बात करने की नहीं, नहाने की चीज हैं बाबू
लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देखकर यौनकर्मियों को बड़ी हैरानी हो रही थी. कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाजती रहीं और बोलीं ऐसी-ऐसी बहुत सारी थूथनियों को हम देख चुकी हैं.............
अनामी शरण बबल
नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास जीबीरोड यानी गौतमबुद्ध रोड में जिस्म की मंडी है, जहां पर सरकार और पुलिस के तमाम दावों के बावजूद पिछले कई सदियों से जिस्म का बाजार चल रहा है. मगर दिल्ली के एक गांव में भी जिस्म का धंधा होता है. क्या आपको यौनकर्मियों के इस बस्ती के बारे में पता है?
बाहरी दिल्ली के रेवला खानपुर गांव के पास प्रेमनगर एक ऐसी ही बस्ती है, जो शाम ढलते ही रंगीन होने लगती है. हालांकि पुलिस प्रशासन और कथित नेताओं द्वारा इसे उजाड़ने की यदा-कदा कोशिश भी होती रहती है, इसके बावजूद बदनाम प्रेमनगर की रंगीनी में बहुत अँधेरा नहीं है. अलबत्ता, महंगाई और आधुनिकता की मार से प्रेमनगर में क्षणिक प्यार का यह धंधा अब उदास सा जरूर होता जा रहा है.
आज से करीब 16 साल पहले अपने दोस्त और बाहरी दिल्ली के अपने सबसे मजबूत संपर्क सूत्रों में एक थान सिंह यादव के साथ इस प्रेमगनर बस्ती के भीतर जाने का मौका मिला. ढांसा रोड की तरफ से एक चाय की दुकान के बगल से निकल कर हमलोग बस्ती के भीतर दाखिल हुए. चाय की दुकान से ही एक बंदा हमारे साथ हो लिया. कुछ ही देर में हम उसके घर पर थे.
उसने स्वीकार किया कि धंधा के नाम पर बस्ती में दो फाड़ हो चुका है. एक खेमा इस पुश्तैनी धंधे को बरकरार रखना चाहता है, तो दूसरा खेमा अब इस धंधे से बाहर निकलना चाहता है. हमलोग किसके घर में बैठे थे, इसका नाम तो अब मुझे याद नहीं है, मगर (सुविधा के लिए उसका नाम राजू रख लेते हैं) राजू ने बताया प्रेमनगर में पिछले 300 से हमारे पूर्वज रह रहे है. अपनी बहूओं से धंधा कराने के साथ ही कुंवारी बेटियों से भी धंधा कराने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता.
आमतौर पर दिन में ज्यादातर मर्द खेती, मजदूरी या कोई भी काम से घर से बाहर निकल जाते है, तब यहां की औरते( लड़कियां भी) ग्राहक के आने पर निपट लेती है. इस मामले में पूरा लोकतंत्र है कि मर्द(ग्राहक) द्वारा पसंद की गई यौनकर्मी के अलावा और सारी धंधेवाली वहां से फौरन चली जाती हैं. ग्राहक को लेकर घर में घुसते ही घर के और लोग दूसरे कमरे में या बाहर निकल जाते है. यानी घर में उसके परिजनों की मौजूदगी में ही धंधा होने के बावजूद ग्राहक को किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता है.
देखने में बेहद खूबसूरत तीन बच्चों की मान पानी लाकर हमलोग के पास रखा. एकदम सामान्य शिष्टाचार और एक अतिथि की तरह सत्कार कर रही धन्नो और उसके पति से अनुरोध कर हमलोग करीब एक घंटे तक वहां रहकर जानकारी लेते रहे. इस दौरान हमने राजू और धन्नों के यहां चाय पी.
राजू ने बताया कि रेवला खानपुर में कभी प्रेमबाबू नामक कोई ग्राम प्रधान हुआ करते थे, जिन्होंने इन कंजरों पर दया करके रेवला खानपुर ग्रामसभा की जमीन पर इन्हें आबाद कर दिया. ग्रामसभा की तरफ से पट्टा दिए जाने की वजह से यह बस्ती पुरी तरह वैधानिक और मान्य है. अपना पक्का मकान बना लेने वाले राजू से धंधे के विरोध के बाबत पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं दे पाया.
