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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, June 23, 2012

Fwd: [New post] लेखकों के लिए सबक



---------- Forwarded message ----------
From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/6/23
Subject: [New post] लेखकों के लिए सबक
To: palashbiswaskl@gmail.com


New post on Samyantar

लेखकों के लिए सबक

by दरबारी लाल

mahasweta-deviबंगला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी के साथ पंश्चिम बंगाल की ममता सरकार ने जो किया है वह उन सब लेखकों के लिए एक सबक है जो अक्सर इस विश्वास में सत्ता के साथ सहयोग करते हैं कि वे साहित्य और सांस्कृतिक जगत को बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकेंगे। ममता महाश्वेता जी को तब तक सर पर बैठाए रहीं जब तक उन्हें सत्ता हासिल करनी थी। उसके बाद ममता बनर्जी ने पिछले एक वर्ष में जो रूप दिखलाया है उसने बंगला के लेखकों और कलाकारों का इस सत्ता से मोह भंग करने में समय नहीं लगाया।

मुख्यमंत्री ने गत वर्ष स्वयं महाश्वेता देवी के घर जाकर उन्हें साहित्य की तथाकथित स्वायत्त बंगला अकादेमी की अध्यक्षता स्वीकार करने को मनाया था। अकादेमी की पुरस्कार समिति ने वर्ष 2010 के विद्यासागर पुरस्कार के लिए दो लेखकों का संयुक्त रूप से नाम सुझाया था। पर सरकार ने दूसरे लेखक का नाम बिना महाश्वेता देवी को विश्वास में लिए काट दिया। अपने त्याग पत्र में महाश्वेता जी ने लिखा है कि जिस लेखक को पुरस्कार नहीं दिया जा रहा है वह युवा लेखक है। ''यही कारण है कि मुझे दुख हुआ है और अपमानित हूं।'' उन्होंने आगे लिखा है, ''अपने पूरे लेखकीय जीवन में मैंने इतना अपमानित कभी महसूस नहीं किया।''

महाश्वेता देवी का ममता सरकार से अलग होना लगभग तय नजर आ रहा था। कुछ माह पूर्व मानवाधिकार समूहों को कोलकाता में सार्वजनिक सभा करने की इजाजत न देने की आलोचना करते हुए महाश्वेता देवी ने कहा था कि यह सरकार फासीवादी है। उस समय उन्हें किसी तरह मना लिया गया था। लगता है ममता उनसे बदला लेने का मौका ढूंढ रही थीं। पुरस्कार संबंधी उनकी सिफारिशों को न मानना एक तरह से जानबूझ कर किया गया है। सरकार यह जानती थी कि महाश्वेता इसे स्वीकार नहीं करेंगी।

गोकि महाश्वेता देवी ने यह नहीं बतलाया कि वह दूसरा कौन-सा नाम था जिसकी पुरस्कार समिति ने सिफारिश की थी पर जाननेवाले जानते हैं कि विद्यासागर पुरस्कार के लिए शिबाजी बंदोपाध्याय के साथ दूसरा नाम शंकर प्रसाद चक्रवर्ती का था।

असल में सत्ताधारी सिर्फ उसी का सम्मान करते हैं जो उन्हें सत्ता में बनाए रखने में सहायक हो सकता है। उनकी चिरंतन ढपली बजा सकता है। उन्हें वही लेखक पसंद हैं जो उनके सामने सदा नतमस्तक रहते हैं और उनके लिए भीड़ जुटाने में सहायक हो सकते हैं। दिल्ली की हिंदी अकादमी इसका उदाहरण है जिस पर सरकार ने लेखकों के विरोध के बावजूद एक हास्य कवि को बैठाया हुआ है। वे लेखक और कलाकार जो अपने स्वाभिमान और रचनात्मक प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं उनका सत्ता के साथ ज्यादा देर बने रहना संभव नहीं है। जहां तक साहित्य व कला के सरकारी संस्थानों की स्वायत्तता की बात है, ये अपने आप में पाखंड से ज्यादा कुछ नहीं है। सत्ताधारियों की इन संस्थाओं पर दखल लगातार बनी रहती है। आशा करनी चाहिए कि बंगाल का साहित्यप्रेमी और सजग समाज महाश्वेता देवी के अपमान का जरूर बदला लेगा।

