अच्छे दिन का सौंदर्यशास्त्र भी गोरा बनाने के कारोबार का सौंदर्यशास्त्र है।
आंकड़ों और परिभाषाओं से जब अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकते हैं, तो बजट की कवायद आखिर क्यों है और जब नीतिगत घोषणाएं बजट से पहले हो जाती है तो संसद में बजट पेश करने का औचित्य नवधनाढ्यों को मामूली राहत देने और पूंजी को हर संभव छूट और रियायत देने के अलावा क्या हो सकती है?
अब यह भी समझने वाली बात है कि इस मुक्त बाजारी अश्वमेध की जो अवैध संतानें हैं,अकूत धन संपत्ति बिना किसी उत्पादन या बिना किसी लागत या बिना किसी पूंजी के यूंही हासिल कर रहे हैं जो लोग,जो मलाईदार तबका बनकर तैयार है और जो लोग इस नवधनाढ्य समय में उड़ते हुए नोटों के दखल खेल में निष्णात हैं, आजादी, दूसरी आजादी और क्रांति,समता और सामाजिक न्याय की उदात्त घोषणाोओं के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन में उनकी क्या दिलचस्पी हो सकती है,समझने वाली बात है।
पलाश विश्वास
भारत में अब सत्ता की भाषा विज्ञापनी सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण के मुताबिक है।
इसी इस तरह से समझें,बालीवूड के बादशाह आजकाल पुरुषों को गोरा बनाने के एक विज्ञापन क लिए माडलिंग कर रहे हैं।पूर्व पीएमईएसी चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक समिति ने देश में गरीबी के स्तर के तेंदुलकर समिति के आकलन को खारिज कर दिया है और कहा है कि भारत में 2011-12 में आबादी में गरीबों का अनुपात कहीं ज्यादा था और 29.5 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे। रंगराजन समिति के अनुसार, देश में हर 10 में से 3 व्यक्ति गरीब है।रंगराजन साहेब ने जैसे ही तेंदुलकर साहेब के प्रतिमानों और आंकड़ों में थोड़ा फेरबदल किया तो दस करोड़ लोग और गरीबी रेखा के नीचे चले आये।इसका मतलब यह हुआ कि तेंदुलकर साहेब ने मंटेक राज के दौरान गरीबी रेखा की परिभाषा बदलकर बिना कुछ किये एक झटके से दस करोड़ लोगो को गरीबी केभूगोल से बाहर निकाल दिया था।जाहिर है कि अच्छे दिन आ गये हैं तो इन दस करोड़ के साथ बाकी गरीबों का कल्याण भी हो जायेगा।
भारत में गोरा बनने की ललक पहले महिलाओं में थी,गोरा न होकर भी पुरुष वर्चस्व और पुरुषतांत्रिक सामंती समाज व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
हालांकि बेरोजगारी और अंधेरे भविष्य के मद्देनजर अब युवा समाज को सेक्स और नशे के नेटव्रक में कैद कर लेने का चाकचौबंद इतजाम हो चुका है,जिसके तहत वर्च्युअल सेक्स यानी बिना शारीरिक संबंध के तकनीकी सक्स का कारोबार चल रहा है।
पुरुषों की उत्कट सौंद्रर्य चेतना अब स्त्रियों को भी लज्जित कर सकती है।
सुगंध,तेल और कंडोम का कारोबार तो था ही,अब गोरा बनाने का कारोबार भी चल निकला है।
अब एक पुरुषों को गोरा बनाने का एक प्रोडक्ट लांच हुआ है ,जिसमें बादशाह सीना ठोककर कह रहे हैं कि संघर्ष के दिनों में इस उत्पाद को हमेशा साथ रखने में ही उनकी कामयाबी का राज है।
अब जो प्रोडक्ट अभी अभी लांच हुआ है,दो दशक पहले उसे संघर्ष के दिनों में वे कैसे सात रखते हैं,यह सवाल कोई पूछ नहीं रहा है।
अच्छे दिन का सौंदर्यशास्त्र भी गोरा बनाने के कारोबार का सौंदर्यशास्त्र है।
बजट के दिनों में आंकड़ों की कलाबाजी कुछ ज्यादा ही निखर जाती है।आंकड़ों के मार्फत नीतिगत घोषणाएं होती हैं और योजनाएं भी उसी मुताबिक बनती है। विकास दर का आंकड़ा ग्लोबीकरण समय में विकास और सभ्यता के प्रतिमान हैं तो सेनसेक्स की उछाल अर्थव्यवस्था की सेहत का वेदर क्लाक हैं।
भारत की राजनीति अस्मिताओं के मुताबिक चलती हैं,यह तो सारे लोग बूझ ही गये हैं।
बूझी हुई पहले गरीबी भी है।
एक रेखा खींच देने से ही जब गरीब खत्म हो जाती है,तो गरीबी उन्मूलन की इतना घोषणाओं और कार्यक्रमों की क्या जरुरत है,समझ से बाहर हैं।तेंदुलकर साहेब ने गरीबी घटा दी थी और नई परिभाषा गढ़कर रंगराजन ने गरीबी बढ़ा दी।मजा तो यह है कि आर्थिक नीतियों की निरंतरता बनी हुई है और जनसंहारक सुधारों का दूसरा चरण निर्माय़क निर्ममता से जारी है।
तो सवाल है कि जिन नीतियों के चलते यह गरीबी बढ़ी और जिसे छुपाने का काम परिभाषा और आंकड़ों से हुआ,उन्हीं नीतियों से यह बढ़ी हुई गरीबी कैसे दूर होगी और कैसे आयेंगे अच्छे दिन।
अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ जमीनी हकीकत से जुड़ने के लिए शीत ताप नियंत्रित महलों से बाहर नहीं निकलते तो हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि करोड़पति कम से कम हैं और थोक दरों पर अरबपति भी बन रहे हैं।लेकिन इंदिरा समय से बिना कृषि या औदोगिक उतापादन प्रणाली में सुधार किये सिर्फ परिभाषाओं और आंकड़ों से गरीबी उन्मूलन का यह महती कार्यक्रम इंदिरा समय से चला आ रहा है।रंगराजन रपट से इस अनंत धारा में कोई बदलाव के आसार नहीं है।
उत्पादक शक्तियों की इस देश की अर्थव्यवस्था में कोई भूमिका नहीं है।नई सरकार के श्रम कानून संशोधन एजंडा से साफ जाहिर है।तो अतिरिक्त दस समेत आंकड़ों में मौजूद गरीबों की गरीबी दूर करने का ठेका फिर वही बिल्डर प्रमोटर कारपोरेट राज,क्रययोग्य अनुत्पादक सेवा उपभोग क्षेत्रों,अबाध पूंजी प्रवाह के लिए विनियमन,विनिवेश,निवेशकों की अटल आस्था और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के भरोसे पर ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का उपक्रम है।सारे कानून बदलकर पूरे देश को आखेटगाह बनाकर और औद्योगीकरण के नाम पर मुक्तबाजार के मेगा कत्लगाहों ,कत्ल गलियारों के निर्माण जरिये अंधाधुध शहरीकरण और जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता मानवाधिकार नागरिक अधिकार से बेदखली का फिर वही निरंतर जारी धर्मोन्मादी खेल।
फिर वही धर्म राजनीति और पूंजी का संहारक गठजोड़।आर्थिक अंग्रेजी अखबारों की तो कहिये मत,भाषाई मीडिया में बजट पूर्व प्राथमिकताओं में कारपोरेटलाबिइंग की धार देख लीजिये और इस त्रिभुज में बढ़ते धर्मोन्मादी तड़की की गंध समझ लीजिये।अमित साह और जावड़ेकर कम पड़ गये,देश की राजनीति दुरुस्त करने के लिए राममाधव का आवाहन है।
समांतर सत्ता चलाने वाले कारपोरेट मीडिया का गरीबों से कोई वास्ता नहीं है।
अब यह भी समझने वाली बात है कि इस मुक्त बाजारी अश्वमेध की जो अवैध संतानें हैं,अकूत धन संपत्ति बिना किसी उत्पादन या बिना किसी लागत या बिना किसी पूंजी के यूंही हासिल कर रहे हैं जो लोग,जो मलाईदार तबका बनकर तैयार है और जो लोग इस नवधनाढ्य समय में उड़ते हुए नोटों के दखल खेल में निष्णात हैं, आजादी, दूसरी आजादी और क्रांति,समता और सामाजिक न्याय की उदात्त घोषणाओं के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन में उनकी क्या दिलचस्पी हो सकती है,समझने वाली बात है।
विश्व के इतिहास में जनविद्रोहों और क्रांतियों के इतिहास को देखें तो समझा जा सकता है कि व्यवस्था के शिकार लोग जब सड़कों और खेतों,कारखानों,जंगलों और पहाड़ों में गोलबंद होकर प्रतिरोध करते हैं,तभी परिवर्तन होता है।
नेतृत्व भी उन्हीं तबकों से उभर कर आता है।
मौजूदा व्यवस्था को यथावत रखने या उसको और ज्यादा जनसंहारक तत्व परिवर्तन के पक्षधर कैसे हो सकते हैं,यह समझने वाली बात है।
देश में उत्पादक और सामाजिक शक्तियों के मौजूदा तंत्र के विरुद्ध लामबंद होने की हलचल नहीं है।
जनांदोलन विदेशी वित्त पोषित कार्यक्रम है और सब्जबाग सजोकर,मस्तिष्क नियंत्रण मार्फत राजकाज और नीति निर्धारण की तमाम सूचनाओं को सिरे से अंधेरे में रखकर विज्ञापनी भाषा में जो सत्ता की राजनीति चल रही है,देश का हर तबका,विंचिक निनानब्वे फीसद जनता भी उसी आभासी ख्वाबगाह के तिलिस्म में कैद है।
अर्थशास्त्री तेंदुलकर और अर्थशास्त्री रंगराजन के दोनों मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था के महान प्रवक्ता है,दूसरी तमाम रपटों और आंकड़ों को जारी करने वालों की तरह।रंगराजन की यह रपट बल्कि केसरिया समय की पहल है,जिसका मुख्यकार्यभार इस गरीबी का ठीकरा पर्ववर्ती सरकार के मत्थे डालना है,गरीबी उन्मूलन का कतई नहीं।
देश में हालात लगातार बदतर होते जा रहे हैं।
न कृषि और न औद्योगिक उत्पादन में कोई चाम्कारिक वृद्धि हुई है।
