सारी दुनिया मुट्ठी में करके सारी दुनिया पर मनुस्मृति राज बहाल करना है।
नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी की राजनयइस मंसा का इजहार है बेशर्म।यह अमानवीय कृत्य वहां मनुस्मडति की बहाली के लिए हैं और विडंवना है कि वहां भी हथियार उनके मधेसी और आदिवासी हैं।हम गुलामों की यही गत है कि हम उनके गुलाम ही रहेंगे और कुत्तों की तरहमारे जायेंगे,जनरल साहेब बरोबर बोले हैं।
शर्म तो खैर है ही नहीं।
अटल जमाने में विश्व के पहले विनिवेश मंत्री अरुण शौरी एक तरफ तो दूसरी तरफ रिजर्व बैंक के गवर्नर,नारायणमूर्ति जैसे लोग जिनका इस मुक्तबाजारी तामझाम में खासा योगदान है,उनकी तक कोइ सुनवाई नहीं हो रही है।
राष्ट्रपति कई दफा अमन चैन के लिए सहिष्णुता और विविधता की विरासत के हक में हस्तक्षेप कर चुके हैं।ऐसे में कमल हसन शायद सही कह रहे होंगे कि कुछ भी नहीं होगा।
प्यारे कमल हसन हमारे दिल के करीब हैं।फिल्में उनकी दो कौड़ी की नहीं होती और वे शोकेस बनकर हर फ्रेम में फोटोबांबिंग करके दृश्यों को बंधुआ बना देते हैं और पात्रों को विकलांग।
शब्दविन्यास गायब है।
लोक भी गायब है वहां।
सरोकार वाणिज्यिक नारे हैं।
वाणिज्यिक मसालों से पटकथा सरोबार है और दृश्यमय संगीतबद्धता जो भारतीयपिल्मों की आत्मा है,सिरे से आखिर तक अनुपस्थित है।
फिरभी चामत्कारिक स्क्रीन प्रेजेंस है कमलहसन की जो बाकी कलाकारों को उछाकर बेरहमी से फ्रेम के बाहर कर देता है।
वे हमारे दिल के बहुत करीब हैं और हमने सत्तर के दशक से उनकी कोई फिल्म मिस नहीं की जैसे हम दिलीप कुमार और आमिर कान की कोई फिलम मिस नहीं करते।शबाना,वहीदा और स्मिता की कोई फिल्म मिस नहीं करते।
ऐसे अजीज कलाकार को भी आज सुबह हमने खरी खोटी सुनायी।
'The Great Dictator' speech by Charlie Chaplin (Subtitles - Best Version)
https://www.youtube.com/watch?v=LBpX0pkWKDY
Gandhiji's address to nation after India - Pakistan 1947 Partition (Original Voice)
https://www.youtube.com/watch?v=9S_TfLNhk0U
Charlie Chaplin : The Great Dictator's Speech
The Great Dictator - speech - YouTube
The Great Dictator (1940) - Charlie Chaplin - Final Speech ...
Charlie Chaplin final speech in The Great Dictator - YouTube
The Great Dictator - Wikipedia, the free encyclopedia
जब कोई राष्ट्रपति की सुन नहीं रहा है और निवेशकों की ढुलमुल आस्था से शेयर बाजार में तब्दील अर्थव्यवस्था की परवाह भी नहीं कर रहा है तो राष्ट्र के अमूर्त विवेक की आवाज सुनने की सोहबत की,अदब की उनसे उम्मीद रखना हमारी खुशफहमी भी हो सकती है।जब राष्ट्रपति की सुनवाई नहीं तो सच ही बोले हैं कमल हसन ने। पुरस्कार लौटाने से कुछ नहीं होगा।
हम भी शुरु से यही कह रहे हैं।
हमारी फौजें बेदखल गुलामों की फौजें है,मजहब और जातपांत,नल्स के नाम बटी हुई और विरोध से कयामत हारती नहीं है जब तक न हम जनता के बीच जाने की तकलीफ भी न करें।
सच यह है कि हम देश और दुनिया को देहात में जाकर जोड़ने की कवावद से दूर है जबकि जंगल जंगल दावानल,अमंगल घनघोर प्रलयंकर है और फिजां अब भी कयामती है।
सारा मुल्क और सरहदों के आर पार इंसानियत का मुल्क मय कायनात आग के हवाले हैं।
सच तो यह है कि पिछले ढाई दशक से जनांदोलनों के झंडेवरदार हैं,वे चुप्पी साधे हुए हैं।स्वामी अग्निवेश भी नोबेल पुरस्कार के दावेदार थे,वे खामोश हैं।
लाठियां,गोलियां खाने के लिए जनता को सड़क पर उतारने वाले ,जेल यात्रा करने वाले लोग क्यों खामोश हैं,हमें उनकी कोई मजबूरी समझ में नहीं आती।
शांति के नाम नोबेल पुरस्कार पाने वाले कैलाश सत्यार्थी न जाने कहां खो गये हैं।
