उस रब से वास्ता नहीं.जो कायनात पर कहर बरपाये
पलाश विश्वास
In Gaza There's No Studying, No Children Are Left There", Sing Joyful Israeli Youths By Ali Abunimah http://www.countercurrents.org/abunimah290714.htm
A video that was posted on you tube shows an Israeli mob singing in celebration of children's deaths in the style of a soccer fans' song: "In Gaza there's no studying, No children are left there, Olé, olé, olé-olé-olé."
Tibi – Ahmed Tibi
I wanted you to know
The next kid to be hurt will be your kid
I hate Tibi
I hate Tibi the terrorist.
Tibi – is dead!
Tibi – is dead!
Tibi – is dead!
Tibi is a terrorist.
Tibi is a terrorist.
Tibi is a terrorist.
They'll take their papers away.
They'll take their papers away.
They'll take their papers away.
Olé, olé, olé-olé-olé
In Gaza there's no studying
No children are left there,
Olé, olé, olé-olé-olé,
[Three lines, not entirely clear]
Who is getting nervous, I hear?
Zoabi, this here is the Land of Israel
This here is the Land of Israel, Zoabi
This here is the Land of the Jews
I hate you, I do, Zoabi
I hate all the Arabs.
Oh-oh-oh-oh
Gaza is a graveyard
Gaza is a graveyard
Gaza is a graveyard
Gaza is a graveyard
उस रब से वास्ता नहीं.जो कायनात पर कहर बरपाये।
उस मजहब से कोई नाता नहीं जिसका इंसानियत से सरोकार न हो।
वह राजनीति किसी काम की नहीं है,जो मनुष्य और प्रकृति के पक्ष में खड़ी नहीं होती।
वह विचारधारा पाखंड है,जिसमें सामाजिक यथार्थ के मुकाबले का दम न हो।
उस कला और साहित्यका दो कौड़ी मोल नहीं,जिसके अमूर्त सौदर्यबोध में माटी की महक न हो।
उस इतिहास में कोई सत्य नहीं है,जिसमें हमारे पुरखे बोलते न हों।
उस महानता,कालविजय का कोई अर्थ नहीं है जो भूखी गूंगी बहरी बहिस्कृत जनसमुदाय की आवाज की गूंज से न निकला हो।
उस सूचना का कोई मतलब नहीं जो मनोरंजन हो सिरे से।
उस विकास कामसूत्र की देहगंध की आत्मरति में निष्णात मुक्तबाजारी अर्थशास्त्र की पालतू मेधा का कोई वजूद नहीं,जो जनसंहारी राजसूय के कर्म कांड के सिवाय कुछ नहीं है।
उन शास्त्रों को अभी तिलांजलि देने की दरकार है,जो मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध हो।
कुल मिलाकर बात इतनी सी कहनी है। बार बार कहनी है।
कोई नाराज हो या खुश,फतवा जारी हो या मौत की सजा मिले,फर्क नहीं पड़ता।
अब दबे पांव बेआवाज घात लगाकर आती मौत को स्थगित करके उससे यह निवेदन तो हरगिज कर ही नहीं सकते कि रुको,पहले कफन का इस्तेमाल कर लें।
बेहद अनिवार्य दो गज जमीन को मोहताज है जमाना और अंधी दौड़ ग्लोबल थ्री जी फोर जी फाइव जी है जो दरअसल सही मायने में थ्रीएक्स,फोर एक्स और फाइव एक्स है।
यही विकास कामसूत्र है ग्लोबीकरण का।
यही उत्तर आधुनिक मुक्तबाजारी सौंदर्यशास्त्र है।
यही इतिहासबोध है उत्तरआधुनिक।
