Friday, 22 June 2012 11:12 |
पुण्य प्रसून वाजपेयी मगर इस दौर में क्या सपा बदल गई? चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव ने पुरानी गलतियों से सबक लेने की बात बार-बार दोहराई थी। लेकिन सपा की नई सरकार बनने के बाद जल्दी ही यह साफ हो गया कि उसके चाल-चरित्र में कोई बदलाव नहीं आया है। लेकिन अब सपा के विरोध का मतलब है दुबारा उन मायावती की ओर रुख करना, जिन्होंने राजनीतिक साख को भी नोटों की माला में बदल कर पहना और दलित संघर्ष के गीत गाए। तो बेटे के जरिए मुलायम का कथित समाजवाद लोकतंत्र के जैसे भी गीत गाए उसे बर्दाश्त करना ही होगा। यही सवाल पंजाब में अकालियों को लेकर खड़ा है। वहां कांग्रेसी कैप्टन का दरवाजा ही आम लोगों के लिए कभी नहीं खुलता। इसलिए लोग बादल परिवार का भ्रष्टाचार बर्दाश्त करने को विवश हैं। छत्तीसगढ़ में जिसने भी कांग्रेसी जोगी की सत्ता के दौर को देखा-भोगा, उसके लिए रमन सिंह की सत्ता की लूट कोई मायने नहीं रखती। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान इसलिए बर्दाश्त किए जाते हैं, क्योंकि उनकी सत्ता जाने का मतलब है कांग्रेस के सियासी शहंशाहों का कब्जा। दिग्गी राजा से लेकर सिंधिया परिवार तक को लगता है कि उनका तो राजपाट है मध्यप्रदेश। कमोबेश यही स्थति ओड़िशा की है। वहां कांग्रेस या भाजपा खनन के रास्ते लाभ उठाती रहीं और इन्फ्रास्ट्रक्चर चौपट होता रहा। ऐसे में नवीन पटनायक चाहे ओड़िशा में कोई नई धारा अभी तक न बना पाए हों, लेकिन उनके विरोध का मतलब उन्हीं कांग्रेस-भाजपा को जगाना होगा जिनसे ओड़िशा आहत महसूस करता रहा है। यानी सत्ता ने ही इस दौर में अपनी परिभाषा ऐसी गढ़ी जिसमें वही जनता हाशिये पर चली गई जिसके वोट को सहारे लोकतंत्र का गान देश में बीते साठ बरस से लगातार होता रहा है, क्योंकि जो सत्ता में है उसका विकल्प कहीं बदतर है। सरकार से लोग जितने निराश हैं, विपक्ष को लेकर उससे कम मायूस नहीं हैं, चाहे चाहे केंद्र का मामला हो या राज्यों का। यही कारण है कि अब सवाल पूरी संसदीय राजनीति को लेकर उठ रहे हैं और राजनीतिक तौर पर पहली बार लोकतंत्र ही कठघरे में खड़ा दिखता है, क्योंकि जिन माध्यमों के जरिये लोकतंत्र को देश ने कंधे पर बिठाया उन माध्यमों ने ही लोकतंत्र को सत्ता की परछार्इं तले ला दिया और सत्ता ही लोकतंत्र का पर्याय बन गई। इसलिए अब यह सवाल उठेगा ही कि जो राजनीतिक व्यवस्था चल रही है उसमें सत्ता परिवर्तन का मतलब सिर्फ चेहरों की अदला-बदली है। और हर चेहरे के पीछे सियासी खेल एक-सा है। फिर आम आदमी या मतदाता कितना मायने रखता है। ऐसे में जो नीतियां बन रही हैं, जो संस्थाएं नीतियों को लागू करवा रही हैं, जो विरोध के स्वर हैं, जो पक्ष की बात कर रहे हैं, जो विपक्ष में बैठे हैं, सभी प्रकारांतर से एक ही हैं। यानी इस दायरे में राजनेता, नौकरशाही, कॉरपोरेट और स्वायत्त संस्थाएं एक सरीखी हो चली हैं तो फिर बिगड़ी अर्थव्यवस्था या सरकार के कॉरपोरेटीकरण के सवाल का मतलब क्या है। और 2014 को लेकर जिस राजनीतिक संघर्ष की तैयारी में सभी राजनीतिक दल ताल ठोंक रहे हैं, वह ताल भी कहीं साझा रणनीति का हिस्सा तो नहीं है जिससे देश के बहत्तर करोड़ मतदाताओं को लगे कि उनकी भागीदारी के बगैर सत्ता बन नहीं सकती, चाहे 2009 में महज साढेÞ ग्यारह करोड़ वोटों के सहारे कांग्रेस देश को लगातार बता रही है कि उसे जनता ने चुना है और पांच बरस तक वह जो भी कर रही है जनता की नुमाइंदगी करते हुए कर रही है। यह अलग बात है कि इस दौर में जनता सड़क से अपने नुमाइंदों को, संसद को चेताने में लगी है और संसद कह रही है कि यह लोकतंत्र पर हमला है। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Saturday, June 23, 2012
राजनीतिक शून्यता का लोकतंत्र
राजनीतिक शून्यता का लोकतंत्र
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