उत्तराखंड उर्फ उज्ज्वाल

padmsree-return-drama-in-dehradunहिंदीवाले इधर किस तरह से बलिदानी हो गए हैं इसका उदाहरण गिरिराज किशोर के बाद लीलाधर जगूड़ी हैं। वैसे जगूड़ी भी उस लिस्ट में हैं जिनके बारे में नामवर सिंह का दावा है कि उन्होंने इन सब को अकादेमी का पुरस्कार दिलवाया। (सनद रहे कि उसमें काशीनाथ सिंह नहीं हैं।)

वैसे हमारी चिंता कुछ दूसरी ही तरह की है। देखिये हिंदी के हिस्से में पद्मश्री वैसे ही मुश्किल से आता है। आता भी है तो हिंदी के कारण नहीं बल्कि स्वयं अलंकृत सज्जन के निजी प्रयत्नों के चलते। उसके बावजूद अगर कोई अपनी पद्मश्री लौटाने को आमादा नजर आ रहा हो तो समझना चाहिए पानी सर से गुजर गया है।

कानपुर से गिरिराज किशोर कह रहे हैं कि वह पद्मश्री त्याग देंगे अगर गांधी के खून से रंगी मिट्टी को बेचा गया तो। जो भी हो हमने पश्चिम से और कुछ चाहे न सीखा हो संग्रहालय बनाना और संग्रह करना जरूरी सीख लिया है। गांधी के सिद्धांतों की जैसी होली पिछली तीन दशक से जल रही है उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। पर चश्मा, कुर्ता धोती, लंगोट, कलम, दवात, डेस्क, मकान शकान सब कुछ हमने संजो रखा है। इसके बावजूद न जाने कहां-कहां से पश्चिमवाले क्या-क्या नहीं निकाल दे रहे हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट है गिरीराज किशोर और गांधी के अन्य भक्त गांधी को पूरी तरह पंचतत्व में नहीं मिलने देना चाहते।

दूसरी ओर उत्तराखंड में आधुनिका के 'अग्रदूत कवि' लीलाधर जगूड़ी कह रहे हैं कि अगर बांध बनाने शुरू नहीं किए गए तो हम (उनके साथ एनजीओ सेक्टर के आदि पुरुष अवधेश कौशल और गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ए.एन. पुरोहित) पद्मश्री त्याग देंगे। देखिये न कितना बड़ा त्याग है। कौशल जी का कौशल वैसे यह है कि वह अर्से तक देहरादून के आसपास होनेवाले चूने के पत्थर के खनन के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे थे। आखिर वह भी तो एक उद्योग ही था। उससे भी तो रोजगार मिलता है। उसे क्यों बंद करवाया गया? वह भी अब बांधों के जरिये रोजगार सृजन में लग गए हैं। चूने के लिए कुछ एक पहाड़ खुदते थे पर बांधों ने सारे उत्तराखंड को ही खोद दिया है और बांध से मिलनेवाले रोजगार का आलम यह है कि पहाडिय़ों का प्रवास बढ़ता जा रहा है। पर अगर पहाड़ी ही इसका लाभ नहीं उठा रहे हैं तो कौशल जी बेचारे क्या कर सकते हैं!

जहां तक जगूड़ी का सवाल है वह हर उस जगह होते हैं जहां भविष्य उज्जवल नजर आता है। कभी वह मजदूरों और किसानों, पहाड़ों और घाटियों की कविता लिखते थे। तब साहित्य और साहित्य की सरकारी संस्थाओं पर प्रगतिशीलों का एकछत्र राज्य हुआ करता था। अब लगता है वह बुलडोजरों, सुरंगों और बांधों की विकरालता के सौंदर्य को ढूंढने में लगे हैं। जब हर एक का आधुनिकीकरण हो रहा हो तो ऐसे में पंत-प्रसाद की परंपरा का क्या अर्थ है। वह टिहरी के डूबने का जश्न पहले ही अपनी एक कविता में मना चुके हैं। आखिर नवोन्मेष के कवि हैं। पुरानी चीजों, चाहे वह नगर ही क्यों न हों, खत्म होने का स्वागत कर रहे हैं तो क्या गलत है। बदले में नई टिहरी तो बनी है। और बनी हैं विस्थापितों की बस्तियां। चाहे दूर-दराज के वीराने में ही क्यों न बनी हों। अगली कविता में उत्तराखंड को ढहने दो कह दें तो बड़ी बात नहीं। वैसे भी अब राज्य में और चाहे जिसका हो वहां के निवासियों का कोई भविष्य नहीं है। वहां बांध बनानेवाली कंपनियां दक्षिण या पश्चिम से आ रही हैं तो मजदूर बिहार, ओडिशा, मध्यप्रदेश और न जाने कहां-कहां से। हद यह है कि मुख्यमंत्री भी बाहर से लाये जा रहे हैं। इसलिए अब वहां की जनता नहीं बल्कि बाहर से आए बिल्डर तय करते हों कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा तो आश्चर्य कैसा!