यही वैज्ञानिक दृष्टि है फ्रीसेक्स समय के कार्निवाल परिप्रेक्ष्य में।
अब शायद सबसे प्रसंगिक रचना मौलिक भारतीय साम्यवादी सरदार भगत सिंह का लिखा,मैं नास्तिक क्यों हूं।
चार्वाक की तरह सत्ता के वर्ण वर्चस्वी नस्ली तंत्र मंत्र यंत्र की वैदिकी सभ्यता के विरुद्ध बाबुलंद आवाज बिना लेखन का कोई मकसद हो नहीं सकता जहां ईश्वर और धर्म का निषेध अनिवार्य है।
बागी लेखिका तसलिमा नसरीन उनकी तमाम सीमबद्धताओं और उग्र देहमुक्ति कोलाहल के मध्य हमारी प्रिय लेखिका बनी रहेंगी हमेशा जो खुलकर कहती है कि जब तक धर्म रहेगा,पुरुषतांत्रिक समाज का अंत नहीं।
जबतक पुरुषतांत्रिक समाज का अंत नहीं, तब तक न समता संभव है और न सामाजिक न्याय।
जबतक पुरुषतांत्रिक समाज का अंत नहीं,न मानवाधिकार संभव है और न नागरिक अधिकार।
हमारे हिसाब से धर्म और धर्मनिरपेक्षता अब एकमुश्त धर्मोन्माद है।धर्म न धारक है और न वाहक है।
धर्म संजीवनी सुधा नहीं है।
धर्म हद से हद रामवाण है।
कल दुनियाभर में ईद मनायी गयी।
मासूम बच्चों के सिजदे की तस्वीरों का कोलाज आज के अखबारों में सजा है।धर्मनिरपेक्ष इफ्तार पार्टियों का सिलसिला अभी खत्म हुआ है।
महान और महामहिम शुभकामनाओं का शोर थमा नहीं है।
विश्व व्यापी युद्ध गृहयुद्ध के संदर्भ में उस पवित्रतम आंतरजातिक धर्मस्थल की भूमिका को जांचे तो सांप्रतिक इतिहास के तमाम जख्म हरे होने लगेंगे।
गाजा पट्टी में इजराइली हमला थमा भी नहीं है।ईद के मध्य हमले और तेज हो गये।
संयुक्त राष्ट्र और विश्व समुदाय की निंदा की परवाह इजराइल को कब होने लगी।
हम धर्म निरपेक्ष राष्ट्र हैं और इस हमले के खिलाफ हम गूंगे बहरे हैं हालांकि वैदिकी कर्मकांड की औपचरिक रस्म अदायगी के मध्य संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में हमने हाथ उठा दिये हैं।
नमाज में शामिल राजनीतिक चेहरे आज के अखबारों में भी ईद मुबारक कहते अघा नहीं रहे हैं जबकि इजराइली हमले के खिलाफ ईद मुबारक से लेकर इंशाल्ला खुदा हाफिज तक के जुमले के मध्य गाजा के नरसंहार के खिलाफ एक भी शब्द नहीं है।
इसी के मध्य अपने नक्शे पर भी गाजापट्टियों का निरंतर विस्तार हो रहा है।
देश के कोने कोने में कश्मीर और गुजरात सजाये जा रहे हैं।
पंजाब में फिर नये सिरे से आपरेशन ब्लू स्टार की राजनीति है।
पूर्वोत्तर में धर्मोन्मादी नागरिकता फतवों की बाढ़ के बाद ब्रह्मपुत्र नदी उबलने लगी है ।
यूपी अस्सी की तरह फिर दंगाग्रस्त।
खून की नदियों के लहलहाने का समय है यह।
खुदरा बाजार से लेकर प्रतिरक्षा तक में एफडीआई का समय है यह।
जो भी कुछ सरकारी है,जो भी कुछ सार्वजनिक है,उसे तुरंत क्विकर पर बेच डालने का फ्लिपकार्ट समय है यह।
अरबों जालर के विदेशी निवेश का निर्माण विनिर्माण समय है यह।
यह पेइड न्यूज वाली सांढ़ संस्कृति का टीआरपी सोप आपरे सीरियल है या रियेलिटी रियल्टी शो है बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज का।
टोबा टेक सिंह कित्थे है?