अर्थव्यवस्था की बुनियाद में भी कोई बेसिक परिवर्तन नहीं हुआ है,विदेशी रेटिंग और सेनसेक्स की बढ़त के अलावा।
कोई परिवर्तन हुआ नहीं है विदेशी निवेशकों की आस्था मुताबिक धर्मोन्मादी जनादेश माध्यमे बिजनेस फ्रेंडली सरकार के अलावा।
कोई परिवर्तन हुआ नहीं है चुनी हुई सरकार और सत्ता पार्टी,संसद के हाथों से सत्ता संघ परिवार में केंद्रित होने के अलावा।
कोई परिवर्तन हुआ नहीं है दूसरे चरण के नरमेधी राजसूय को रिलांच करने के अलावा।
प्रतिमानों में फेरबदल भी खास नहीं है लेकिन गरीबी की परिभाषा से ही दस करोड़ लोगों की गरीबी खत्म हो गयी।तो परिभाषा बदलकर दस करोड़ लोगं को और गरीब बता दिये जाने से,तमाम कायदे कानून खत्म कर दिये जाने से,दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों से यह बड़ीहुई गरीबी दूर हो जायेगी,ऐसा किस अर्थशास्त्त्र में लिखा है,इसके पाठ के संदर्भ तो डां.मनमोहन सिंह, मंटेक सिंह आहलूवालिया,राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और चिदंबरम जैसे लग दे सकते हैं,जिनके बीस साल के किये धरे कोखारिज किया जा रहा है।
बुनियादी मसला तो यह है कि आंकड़ों और परिभाषाओं से जब अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकते हैं, तो बजट की कवायद आखिर क्यों है और जब नीतिगत घोषणाएं बजट से पहले हो जाती है तो संसद में बजट पेश करने का औचित्य नवधनाढ्यों को मामूली राहत देने और पूंजी को हर संभव छूट और रियायत देने के अलावा क्या हो सकती है,गैर अर्थ विशेषज्ञों के लिए समझना मुश्किल है।
लेकिन इस जनविरोधी,जनसंहारक सर्वनाशी अर्थ शास्त्र के तिलिसम को समझे बिना उत्पादक और सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी पीड़ितों और वंचितों की अगुवाई में असभव ही है।
बहरहाल योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह को सौंपी गई रिपोर्ट में रंगराजन समिति ने सिफारिश की है कि शहरों में प्रतिदिन 47 रुपए से कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब की श्रेणी में रखा जाना चाहिए, जबकि तेंदुलकर समिति ने प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 33 रुपए का पैमाना निर्धारित किया था।
रंगराजन समिति के अनुमानों के अनुसार, 2009-10 में 38.2 प्रतिशत आबादी गरीब थी जो 2011-12 में घटकर 29.5 प्रतिशत पर आ गई। इसके विपरीत तेंदुलकर समिति ने कहा था कि 2009-10 में गरीबों की आबादी 29.8 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत रह गई।
सितंबर, 2011 में तेंदुलकर समिति के अनुमानों की भारी आलोचना हुई थी। उस समय, इन अनुमानों के आधार पर सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में दाखिल एक हलफनामे में कहा गया था कि शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति रोजाना 33 रुपए और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति रोजाना 27 रुपए खर्च करने वाले परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर समझा जाए।
सरकार ने तेंदुलकर समिति के मानकों और तरीकों की समीक्षा के लिए पिछले साल रंगराजन समिति का गठन किया था ताकि देश में गरीबों की संख्या के बारे में भ्रम दूर किया जा सके। रंगराजन समिति के अनुमान के मुताबिक, कोई शहरी व्यक्ति यदि एक महीने में 1,407 रुपए (47 रुपए प्रति दिन) से कम खर्च करता है तो उसे गरीब समझा जाय, जबकि तेंदुलकर समिति के पैमाने में यह राशि प्रति माह 1,000 रुपए (33 रुपए प्रतिदिन) थी।
रंगराजन समिति ने ग्रामीण इलाकों में प्रति माह 972 रुपए (32 रुपए प्रतिदिन) से कम खर्च करने वाले लोगों को गरीबी की श्रेणी में रखा है, जबकि तेंदुलकर समिति ने यह राशि 816 रुपए प्रति माह (27 रुपए प्रतिदिन) निर्धारित की थी।
रंगराजन समिति के अनुसार, 2011-12 में भारत में गरीबों की संख्या 36.3 करोड़ थी, जबकि 2009-10 में यह आंकड़ा 45.4 करोड़ था। तेंदुलकर समिति के अनुसार, 2009-10 में देश में गरीबों की संख्या 35.4 करोड़ थी जो 2011-12 में घटकर 26.9 करोड़ रह गई।
निर्धनता रेखा
http://hi.wikipedia.org/s/4mn
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
गरीबी रेखा या निर्धनता रेखा (poverty line) आय के उस स्तर को कहते है जिससे कम आमदनी होने पे इंसान अपनी भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने मे असमर्थ होता है । गरीबी रेखा अलग अलग देशों मे अलग अलग होती है । उदहारण के लिये अमरीका मे निर्धनता रेखा भारत मे मान्य निर्धनता रेखा से काफी ऊपर है ।
यूरोपीय तरीके के रूप में परिभाषित वैकल्पिक व्यवस्था का इस्तेमाल किया जा सकता है जिसमें गरीबों का आकलन 'सापेक्षिक' गरीबी के आधार पर किया जाता है। अगर किसी व्यक्ति की आय राष्ट्रीय औसत आय के 60 फीसदी से कम है, तो उस व्यक्ति को गरीबी रेखा के नीचे जीवन बिताने वाला माना जा सकता है। औसत आय का आकलन विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए माध्य निकालने का तरीका। यानी 101 लोगों में 51वां व्यक्ति यानी एक अरब लोगों में 50 करोड़वें क्रम वाले व्यक्ति की आय को औसत आय माना जा सकता है। ये पारिभाषिक बदलाव न केवल गरीबों की अधिक सटीक तरीके से पहचान में मददगार साबित होंगे बल्कि यह भी सुनिश्चित करेंगे कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जो गरीब नहीं है उसे गरीबों के लिए निर्धारित सब्सिडी का लाभ न मिले। परिभाषा के आधार पर देखें तो माध्य के आधार पर तय गरीबी रेखा के आधार पर जो गरीब आबादी निकलेगी वह कुल आबादी के 50 फीसदी से कम रहेगी।
योजना आयोग ने 2004-05 में 27.5 प्रतिशत गरीबी मानते हुए योजनाएं बनाई थी। फिर इसी आयोग ने इसी अवधि में गरीबी की तादाद आंकने की विधि की पुनर्समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया था, जिसने पाया कि गरीबी तो इससे कहीं ज्यादा 37.2 प्रतिशत थी। इसका मतलब यह हुआ कि मात्र आंकड़ों के दायें-बायें करने मात्र से ही 100 मिलियन लोग गरीबी रेखा में शुमार हो गए।
अगर हम गरीबी की पैमाइश के अंतरराष्ट्रीय पैमानों की बात करें, जिसके तहत रोजना 1.25 अमेरिकी डॉलर (लगभग 60 रुपये) खर्च कर सकने वाला व्यक्ति गरीब है तो अपने देश में 456 मिलियन (लगभग 45 करोड़ 60 लाख) से ज्यादा लोग गरीब हैं।
भारत में योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले शख्स को गरीब नहीं माना जा सकता है। गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला शख्स बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है। अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को हलफनामे के तौर पर दी। इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री ने हस्ताक्षर किए थे। आयोग ने गरीबी रेखा पर नया क्राइटीरिया सुझाते हुए कहा कि दिल्ली, मुंबई, बंगलोर और चेन्नई में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता।
बाद में जब इस बयान की आलोचना हुई तो योजना आयोग ने फिर से गरीबी रेखा के लिये सर्वे की बात कही।
नई गरीबी रेखा
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टी. एन. नाइनन / नई दिल्ली July 04, 2014 |
दो वर्ष पहले रंगराजन समिति का गठन किया गया था ताकि वह गरीबी के मसले पर नए सिरे से विचार कर सके। खबरों के मुताबिक उसने गरीबी का निर्धारण करने के लिए एक नया तरीका खोज निकाला है। हालांकि यह तरीका केवल भारत के लिए नया है, अमेरिका और यूरोप में इसे पहले से ही आजमाया जा रहा है। इसके तहत गरीबी का निर्धारण आय के विशिष्टï स्तर के आधार पर नहीं बल्कि उसके औसत स्तर के सापेक्षिक आधार पर किया जाएगा।
अमेरिका की बात करें तो वहां जिसकी आय औसत से 40 फीसदी अथवा उससे कम होगी वह गरीब है। वहीं यूरोप में और अधिक उदार तरीका अपनाते हुए इसे औसत मध्य से 60 फीसदी कम रखा गया है। हमने अपने स्तम्भों में अक्सर इस तरीके की वकालत की है। यह देखते हुए कि देश में आय का स्तर कम है, हमें गरीबी रेखा का निर्धारण करते वक्त अधिक उदार यूरोपीय मॉडल अपनाना चाहिए और गरीबी रेखा की निर्धारक दर मध्य आय के 60 फीसदी के बराबर रखनी चाहिए (इसका आकलन भी समुचित ढंग से किया जाना चाहिए न कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की तर्ज पर)। अगर ऐसा किया गया तो देश की गरीबी रेखा मौजूदा स्तर से काफी ऊपर निकल जाएगी।
