संकट में है भारतीय अर्थव्यवस्था
अब जाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वीकार किया है कि हम मुश्किल दौर में हैं. प्रधानमंत्री ने भले ही देर से इस बात को स्वीकार किया हो लेकिन अर्थव्यवस्था के लगभग सभी संकेतक उसकी पतली होती हालत की ओर पहले से ही इशारा कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि यह संकट अचानक आया है. इस संकट के संकेत लंबे अरसे से दिख रहे हैं. लेकिन यू.पी.ए 2 सरकार इन संकेतों को न सिर्फ नजरंदाज करती रही बल्कि अपने अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण उससे निपटने के लिए जरूरी स्पष्ट और ठोस फैसला करने में नाकाम रही है. यूपीए के आर्थिक मैनेजर मानें या न मानें लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि सत्ता में तीन साल पूरे कर चुकी यूपीए 2 सरकार की सबसे बड़ी नाकामी अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के रूप में सामने आई है.
ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था पर से पकड़ बिलकुल छूट चुकी है. नतीजा सबके सामने है- राजनीतिक रूप से ज्वलनशील महंगाई पिछले तीन साल बेकाबू है, जी.डी.पी की वृद्धि दर गिर रही है, औद्योगिक उत्पादन की दर नकारात्मक हो चुकी है, शेयर बाजार और उससे अधिक रूपया लुढ़कने के नए रिकार्ड बना रहा है, व्यापार घाटे के साथ चालू खाते का घाटा खतरे की सीमा को लांघ चुका है, निवेश गिर रहा है और नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं.
साफ़ है कि आर्थिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक का दावा है कि अर्थव्यवस्था के मूल तत्व मजबूत हैं और मौजूदा आर्थिक मुश्किलें वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट के कारण हैं.
लेकिन यह सच्चाई से आँख चुराना और अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने की तरह है. यह एक हद तक ठीक है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के गहरे संकट में फंसे होने का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जो न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में पिट रही हैं.
आश्चर्य नहीं कि इन दिनों पूरी दुनिया में कारपोरेट और वित्तीय पूंजीवाद को आगे बढ़ानेवाली नव उदारवादी अर्थनीति को लेकर न सिर्फ गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं बल्कि संकट को बढ़ाने और स्थिति को और बदतर बनाने में उसकी भूमिका को भी रेखांकित किया जा रहा है. लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए-2 सरकार और खासकर उसके आर्थिक मैनेजर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से इस कदर सम्मोहित हैं कि वे उससे इतर देखने और उसके विकल्पों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि वे यह भी मानने को तैयार नहीं हैं कि मौजूदा वैश्विक और घरेलू आर्थिक संकट के लिए नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी जिम्मेदार है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि वे अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट का ठीकरा वैश्विक आर्थिक संकट पर फोड़ने के बावजूद उसका समाधान उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और उनपर आधारित आर्थिक सुधारों में ढूंढा जा रहा है जिनके कारण यह संकट आया है. सच पूछिए तो भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट अर्थनीति के स्तर पर नए और वैकल्पिक विचारों की कमी का नतीजा है. उदाहरण के लिए, महंगाई और खादयान्न प्रबंधन के मुद्दे को हो लीजिए जिसके कारण पूरी अर्थव्यवस्था और राजनीति डगमगाई हुई है.
पिछले तीन सालों से मुद्रास्फीति की लगातार ऊँची दर के कारण न सिर्फ अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है बल्कि यू.पी.ए सरकार को उसकी भारी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी है. यह महंगाई मुख्यतः खाद्यान्नों और दूध-सब्जियों की ऊँची कीमतों के कारण है जो धीरे-धीरे फैलकर व्यापक हो गई है. कहने की जरूरत नहीं है कि खाद्य वस्तुओं की इस महंगाई का सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की भारी उपेक्षा है जिसे ९० के आर्थिक सुधारों के दशक में अपने हाल पर छोड़ दिया गया. इस दौरान यह मान लिया गया कि कृषि क्षेत्र के बिना भी सिर्फ सेवा और उद्योग क्षेत्र की बदौलत अर्थव्यवस्था ८-१० फीसदी की तेज रफ़्तार से दौड़ सकती है.
८-९ फीसदी की तेज आर्थिक वृद्धि के दौर में भी कृषि की विकास दर सिर्फ २ से ३ फीसदी के बीच झूलती रही. इससे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों को यह भ्रम हो गया कि नई भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र को बाईपास करके सेवा और उद्योग क्षेत्र के हाईवे पर तेज रफ़्तार से दौड़ सकती है. लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि भारत जैसे देश में कृषि की उपेक्षा करके अर्थव्यवस्था लंबे समय तक हाईवे पर तेज नहीं दौड़ सकती है. उसे ब्रेक लगना ही है. खाद्य वस्तुओं की महंगाई वही ब्रेक है जिसने अर्थव्यवस्था को जबरदस्त झटका दिया है.
असल में, हुआ यह कि सरकार ने इस मुद्रास्फीति को काबू में करने का जिम्मा रिजर्व बैंक को दे दिया जिसने ब्याज दरों में डेढ़ सालों में १३ बार से ज्यादा बार वृद्धि करके उसे काबू में करने की कोशिश की लेकिन ताजा आंकड़ों से साफ़ है कि महंगाई अभी भी काबू में नहीं आई है क्योंकि उसकी वजहें कहीं और हैं. अलबत्ता, ऊँची ब्याज दरों के कारण अर्थव्यवस्था की रफ़्तार जरूर धीमी पड़ती जा रही है क्योंकि इससे निवेश पर बुरा असर पड़ा है.