हालांकि उसने यह माना कि घर का खर्च चलाने में धन्नों की आय का भी एक बड़ा हिस्सा होता है. घर से बाहर निकलते समय थान सिंह ने धन्नों के छोटे बच्चे को एक सौ रूपए का एक नोट थमाया. रूपए को वापस करने के लिए धन्नो और राजू अड़ गए. खासकर धन्नो बोली, नहीं साब मुफ्त में तो हम एक पैसा भी नहीं लेते.
काफी देर तक ना नुकूर करने के बाद अंततः वे लोग किसी तरह नोट रखने पर राजी हुए.
धंधे का भी लिहाज होता है
करीब एक साल के बाद प्रेमनगर में फिर दोबारा जाने का मौका मिला. 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के मतदान के दिन बाहरी दिल्ली का चक्कर काटते हुए हमारी गाड़ी रेवला खानपुर गांव के आसपास थी. हमारे साथ हरीश लखेड़ा (अभी अमर उजाला में) और कंचन आजाद (अब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पीआरओ) साथ थे. एकाएक चुनाव के प्रति यौनकर्मियों की रूचि को जानने के लिए मैनें गाड़ी को प्रेमनगर की तरफ ले चलने को कहा.
हमारे साथ आए दो पत्रकार मित्रों के संकोच के बावजूद धड़धड़ाते हुए मैं वहां पर जा पहुंचा, जहां पर सात-आठ महिलाएं बैठी थीं. मुझे देखते ही एक उम्रदराज महिला का चेहरा खिल उठा. मुझे संबोधित करती हुई एक ने कहा का बात है राजा, बहुत दिनों के बाद इधर आना हुआ ? तभी महिला ने टोका ये सब बाबू (दूर खड़ी कार से उतरकर हरीश और कांचन मेरा इंतजार कर रहे थे) भी क्या तुम्हारे साथ ही है ? एक दूसरी महिला ने चुटकी ली. आज तो तुम बाबू फौज के साथ आए हो.
बात बदलते हुए मैंने कहा आज चुनाव है ना, इन बाबूओं को कहां कहां पर मतदान कैसे होता है, यहीं दिखाने निकला था. अपनी बात को जारी रखते हुए मैंने सवाल किया क्या तुमलोग वोट डालकर आ गई ? मैने एक को टोका बड़ी मस्ती में बैठी हो, किसे वोट दी. मेरी बात सुनकर सारी महिलाएं (और लड़कियां भी) खिलखिला पड़ी.
खिलखिलाते हुए किसी और ने टोका बड़ा चालू हो बाबू एक ही बार में सब जान लोगे या कुछ खर्चा-पानी भी करोगे. गलती का अहसास करने का नाटक करते हुए फट अपनी जेब से एक सौ रूपए का एक नोट निकालकर मैनें आगे कर दिया. नोट थामने से पहले उसने कहा बस्सस. मैने फौरन कहा, ये तो तुमलोग के चाय के लिए है, बाकी बाद में. मैंने उठने की चेष्टा की भी नहीं कि एक बहुत सुंदर सी महिला ने अपने शिशु को किसी और को थमाकर सामने के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गयी.
उधर जाने की बजाय मैं वहीं पर खड़ा होकर दोनों हाथ ऊपर करके अपने पूरे बदन को खोलने की कोशिश की. इस पर एक साथ कई महिलाएं एक साथ सित्कार सी उठी, हाय यहां पर जान क्यों मार रहे हो. बदन और खाट अंदर जाकर तोड़ो ना. फिर भी मैं वहीं पर खड़ा रहा और चुनाव की चर्चा करते हुए यह पूछा कि तुमलोगों ने किसे वोट दिया ? मेरे सवाल पर मेरी मौजूदगी को बड़े अनमने तरीके से लेती हुई सबों ने जवाब देने की बजाय अपना मुंह बिदकाने लगी. तभी मैने देखा कि 18-20 साल के दो लडके न जाने किधर से आए और इतनी सारी झुंड़ में बैठी महिलाओं की परवाह किए बगैर ही दनदनाते हुए कमरे में घुस गए.