हम दो कौड़ी की हैसियतवाले भी नहीं हैं,लेकिन दुनियाभर में जिनकी जय जयकार है,वे डा.अमर्त्य सेन भी खामोश हैं।
इसीतरह डाक्टर,इंजीनियर भी खामोश हैं और मजदूरों, कामगारों के हक हकूक के खात्मे के बाद भी मजदूर यूनियनें अखंड सन्नाटा की बर्फीली कब्रों में दफन है।
देहात औरकिसानों के जनसंगठनों मेंं कोई हलचल भी नहीं है।
छात्र युवा गोलबंद हो रहे हैं और उनका मोहभंग भी हुआ है।
किंतु बलात्कार संस्कृति की शिकार शूद्र और दासी,भोग्या नारी अब भी आजाद पंखों की अंतरिक्ष उड़ान के बावजूद घरों में कैद हैं।
सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी न हुई,जमीन पर हरकतें भी नहीं हैं,तो हम देश दुनिया को जोड़ने का ख्वाब ही देख सकते हैं।
पढ़े लिखे सरकारी कर्मचारियों,अफसरों से उम्मीद करके बाबासाहेब बीआर अंबेडकर और माननीय कांशीराम पीठ पर छुरी खाकर सिधार गये।नीली क्रांति जाति युद्ध और मजहबी जिहाद में खत्म।
सारा भारत अब कुरुक्षेत्र है।हम मोड़ पर चक्रव्यूह है या फिर वही मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में हैं हम।
विचारधारा और आदर्श धरे के धरे रहे,गांधी धर्म की बात करते हुए,हे राम कहते हुए राम के नाम गोलियों से छलनी हो गये।
हमारे कामरेड भी फासिज्म के रास्ते चल पड़े और आखिरकारमुक्तबाजार में सौदा बटरने लगे हैं।
मनुष्य की नियति हो या नहीं,विचारधारा नियतिबद्ध है।
जमींदारी के स्थाई बंदोबस्त जारी रखने की कवायद यह मनुस्मृति मजहबी सियासत,सियासती मजहब और अर्थव्यवस्था का आखेटगाह है,भारत विभाजन का रहस्य अभी हम खोल नहीं पाये हैं अभी।साजिशों और सौदेबाजी के दस्तावेज हमारे हाथ अभी लगे नहीं हैं।तो सत्ता और सरकारी महकमों में मलाई उड़ाने वाले लोगों का अपना अपना पक्ष होगा।
इस अनंत हिंसा और घृणा के माहौल में एक बाप का बयान भी आया है,उसके शब्दों के भीतर जो असुरक्षाबोध है,उसे महसूस करने के लिए दिल भी चाहिए और दिमाग भी।जो फिलहाल हैं नहीं।
क्योंकि हम नागरिक कहीं किसी कोण से नहीं हैं,हम कबंध हैं।पता नहीं,कौन किसका चेहरा टांगे फिर रहा है।किसके लब किसकी जुबान बोल रहा है।बाजारु कार्निवाल में हर चेहरा मुखौटा है।
सरोकार धरे रहिये,सारे लोग बागदीवाली और धनतेरस की तैयारी में हैं जोर शोर से।मंहगाई हो या न हो,सौदे जारी हैं।खेती रहे या नरहे,नौकरी रहे या न रहे,कारोबार चले या न चले,कामधंधे हो या न हो,रोजी रोजी हो न हो,परवाह किसे हैं।
रोज सुबह लुंगी उठायेबाजार में हाजत रफा के अभ्यस्त हैं सीमेट के जंगल में कैद लोग, लुगाइयां।बच्चे और जवान।
अब सारा देश सीमेंट का जंगल हैं,जहां किसी भी पेड़ या वनस्पति की जड़ें हैं ही नहीं।
वैसे ही हमारे वजूद में इंसानियत की कोई रुह बाकी नहीं है।
नहीं है।
शाहरुख खान तो आग में कूद चुके हैं।
मां शर्मिला की साफगोई के बावजूद बेटा सैफ अली खान खामोश है।अमजद अली खान के बयान को फिर देखें और उनके सुर ताल में लापता आजाद लबों की खोज भी करें कि कितना थम थम कर बोलना पड़ा उनको।
हुसैन जैसे कलाकार के देस निकाले के बाद शाहरुख तो बादशाह की तरह आग में कूद पड़े हैं।लेकिन असहिष्णुता भारत विभाजन के समय से जारी है,कहकर भी कमल हसन हमारे साथ नहीं है।
बालीवूड के किंवंदती कलाकार अमिताभ बच्चन से लेकर दिलीप कुमार तक खामोश हैं।
सांसद रेखा और जया बच्चनभी खामोश।
अदूरगोपाल कृष्णन और रजनीकांत और चिरंजीवी और मोहनलाल भी खामोश हैं।
सौमित्र चटर्जी और अपर्णा सेन के बोल खुलने लगे हैं और बंगाल के भद्रजन टीवी पर नजर आने लगे हैं।
कमल हसन ने शायद सच ही कहा है,कुछ भी नहीं होगा।
बालीवूड पर फिलहाल राज करने वाले सलमान और आमीर खान खामोश हैं और संजोग से वे मुसलमान भी हैं।