कोई पागल राजनीतिक सीमाओं के मध्य नो मैंस लैंड पर कहते हुए फिर नहीं मरने वाला।
दरअसल अब टोबा टेकसिंह है ही नहीं कहीं।
उस गांव का एक ताजा पता हासिल हुआ है हांलाकि,खोजकर बतायें।
उस गांव का नाम इस प्रसंग में लेकिन फूलबाइड़ा है।खंडित अफसाना निगार सआदत हुसैन ने कलेजा चीरकर खून से सनी इस महादेश की कथा व्यथा बताते हुए पश्चिम में टोबा टेक सिंह की तस्वीर बनायी थी।
तो ग्लोबीकरम के शिकंजे में फंसी कब्रिस्तान हुए जा रहे देहाती इस महादेश के पूरब में दिवंगत बांगालादेशी कथाकार सहीदुल जहीर ने फूलबाइड़ा का पता कुछ इसतरह दर्ज किया है,जिसे हिंदी में अनूदित करने का डिसक्लेमर जारी करना बेहद जरूरी है।
हमें मालूम नहीं कि ठेठ पंजाबी देहाती भाषा में लिखी पाश की कविताओं का अनुवाद कैसे छापा है ज्ञानरंजन जी ने पहल में,लेकिन कोलकतिया भद्र नागरिक भाषा भूगोल में रहते हुे इतिपूर्वे बांग्लादेशी समकालीन लेखकों की कुछ ठेठ देहाती रचाओं का हमें अभिज्ञता है।इस मामले में सविता ने भारी मदद की है.।कुछ अनुवाद उसने भी किये हैं।
मुक्ति युद्ध प्रसंग में हमने अख्तारुज्जमान इलियास के बारे में हमेशा लिखा है,बांग्ला में भी और अंग्रेजी में भी, कि मंटो के बाद वे इस महादेश के सबसे बड़े कथा शिल्पी रहे हैं।
अपने नवारुण दा के घनघोर दोस्त इलियस जनपदों की भाषा को ही मुख्यधारा का साहित्य बनाते रहे हैं और सामाजिक यथार्थ के सौंदर्यबोद से उनका कहीं भी किंचित विचलन नहीं है।जगत विख्यात दो उपन्यासों ख्वाबनामा और चिले कोठार सेपाई के अलावा करीब छह सात कथासंग्रह की उनकी हर कहानी बांग्लादेशी संक्रमणकाल का जीवंत दस्तावेज है।
शहीदुल जहीर ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार के शिकंजे में फंसे इस महादेश के देहात की जो तस्वीरें आंकते हुए दिवंगत हो गये,संजोग से उसकी तुलना के लिए टोबा टेकसिंह के अलावा हमारे पास कोई दूसरा नजीर है ही नहीं।
संजोग से हमने मंटो,इलियस और शहीदुल को उनके मरणोपरांत पढ़ा। उनके मुखातिब होने का मौका ही नहीं मिला और मानवजनम वृथा चला गया।
इलियस की भाषा का अनुवाद फिरभी संभव है। अपनी कुंमाउनी,मालवी,अवधी,भोजपुरी, मगही,गढवाली ,राजस्थानी बोलियों को तो खैर अनूदित करने की जरुरत ही नहीं है।
माननीय प्रभाष जोशी ने आधुनिक पढ़े लिखे तबके को ऐसा समझा दिया है कि देशज हिंदी में खांटी उर्दू और अरबी जुबान मिक्स कर दें तो वह रीमिक्स ही जनता की भाषा है।
शुरुआती जनस्ता दिनों में जब मैंने बनवारी जी से पूछा कि संपादकीयपेज की भाषा और कबरों की भाषा अलग अलग क्यों हैं,जनसत्ता में बदतमीज और इनसबआर्डिनेट होने का परमानेंट ठप्पा लग गया हम पर।बनवारी जी से तो खैर दोबारा संवाद का मौका ही नहीं मिला।
दिनमान की फाइल उपलब्ध हो तो देख लीजिये,भाषा के तेवर और भाषा की बहार भी।