दरवाजे पर मेरे इंतजार में खड़ी यौनकर्मी भी कमरे में मेरे इंतजार को भूलकर फौरन कमरे के भीतर चली गई. दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ था, लिहाजा मैं फौरन कमरे की तरफ भागा. इसपर एक साथ कई महिलाओं ने आपत्ति की और जरा सख्त लहजे में अंदर जाने से मुझे रोका. सबों की अनसुनी करते हुए दूसरे ही पल मैं कमरे में था. जहां पर लड़कों से लेनदेन को लेकर मोलतोल हो रहा था.
एकाएक कमरे में मुझे देखकर उसका लहजा बदल गया. उसने बाहर जाकर किसी और के लिए बात करने पर जोर देने लगी. फौरन 100 रूपए का नोट दिखाते हुए मैनें जिद की, जब मेरी बात हो गई है, तब दूसरे से मैं क्यों बात करूं ? इसपर सख्त लहजे में उसने कहा मैं किसी की रखैल नहीं हूं जो तुम भाव दिखा रहे हो. फिलहाल तेरी बारी खत्म, अब बाहर जाओ.
कमरे से बाहर निकलते ही मैंने गौर किया कि तमाम यौनकर्मियों का चेहरा लाल था. बाबू धंधे का कोई लिहाज भी होता है? किसी एक ने मेरे उपर कटाक्ष किया क्या तुम्हें वोट डालना है या किसे वोट डाली हो यह पूछते ही रहोगे ? इस पर सारी खिलखिला पड़ी. मैं भी ठिठाई से कहा यहां पर नहीं किसी को तीन चार घंटे के लिए हमारे साथ भेजो गाड़ी में और पैसा बताओ ?
इस पर सबों ने अपनी अंगूली को दांतों से काटते हुए बोल पड़ी. हाय रे दईया, पैसे वाला लाला है. किसी ने पूरी सख्ती से कहा कोई और मेम को ले जाना अपने साथ गाड़ी में. प्रेमनगर की हम औरतें कहीं बाहर गाड़ी में नहीं जाती. इस बीच कहीं से चाय बनकर आ गई. तब वे सारी औरतें फौरन नरम हो गई और सभी यौनकर्मियों ने चाय पीने का अनुरोध किया.
मैनें नाराजगी दिखाते हुए फिर कभी आने का घिस्सा पीटा जवाब दोहराया. इस बीच अब तक खुला कमरा भीतर से बंद हो चुका था. लौटने के लिए मैं ज्यों ही मुड़ा तो दो एक ने चीखकर कटाक्ष किया. वर्मा (तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा) हो या सोलंकी (तत्कालीन स्थानीय विधायक धर्मदेव सोलंकी) सब भीतर से खल्लास हैं, खल्लास. एक ने मेरे ऊपर तोहमत मढ़ा कही तुम भी तो वर्मा- सोलंकी नहीं हो ?
इस पर कोई प्रतिवाद करने की बजाय वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई दिखी. प्रेमनगर को लेकर मेरे द्वारा दो-तीन खबरें लिखने के बाद तब पॉयनीयर में (बाद में इंडियन एक्सप्रेस) में काम करने वाली ऐश्वर्या (अभी कहां पर है, इसकी जानकारी नही) ने मुझसे प्रेमनगर पर एक रिपोर्ट कराने का आग्रह किया. यह बात लगभग 2000 की है. हमलोग एक बार फिर प्रेमनगर की उन्ही गलियों की ओर निकल पड़े.
साथ में एक लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देखकर यौनकर्मियों को बड़ी हैरानी हो रही थी. कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाजती रहीं. मैंने कुछ उम्रदराज यौनकर्मियों को बताया कि ये एक एनजीओ से जुड़ी हैं और यहां पर वे आपलोग की सेहत और रहनसहन पर काम करने आई हैं. ये एक बड़ी अधिकारी है, और ये कई तरह से आपलोग को फायदा पहुंचाना चाहती है.
मेरी बातों का उनपर कोई असर नहीं पड़ा. उल्टे टिप्पणी की कि ऐसी-ऐसी बहुत सारी थूथनियों को मैं देख चूकी हूं. कईयों ने उपहास के साथ कटाक्ष भी किया कि अपनी हेमा मालिनी को लेकर जल्दी यहां से फूटो अपना और मेरा समय बर्बाद ना करो.
