प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में हल्ला और निम्नमध्यवर्गीय-मध्यवर्गीय छात्रों के लिए उच्च शिक्षा में बढ़ती महंगाई और निजीकरण के कारण लगातार पसरता जा रहा सन्नाटा बाजार ही तो है, जिसका विस्तार माफियाकरण है...
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा से अजय प्रकाश की बातचीत
शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा में माफियाकरण क्यों बढ़ रहा है?
शिक्षा के क्षेत्र में पहले भी विभागीय लोगों द्वारा छिटफुट गड़बडि़यों के मामले सामने आते रहे, लेकिन इन गड़बडि़यों का माफियाकरण के रूप में विस्तार एक दशक पहले की घटना है। इससे पहले तक शिक्षा व्यवस्था के तौर तरीके बड़े स्तर पर गड़बड़ी फैलाने में अंकुश का काम करते थे।
अब वह छूट कैसे मिलने लगी है?
इसको समझने के लिए निजीकरण, बाजार, भ्रष्टाचार और फिर माफियाकरण इन चार स्तरों को एक दूसरे की जननी के रूप में देखना होगा। जबसे शिक्षा बाजार के जरूरतों को पूरा करने के एक औजार के तौर पर सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में इस्तेमाल होने लगी है, तबसे शिक्षा में माफियातंत्र प्रवेश देने से लेकर डिग्री बांटने तक में दखल देने लगा। शिक्षा के क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (पीपीपी) की सरकारी नीति ने पूरे देश में पब्लिक को गायब और प्राइवेट को स्थापित किया है। 'मुनाफे के लिए नहीं शिक्षा' की सोच के साथ चलने की बात करने वाली हमारी सरकारों ने शिक्षा में नीजिकरण पर अंकुश के बजाय उन्हें जमीन, पैसा और प्रशासन देकर पाठशालाओं की जगह बड़ी संख्या में दुकानें खोलने की इजाजत दे दी।
लेकिन सरकार तो प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में लगातार संसाधन झोंक रही है?
मैं यह नहीं कहती कि सरकार कुछ भी अच्छा नहीं कर रही। प्राथमिक और माध्यमिक के साथ उच्च शिक्षा में भी सकारात्मक पहलकदमियां हो रही हैं। पिछले वर्षों में कुछ नये विषय कोर्स में शामिल किये गये हैं, जिन्हें पहले शोध का विषय ही नहीं माना जाता था। यूजीसी ने शोध के लिए अच्छी सुविधाएं देनी शुरू की हैं। लेकिन सवाल है कि इन अच्छी पहलकदमियों का प्रतिशत इतना है कि बाजारू बनायी जा रही शिक्षा के मुकाबले कहीं खड़ी हो सकें।
लेकिन आप जिसे बाजारू कह रही हैं, उसे तो सरकार समय की जरूरत मानती है?
लिबरल एजुकेशन की जगह अग्रेसिव शिक्षा, मानविकी विषयों जैसे साहित्य, दर्शन और इतिहास आदि की पढ़ाई का महत्व घटते जाना, आखिर हम कैसा इंसान बनाने जा रहे हैं। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में सबकी पढ़ाई के लिए हल्ला और निम्नमध्यवर्गीय-मध्यवर्गीय छात्रों के लिए उच्च शिक्षा में बढ़ती महंगाई और निजीकरण के कारण लगातार पसरता जा रहा सन्नाटा साफ कर देता है कि सरकार चाहे-अनचाहे बड़ी संख्या में छात्रों को पढ़ाई के मौलिक अधिकार से दूर रख रही है। अपने खर्चे खुद उगाहने के लिए सरकारी कॉलेजों-विश्वविद्यालयों पर दबाव बनाया जा रहा है। यह सब शिक्षा का बाजार ही तो है, जिसका विस्तार माफियाकरण है।
ऐसा क्यों हो रहा है?
सरकार की प्राथमिकताएं बदल गयी हैं। वह एक मंत्री की सिर्फ एक यात्रा पर 50 लाख खर्च कर सकती है, लेकिन शिक्षा को बुनियादी अधिकार नहीं बनाने के उसके पास सौ बहाने हैं। उच्च शिक्षा में बढ़ती महंगाई और नीजिकरण को सरपट लागू करने के लिए सरकारें लगातार नौकरशाहों को कुलपति बना रही हैं। हालांकि यह परिघटना उत्तर प्रदेश में अभी कम है क्योंकि हमलोगों ने 1980 के दशक में सरकार से वायदा लिया था कि कुलपति के पद पर अकादमिक लोगों को छोड़ नौकरशाहों को नियुक्त नहीं किया जायेगा।
आप खुद कुलपति रही हैं, माफियाकरण पर अंकुश लगाने की क्या व्यावहारिक मुश्किलें हैं?
लखनऊ विश्वविद्यालय में जब मैं कुलपति थी, उस समय एक परीक्षा में कर्मचारी संघ के अध्यक्ष का बेटा सबूत के साथ पेपर आउट करने के एक मामले में पकड़ा गया। मैंने उसपर पुलिस कार्यवाही की। ऐसा करते ही सबसे पहले विश्वविद्यालय में कर्मचारी यूनियन हड़ताल हुई और परीक्षा लेने में बड़ी मुश्किलें आयीं। पेपर आउट करने, नकली प्रवेश पत्र बनाने, बगैर प्रवेश के मार्कशीट देने और नकली डिग्री बांटने के हजारों मामले सामने आये थे, जिसके कई मामलों में संभ्रात गुरूजन शामिल थे।
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