एक अनुमान के मुताबिक अगर किसी ग्रामीण इलाके में पांच सदस्यों वाले परिवार की मासिक आय 6,000 रुपये से कम है और किसी बड़े शहरी इलाके में रहने वाले ऐसे ही परिवार की मासिक आय 11,000 रुपये से कम है तो उसे आधिकारिक तौर पर गरीब माना जाएगा। देश में गरीबी रेखा को कई बार नए सिरे से निर्धारित किया जा चुका है। वर्ष 1993 की परिभाषा के मुताबिक वर्ष 2011-12 में देश की कुल आबादी का 11 फीसदी हिस्सा गरीब था। ऐसे दावे का समर्थन करना कतई आसान नहीं है। वर्ष 2005 की परिभाषा के हिसाब से देखा जाए (जो मोटे तौर पर 1.25 डॉलर रोजाना की अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्य दर के करीब थी) तो यह आंकड़ा 22 फीसदी पर जा टिकता है।
रंगराजन द्वारा दिए गए नए फॉर्मूले के बाद यह आंकड़ा 30 फीसदी को पार कर सकता है। यह हकीकत के अधिक करीब नजर आता है। नई व्यवस्था के दो अन्य लाभ भी हैं। पहली बात, गरीबों के लिए उल्लिखित योजनाओं का लाभ अब सीधे गरीबों के पास जाएगा। दूसरी बात, राष्टï्रीय आय में बढ़ोतरी होने के साथ-साथ गरीबी रेखा में स्वत: इजाफा होने लगेगा। ऐसे में हम कितने भी समृद्घ हो जाएं, हमारे पास गरीबों का स्पष्टï आंकड़ा होगा जिनका ख्याल रखे जाने की आवश्यकता होगी। एक और मसला है। गरीबी के स्तर वाली आय (या खर्च) का आकलन परिवार के स्तर पर किया जाना चाहिए न कि निजी तौर पर क्योंकि खर्च इकाई परिवार को माना गया है।
पांच सदस्यीय परिवार के लिए 10,000 रुपये का प्रबंधन करना आसान होगा बजाय कि दो व्यक्तियों वाले परिवार के द्वारा 4,000 रुपये का। हालांकि दोनों घरों के लिए प्रति व्यक्ति आय का स्तर एक ही होगा। लेकिन हमारे पास ऐसे आंकड़े नहीं हैं जो परिवारों के हिसाब से आय या खर्च का आकलन कर पाएं। इस दिशा में हमें काम करना होगा। इसके अलावा कौन सा परिवार किस श्रेणी में आता है, यह भी निर्धारित करना होगा और इसमें भी तमाम जटिलताएं हैं। ऐसा इसलिए कि हर राज्य अपने यहां गरीबों का आंकड़ा बढ़ाचढ़ाकर पेश करना चाहता है। कुछ राज्यों ने अपने यहां कुल परिवारों से भी अधिक बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) कार्ड जारी कर रखे हैं।
वित्त मंत्री ने कहा है कि वे सब्सिडी की समस्या से निपटने की कोशिश करेंगे। ऐसा करने के लिए यह जरूरी है कि समझदारी से तय की गई गरीबी रेखा हो ताकि यह तय हो सके कि सरकार की ओर से मिलने वाली छूट और लाभ किसे दिए जाने चाहिए तथा किसे नहीं। उदाहरण के लिए यह बात मूर्खतापूर्ण है कि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की आधी शहरी आबादी और तीन चौथाई ग्रामीण आबादी के लिए खाद्यान्न रियायती दर पर उपलब्ध कराया जाए। दूसरा उदाहरण लें तो घरेलू गैस का इस्तेमाल करने वाले 29 फीसदी परिवार उन 69 फीसदी परिवारों से बेहतर हैं जो ईंधन के रूप में लकड़ी, फसल के अवशेष अथवा गोबर के कंडों पर निर्भर हैं। उनमें से किसी को कोई सब्सिडी नहीं मिलती। तो फिर घरेलू गैस पर इतनी अधिक सब्सिडी क्यों? अगर सब्सिडी को नियंत्रित करना है तो सही पहचान करना और फिर उन तक ही लाभ पहुंचाना असल चुनौती है। यह आसान काम नहीं है।
गरीबी की बहस
अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के पूर्व अध्यक्ष सी रंगराजन ने गरीबी की रेखा निर्धारित करने के लिए नए मानदंड तय किए हैं और इन मानदंडों के आधार पर भारत में लगभग 30 प्रतिशत लोग गरीब हैं। इसके पहले अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर ने गरीबी की जो रेखा निर्धारित की थी, उसकी काफी आलोचना हुई थी। तेंदुलकर समिति के मुताबिक, शहरों में 33 रुपये और गांवों में 27 रुपये रोज से कम खर्च करने वाला व्यक्ति गरीबी-रेखा के नीचे है। तेंदुलकर समिति के आकलन के अनुसार, देश में सन 2009-10 में 29.8 प्रतिशत लोग गरीब थे और सन 2011-12 में इनका प्रतिशत घटकर 21.9 फीसदी पर आ गया था। तेंदुलकर समिति की आलोचना मुख्यत: इस बात पर हुई थी कि उसने गरीबी की सीमा रेखा काफी नीचे निर्धारित की है। इसी आलोचना के मद्देनजर रंगराजन समिति का गठन किया गया कि वह गरीबी-रेखा के निर्धारण के लिए तेंदुलकर समिति के मानदंडों की समीक्षा करे और नए मानदंड तय करे। रंगराजन समिति ने शहरों में 47 रुपये और गांवों में 32 रुपये रोजाना को गरीबी-रेखा तय किया है। इस नई रेखा के हिसाब से 2009-10 में गरीबी की रेखा के नीचे 38.2 प्रतिशत जनसंख्या थी, जो 2011-12 में 29.5 प्रतिशत हो गई। इसका मतलब है कि नए मानदंडों से 10 करोड़ लोग गरीबी-रेखा के नीचे आ गए।
इस गरीबी की रेखा पर भी विवाद हो सकता है। हालांकि, यह तेंदुलकर समिति की गरीबी की रेखा से काफी ऊंची है। फिर भी हर मानदंड पर यह बहस तो होगी ही कि यह गरीबी को बढ़ा-चढ़ाकर या घटाकर दिखाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि चाहे तेंदुलकर समिति हो या रंगराजन समिति, दोनों के ही आकलन से 2009-10 और 2011-12 के बीच गरीबी में कमी का प्रतिशत तकरीबन बराबर ही रहा है, यानी यह बात पर्याप्त विश्वसनीय तौर पर कही जा सकती है कि इन दो सालों में भारत में लगभग नौ प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से उबरे हैं। यह बड़ी उपलब्धि है और आंकड़े बताते हैं कि पिछले करीब डेढ़ दशक में गरीबी से उबरने की रफ्तार काफी तेज रही है। यह सही है कि भारत में आर्थिक असमानता बढ़ी है, लेकिन यह भी सच है कि आर्थिक नीतियों का फायदा गरीबों को भी मिला है और उनकी तादाद घटी है। अगर गरीबी में कमी की यह रफ्तार बनाई रखी जाए या तेज की जा सके, तो अगले दशक के खत्म होने से पहले भारत में गरीबी-रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत बहुत कम हो जाएगा, भले ही जो भी मानदंड अपनाए जाएं। यह आजाद भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।
गरीबों की तादाद में कमी के लिए उदार आर्थिक नीतियों के अलावा गरीबी कम करने के वास्ते लागू की गई योजनाओं ने भी काम किया है। लेकिन प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने से ज्यादा जरूरी जीवन-स्तर की बेहतरी है। स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा और आवास की बेहतर सुविधाएं समाज के गरीब तबकों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी हैं और इन तमाम क्षेत्रों में हमारा रिकॉर्ड बहुत खराब है। भारत स्वास्थ्य के मानदंडों पर अपने तमाम पड़ोसियों से पीछे है और इलाज के खर्च की वजह से लगभग एक करोड़ सीमांत परिवार सालाना गरीबी की रेखा के नीचे चले जाते हैं। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं इस स्थिति को सुधार सकती हैं। शिक्षा गरीबी से उबरने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है, इसलिए इस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। गरीबी की रेखा और उसके मापदंड पर मीन-मेख निकालने से ज्यादा जरूरी हमारे देश के नागरिकों को जरूरी बुनियादी सुविधाओं से संपन्न गरिमामय जीवन मिलना है।
किसके दिन अच्छे निकलने वाले हैं।इकोनामिक टाइम्स के इस रपट से समझ लीजिये।
चूंकि सेनसेक्स 31 हजार पार निकलने के आसार हो गये हैं तो समझ लीजिये कि गरीबी भी खत्म।संसद में पेश होने वाली बजट की दशा और दिशा भी तय हो चुकी है और उस पर सिर्फ संसदीय मुहर लगना बाकी है।
Jul 07 2014 : The Economic Times (Kolkata)
ET EXCLUSIVE - Sensex may Scale 31,000 Peak by March Next Year
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MUMBAI OUR BUREAU |
Economic growth expected to rebound from multi-year lows and a new business cycle may emerge from the rubbles of the old one
India's stock market may continue to scale new highs in the next six to nine months as a confluence of easy liquidity, rising retail investor interest and improving investment climate is expected to drive growth in multiples, a panel of top equity strategists and fund managers said at a roundtable organised by ET.