मैंने जोर देकर कहा कि चिंता ना करो, हमलोग पूरा पैसा देकर जाएंगे. इतना सुनते ही कई यौनकर्मी आग बबूला हो गईं. एक ने कहा बाबू यहां पर रोजाना मेला लगता है, जहां पर तुम जैसे डेढ़ सौ बाबू आकर अपनी थैली दे जाते है. पैसे का रौब ना गांठों. यहां तो हमारे मूतने से भी पैसे की बारिश होती है, अभी तुम बच्चे हो. हमलोगों की आंखें नागिन की होती है, एक बार देखने पर चेहरा नहीं भूलती. तुम तो कई बार शो रूम देखने यहां आ चुके हो. दम है तो कमरे में चलकर बातें कर.
मैनें फौरन क्षमा मांगते हुए किसी तरह यौनकर्मियों को शांत करने की गुजारिश में लग गया. एक ने कहा कि हमलोगों को तुम जितना उल्लू समझते हो, उतना हम होती नहीं है. बड़े बड़े फन्ने तीसमार खांन भी यहां आकर मेमना बन जाते है. हम ईमानदारी से केवल अपना पैसा लेती है. एक यौनकर्मी ने जोड़ा, 'हम रंडियों का अपना कानून होता है, मगर तुम एय्याश मर्दो में तो कोई ईमान ही नहीं होता.'
यौनकर्मियों के एकाएक इस बौछार से मैं लगभग निरूतर सा हो गया. महिला पत्रकार को लेकर फौरन खिसकना ही उचित लगा. एक उम्रदराज यौनकर्मी से बिनती करते हुए मैंने पूछा कि क्या इसे (महिला पत्रकार) पूरे गांव में घूमा दूं? उसकी सहमति मिलने पर हमलोगों ने प्रेमनगर की गलियों को देखना शुरू किया. अब हमलोगों ने फैसला किया कि किसी से उलझने या सवाल जवाब करने की बजाय केवल माहौल को देखकर ही हालात का जायजा लेना ज्यादा ठीक और सुरक्षित है.
मर्द आते इज्ज़त उतरवाने
हमलोग अभी एक गली में प्रवेश ही किए थे कि गली के अंतिम छोर पर दो लड़कियां और दो लड़कों के बीच पैसे को लेकर मोलतोल जारी था. 18-19 साल के लड़के 17-18 साल का मासूम सी लड़कियों को 20 रूपए देना चाह रहे थे, जबकि लड़कियां 30 रूपए की मांग पर अड़ी थी. लगता है जब बात नहीं बनी होगी तो एक लड़की बौखला सी गई और बोलती है. साले जेब में पैसे रखोगे नहीं और अपना मुंह लेकर सीधे चले आओगे अपनी अम्मां के पास आम चूसने. चल भाग वरना एक झापड़ दूंगी तो साले तेरा केला कटकर यहीं पर रह जाएगा.
शर्म से पानी पानी से हो गए दोनों लड़के हमलोगों के मौके पर आने से पहले ही निकल लिए. मैं बीच में ही बोल पड़ा, क्या हुआ इतना गरम क्यों हो. इस पर लगभग पूरी बदतमीजी से एक बोली मंगलाचरण की बेला है, तेरा हंटर गरम है तो चल वरना तू भी यहां से फूट. मैने बड़े प्यार से कहा कि चिंता ना कर तू हमलोग से बात तो कर तेरे को पैसे मिल जाएंगे. मैनें अपनी जेब से 50 रूपए का एक नोट निकाल कर आगे कर दिया. नोट को देखकर हुड़की देती हुई एक ने कहा सिर पर पटाखा बांधकर क्या हमें दिखाने आया है, जा मरा ना उसी से.
मैंने झिड़की देते हुए टोका इतनी गरम क्यों हो रही है, हम बात ही तो कर रहे है. गंदी सी गाली देती हुई एक ने कहा हम बात करने की नहीं नहाने की चीज है. कुंए में तैरने की हिम्मत है तो चल बात भी करेंगे और बर्दाश्त भी करेंगे. दूसरी ने अपने साथी को उलाहना दी, तू भी कहां फंस रही है साले के पास डंड़ा रहेगा तभी तो गिल्ली से खेलेगा. दोनों जोरदार ठहाका लगाती हुई जानें लगीं.
