Saturday, 23 June 2012 11:49 |
भारत डोगरा भूमि-सुधार एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमें करोड़ों गांववासियों को स्थायी लाभ पहुंचाने की क्षमता है, मगर पर इसका सरकारी बजट पर कोई भार नहीं है। इसे अच्छी तरह लागू करने के लिए प्रशासनिक तंत्र पहले से मौजूद है, बस उसे मुस्तैद करने की जरूरत है। फिर भी अगर कुछ अतिरिक्त प्रशासनिक व्यवस्था करनी भी पड़ी तो इसमें सरकारी बजट का इतना कम हिस्सा खर्च होगा कि उसे नगण्य ही माना जाएगा। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि चीन जैसे साम्यवादी देश ने ही नहीं बल्कि जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे कई अन्य देशों ने भी समतावादी भूमि-वितरण पर आगामी आर्थिक प्रगति के लिए एक ठोस आधार तैयार किया। चीन में माओ के समय वैसे तो गलत नीतियों के कारण लाखों लोग अकाल में मारे गए, पर समतावादी भूमि बंटवारा वहां भी आगे चल कर (जब भुखमरी पैदा करने वाली नीतियों को वापस ले लिया गया था) काम आया। इन चार देशों में तैंतीस से तैंतालीस फीसद के बीच भूमि पुनर्वितरण हुआ। भारत सरकार के पूर्व ग्रामीण विकास सचिव एसआर शंकरन इस विषय के जाने-माने विद्वान रहे हैं। उन्होंने लिखा, ''चीन में 43 प्रतिशत भूमि का पुनर्वितरण हुआ, ताइवान में 37 प्रतिशत का, दक्षिण कोरिया में 32 प्रतिशत का और जापान में 33 प्रतिशत का। इसकी तुलना में भारत में केंद्रीय और राज्य सरकारों के पैंतीस वर्षों तक हदबंदी या सीलिंग कानून बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने से जोती गई भूमि के सवा फीसद हिस्से का ही पुनर्वितरण हो सका।'' नवीनतम आंकड़ों के आधार पर हम हदबंदी कानून के अंतर्गत दो प्रतिशत कृषिभूमि का भी पुनर्वितरण मान लें और उसमें ग्राम समाज भूमि का वितरण और भूदान भूमि का वितरण जोड़ लें तो भी कुल कृषिभूमि की करीब चार प्रतिशत के आसपास ही भूमि गरीबों में वितरण के लिए उपलब्ध हुई है। फिर, अगर यह हिसाब लगाएं कि तरह-तरह के विस्थापन या भूमि घोटालों के चलते छोटे और सीमांत किसान कितने बड़े पैमाने पर भूमि से वंचित हुए हैं तो स्पष्ट हो जाएगा कि गरीब परिवारों में उतनी जमीन बंटी नहीं है जितनी उनसे छिनी है। विशेषकर पिछले एक-डेढ़ दशक के दौरान तो निश्चित तौर पर यही स्थिति रही है। भूमि-सुधारों को हमारे देश में अपेक्षित सफलता न मिल पाने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह रहा है कि जब भूमिहीन अपने हकों की आवाज उठाते हैं तो बडेÞ भूस्वामी वर्ग के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन का रवैया भी प्राय: दमन-उत्पीड़न का ही रहता है। सरकार को इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कडेÞ निर्देश जारी करने चाहिए कि भूमि सुधारों संबंधी या इससे मिलती-जुलती मांगों के लिए जो भी सांगठनिक प्रयास या आंदोलन होते हैं, उनके प्रति दमन की नहीं बल्कि प्रोत्साहन की नीति अपनानी चाहिए, क्योंकि जब तक भूमिहीनों या नई भूमि प्राप्त करने वाले परिवारों के मजबूत संगठन नहीं बनेंगे तब तक भूमि सुधार सफल नहीं होगा। आज स्थिति यह है कि बरसों से पट््टा प्राप्त बहुत-से कथित लाभार्थियों को भी अभी तक भूमि पर वास्तविक कब्जा नहीं मिल पाया है और वे भूमि नहीं जोत सके हैं। इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलना चाहिए कि पट््टा प्राप्त करने वाले परिवारों को वास्तविक कब्जा मिल सके और वे इस भूमि को जोत सकें। सरकार के पास ऐसी रिपोर्टों और अध्ययनों की कमी नहीं है जो विस्तार से यह बताने में सक्षम हैं कि भूमि सुधार कानूनों और उनके क्रियान्वयन में कहां कमी रह गई। लाल बहादुर शास्त्री अकादमी (मसूरी) में इस मुद्दे पर अच्छा अनुसंधान हुआ और कई सरकारी अधिकारियों ने भूमि सुधार को बेहतर करने और सब भूमिहीन (या लगभग भूमिहीन) परिवारों को कुछ भूमि उपलब्ध कराने की राह बताई। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना तैयार करते समय भूमि संबंधों पर जो कार्यदल गठित किया गया था उसकी रिपोर्ट में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव हैं। ऐसी रिपोर्टों और अध्ययनों के आधार पर सरकार को ऐसे नीति-निर्देश तैयार करने चाहिए जो राज्य सरकारों के लिए भूमि सुधारों संबंधी कमियों को दूर करने में वास्तव में सहायक सिद्ध हों। केंद्र सरकार ग्रामीण और कृषि विकास की कुछ ऐसी योजनाएं भी शुरू कर सकती जो पूरी तरह भूमिहीनों में भूमि वितरण से जुड़ी हों। जिन राज्यों में भूमि वितरण का लाभ अधिक भूमिहीनों तक पहुंचा है, वहां इन नए किसानों की सफल खेती के लिए लघु सिंचाई, जल और मिट्टी संरक्षण, भूमि समतलीकरण आदि के लिए सहायता उदारता से उपलब्ध करानी चाहिए। जो राज्य सरकार जितने अधिक भूमिहीनों को भूमि वितरण करेगी, उसे उतनी ही अधिक सहायता राशि मिले। दूसरी ओर, जो सरकारें इन मामलों में उदासीन हैं उन्हें इस सहायता के लाभ से वंचित रखा जाए। |
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Saturday, June 23, 2012
जमीन पक रही है
जमीन पक रही है
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