Economic growth is expected to rebound from multi-year lows and a new business cycle may still emerge from the rubbles of the old one, though its expansion could be curbed by stubbornly high inflation and a weak and indifferent monsoon, they added.
The Sensex, the best performer among recognised global markets in 2014, could scale 31,000 by March 2015 in a bull case scenario, according to Ridham Desai, Managing Director and India Equity Strategist of Morgan Stanley. It could double in three years, said S Naganath, president and chief investment officer of DSP Blackrock Investment Managers.
Participants at the round table, held in Mumbai on Friday, July 4, felt that all ingredients of a continued bull
run are firmly in place though the Sensex has jumped 45% since its August 2013 lows of 17,903 and the priceto-earnings multiples have moved up to about 16 times now from about 13 times last year.
"From the valuations point of view one cannot say we are overvalued, but of course it's no longer cheap, and the index is fairly valued," said Nilesh Shah, managing director and CEO, Axis Capital. "Market capital to GDP ratio is not expensive as it used to be during the peak of the bull markets.
So there is some room for expansion."
A return of risk appetite in global markets has fuelled much of the rally with FIIs investing about Rs 64,000 crore into equities so far this year on top of the ` . 113,000 crore invested in 2012. "If you look at the global bond markets there has been a surprising return of risk appetite duration and euphoria and I think that that has a big role to play in the valuations," said Neelkanth Mishra, managing director India Equity Strategist at Credit Suisse. ""The second thing is the bottoming of the Indian economy which is something we have not seen happen elsewhere."
Indian companies have raised about $2.5 billion through qualified institutional placement programme in the past one month, much more than what they raised in 2013. A buoyant market may give a fillip to fund-raising, helping some companies pay off debt though heavily indebted companies may not get money as easily as others. The members of the panel were Ridham Desai, Neelkanth Mishra, Nilesh Shah, Saurabh Mukherjea, CEO Institutional Equities, Ambit Capital, S Naganath and Anoop Bhaskar, head equity UTI Asset Management Company.
The economy may grow over 5% in FY15 while earnings growth may of the Nifty/Sensex companies may cross 16% in FY16. Desai of Morgan Stanley said he was bullish on cyclicals which include eneergy, materials and auto in the shorter time frame, that is one year to 18 months. Consumer staples will struggle but in the longer time frame that is five to seven years, financials and consumer stocks will be the best bet.
S Naganath said that he expects GDP to touch 7% in FY16 and earnings to grow by 20% while Mishra of Credit Suisse expects price to earnings ratio to touch 18 times by next year.
Jul 07 2014 : The Times of India (Ahmedabad)
Rs 47 a day spent in cities breaches poverty line
Mahendra Kumar Singh |
New Delhi: TNN |
Rangarajan Panel Pegs No. Of Poor At 363M In '11-12
Those spending over Rs 32 a day in rural areas and Rs 47 in cities should not be considered poor, a panel headed by former RBI governor C Rangarajan said in a report submitted to the BJP-led NDA government last week.
The recommendation, which comes just ahead of the budget session of Parliament, is expected to generate fresh debate over the poverty measure as the committee's report has only raised the bar marginally .
Based on the Suresh Tendulkar panel's recommendations in 2011-12, the poverty line had been fixed at Rs 27 in rural areas and Rs 33 in urban areas, levels at which getting two meals may be difficult.
The panel was tasked with revisiting the Tendulkar formula for estimation of poverty and identification of the poor after a massive public outcry erupted over the abnormally low poverty lines fixed by the UPA government.
The panel's recommenda tion, however, has resulted in a nearly 35% increase in the BPL population. Estimated at 363 million in 2011-12, compared to the 270 million estimate based on the Tendulkar formula, the increase in the BPL population is almost 35%.
This means 29.5% of India's population lives below the poverty line as defined by the Rang arajan committee, as against 21.9% according to Tendulkar.
For 2009-10, Rangarajan has estimated that the share of BPL group in total population was 38.2%, translating into a decline in poverty ratio by 8.7 percentage points over a two-year period.
The real change is in urban areas where the BPL number is projected to have nearly doubled to 102.5 million based on Rangarajan's estimates, compared to 53 million based on the previous committee's recommendations.
In the case of rural areas, the rise is 20% to 260.5 million, compared to around 217 million based on the Tendulkar formula. Rangarajan's estimates would put the BPL share of total population in rural areas at 30.9%, compared to 39.6% in 2009-10. Documents accessed by TOI show that the Rangarajan panel has suggested to the government that those spending more than Rs 972 a month in rural areas and Rs 1,407 a month in urban areas in 2011-12 do not fall under the definition of poverty . If calculated on a daily basis, this translates into a per capita expenditure of Rs 32 per day in rural areas and Rs 47 per day in urban areas in 2011-12. According to the Tendulkar methodology for 2011-12, the poverty line was Rs 816 in rural areas and Rs 1,000 in urban areas, which if calculated on a daily basis come out at Rs 27 per day in rural areas .
Jul 07 2014 : The Economic Times (Kolkata)
India has 100 Million More Poor: Rangarajan Committee
YOGIMA SETH SHARMA |
NEW DELHI |
The number of India's poor may rise by 100 million if the recommendations of the C Rangarajan committee on poverty, which comes just ahead of the maiden budget of the Narendra Modi government, are accepted by the government.
The Rangarajan committee, which has retained consumption expenditure as the basis for determining poverty , has pegged the total number of poor in the country at 363 million or 29.6% of the population against 269.8 million (21.9%) by the Suresh Tendulkar committee, as per the presentation made by Rangarajan to planning minister Rao Inderjit Singh last week.
The previous UPA government had set up a technical expert group under Rangarajan in 2012 after all-round criticism that the poverty line had been pegged much lower than it should have been by the Tendulkar committee amidst demands to revisit the methodology. Rangarajan headed the Prime Minister's Economic Advisory Council at the time.
However, the committee hasn't detailed the methodology used to arrive at the new numbers in its nine-page presentation made to the minister.
The poverty line is significant as social sector programmes are directed towards those below it and will be something that will factor into finance minister Arun Jaitley's budget-making exercise.
The budget will be announced on July 10.
The Rangarajan committee raised the daily per capita expen . 32 from ` diture to ` . 27 for the rural . 47 from ` poor and to ` . 33 for the urban poor, thus raising the poverty line based on the average monthly per capita expenditure to ` . 972 in rural India and `. 1,407 in urban India. The earlier methodology, devised by Tendulkar, had de fined the poverty line at `. 816 and . 1,000, respectively, based on the ` National Sample Survey Office (NSSO) data for 2011-12.
Thus, for a family of five, the allIndia poverty line in terms of consumption expenditure, as per the Rangarajan committee, would amount to ` . 4,760 per month in rural areas and ` . 7,035 per month in urban areas. The Tendulkar committee had pegged this at ` . 5,000.