मैं भी बुरा सा मुंह बनाते हुए तल्ख टिप्पणी की, तुम लोग भी कम बदतमीज नहीं हों. यह सुनते ही वे दोनों फिर हमलोगों के पास लौट आयीं और उनमें से एक ने कहा, 'वेश्या के घर में इज्जत की बात करने वाला तू पहला मर्द है. यहां पर आने वाला मर्द हमारी नहीं हमलोगों के हाथों अपनी इज्जत उतरवा कर जाता है.' मैंने बात को मोड़ते हुए कहा कि ये बहुत बड़ी अधिकारी है और तुमलोग की सेहत और हालात पर बातचीत करके सरकार से मदद दिलाना चाहती है. इस पर वे लोग एकाएक नाराज हो गई. बिफरते हुए एक ने कहा हमारी सेहत को क्या हुआ है. तू समझ रहा है कि हमें एड(एड़स) हो गया है. तुम्हें पता ही नहीं है बाबू हमें कोई क्या चूसेगा, चूस तो हमलोग लेती है मर्दों को.
तपाक से मैनें जोड़ा अभी लगती तो एकदम बच्ची सी हो, मगर बड़ी खेली खाई सी बातें कर रही हो. इस पर रूखे लहजे में एक ने कहा जाओ बाबू जाओ तेरे बस की ये सब नहीं है, तू केवल झुनझुना है. गंदी गंदी गालियों के साथ वे दोनों पलक झपकते गली पार करके हमलोगों की नजरों से ओझल हो गई.मूड उखड़ने के बाद भी भरी दोपहरी में हमलोग दो चार गलियों में चक्कर काटते हुए प्रेमनगर से बाहर निकल गए.
करीब तीन साल पहले 2009 में एक बार फिर थान सिंह यादव के साथ मैं प्रेमनगर में था. करीब आठ-नौ साल के बाद यहां आने पर बहुत कुछ बदला बदला सा दिखा. ज्यादातर कच्चे मकान पक्के हो चुके थे. गलियों की रंगत भी बदल सी गयी थी. कई बार यहा आने के बाद भी यहां की घुमावदार गलियां मेरे लिए हमेशा पहेली सी थी. गांव के मुहाने पर ही एक अधेड़ आदमी से मुलाकात हो गई.
हमलोंगों ने यहां आने का मकसद बताते हुए किसी ऐसी महिला या लोगों से बात कराने का आग्रह किया, जिससे प्रेमनगर की पीड़ा को ठीक से सामने रखा जा सके. पत्रकार का परिचय देते हुए उसे भरोसे में लिया. हमने यह भी बता दिया कि इससे पहले भी कई बार आया हूं, मगर अपने परिचय को जाहिर नहीं किया था. अलबता पहले भी कई बार खबर छापने के बावजूद हमने हमेशा प्रेमनगर की पीड़ा को सनसनीखेज बनाने की बजाय इस अभिशाप की नियति को प्रस्तुत किया था.
यह हमारा संयोग था कि बुजुर्ग को मेरी बातों पर यकीन आ गया, और वह हमें साथ लेकर अपने घर आ गया. घर में दो अधेड़ औरतों के सिवा दो और जवान विवाहिता थी. कई छोटे बच्चों वाले इस घर में उस समय कोई मर्द नहीं था. घर में सामान्य तौर तरीके से पानी के साथ हमारी अगवानी की गई. दूसरे कमरे में जाकर मर्द ने पता नहीं क्या कहा होगा.
थोड़ी देर में चेहरे पर मुस्कान लिए चारों महिलाएं हमारे सामने आकर बैठ गई. इस बीच थान सिंह ने अपने साथ लाए बिस्कुट, च़ाकलेट और टाफी को आस पास खड़ें बच्चों के बीच बाट दिया. बच्चों के हाथों में ढेरो चीज देखकर एक ने जाकर गैस खोलते हुए चाय बनाने की घोषणा की. इस पर थान सिंह ने अपनी थैली से दो लिटर दूध की थैली निकालते हुए इसे ले जाने का आग्रह किया. इस पर शरमाती हुई चारों औरतों ने एक साथ कहा कि घर में तो दूध है.
बाजी अपने हाथ में आते देखकर फिर थान सिंह ने एक महिला को अपने पास बुलाया और थैली से दो किलो चीनी के साथ चाय की 250 ग्राम का एक पैकेट और क्रीम बिस्कुट के कुछ पैकेट निकाल कर उसे थमाया. पास में खड़ी महिला इन सामानों को लेने से परहेज करती हुई शरमाती रही. सारी महिलाओं को यह सब एक अचंभा सा लग रहा था.