इससे जरुरी बात जो हिंदी के सबसे बड़े अपुरस्कृत असम्मानित अप्रकाशित रहे कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का कही है कि जनता का साहित्य सरल हो यह भी कोई जरुरी नहीं है।
लोक में देखें तो संत सूफा और बाउल साहित्य का रहस्यवाद उतना सरल भी नहीं है,जिसमें लोक सरोकार प्रबल है सबसे ज्यादा।
मसलन विज्ञापनों की भाषा हिंग्लिश,बांग्लिश,मंग्लिश,तंगलिश,कंग्लिश,पंग्लिश खूब प्रचलन में है जो कानों को सुहाती है,दिलफरेब भी खूब है ताजातरीन माडल के वाइटल स्टैटिक्स की तरह,लेकिन वे सारे जिंगल जनसंहार के आयोजन के वैदिकी मंत्र के सिवाय कुछ भी नहीं है।
हमारी भाषा पर भी आपत्तियां दर्ज करने वाले अनेक मित्र हो गये हैं।
जो कहते हैं कि चीजें सर के ऊपर से निकल रही हैं।
चीजें सर के ऊपर से निकली होगी,लेकिन उसके लिए जिम्मेदार भाषा कतई नहीं है। यह हमारी या पाठक की समझ और ईमानदारी का मामला है।
नाटकों और फिल्मों की जैसे कोई भाषा नहीं होती,दरअसल साहित्य और पत्रकारिता की भी कोई भाषा नहीं होती।
भाषा में कहने के बजाये छुपाने के पेंच ज्यादा हों तो बोला लिखा कुछ भी जाये,उससे पाठक की दृष्टि नहीं बनती।
अस्सी के दशक से तमाम आदरणीय साहित्यकार और मीडिया महामानव इस जलेबी जिंगल भाषा के विशेषज्ञ रहे हैं और इस वजह से हिंदी कभी कभी उर्दू देवनागरी में लिखी लगती है।
इस महामाया का करिश्मा हमने जनस्ता में भी देखा है।
अमित प्रकाश सिंह बड़े बेरहम संपादक रहे हैं वैसे ही जैसे जनसत्ता से खारिज प्रदीप पंडित।ये लोग खबर की मीट निकालने में ऐसी कैंची चलाते रहे हैं और दूरबीन से हर शब्द को परखते रहे हैं,पत्रकारिता में शायद ही इसकी कोई और मिसाल होगी।
उन्हीं अमित जी के संपादकत्व में अब नाना पत्रिकाओं और अखबारों में संपादकत्व कर रहे और जनसत्ता में रह गये लोगों को डफर बताने वाले एक मूर्धन्य पत्रकार ने देशभक्त का देशज अनुवाद करने के प्रभाष जोशिया फरमान पर अमल करते हुए शहीदेआजम भगत सिंह को वतनफरोश लिख दिया था।
जहां तक हमारी बात है,मैं जब लिखता हूं तो हिंदी,हिंदू या हिंदुस्तान को संबोधित कभी नहीं करता।
हिंदामाध्यमे सभी भारतीयों को संबोधित करने की कोशिश होती है,जिनमें वे अहिंदी भाषी जनता भी शामिल हैं जो हिंदी पढ़ सकते हैं और उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं होती। इनमें उर्दू भाषी जैसे हैं वैसे मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी, ओढ़िया,असमिया,तमिल मलयाली जैसी भाषाभूमियों के लोग भी हैं तो गोंड औस संथाली कुर्माली के लोग भी।
जब मुद्दों को हिंदी भूगोल के मध्य संबोधित नहीं कर पाता तो अंग्रेजी या क्षेत्रीय विकल्प बांग्ला का विकल्प अपनाना पड़ता है,जिसमें नियमित लिखना असंभव भी है और उससे विशिष्ट वर्ग या भूगोल को ही संबोधित किया जा सकता है।
पूरे देश और जनसामान्य को संबोधित करने की भाषा हिंदी है और ऐसा महाश्वेता देवी भी बार बार कहती रही हैं।