. 4,080 and ` As per the Rangarajan committee, the percentage of people below the poverty line in 2011-12 was 30.95 in rural areas and 26.4 in urban areas as compared to 25.7 and 13.7, according to the Tendulkar methodology. The respective ratios for the rural and urban areas were 41.8% and 25.7%, respectively, and 37.2% for the country as a whole in 2004-05. It was 50.1% in rural areas, 31.8% in urban areas and 45.3% for the country as a whole in 1993-94.
Experts said the difference could be explained by variations in assumptions, such as increased expenditure on health and education or following the system of developed countries where the poverty line is defined as a fraction of the average expenditure level or purely going by normative expenditure, thus ignoring actual expenditure on health and education.
Lowering the poverty line could cut out those who need assistance. But reducing the number of poor means governments can claim success for welfare programmes.
The Planning Commission had last year released poverty figures based on the Tendulkar methodology, which had claimed a reduction of 137 million persons over a seven-year period. In 201112, India had 270 million persons below the Tendulkar-stipulated poverty line as compared to 407 million in 2004-05, the commission had said.
ভারতে ১০ জনের মধ্যে তিনজন দরিদ্র
প্রতি দশজন ভারতীয়র মধ্যেই তিনজনই দরিদ্র। এ কথা জানিয়েছে সি রঙ্গরাজন কমিটি। তাঁদের মতে, ২০১১-১২ আর্থিক বছরে মোট জনসংখ্যার ২৯.৫ শতাংশ মানুষই দরিদ্র। এই রিপোর্ট খারিজ করে দিয়েছে দারিদ্র নিয়ে সুরেশ তেণ্ডুলকর কমিটির রিপোর্টকেও। খবর জি নিউজের।
রঙ্গরাজন কমিটির রিপোর্ট জানিয়ে দিয়েছে, শহরাঞ্চলের ক্ষেত্রে ৩৩ টাকা, যাঁরা ৪৭ টাকার নীচে দৈনিক খরচ করেন, তাঁদেরকেই গরীব বলে চিহ্নিত করা যাবে। আর গ্রামাঞ্চলের ক্ষেত্রে অঙ্কটা সাতাশ টাকা নয়, বত্রিশ টাকার নীচে। গত বছর তেণ্ডুলকর কমিটির রিপোর্ট খতিয়ে দেখতে রঙ্গরাজন কমিটি তৈরি করা হয়। পরিকল্পনা মন্ত্রী ইন্দ্রজিত রাওয়ের হাতে কমিটি রিপোর্ট তুলে দিয়েছে।
भारत में ग़रीबी रेखा के निर्धारण का दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति
फ्रांसीसी क्रान्ति से कुछ पहले फ़्रांस की रानी मैरी एण्टॉइनेट को जब बताया गया कि लोगों के पास खाने के लिए रोटी तक नहीं है तो उसने कहा था कि अगर उनके पास रोटी नहीं तो वे केक क्यों नहीं खा लेते! इसके पहले और बाद भी तमाम शासकों ने ऐसे चमत्कारिक बयान दिये हैं। रोम के ज़ालिम हुक्मरान नीरो ने तो कुछ कहना भी ज़रूरी नहीं समझा था और जब रोम जल रहा था तो वह बांसुरी बजा रहा था। ऐसे बयान हमेशा उन शासकों की ज़ुबान से निकले हैं जिनकी व्यवस्था पतनशीलता के शिखर पर पहुँच चुकी होती है। जब 2000 के दशक की मन्दी ने पहली बार अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अपनी वक्रदृष्टि डालनी शुरू की थी तो जॉर्ज बुश ने कहा था कि जनता जमकर ख़रीदारी क्यों नहीं करती! अगर वह जमकर ख़रीदारी करे तो मन्दी से निजात मिल जायेगी! हमारे देश के हुक्मरानों ने अपनी शैली में बार-बार ऐसे काम किये हैं। 1989-90 के दौर में जब भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह डगमगायी हुई थी, तो देश के भूख से तड़पते लोगों को संवेदनशील प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर ने पेट पर पट्टी बाँधकर देश के अमीरज़ादों की समृद्धि को बढ़ाने की सलाह दी थी। निश्चित रूप से देश की तरक्की उनके अनुसार धनपशुओं की तरक्की की ही पर्यायवाची थी!
भारत में मैरी एण्टॉइनेट के वंशज
अब पतनशील, मरणासन्न और मानवद्रोही हो चुकी व्यवस्था के पैरोकारों ने ऐसे ही बयानों और दावों की फेहरिस्त में एक नया इज़ाफ़ा किया है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूछे गये एक सवाल के जवाब में दायर एक हलफ़नामे में देश के योजना आयोग ने दावा किया कि देश में जो भी व्यक्ति गाँव में रु. 26 प्रतिदिन (रु. 781 प्रति माह) और शहर में रु. 32 प्रतिदिन (रु. 965 प्रति माह) कमा लेता है वह ग़रीब नहीं है! इस दावे का तर्कों से खण्डन करना वक़्त की बरबादी है। इसका खण्डन करने के लिए योजना आयोग के उच्च नौकरशाहों को, जिनका वेतन तमाम सुविधाओं को छोड़कर करीब रु. 80,000 है या फिर रु. 60,000 से अधिक वेतन पाने वाले सांसदों और विधायकों को रु. 26/32 की प्रतिदिन की आय पर महीने भर के लिए छोड़ देना चाहिए! और उसके बाद उनसे पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने आपको ग़रीबी रेखा से ऊपर अनुभव किया या फिर नीचे!
http://ahwanmag.com/archives/443
ग़रीबी रेखा के निर्धारण का दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति 1973-74 के बाद सरकार ने कभी भी सीधे तौर पर नहीं देखा कि देश के कितने प्रतिशत लोग 2100/2400 किलो कैलो… गरीबी रेखा: नए आंकड़े और एक कदम आगेमंगलवार, 20 मार्च, 2012 को 01:59 IST तक के समाचार आंकड़ों के मुताबिक भारत की आबादी का 37 फीसदी हिस्सा ग़रीबी रेखा से नीचे है. सोमवार को योजना आयोग की ओर से जारी पिछले पांच साल के तुलनात्मक आंकड़ें कहते हैं कि 2004-05 से लेकर 2009-10 के दौरान देश में गरीबी 7 फीसदी घटी है और गरीबी रेखा अब 32 रुपये प्रतिदिन से घटकर 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन हो गई है. योजना आयोग की ओर से सोमवार को जारी गरीबी के आंकड़े एक बार फिर उस बहस को छेड़ सकते हैं जिसका दारोमदार इस बात पर है कि भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा की परिभाषा क्या हो. इससे जुड़ी ख़बरेंइसी विषय पर और पढ़ेंसोमवार को जारी योजना आयोग के साल 2009-2010 के गरीबी आंकड़े कहते हैं कि पिछले पांच साल के दौरान देश में गरीबी 37.2 फीसदी से घटकर 29.8 फीसदी पर आ गई है. यानि अब शहर में 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन और गांवों में 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता. नए फार्मूले के अनुसार शहरों में महीने में 859 रुपए 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपए 80 पैसे से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है. इससे एक बार फिर उस विवाद को हवा मिल सकती है जो योजना आयोग द्वारा उच्चतम न्यायालय में दायर किए गए हलफनामे के बाद शुरू हुआ था. इसमें आयोग ने 2004-05 में गरीबी रेखा 32 रुपये प्रतिदिन तय किए जाने का उल्लेख किया था. इसके बाद भारत में खाद्य सुरक्षा अधिकारों को लेकर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने योजना आयोग के प्रमुख मोंटेक सिंह अहलूवालिया को चुनौती दी थी कि वो अपने बयान पर अमल करते हुए ख़ुद 32 रुपए में एक दिन का ख़र्च चला कर दिखाएं. 'मकसद ग़रीबों की संख्या को घटाना'विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गए ये आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है कि आयोग का मक़सद ग़रीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फ़ायदा देना पड़े. भारत में ग़रीबों की संख्या पर विभिन्न अनुमान हैं. आधिकारिक आंकड़ों की मानें, तो भारत की 37 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है. जबकि एक दूसरे अनुमान के मुताबिक़ ये आंकड़ा 77 प्रतिशत हो सकता है. भारत में महंगाई दर में लगातार बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. कई विश्लेषकों का कहना है कि ऐसे में मासिक कमाई पर ग़रीबी रेखा के आंकड़ें तय करना जायज़ नहीं है. साल 2011 मई में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में सामने आया था कि ग़रीबी से लड़ने के लिए भारत सरकार के प्रयास पर्याप्त साबित नहीं हो पा रहं हैं. रिपोर्ट में कहा गया था कि भ्रष्टाचार और प्रभावहीन प्रबंधन की वजह से ग़रीबों के लिए बनी सरकारी योजनाएं सफल नहीं हो पाई हैं. http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/03/120320_poverty_line_pa.shtml
রেল বাজেটের আগে চোখ বিদেশ লগ্নির দিকেইঅনমিত্র সেনগুপ্তএক দিকে লোকসানের বোঝা কমিয়ে আয় বাড়ানোর দায়। অন্য দিকে বিশ্বমানের পরিষেবা দেওয়ার সংকল্প। মূলত এই জোড়া লক্ষ্য সামনে রেখেই রেলে বিদেশি বিনিয়োগের ক্ষেত্রে এ বার সুনির্দিষ্ট নীতি আনতে চাইছে কেন্দ্র। আসন্ন রেল বাজেটেই এই সংক্রান্ত ঘোষণা থাকতে পারে বলে মন্ত্রক সূত্রে খবর। সংসদের বাজেট অধিবেশেন শুরু হচ্ছে সোমবার। আর তার পরের দিন, ৮ জুলাই রেল বাজেট।০৬ জুলাই, ২০১৪ভর্তুকির বোঝা কমবে কী ভাবে, দিশাহীন জেটলিমুখে বলা যতটা সহজ, কাজে করা ঠিক ততটাই কঠিন। বাজেটে ভর্তুকির জগদ্দল পাথর সরাতে গিয়ে সেটাই টের পাচ্ছেন অর্থমন্ত্রী অরুণ জেটলি। ডিজেল-রান্নার গ্যাস-কেরোসিনের মতো জ্বালানিতে এবং সর্বোপরি খাদ্য ও সারে ভর্তুকি কমাতে চাইছেন তিনি। কিন্তু কী ভাবে তা কমানো হবে, সেটাই হল প্রশ্ন।প্রেমাংশু চৌধুরী ০৭ জুলাই, ২০১৪
লক্ষ্য বাণিজ্য বৃদ্ধি, ব্রাজিল যাচ্ছেন মোদীপ্রধানমন্ত্রিত্বের প্রথম মাসে সার্ক ও দক্ষিণ পূর্ব এশিয়ার দেশগুলোকে অগ্রাধিকার দিয়েছিলেন নরেন্দ্র মোদী। এ বার লাতিন আমেরিকার সঙ্গে বাণিজ্যিক সম্পর্ক বিস্তারে আগ্রহ প্রকাশ করলেন প্রধানমন্ত্রী। এ ছাড়া, চিনের শীর্ষ নেতৃত্বের সঙ্গেও একটি অত্যন্ত গুরুত্বপূর্ণ বৈঠকে বসছেন তিনি।নিজস্ব সংবাদদাতা ০৭ জুলাই, ২০১৪
সূচককে পথ দেখাবে জেটলির আসন্ন বাজেটবাজেটের দূরত্ব আর মাত্র তিন দিন। সেনসেক্সের ২৬ হাজার ছুঁতে আর মাত্র ৩৮ পয়েন্ট। বৃহস্পতিবার প্রযুক্তিগত গোলযোগে মুম্বই স্টক এক্সচেঞ্জ ঘণ্টা আড়াই বন্ধ না-থাকলে ওই দিনই পর্দায় সম্ভবত ২৬ হাজার দেখতে পেতাম। এর ঠিক আগে সূচক স্পর্শ করেছিল ২৫,৯৯৯ অঙ্ক। শুক্রবার বাজার বন্ধের সময়ে সেনসেক্সের অবস্থান ছিল ২৫,৯৬২ অঙ্কে।অমিতাভ গুহ সরকার ০৭ জুলাই, ২০১৪