एक ने शिकायती लहजे में कहा अजी सबकुछ तो आपलोगों ने ही लाया है तो फिर हमारी चाय क्या हुई. मैने कहा अरे घर तुम्हारा, किचेन से लेकर पानी, बर्तन, कप प्लेट से लेकर चाय बनाने और देने वाली तक तुम लोग हो तो चाय तो तुमलोग की ही हुई. अधेड़ महिला ने कहा बाबू तुमने तो हमलोगों को घर सा मान देकर तो एक तरीके से खरीद ही लिया. दूसरी अधेड़ महिला ने कहा बाबू उम्र पक गई. हमने सैकड़ों लोगों को देखा, मगर तुमलोग जैसा मान देने वाला कोई दूसरा नहीं देखा. यहां तो फौरन भागने वाले मर्दो को ही देखते आ रहे है.
इस बीच हमने गौर किया कि बातचीत के दौरान ही घर में लाने वाले बुजुर्ग पता नहीं कब बगैर बताए ही घर से बाहर निकल गए. वजह पूछने पर एक अधेड़ ने बताया कि बातचीत में हमलोग को कोई दिक्कत ना हो इसी वजह से वे बाहर चले गए. हमलोगों ने बुरा मानने का अभिनय करते हुए कहा कि यह तो गलत है मैंने तो उन्हें सबकुछ बता दिया था. खैर इस बीच चाय भी आ गई.
बोलने का नहीं, यहां खोलने का रिवाज़
चारों ने लगभग अपने हथियार डालते हुए कहा अब जो पूछना है बाबू बात कर सकते हो. बातचीत का रूख बताते ही एक ने कहा बाबू तुम तो चले जाओगे, मगर हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा. एक बार फिर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए मैने साफ कहा कि यदि तुम्हें हमलोगों पर विश्वास नहीं है तो मैं भी बात करना नहीं चाहूंगा यह कहकर मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटना चालू कर दिया.
तभी एक जवान सी वेश्या ने तपाक से मेरे बगल में आकर बैठती हुई बोली अरे तुम तो नाराज ही हो गए. हमने तो केवल अपने मन का डर जाहिर किया था. शिकायती लहजे में मैंने भी तीर मारा कि जब मन में डर ही रह जाए तो फिर बात करने का क्या मतलब? इस पर दूसरी ने कहा बाबू हमलोगों को कोई खरीद नहीं सकता, मगर तुमने तो अपनी मीठी मीटी बातों में हमलोगों को खरीद ही लिया है. अब मन की सारी बाते बताऊंगी. फिर करीब एक घंटे तक अपने मन और अपनी जाति की नियति और सामाजिक पीड़ा को जाहिर करती रही.
बुजुर्ग सी महिला ने बताया कि हमारी जाति के मर्दो की कोई अहमियत नहीं होती. पहले तो केवल बेटियों से ही शादी से पहले तक धंधा कराने की परम्परा थी, मगर पिछले 50-60 साल से बहूओं से भी धंधा कराया जाने लगा. हमारे यहां औरतों के जीवन में माहवारी के साथ ही वेश्यावृति का धंधा चालू होता है, जो करीब 45 साल की उम्र तक यानी माहवारी खत्म(रजोनिवृति) तक चलता रहता है.
इनका कहना है कि माहवारी चालू होते ही कन्या का धूमधाम से नथ उतारी जाती है. गुस्सा जाहिर करती हुई एक ने कहा कि नथ तो एक रस्म होता है, मगर अब तो पुलिस वाले ही हमारे यहां की कौमा्र्य्य को भंग करना अपनी शान मानते है. नाना प्रकार की दिक्कतों को रखते हुए सबों ने कहा कि शाम ढलते ही जो लोग यहां आने के लिए बेताब रहते हैं,वही लोग दिन के उजाले में हमें उजाड़ने घर से बाहर निकालने के लिए लोगों कों आंदोलित करते है.
