निरापद नहीं है चिदम्बरम का निर्वाचन
मद्रास उच्च न्यायाल की मदुरै बेंच ने पी चिदम्बरम को एक तगड़ा झटका दिया है. चिदम्बरम भले ही मई २००९ से लोकसभा की सदस्यता के सारे लाभ उठा रहे हैं और उसी की बदौलत गृहमंत्री बने फिर रहे हैं लेकिन हाई कोर्ट की नज़र में उनका निर्वाचन निरापद नहीं है. जिस दिन से वे लोक सभा का चुनाव तमिलनाडु की शिवगंगा सीट से जीते हैं उसी दिन से उन पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने धांधली करके मामूली अंतरों से चुनाव जीत लिया है.
वास्तव में वे चुनाव हार चुके थे. टेलीविजन के सामने जो लोग लोक सभा चुनावों के परिणाम देख रहे थे उनके लिए भी यह एक रहस्य से कम नहीं कि जो चिदम्बरम लगातार एआईडीएमके के प्रत्याशी से पीछे चल रहे थे वे कैसे आखिरी पलों में निर्वाचित घोषित कर दिए गए!
सच जो भी हो लेकिन यह विवाद जल्द ही कोर्ट में पहुँच गया. एआईडीएमके आर एस राजा कन्ननपन ने मद्रास हाई कोर्ट में चिदम्बरम के निर्वाचन को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की थी. बदले में चिदम्बरम ने भी कन्ननपन की याचिका का अवैध ठहराने की अपील की थी. आज कोर्ट ने कन्ननपन की याचिका को वैध मानते हुए स्वीकार कर लिया है. कन्ननपन ने २९ आधारों पर चिदम्बरम के निर्वाचन को अवैध ठहराया था. कोर्ट ने केवल दो आधारों को खारिज किया २७ आधारों पर उनके निर्वाचन को अवैध ठहराने के आरोप को कोर्ट की सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है.
इसका अर्थ यह हुआ कि अभी न्यायलय चिदम्बरम के निर्वाचन से संतुष्ट और आश्वस्त नहीं है. उसके पर २७ ऐसे आधार मौजूद हैं जिनके आधार पर चिदम्बरम को अवैध सांसद साबित किया जा सकता है. यदि ऐसा हो गया तो राष्ट्रीय राजनीति में जो लोग उन्हें नहीं देखना चाहते उनके लिए चिदम्बरम के खिलाफ मजबूत चार्जसीट तैयार करने का आधार मिल जायेगा. और उनकी विदाई हो जाएगी. यों तो उनसे विपक्ष ने कई बार इस्तीफा माँगा है लेकिन हर बार वे मना कर देते हैं. इस बार भी विपक्ष ने इस्तीफ़ा माँगा है और वे मना कर रहे हैं. उम्मीद है वे ज्यों के त्यों बने रहेंगे.
चिदम्बरम यदि किस्मत के इतने कमजोर और नैतिक होते तो अपने इक़बाल से इतना चौंधियाते नहीं. वे जानते हैं कि कोर्ट ऐसे मामलों में निर्णय तभी दे पाती है जब निर्वाचित व्यक्ति अपना कार्यकाल पूरा कर लेता है. चिदम्बरम ने भी तीन साल शान से काट लिए हैं, दो साल बचे हैं, वे भी कट जायेंगे. उनके सौभाग्य से कोर्ट का गति नहीं बढ़ी तो.
अब विपक्षी यदि नैतिकता के आधार से उनसे इस्तीफ़ा मांगे तो उन्हें कौन गंभीरता से लेगा? नैतिकता बची ही कहाँ है, भारतीय राजनीति में जो अपना रंग दिखाएगी!
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