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Jul 07 2014 : The Economic Times (Kolkata)
ET Pre-Budget Markets Roundtable - FASTEN YOUR SEAT BELTS: WE'RE IN FOR A BULL RUN FASTEN YOUR SEAT BELTS: WE'RE IN FOR A BULL RUN
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Monsoon may play truant and the Middle East may explode in an orgy of violence, but Indian investors need not be too worried. A rebounding economy and the return of risk appetite could send the Sensex up to 30,000 by March.
ET Given the various headwinds the government is facing, be it on the in flation front, fiscal front, the economy and investments. What do you think will be the priorities of finance minister Arun Jaitley when he steps in to announce the Budget?
NEELKANTH MISHRA: My view on the budget is -it's actually a lot less important exercise as it's made out to be. The states matter a lot more than the Central government. Hence, from sheer economic impact, the budget is an arithmetic exercise. If you look at it from a fiscal deficit prospective, there is not much the government can really do. Say, for example, in the US, about 11% of the taxes are corporate taxes.
In India, it's 34%, so a large part of the tax is hugely unstable. In government expenditure, 10-15% is discretionary, and the rest is salary, interest payments, defense, etc. There is limited room for announcements. If you look at the budget speech itself for the last 20 years, they remain the same, they are written by the same set of bureaucrats. There will be finetuning, some sectors will benefit and some sectors won't. As a policy statement there could be important updates like GST, DTC and so on. With the government less than six weeks in power, I really don't expect too much. The markets have run-up thinking that the budget is going to do great things. Do you think they will be disappointed?
ANOOP BHASKAR: I think, more than the economy, we have this confluence of events that has happened. If you look at various markets, there is no alternative to India today. For one, we have had good elections in India. Now, going ahead, we have elections in Indonesia, if the outcome is good, then the market attention might shift there. Right now, everyone is looking at India as the only alternative, since there is no other alternative. But these things don't last for too long. Second, we have this confluence of economic cycle which has bottomed out, and the new political cycle is coming at the same time which has lead to huge expectations. In the short term, the markets have voted that things will change very fast. And I don't think there will be any big correction after this budget. I think the real correction, if it would ever to happen, will happen after the next budget. Because, the government then will not have any excuse that they didn't have any time to settle things. So, over the next six months, the government will have enough ammunition, whether in terms of policy reforms to keep the markets up.
So, only in the next budget, the market is going to decide whether we are going to grow at 6% or it's going to take time longer than that. This budget is just the semifinal. The next budget will be the final which will be more crucial for the markets. Ridham, your views on what will be Jaitley's priorities in this budget.
RIDHAM DESAI: I agree that the budget will be about government spending which is about one-seventh of the GDP, which is certainly not the biggest driver of the economy. Government spending is at its near low since the revenues have dried up. Now, this quality of spending is crucial to the economy, it matters a lot. Cumulatively, the government has spent about $35 billion in the last five years. To me, the single factor driving inflation is that the Centre on an annual basis is spending $35 billion on subsidies It's a crucial thing -the quality of spending which I would expect the finance minister to do something about. I would not undermine the importance of the budget from the economic stand point. So, if you want to ride on inflation and growth, monetary policy can only do half the job, the other half has to be done by the quality of fiscal spending. My believe is that this is what investors are currently focused on. The level of spending is already low, but how the government spending will determine the outcome of the economy over the next 20-24 months. And this budget is as important as the next one. It's important to know that how the government is going to us its balance sheet -it's not a small number and it's a big balance sheet. Historically, the government has not used its balance sheet well. The markets are talking about divestment programme which is important. For the government, it's important to se up aggressive divestment targets and put money to kick start projects, as private investments are not coming in. Many balance sheets are broke due to which they are not able to raise capital. And these are two important things which the finance minister should focus on in the budget. And these are the two things that will set the stage for recovery in the next 9-12 months. What are the other means to lift investment in the economy?
RIDHAM DESAI: I think there is a role for the government to play by kick-starting the investment cycle.
People talk about FDI. Actually, I don't think it's important to increase FDI limits. If you look at FDIs, companies are happy to buy stakes in existing businesses and pay up a very large price. But they are very fearful of setting up new green-field projects, because you need 80 different clearances.
Instead of liberalising limits, if the government just reduces the number of limits, it will be easier for foreign investors to come and set up green-field projects which will rebound investment climate. . And these things are outside the budget. In the budget itself, the government can kick-start some of the infrastructure spending, which will change the mix of economic spending that is skewed towards consumption to more towards investments. Saurabh, what is the message you are hearing from foreign investors?
SAURABH MUKHERJEA: Investors have realised that the fiscal room available is very limited. We are half way through the year. And fiscally, we are challenged. I don't think anybody out there is expecting any sort of miracle this year on the fiscal e front. That being said there are three areas where there is a real desire in terms of road maps. The first is the fiscal consolidation road map; there is a great deal of curiosity that how the FM will deliver on this front. From the outside, none of us have the sense t about the pace of fiscal consolidation, and ways and means of consolidation. The second is the GST road map -we are all looking forward to GST to be an nounced whether it's a March 2015 event, or March 2016 event. The third road map is the PSU bank holding company. The government is not in position to recapitalise PSU banks, and we know that Prime minister Narendra Modi is not in favour of priva tisation. We are hopeful that through the Finance Act, the PSU bank holding company will be set up, and we look forward to the timeline when it will be done. These are the three road maps that the inves tors are expecting. If you see two out of the three road maps in the budget, it will be a good budget.
And if you see one out of the three road maps, then one has to answer foreign investors why we are so keen about this new Dawn of India. And if it's three out of three, then there is nothing like it. I think, this year, fiscal arithmetic will make a difference.
The history will remember this budget, not because of the big-bang, but because of the process we have began to lay down road maps on the fiscal side, GST side as well as the public sector bank holding com pany side. We have seen the Sensex going up from 17,000 to around 26,000 and the valuations also going up 16 times to its forward earnings. Is there any leg left in this rally or the markets are reaching near to an overvaluation stage?