एक ने कहा कि सब कुछ गंवाकर भी इस लायक हमलोग नहीं होती कि बुढ़ापा चैन से कट सके. हमारे यहां के मर्द समाज में जलील होते रहते हैं. बच्चों को इस कदर अपमानित होना पड़ता है कि वे दूसरे बच्चों के कटाक्ष से बचने के लिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते और पढ़ाई में भी पीछे ही रह जाते है. नौकरी के नाम पर निठ्ठला घूमते रहना ही हमारे यहां के मर्दो की दिनचर्या होती है. अपनी घरवाली की कमाई पर ही ये आश्रित होते है.
एक ने कहा कि जमाना बदल गया है. इस धंधे ने रंगरूप बदल लिया है, मगर हमलोग अभी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे है. बस्ती में रहकर ही धंधा होने के चलते बहुत तरह की रूकावटों के साथ साथ समाज की भी परवाह करनी पड़ती है. एक ने बताया कि हम वेश्या होकर भी घर में रहकर अपने घर में रहते है. हम कोठा पर बैठने वाली से अलग है. बगैर बैलून (कंडोम) के हम किसी मर्द को पास तक नहीं फटकने देती. यही कारण है कि बस्ती की तमाम वेश्याएं सभी तरह से साफ और भली है.
यानी डेढ सौ से अधिक जवान वेश्याओ के अलावा, करीब एक सौ वेश्याओं की उम्र 40पार कर गई है. एक अधेड़ वेश्या ने कहा कि लोगों की पसंद 16 से 25 के बीच वाली वेश्याओं की होती है. यह देखना हमारे लिए सबसे शर्मनाक लगता है कि एक 50 साल का मर्द जो 10-15 साल पहले कभी उसके साथ आता था , वही मर्द उम्रदराज होने के बाद भी आंखों के सामने बेटी या बहू के साथ हमबिस्तर होता है और हमलोग उसे बेबसी के साथ देखती रह जाती है.
एक ने कहा कि उम्र बढ़ने के साथ ही वेश्या अपने ही घर में धोबी के घर में कुतिया जैसी हो जाती है. इस पर जवान यौनकर्मियों ने ने ठहाका लगाया, तो मंद मंद मुस्कुराती हुई अधेड़ वेश्याओं ने कहा कि हंमलोग भी कभी रानी थी, जैसे की तुमलोग अभी हो. इसपर सबों ने फिर ठहाका लगाया.
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फिर मैनें कहा कुछ और बोलो? किसी ने बेबसी झलकाती हुई बोली और क्या बोलूं साहब ? बोलने का इतना कभी मौका कोई कहां देता है? यहां तो खोलने का दौर चलता है. दूसरी जवान वेश्या ने कहा खोलने यानी बंद कमरे में कपड़ा खोलने का ? एक ने चुटकी लेते हुए कहा कि चलना है तो बोलो. एक अधेड़ ने समर्थन करती हुई बोली कोई बात नहीं साब, मेहमान बनकर आए हो चाहों तो माल हलाल कर सकते हो.
एक जवान ने तुरंत जोड़ा साब इसके लिए तुमलोग से कोई पैसा भी नहीं लूंगी? हम दोनों एकाएक खड़े हो गए. थान सिंह ने जेब से दो सौ रूपए निकाल कर बच्चों को देते हुए कहा कि अब तुमलोग ही नही चाहती हो कि हमलोग तुमसे बात करें. इस पर शर्मिंदा होती हुई अधेड़ों ने कहा कि माफ करना बाबू हमारी मंशा तुमलोगों को आहत करने की नहीं थी. खैर दुआ सलाम और मान मनुहार के बाद घर से बाहर निकल गए थे.
लगभग दो घंटे तक प्रेमनगर के एक घर में अतिथि बनकर रहने के बाद हमलोग बस्ती से बाहर हो गए. मगर इस बार इन यौनकर्मियों की पीड़ा काफी समय तक मन को विह्वल करती रही. इस बस्ती की खबरें यदा-कदा आज भी आती रहती हैं. ग्लोबल मंदी से भले ही भारत समेत पूरा संसार उबर गया हो, मगर अपना सबकुछ गंवाकर भी प्रेमनगर की यौनकर्मी शायद ही कभी अर्थिक तंगी से उबर पाएंगी ?
पिछले दो दशक से पत्रकारिता कर रहे अनामी शरण बबल बाहरी दिल्ली से सम्बंधित मामलों के विशेष जानकार हैं.
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