पर बात जगूड़ी की हो रही थी। जैसे ही उत्तराखंड बना वह लपक कर लखनऊ से देहरादून पहुंचे और राज्य का पहला ही मुख्यमंत्री गैर पहाड़ी बना जिसकी कुर्सी सरकाते कवि जी को सारे देश ने देखा (24म7 चैनलों का आभार)। उसका उन्हें फायदा भी मिला। कई दिनों तक लाल बत्ती की सरकारी गाड़ी में घूमते फिरे। गाड़ी से वह इतने आह्लादित हुए कि उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री को उत्तराखंड का पिता ही घोषित कर दिया। वह भूल गए कि यह राज्य किन लोगों के बलिदान और संघर्षों का नतीजा है।

अब वह कह रहे हैं कि बांधों को फौरन बनाना शुरू किया जाए। और तर्क दे रहे हैं कि इससे राज्य का विकास होगा। राज्य की जनता को इससे नौकरी मिले या न मिले पर यह निश्चित है कि इससे नेताओं की पौ बारह रहेगी। कंस्ट्रक्शन कंपनियां एक तरफ पहाड़ खोदती हैं तो दूसरी तरफ नोटों की थैलियां निकालती हैं। जिन के घर उजड़ते हों उजड़ें नेताओं की तो कोठियां बनती हैं। और उनके लगुए-भगुए पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों की भी। आखिर उत्तराखंड के लेखक कब तक चंद्रकुंअर बर्तवाल और शैलेश मटियानी की तरह टीबी और पागलपन से मरते रहेंगे। उन्हें भी तो थोड़ा खाने-कमाने का मौका मिलना चाहिए। और मौके आपके पास नहीं आते। उन्हें बनाना और फिर लपकना होता है।

आप पूछ सकते हैं कि आखिर बांध बनना ऐसा कौन-सा तात्कालिक मुद्दा है जिस पर किसी कवि को कूद पडऩा चाहिए? पर लाल बत्ती की स्मृत्तियां और उससे दूर रहने की पीड़ा असह्य हो जाए तो इससे बड़ा तात्कालिक कारण क्या हो सकता है। ऐसी पद्मश्री का कोई क्या करेगा जिससे न गाड़ी मिलती हो न बत्ती।

जगूड़ी की मांग के पीछे घटनाओं का सिलसिला देखिये। दिल्ली में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री 17 अप्रैल को कहते हैं कि बांध बनने चाहिए और मुश्किल से पखवाड़ा नहीं बीतता कि चार मई को राज्य के बुद्धिजीवी बांधों के समर्थन में अपनी लंगोट घुमा देते हैं।

दिल्ली की जिस साप्ताहिक पत्रिका शुक्रवार ने उनके खूबसूरत चित्रों सहित अगले ही सप्ताह जो रिपोर्ट छापी उससे लगा मानो सारा मसला सीधा-सा है, संत समाज बनाम बुद्धिजीवी। एक तरफ है रुढि़वादी विकास विरोधी और दूसरी तरफ हैं रुढि़वाद विरोधी विकास के समर्थक।

पर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस पत्रिका के प्रकाशक भी राज्य के नव निर्माण में लगे बिल्डरों में से ही एक हैं। इस पत्रिका की एक और खासियत है कि डीएनए फेम के उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के एक परम भक्त पत्रकार इसकी स्थापना थे।

लगता है बुद्धिजीवियों के साथ उत्तराखंड का भी भविष्य उज्ज्वल है।

- दरबारी लाल

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