NILESH SHAH: From the historical prospective, we are just above the historical valuation. The movement of 17,000 to around 26,000 in a year also tells you that earnings have multiplied in five years. From the valuations point of view, one cannot say we are overvalued. But of course, it's no longer cheap and the index is fairly valued. Now, a lot depends on the government -what steps are being taken to revive growth and investments. Market capital to GDP ratio is not expensive as it used to be dur ing the peak of bull markets.
There is some room for expansion. The bulk of the problem lies with the revenues as they are limited.
How do you think the government can achieve the 7% economic growth rate?
S NAGANATH: I think the key thing is if you infuse clarity in policy-making, streamline and speed up the approval process, they will get investors and industry to start investing. The other thing is psychology. For example, today, we are very bullish. We weren't so bullish 8-9 months ago. Once the corporates are able to raise risk capital, it will help revive the investment cycle. Household savings have gone into properties and gold. What we need now is to move savings into financial assets. Real rates have been flat to negative. One needs to give a positive real rate of return. I would term a proposal -that rather than giving tax incentives to depositors, give them a higher rate of interest. For borrowers, provide them tax incentives, if they repay loans properly. And through this way, the depositor is happy because he is getting a higher rate of return. The bank is happy, because it has got its spreads protected. And though the borrower pays a higher rate of interest, he gets a concession. If the borrower pays the interest on-time, the bank doesn't have any issues since it doesn't have NPAs. From the government point of view, the government saves because it has to less infuse capital into banks, so it matches up.
In the last few days, about $2.5 billion has been raised through QIPs and many companies have announced their intentions to raise funds though this route. Given the state of the market, is it a good step forward in resolving India Inc's indebtedness problem?
NEELKANTH MISHRA: If you look at the debt-tomarket cap of the companies that have been declared as NPAs is about 20 times -it was 21 times two weeks back, and now, it may be 18 times. Any amount of equity-raising is not going to be easy. We ran a screen of BSE 500 companies (non-financial) with a market cap of over $400 million and an EBITDA-to-interest of less than 2.5. There are 60 companies in this universe. I think these overleveraged companies need to go up another 100-200%. So, speculation is an art in many ways. If you have to catch the right stock and you move the stock up, if you have moved it high enough that the fund-raising can happen with a minimum dilution and still some balance-sheet repairing happens, then the guy who entered first has made a lot of money. Now, I think the speculators need to move some of these overleveraged stocks up another 150-200% before they start to reach a level where balance sheet repairs.
NILESH SHAH: We have helped a couple of companies raise money and when you do just a theoretical analysis what you miss out is that where is this latest equity raised going to be used. If it's going to be raised for completing a project which is going to start cash flows and once you hit the cash-flow numbers into projections, things start changing completely.
Second, if you see India Inc, it's been far more dividend than what it has been raising by way of equity. We expect them to invest with equity and with debt. So, until unless they have access to the equity markets, they are unlikely to come back to the investment mode. In this current cycle, where people can see that they are able to raise equity capital, it will lift the sentiment. This is far better than the September 2013 period when people didn't have the hope that they can raise equity.
RIDHAM DESAI: Let me just add one point to what Nilesh said. We did an exercise on top 100 companies in India. Their return on assets is well below the mean. That means there is a 50% upside to current consensus estimates for FY16. So, it would not happen in two years.
But presumably, it happens over three or four years. It is still a significant upside. So don't underestimate the power of a new investment cycle to that extent you know all these calculations and therefore answering your point boils down to specific stocks and companies is that you can end up under estimating all of this a great deal because stocks have gone up and you don't actually see that the earnings can change tremendously over the next 3-4 years. Has the new business cycle started?
RIDHAM DESAI: It looks at least that the previous one has ended. The jury is still out whether the new one has started or not. If the government does the right things, changes the quality of expenditure and does a few moves on the revenue side, I think you can get a new business cycle going.
The jury is out and the markets are betting that the new business cycle has started.
Therefore, the markets could be dead right and we will only know in a year or two from now.
What about the new credit cycle? Do you think that it has started?
RIDHAM DESAI: The loan-to deposit (L/D ratio) for banks has maxed out. We don't have room on the balance sheet. So, unless you lift deposit growth, they can't actually lend. On the private sector side, balance sheet debt is sitting right up here. The borrower doesn't have the capacity to borrow, the lender doesn't have capacity to lend. So, how do you get a new credit cycle. The credit cycle will start, but first, I need to see credit deposit growth going up. I need to see deleveraging.
Both the processes have started now, because real rates are positive, deposit growth is slowly inching higher and deleveraging has started.
We will get a new credit cycle, but it's not hap pening next quarter.
SAURABH MUKHERJEA: As I was saying in the CP rate market, you see rates coming down, you see NBFCs becoming a bit more willing to lend. In the FCCB market, we are getting the first signs of the market opening up. That's always the sign that there is a degree of risk appetite out there. You see Indian companies do foreign bond issuances after a long time.
These signs are there that the credit cycle might turn, but the unfortunate part in all this is for the reader of your newspaper is that in each of these cycles for the first four years con tains 70% of the stock market gains. So, what happens is that people like us debate the PE and the financial statements and intellectu alise it but the really savvy investor out there doesn't really wait for our analysis and as a re sult a ten year economic cycle gets discounted in three max four years. So 3-4 years will con tain 70-80% of the stock market gains. So if you take the election year as T from T to T+4 is pretty much your stock market gains so we can sort of have very clever analysis of PE and do our own forensic analysis but the more aggressive FIIs that I'm seeing the first time in four years they are calling me up and saying look just get the stock pay a 10% premium get the stock we have the intellectual discussion a year later.
NEELKANTH MISHRA: If you look at the global bond markets there has been a surprising return of risk appetite duration and euphoria and I think that that has a big role to play in the valu ations and the second thing is the bottoming of the Indian economy which is something we have not seen happen elsewhere so those are issues and if I talk to some of the really long term fundamental guys they are only excited about India forget about the elections we only worry about the elections because there is some volatility but what we are excited about India is that the growth has bottomed. See we like to com pare ourselves to Russia, Brazil, Mexico and China, per capita GDP wise we are one-fifth to one-seventh of those economies many of these economies are caught in the middle-income trap. We have a straight run of 20 years before we get into that middle-income trap so let's not equate ourselves to that but we have to under stand that it's a return of global risk appetite which is also driving up the markets and geopolitics is becoming incredibly difficult to project right now.
What do you think of PSU stocks? Should inves tors buy into them ?
SAURABH MUKHERJEA: I think we have to break the PSU's up there is the banks and the oil & gas complex, there is the metals, mining type complex. Let me just take one by one.
On the bank PSUs my reckoning is unless we have some visibility on the PSU bank hold-co there is very little basis for calling up clients and say buy a PSU bank because unless there is visibility on what exactly is the road map for the capitalization and perhaps ultimately the professionalization you really can't jus tify a one times book value for most of these entities so the budget will be relatively a sig nificant event or some pronouncement from the FM on the Nayak committee report. I find it very interesting the Nayak committee report came out on the 14th May we are one and half months into it and New Delhi has not said one word about it. Coming to the oil & gas complex, I think ONGC and Oil is relatively clear that the subsidy burden throttles off and the fuel gradually gets deregulated over 2-3 years period ONGC and Oil will be natural beneficiaries. The question then becomes once the balance sheet becomes stronger what will that surplus be used for will that surplus be used for buying gas blocks in Angola or Columbia and so on in which case we will have to figure out will that be a good thing for shareholders but just taking it very simplistically if get visibility on fuel deregu lation those two stocks become relatively interesting I'm not so sure about the oil mar keting companies my reckoning is that if you deregulate the fuel then the Reliance and the Essars will start competing for equal footing with the OMCs and I'm not so sure that peo ple should be buying those stocks given how much they have run up. Finally the natural resources complex, where Coal India is natu rally focused for the government, my reck oning is this as close to a one way bet as you can get over a one year I see coal production volumes go up. Once again you come to key issue Coal India's cash surplus will become big number 1-2-3 years down what would this government do with the cash surplus. If I look at what GSFC and GMDC have done with their cash surplus is not a very happy story that makes me hesitate a bit on Coal India but the near term story will be volume growth steps up and Coal India has a decent run but there is a big question mark on all the PSUs what would be this government's stance on the cash surplus on the balance sheets of the PSUs we don't know that yet, that I think is the big uncertainty.
Oil and gas stocks seem to be everybody's fa vourite. What are your views?
RIDHAM DESAI: I don't think there is much of an ambiguity, I think we are on our way to dereg ulation. I think the question is about timing whether it happens in the next month or it hap pens in the next 6-8 months, but largely I think the sector will be deregulated. So I expect die sel to be price-control free, petrol is already there.
I think at some point of time you will see kerosene price hikes. I'm not sure if it happens on the budget day, but if it happens the markets would love it. But it will happen over time, government has to do. The NDA in its previous avatar had recommended deregulation of fuel and then it got all derailed and we have lost 10 years now. So I think the oil & gas sector will see normalisation of earnings over the next 3-4 years, which would represent a big upside to earnings and the stocks still are cheap and so investors should stay invested there.
How will the poor monsoon impact industry?
