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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, June 7, 2012

धधक रहे हैं उत्‍तराखंड के जंगल और एसी कमरों में मन रहा है पर्यावरण दिवस

http://news.bhadas4media.com/index.php/yeduniya/1540-2012-06-07-10-14-44

[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1540-2012-06-07-10-14-44]धधक रहे हैं उत्‍तराखंड के जंगल और एसी कमरों में मन रहा है पर्यावरण दिवस   [/LINK] [/LARGE]
Written by प्रयाग पाण्डे Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 07 June 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=cf86de516a77698e8ee9fd7aefc85dd6cff0d30d][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1540-2012-06-07-10-14-44?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर पॉच जून को देशभर के शहरी इलाकों में पर्यावरण की हिफाजत को लेकर हुए सरकारी और गैर सरकारी जलसों का उत्‍तराखण्ड के जंगलों में लगी भीषण आग पर कोई असर नहीं हुआ। पर्यावरण की हिफाजत को लेकर जमकर हुई भाषण बाजी के बावजूद उत्‍तराखण्ड के जंगल भीषण आग से धधकते रहे। उत्‍तराखण्ड में मौजूद जंगलों के एवज में "ग्रीन बोनस" की मॉग करने वाली प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार ने पहाड़ के जंगलों की आग से हिफाजत के प्रति कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। इन दिनों पहाड़ के समूचे जंगल दावानल की जबरदस्त चपेट में है। जंगल की आग ने कुमाऊँ मण्डल में अब तक दो जनों की जान ले ली है। छह जून को रामनगर-काशीपुर से सटे जंगल में लगी आग में बाग के चार शावकों की झुलसने की वजह से मौत हो गई है। सोमेश्वर में चौदह बकरियॉ आग में जलकर मर गईं।

कुमाऊँ के इलाकें में इस साल अब तक आरक्षित वन क्षेत्र में 209 और सिविल वन पंचायत में 66 समेत कुल 275 आग लगने की घटनाएं हो चुकी है। इनमें 325.17 हेक्टेयर आरक्षित वन और 117.82 हेक्टेयर सिविल वन समेत 441.99 हेक्टेयर जंगल स्वाहा हो चुका है। 12.80 हेक्टेयर वृक्षारोपण वाला क्षेत्र जल गया है। 12200 नये पौधे जलकर राख हो गये है। 2986 लीसे के घाव आग की भेंट चढ़ चुके है। दावाग्नि की वजह से पहाड़ के पूरे आकाश में धुऑ ही धुऑ नजर आ रहा है। कुमाऊँ मण्डल में पिछले सात सालों के दौरान वन महकमे ने जंगलों में आग लगने के 1821 मामले दर्ज किये। इन हादसों में 4841.24 हेक्टेयर वन क्षेत्र जलकर राख हो गया था। कुमाऊँ में 2005 में आरक्षित वन क्षेत्र, सिविल वन तथा पंचायती वन क्षेत्रों में आग लगने की 403 घटनाएं हुई। इसमें 1196.25 हेक्टेयर वन क्षेत्र जला। 2006 में आग लगने के 37 हादसों में 76.35 हेक्टेयर जंगल जले।

2007 में वनों में आग लगने की 96 घटनाएं हुई और 196.75 हेक्टेयर जंगल आग के हवाले हुए। 2008 में आग लगने की 305 घटनाओं में 824.95 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। 2009 में आग लगने के 485 हादसों में 1314.17 हेक्टेयर वन क्षेत्र जला। साल 2010 में आग लगने की 313 घटनाएं हुई, जिनमें 691.60 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग के हवाले हो गया था। पिछले साल 2011 में जंगलो में आग लगने के 47 मामले दर्ज हुए, इसमें 78.65 हेक्टेयर वन क्षेत्र जला। एक हेक्टेयर वन क्षेत्र में वृक्षारोपण नष्ट हो गया था। जबकि इस साल अप्रैल के पहले पखवाडे़ में ही कुमाऊँ मण्डल के जंगलों में आग लगने के 17 मामले सामने आ चुके है। इनमें 26.60 हेक्टेयर वन क्षेत्र स्वाहा हो गया है। साढे़ तीन हेक्टेयर वन क्षेत्र का वृक्षारोपण आग की भेंट चढ़ चुका है। वनों में आग लगने के सबसे ज्यादा हादसे सीधे वन विभाग के नियंत्रण वाले आरक्षित वन क्षेत्रों में हुई। इस दरम्यान आरक्षित वन क्षेत्रों में आग लगने की 1040 घटनाएं दर्ज हुई। इन हादसों में 2474.70 हेक्टेयर आरक्षित वन क्षेत्र आग के सुपुर्द हो गया। आग लगने की सबसे ज्यादा घटनाएं चीड़ बाहुल्य वाले वन क्षेत्रों में हुई।