शाहरुख की क्या गति हो रही है मन्नत के अंदरमहल में गौरी की मौजूदगी के बावजूद। हम देख रहे हैं।
कामधंधे,रोजी रोटी से परेशान देश की आम जनता के हाल से नावाकिफ भी हम नहीं हैं।
रोजी रोटी की फिक्र हमारे करोडपति अरबपति कलाकारों को भी होती है।कमल हसन ने साफ साफ कहा भी है कि फिल्मों से उनकी रोजी रोटी है।जो कमाया है,उसे वापस नहीं दे सकते।सच भी है।
मजबूरी भी है।कौन क्यों क्या बोल रहा है,समझ बी लीजिये हुजूर।
देशभर में तमाम सम्मानीय लोगों की यह मजबूरी हो सकती है,लेकिन शरणार्थी हूं और इसलिए बेहतर जानता हूं कि अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ें लोगों को कितना नाप तौल कर बोलना होता है।वरना जलजला आ जाता है।
शाहरुख उस जलजले में फंस गये हैं।सलमान,सैफ,आमिर या दिलीप कुमर फंस नहीं सकते।कमसकम इस वाकये के बाद।
मुंबई से मीडिया की खबर है: बॉलीवुड एक्टर सलमान खान के पिता सलीम खान ने असहिष्णुता के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बचाव किया है।
गौर करें, सलीम खान एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि प्रधानमंत्री मोदी कम्यूनल नहीं हैं। मुसलमानों के रहने के लिए भारत से अच्छा देश पूरी दुनिया में नहीं हो सकता है।
गौरतलब है कि सलीम खान का कहना है कि अगर मुसलमान इस देश में रहना चाहते हैं तो उन्हें देश और इसकी संस्कृति का सम्मान करना होगा। उन्होंने कहा कि वह पूरे यकीन के साथ कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी सांप्रदायिक नहीं है। मोदी सबका साथ-सबका विकास में यकीन रखते हैं। सलीम खान ने कहा कि विश्व में अल्पसंख्यकों के रहने के लिहाज से भारत से अच्छा कोई देश नहीं हो सकता है।
सलीम खान ने कहा, 'मैं मुसलमानों से पूछना चाहता हूं कि क्या वह पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक या ईरान में जाकर रहना पसंद करेंगे। अगर भारत ही वह अकेला देश है जहां आप रहना चाहते हैं, क्योंकि आपको यही घर लगता है तो देश और इसके कल्चर का सम्मान कीजिए। आपसी प्रेम से रहिए।'
एक पिता की लहूलुहान रुह को समझ सकें तो समझ लीजिये।
इस आलोक में आत्मसुरक्षा के लिए घनघोर असुरक्षाबोध की जो भाषा हो सकती है,उसी भाषा में भारतीय फिल्मों के बेहतरीन संवादलेकक सलमान खान के पिता ने लिखा हैः
कमल हसन की हमने अपने वीडियो में निर्मम आलोचना की है और उनकी फिल्मों को फ्रेम बाई फ्रेम सोलो परफर्मेंस भी साबित किया है।
उनसे पूछा भी है कि यह दिगंत व्यापी असहिष्णुता ही हमारी राष्ट्रीयता है।
अगर असहिष्णुता है और वह नरसंहार संस्कृति है, मनुष्यता और सभ्यता के खिलाफ अंधियारा का राजकाज है तो हम वह असहिष्णुता खत्म क्यों नहीं कर देते,हमने यह भी पूछ लिया।
अव्वल तो यह सवाल वे देखेंगे नहीं,जवाब भी नहीं देंगे,जाहिर है।
जाहिर है कि ये सवाल हमने दरअसल कमल हसन से नहीं,आपसे ही पूछा है।
जवाब में हमारी जितनी गोलबंदी है,उससे कहीं ज्यादा संगठित,सुनियोजित,संस्थागत सत्ता प्रायोजित गोलबंदी है असहिष्णुता विरोधी आंदोलन के खिलाफ।
बाकी ,कातिलों का काम तमाम है
अगर हम कत्ल में शामिल न हों!
KADAM KADAM BADHAYE JA...
https://www.youtube.com/watch?v=qQxWFawxbqc
https://www.youtube.com/watch?v=ym-F7lAMlHk
फिल्में फिर वही कोमलगांधार,
शाहरुख भी बोले, बोली शबाना और शर्मिला भी,फिर भी फासिज्म की हुकूमत शर्मिंदा नहीं।
https://youtu.be/PVSAo0CXCQo
KOMAL GANDHAR!
गुलामों,फिर बोल कि लब आजाद हैं!
कदम कदम बढ़ाये जा,सर कटे तो कटाये जा
थाम ले हर तलवार जो कातिल है
फिक्र भी न कर,कारंवा चल पड़ा है!
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