यही नहीं, नव उदारवादी नीतियों के असर में सरकार ने खाद्य कुप्रबंधन का नया रिकार्ड बना दिया है. यह किसी पहेली से कम नहीं है कि इस साल रिकार्ड कृषि उत्पादन और सरकार के गोदामों में रिकार्ड खाद्यान्न भण्डार के बावजूद खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है. यू.पी.ए सरकार इस साल रिकार्ड कृषि उत्पादन को अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रही है लेकिन वही रिकार्ड उत्पादन उसके लिए सबसे बड़ा सिरदर्द और अभिशाप बनता दिख रहा है. वजह यह कि इस साल जून के आखिर में सरकारी गोदामों में कोई ७.५ करोड़ टन अनाज का रिकार्ड भण्डार होगा लेकिन उसमें से कोई १.५ करोड़ टन अनाज बाहर खुले में पड़ा होगा.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह खाद्यान्न प्रबंधन के स्तर पर नीतियों का दिवालियापन है कि एक ओर सरकार के भंडारों में न्यूनतम बफर नार्म के तीन गुने से ज्यादा अनाज होगा और इस तरह सरकार सबसे बड़ा जमाखोर बन जाएगी और दूसरी ओर, खुले बाजार में अनाजों की किल्लत होगी, ऊँची महंगाई होगी, मुनाफाखोर पैसे बनायेंगे, करोड़ों लोग भूखे पेट सोयेंगे लेकिन सरकारी भंडारों में अनाज सड़ेगा.
लेकिन यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजर इस अनाज को गरीबों में बांटने या उसे एक सार्वभौम खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सभी नागरिकों के लिए सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने के लिए तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि एक सीमित और आधे-अधूरे खाद्य सुरक्षा विधेयक को भी जान-बूझकर लटकाए रखा गया है.
इसकी वजह यह है कि सरकार को लगता है कि मुफ्त में या सस्ती दरों पर लोगों को अनाज उपलब्ध कराने से खाद्य सब्सिडी बढ़ जाएगी जिससे सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा. नव उदारवादी अर्थनीति में राजकोषीय घाटा को जी.डी.पी के तीन फीसदी के दायरे में रखना सबसे बड़ी और पहली प्राथमिकता होती है, इसलिए सरकार अनाज इकठ्ठा करने का रिकार्ड बनाती जा रही है लेकिन उसे जरूरतमंदों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है.
लेकिन इसका नतीजा यह हुआ है कि एक ओर खुले बाजार में कृत्रिम किल्लत पैदा हो गई है जिसका फायदा अनाजों के बड़े व्यापारी और कम्पनियाँ उठा रही हैं, महंगाई आसमान छू रही है और दूसरी ओर, गोदामों में अनाजों को रखने और उनकी देखभाल में होनेवाला खर्च बढ़ता जा रहा है जिसके कारण साल-दर-साल खाद्य सब्सिडी और राजकोषीय घाटा दोनों बढते जा रहे हैं.
यह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अति व्यामोह का नतीजा है. इसके कारण माया मिली, न राम वाली स्थिति पैदा हो गई है. लेकिन इसके बावजूद इन नीतियों का मोह नहीं छूट रहा है. प्रधानमंत्री की ताजा घोषणाओं से साबित हो गया है कि यू.पी.ए सरकार मौजूदा आर्थिक संकट की दवा उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नए डोज में खोज रही है जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है. लेकिन सच यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधार खुद एक गंभीर संकट में फंस गए हैं. इन नीतियों के कारण बढे भ्रष्टाचार और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि पूरे देश में इन नीतियों के खिलाफ एक विद्रोह जैसा माहौल है खासकर गरीब किसान और आदिवासी उद्योगों और खनन के लिए जमीन देने को तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि इन नीतियों का सबसे बड़ा समर्थक माना जानेवाला मध्यवर्ग भी बेचैन और गुस्से में है. साफ़ है कि आर्थिक सुधार अंधी गली के आखिरी मुहाने पर पहुँच गए हैं. आगे रास्ता बंद है. यू.पी.ए सरकार इस सच्चाई को जितनी जल्दी समझ लेगी, अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही अच्छा होगा. अन्यथा यह संकट और बढ़ेगा और नए-नए रूपों में सामने आएगा.
सबसे बड़ा खतरा यह है कि इस आर्थिक संकट के राजनीतिक संकट में तब्दील होने के आसार बढते जा रहे हैं. लेकिन अगर यू.पी.ए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर यह सोच रहे हैं कि आर्थिक-राजनीतिक संकट बढ़ने से उन्हें यह कहकर आर्थिक सुधारों का नया डोज देने में आसानी हो जाएगी कि अब इन कठोर फैसलों के अलावा और कोई उपाय नहीं है तो वे भूल कर रहे हैं. उन्हें यह जोखिम बहुत भारी पड़ सकता है. उन्हें यूरोप में ध्वस्त हो रही सरकारों के हश्र से सबक लेना चाहिए.
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