NEELKANTH MISHRA: It depends on whether the monsoon will be below 40% or 7% of the normal as IMD has predicted. If it is 7% below normal, it's not going to be a big worry, but if its 40% below normal, then it will be a big worry as it will impact agricultural production and lead to a rise in prices of essential commodities. From an impact perspective, I think the lack of water will impact many industries.
Food inflation will remain high. In this scenario, the central bank may think of hiking rates. The cost of producing vegetable or milk or eggs will also go up. Labour is not cheap.
Labour is expensive in China too. So why is it that their inflation is not so high? Because their productivity is improving. In our case, the productivity is not improving even while the cost of labour is going up. So that is the challenge as labour is a big input.
RIDHAM DESAI: Productivity is key. I agree with Neelkanth. But there can be short-term improvement there as well. So, I would not completely rule out a deceleration in food inflation. If inflation stays high, then growth will be difficult to come by. So it is imperative for the inflation to go down. I do see there is scope for productivity improvement in the near term. I do see a role of demand management and not just supply, which is a longerterm thing that will take 3-5 years to fix. In the meanwhile, if you can address the demand side and productivity, you can lower inflation.
The RBI has set very realistic target and they are not impossible to achieve. But if we get there as per the RBI estimate of 4% by January 2015, I expect some steps in rate cut direction.
What are the sectors that you think that investors should look out for now?
ANOOP BHASKAR: I think one should let go of the two extremes and choose the middle path.
Only when you play the middle ground, you tend to miss the extreme moves of the market.
So for us, we are telling investors that when you see markets discounting 2-3 years, one should be realistic and cautious. Because a lot can happen in 18 months. We have moved up too fast too soon based on expectations that only time will tell. So investors should play the market more realistically. Mutual fund investors should understand that there has been no mutual fund investor who has become Rakesh Jhunjhunwala. The problem is that investors in India eschew equities and fall in love with it at the wrong time. So our advice is that they should do it more gradually like PF or PPF. The problem is that everyone wants to be a fund manager and time the market. We are in for good days but the extent of it can be debated.
S NAGANATH: I think there is high probability that the Sensex will double from the current levels in three years.
RIDHAM DESAI: I can back it up with numbers.
Right now the profit share of corporate India in GDP is about 4.9%, which at its peak was 6.7%. There is a good chance we will be somewhere between the trough and the top in three years from now. Let's assume for the argument purpose that we are at 6%.
GDP growth nominal growth, assume only 12%. Because that sets the ball for nominal profit growth. 3-4 years whatever is the time frame nominal growth would be about 22%.
Because when corporate profit and GDP go up, nominal GDP grows. So you calculate this with the Sensex and you will arrive at a level that is double from here. That too without any change in valuations and even if you take the PE multiple down from 18 to 16.
NILESH SHAH: Look at it from the other way. Till now most of our rallies are driven by FIIs.
In the month of May alone, we got Rs1,800 crore in domestic mutual funds. In June, I think it is around `7,000 crore. Now, domestic retail investors generally invest based on the performance of the past one year.
For the last 1-2 years, equities have outperformed real estate, fixed income significantly.
So, I believe that this trend of `7,000-crore inflow a month would continue and accelerate.
So are you saying that retail investor is coming back and he will continue to come back in increasing numbers?
NILESH SHAH: They are coming for wrong reasons, but they are coming to the right place at the right time. I would like to share a SMS that I got this morning (no bias to anyone). It says that if you had invested `5 lakh in HDFC Equity Fund in January 1, 2003, its value on June 30, 2014, is `92 lakh. Another example is Sundaram Select Midcap, whose value has moved from `5 lakh to `1.26 crore in the same period. So you would have moved from Dzire to Jaguar. Such is the power of equities. And this is after we have seen worst of the crisis and inflation.
So do you agree with Nagnath that the Sensex would double in three years?
NILESH SHAH: My feeling is that we are in a multi-year bull run and if the inflow of money into market continues then we will go from fair value (of stocks) to over value.
SAURABH MUKHERJEA: The only reason that I'm trying to inject a word of caution there is that the Indian investor's investment is more like hot money compared to even foreign flows. Foreign money coming to India has been relatively steady. And, hence, the fact that the foreign investor remains resolute is a source of comfort given the domestic investors' jittery behavior.
NILESH SHAH: We have to divide domestic investors in three parts -retail, HNI and institutions. If you see the IPO analysis, which is more reliable, you would notice that every single IPO, which has delivered good returns, has seen an increase in the retail investor base. Take the analysis of last eight years in any company where management has delivered and the stock price has gone up, the retail investor base has kept expanding.
Some of the best delivery has actually come in PSU banks because these shares were issued at relatively cheap levels. In all PSU banks, despite all the issues, the shareholder base has kept expanding as the stocks have delivered from their IPO price. It is the high net worth individuals segment where the flip-flop occurs. They are momentum chasers and smart guys, but they end up coming in at the wrong time, exiting at the wrong time and losing money.
RIDHAM DESAI: The point that Anoop made is more important for retail investors which is systematic investment. It's not about trying to be smart and say that oh this is the bottom or peak. We really don't know bottom or top, but if you keep investing every month like PF, it helps, which I think is a great example.
What sectors do you recommend?
RIDHAM DESAI: I think cyclical sectors should do well, but it's all a question of time frame actually.
Cyclical seems too broad.
RIDHAM DESAI: I will elaborate. If the time frame is 1 year to 18 months, then cyclicals like energy, materials, banks and autos could do well. I think consumer staples would struggle on a 1-2 year time frame. If you are looking for longer term (5-7 year period), then you have to buy financial services and consumptionrelated stocks. These are the sectors that will do the best.
What about IT?
RIDHAM DESAI: I'm bullish on IT on a 1-2 year basis. I think the US growth story looks very strong. IT orders will look good. I don't think the rupee is going to appreciate a lot. On a real account basis, the rupee is losing value on inflation differentials. So, if you let the rupee appreciate on a nominal basis, the gap widens.
So, instead of that the RBI would buy dollars and accumulate reserves. Therefore, I think IT should do well over a 1-2 year time frame.
Stocks of infrastructure owners and not necessarily builders will do well. Those who own the asset.
Naganath, your favourite sectors?
S NAGANATH: I agree with what Ridham said.
Is there a chance of earnings upgrade in the next 1-2 quarters?
ANOOP BHASKAR: I expect that earning cuts will continue. I think FY15-16 will end up at around 10% (earnings) growth. So earning cuts will continue.
So what would be the consensus for earnings estimate for FY16?
NEELKANTH MISHRA: I think FY15 is right now at about 14% and FY16 is at about 17-18%. But I expect both to be below estimates. I would expect that this year we settle at about 8-10%.
What about the Sensex and the Nifty target?
NEELKANTH MISHRA: I would expect the PE multiples can go up to about 18 times and I think EPS growth about 10%. Depends on whether it happens in 12 months or six months. S NAGANATH: I think this year it will be like 5 to 5 and ½% GDP, and earnings growth at about 13-14%. The next year is what I see the big impact on GDP when it could go up to 7% and earnings growth to 20%.
RIDHAM DESAI: I'm not very differently positioned than Neelkanth. I think it could be 8% earnings growth for the broader marker (BSE 500) for the next 12 months. I have greater confidence in broader market numbers than I have in the Sensex and the Nifty. Both are very concentrated and 1-2 companies can make a huge difference. The share of global-related stocks is much higher than in the broader market. For FY16, the number accelerates to 1314% and up to 20% earnings growth by FY17. We have a Sensex forecast which is a lot higher and it is 19% for FY16.
So, actually it is higher than the consensus. It is driven by belief that larger companies will benefit first from the revival of the economic cycle than the broader market.
In the second year, the broader market will overtake the large-cap companies in earnings growth. So, in FY16, the Sensex to have 19% earnings growth but broader market at 13%.
In FY17, both of them are estimated to go to 20% earnings growth.
My printed Sensex target is 26,300, which looks conservative now, but it's a bit dated. It was for March next year, but it was published a while back. But I have a bull case of 31,000 Sensex, which was based on a very simple model. In 2009 May, the market was trading at 18 times earnings and by October 2010 the price-to-earnings multiple went to 24. It was primarily driven by very strong global revival and very surprising election results. Though we had such a big multiple revision, we did not get such a big earnings cycle. But the markets went up a lot because of that. So why would that not happen now? So in the bull case, the market in my view is 31,000 Sensex by March 2015, which is another decent upside from here. But we will wait for the budget and see what kind of policy action we get before we take any action.
SAURABH MUKHERJEA: In Indian market case, neither forward PE nor EPS has any predictive bar in terms of calling the market. So con sensus revision to EPS, as my counterparts are pointing out, often tends to go in opposite direction of the market. So, we will all like to have crystal balls and predict the market, but unfortunately we can't.
What is your number for Sensex?
SAURABH MUKHERJEA: My number is 30,000 for the Sensex, but I haven't based it on EPS and PE multiples because there doesn't seem to be any logical way to use PEs to arrive at the Sensex targets. The best that we have been able to do is use historical experience to say that the first three years of recovery tend to be roughly 30% return. But giving out Sensex target is the most difficult part of the job.
For full interview, log on to http://www.economictimes.com
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