पूरे भारत को संप्रेषित करने के लिए मैं मराठी बाषा विधि का भी इस्तेमाल करता हूं तो पंजाबी ठेठ देहाती रवैया का भी,बंगाल का भी और कुंमाऊनी गढ़वाली गोर्ख्याली का भी।
मेरा भाषा तंत्र लोक और दृश्य माध्यमों की तरह ध्वनि सौंदर्यबोध पर आधारित है,जो शायद व्याकरण अनुगत भी न हो।
हम मानते हैं कि भाषा में अभिव्यक्ति संकट कथ्य में गोलमाल के इरादे के मद्देनजर होती है और उसकी कोई दूसरी तीसरी वजह हो ही नहीं सकती।
इस बारे में नैनीताल समाचार जमाने में सत्तर के दशक में गिर्दा और हमारी दूसरे तमाम लोगों से बेहद आक्रामक बहसें होती रही हैं और हम दोनों भाषा के मामले में सर्वेश्वर और रघुवीर सहाय को ही आदर्श मानते रहे हैं।
और जो हो ,हमारी भाषा न विज्ञापनी है और न हमारा कथ्य मुक्त बाजारी है।
पूर्वी बंगाल और आज के बांग्लादेश में साहित्य और कला ढाका में सीमाबद्ध नहीं है जैसे कि कोलकाता में हैं बंगाल का समूचा सांस्कृतिक परिदृश्य।या नई दिल्ली में कैद पूरा भारत।भारत का अस्तित्व।
कोलकाता के भद्र समाज की बांग्लादेश की जनपदों की बोलियों में लिखे जा रहे जनपदों की कथा व्यथा में कोई दिलचस्पी है ही नहीं।
तसलिमा नसरीन को उनके व्यतिक्रमी विचारों के लिए पढ़ा नहीं जाता,बल्कि वह पठनीय है अनंत देहगाथाों के लिए।तसलिमा की सीमा भी यही है।
अद्यतन बांग्ला साहित्य की सीमा भी यही है,जहा अब शायद ही किसी माणिक बंद्योपाध्याय या ताराशंकर बंद्योपाद्याय या शरत के लिए भी कोई गुंजाइश है।
साफ शब्दों में कहा जाय कि हिंदी में भी तसलिमा प्रीति उनके विचारों की वजह से नहीं है।और दिल्ली केंद्रित साहित्य पत्रकारिता और सांस्कृतिक परिदृश्य बाजारनियंत्रित पुरुषतांत्रिक,वर्णवर्चस्वी नस्ली देहगाथा है।
बांग्लादेशी और शायद भारत में भी कहीं भी सेज महासेज औद्योगिक गलियाराें, एक्सप्रेसवे और उपनगरों के मध्य तोक बाव से खोये टोबा टेक सिंह का अता पता बताने के लिए इतने लंबे लेकिन जरुरी डिसक्लेमर के लिए क्षमाप्राथी हूं।
तो अब हो जाइये बामुलाहिजा होशियार।इस प्रसंग के लिए बांग्ला दैनिक एई समय में शहीदुल पर लिखे आलेख का साभार हिंदी अनुवाद भी शामल कर रहा हूं।
शहीदुल के फूलबाइड़ा पहुंचने के लिए पता कुछ इसप्रकार है।
लेखक कथाकार शहीदुल का निवास ढाका के नरिंदा में भूतों की गली में रहा है।
उसी भूतों की गली से एक इंटरमीडिएट पास,जो अब इस उपमहादेश में उच्चशिक्षा की उच्चतम अकादमिक सीमा बन चुकी है,बेरोजगार युवा अब्दुल करीम फूल बाइड़ा के लिए संजोग से निकल पड़ा है।
वह हालांकि निकला था मैमनसिंह के लिए।लेकिन मैमन सिंह के गंगीना के पार बसे फूल बाइड़ा की बेगम शेफाली के घर के पते पर पहुंचने की ताकीद उसकी मंजिल बन गयी।
बेगम शेफाली उसी बस में सवार थी,जिसमें वह मैमनसिंह के लिए निकला था।