वनों में आग की इन घटनाओं में करोडों रुपये मूल्य की वन सम्पदा जलकर नष्ट हो गयी। अनेक प्रजाति के नवजात पौधे, दुलर्भ जडी़-बूटी और वनस्पति आग में भस्म हो गयी। अनेकानेक वन्य जीव और पशु-पक्षी जल मरे थे। आग बुझाने की कोशिशों में कई लोग जख्मी हो गये थे। पहाड़ के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की तपिश भी वन विभाग की नींद नहीं तोड़ पाई। प्रदेश सरकार ने जंगलो में आग लगने की घटनाओं को कभी गंभीरता से नहीं लिया। पहाड़ के जंगलों में हर साल लगने वाली आग के बाद वन महकमा आग लगने के कारणों की सतही जॉच के बाद आग में हुए नुकसान का मामूली आकलन कर मामले को दाखिल-दफ्तर कर देता है। दुर्भाग्य से जंगलों में आग लगने का मुद्दा पहाड़ में राजनीतिक चिंता का विषय भी नहीं बन सका।

उत्‍तराखण्ड के जंगलों के प्रति केन्द्र और प्रदेश सरकार का रवैया शुरू से ही विवेकपूर्ण नहीं रहा है। दरअसल यहॉ के जंगलों के साथ बिट्रिश हुकूमत के दिनों से ही दोहनपूर्ण सलूक होता रहा है। तब उत्‍तराखण्ड की वन संपदा को हरा सोना मानकर यहॉ के जंगलों का जमकर विदोहन हुआ। तब यहॉ पहाड़ में ज्यादातर मोटर लायक सड़कें, यहॉ के लोगों की सहूलियत के लिए नहीं बल्कि इस हरे सोने की लूट और सामरिक नजरिये से बनी। पर आजाद भारत की सरकार ने भी यहॉ के वन और जल संपदा के व्यवसायिक विदोहन को ही ज्यादा तरजीह दी। वनों की सुरक्षा और विकास के पुख्ता इंतजाम करने के बजाय अव्यहारिक वन कानूनों के जरिये यहॉ की जनता और जंगलों की दूरी पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा बढा़ दी। उत्‍तराखण्ड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 फीसदी यानी 34651.014 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। 24414.408 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जंगलात महकमे के नियंत्रण में है, जिसमें 24260 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन क्षेत्र है। 139.653 वर्ग किलोमीटर वन पंचायतों के नियंत्रणाधीन है।

यहॉ सबसे ज्यादा चीड़ के वन है। वन विभाग के आकडे़ बताते है कि वन विभाग के नियंत्रण वाले 24260.783 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में से 3,94,383,84 हेक्टेयर में चीड़ के वन है। दूसरे नम्बर में बॉज के वन आते है। 3,83,088,12 हेक्टेयर में बाज के जंगल है। देवदार, फर, साइप्रेस, टीक, खैर, शीशम, यूकेलिप्टस के वनों के अलावा 6,14,361 हेक्टेयर क्षेत्र में मिश्रित वन है। जबकि 541299.43 हेक्टेयर यानी 22.17 फीसदी क्षेत्र अनुत्पादक और रिक्त है। प्रदेश के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा उत्‍तराखण्ड की वनोपज से आता है। लेकिन यहॉ के बनों की आमदनी का एक छोटा हिस्सा ही यहॉ के वनों की हिफाजत में खर्च हो रहा है। वन महकमे के हिस्से आने वाली रकम का ज्यादातर हिस्सा वन विभाग के अफसरों और कर्मचारियों की तनख्वाह वगैरहा में खर्च हो जाता है। प्रदेश का जंगलात महकमा यहॉ के जंगलों की आमदनी के मुकाबले वनों की हिफाजत, पौधा-रोपण और विकास के काम में नाम मात्र की रकम खर्चता है। यह रकम भी ईमानदारी के साथ जमीन तक नहीं पहुंच पाती है।

सदियों से पहाड़ के देहाती इलाकों की समूची अर्थ व्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर रही है। पर्वतीय समाज का पूरा जीवन चक्र वनों की उर्जा से घूमता था। ग्रामीण क्षेत्रों की ज्यादातर जरूरतें वनों से ही पूरी होती थी। वन यहॉ कें वाशिन्दों के जीवनाधार थे। लिहाजा यहॉ के लागों का वनों के प्रति भावनात्मक और आत्मीय लगाव था। वनों के संरक्षण के नाम पर थोपे गये तमाम अव्यवहारिक वन कानूनों ने पहाड़ के ग्रामीण समाज और वनों के बीच एक गहरी खाई पैदा कर दी है। वन कानूनों ने ग्रामीणों और वनों के बीच सदियों के रिश्तों में दरार पैदा करने का काम किया है। यहॉ के बाशिन्दों के वनों के प्रति दिनों-दिन कम होते लगाव को जानने-समझने की ईमानदार कोशिश और जंगलों से आम आदमी का पुराना रिश्ता कायम किये बिना जंगलों को आग और इससे होने वाले नुकसान से कैसे बचाया जा सकता है, इस बात का जवाब फिलहाल जंगलात महकमे के किसी अफसर के पास नहीं है।

[B]लेखक प्रयाग पाण्‍डे उत्‍तराखंड के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं तथा इन दिनों नैनीताल में सक्रिय हैं.[/B]

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