रास्ते में बेगम शेफाली को भारी उल्टियां लग गयीं।बस की खिड़की से बाहर मुंह निकालकर वह बार बार उल्टी कर रही थी।
बस रुकी तो शेफाली मुह धोने और पानी पीने बस से निकली तो करीम ने आम बांके नौजवानों की तरह पहल करने का मौका निकाला और शेफाली से परिचय करके उसकी तीमारदारी में लग गया।
थोड़ी सी राहत मिल जाने से खुश बेगम शेफाली बदले में बस में चढ़कर फूलबाइड़ा रवाना होने से पहले करीम से बार बार अपने घर चलने का न्यौता देती रही।
शेफालीमुग्ध करीम ने मैमन सिंह पहुंचते न पहुंचते तय कर लिया कि हर हाल में उसे शेफाली के घर जाना ही जाना है।
लेकिन जाये तो जाये कैसे उस घर गांव का जो पता शेफाली ने उसे दिया,वह उसके लिए अबूझ पहली है।
फूलबाइड़ा बसअड्डे पर उतरकर अपने गांव घर तक पहुंचने का पता जो शेफाली ने दिया वह कुछ इस प्रकार हैः
हाईस्कूल छोड़कर निकलो सबसे पहले।फिर निकलो सुजा सीधे,धान खेत तमाम।फिर कंटीली झाड़ियां।माटी लाल।वामदिके मरोड़ से निकली नदी एक। अहाइला अखाइला आखालिया नदी है वह।वह नदी पार करके ब्रिज को पीछे रहने दो।ब्रिज को पीछे रखकर सामने तनकर खड़ा हो जाने पर दोपहर को जिस दिशा में धूप की छांव है,उसको छोड़ दो और उसकी उलट दिशा में जहां छांव भले न हो, लेकिन उस राह पर चलने से पांवों के तलवों को आराम मिले, उस दिशा में नदी बराबर एक मील पैदल चलने पर मिलेंगे नारियल के दो पेड़।दोनों नारियल के पेड़ों के मध्यखड़े होकर गांव की दिशा में देखें तो तीन तीन टीन की छप्पर वाले घर दीखे हैं।इन तीनों घरों के एकदम बाएं तरफ वाले घर के पास से होकर निकलो तो चारों दिशाओं में फिर धान के खेत हुए।पैदल पैदल पगडंडी पगडंडी चलो।दूर दराज में चारों दिशाओं में और भी अनगिनत गांव बसे हैं। अब खास ध्यान देने की बात है कि इन खेतों में खड़े पके धान के पौधे जिस दिशा में गिरते हए जैसे दीखें, ,उसी दिशा में,या अगर पके धान की फसल वाले दिन न आओ तो जिस दिशा में हवाएं बहती हों,उस तरफ आगे निकलने पर पांच घरों के खंडहर दीक्खे,तीन खंडहर सामने तो दो खंडहर पीछे,उसके पीछे दो घरों के मध्य अनारों वाला घर शेफाली बेगम का।
यह कहानी शहीदुल के डलु नदीर हवा ओ अन्यान्य गल्पो में शामिल है।
शहीदुल ने तीन उपन्यास बहुचर्चित हैं। से राते पूर्णिमा छिलो(1995),जीवन ओ राजनीतिक वास्तवता(1988) और मुखेर दिके देखि(2006)। इसके अलावा उनके चर्चित कथासंग्रह हैंः पारापार (1985),डुमुरखेकोमानुश ओ अन्नान्य गल्पो(2000),डलू नदीर हवा ओ अन्यान्य गल्पो (2004)।उनका आखिरी उपन्यास है,अबू इब्राहीमेर मृत्यु।
जो बांग्ला पढ़ सकते हैंवे इस पर मेरा बांग्ला आलेख देख लें।
শহীদুল জহিরের গল্পের উপজীব্য প্রথমত নারী-পুরুষের ভালবাসা, প্রেম, তারপর সমাজ এবং রাষ্ট্রচিন্তা।
http://shudhubangla.blogspot.in/2014/07/blog-post_611.html
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