गर्म हवा,कुछ भी नहीं बदला।नफरतें वहीं,सियासतें वहीं बंटवारे की,अलगाव और दंगा फसाद वहीं,चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता।
हमें फिजां यही बदलनी है!
Garm Hawa,the scorching winds of insecurity inflicts Humanity and Nature yet again!
पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन,कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ?
बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा।फिर वहीं दंगा फसाद।
हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है।यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है।सथ्यु की फिल्म गर्म हवा।
पलाश विश्वास
आई.आई.टी. मुंबई में प्राध्यापक रहे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित राम पुनियानी का लेख. अनुवाद: अमरीश हरदेनिया.
"पिछले कुछ हफ्तों में लेखकों, वैज्ञानिकों और कलाकारों के सम्मान लौटाने की बाढ़ देखी गई। पुरस्कार लौटाने के जरिये ये सम्मानित और पुरस्कृत लोग अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए खड़े हुए हैं। बढ़ती असहिष्णुता और हमारे बहुलतावादी मूल्यों पर हो रहे हमलों पर अपनी चिंता जाहिर करते हुए इन शिक्षाविदों, इतिहासकारों, कलाकारों और वैज्ञानिकों के कई बयान भी आए हैं। जिन्होंने अपने पुरस्कार लौटाए हैं वे सभी साहित्य, कला, फिल्म निर्माण और विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले लोगों में से हैं। इस तरह सम्मान लौटाकर उन सभी लोगों ने सामाजिक स्तर पर हो रही घटनाओं पर अपने दिल का दर्द बयान किया है।
बढ़ती असहिष्णुता की वजह से दाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी की हत्या कर दी गई। गोमांस खाने के मुद्दे पर एक मुस्लिम की पीट-पीट कर हत्या कर दिए जाने की घटना भी हुई है, जिसने समाज के विवेक को हिलाकर रख दिया। समाज के विभिन्न वर्गों के इस तरह का कड़ा संदेश देने के कारण भाजपा से जुड़े लोग, उसके मूल संगठन आरएसएस और उससे संबंधित कई संगठन तथ्यहीन आधार पर इन लोगों की कड़ी आलोचना कर रहे हैं।
इन घटनाओं से चिंतित भारत के राष्ट्रपति बार-बार देश को बहुलतावादी सामाजिक मूल्यों की याद दिला रहे हैं। उपराष्ट्रपति ने भी कहा है कि नागरिको के जीने के अधिकार की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है। मूडीज जैसी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ने कहा है कि अगर मोदी अपने सहयोगियों पर लगाम नहीं लगाते हैं तो भारत अपनी विश्वसनीयता खो देगा। हाल के दिनों में असहिष्णुता के बढ़ते माहौल से चिंतित देश के प्रबुद्ध नागरिक बेचैनी महसूस कर रहे हैं। जुलियस रिबेरो का यह बयान इसकी बानगी है कि भारत में एक ईसाई होने की वजह से वह परेशान महसूस कर रहे हैं। अब नसीरुद्दीन शाह ने कहा है कि देश में पहली बार उन्हें उनके मुस्लिम होने का एहसास कराया जा रहा है। शायर और फिल्मकार गुलजार ने कहा कि आज ऐसा वक्त आ गया है कि लोग आपका नाम पूछने से पहले आपका धर्म पूछते हैं। नारायण मूर्ति और किरण मजूमदार शॉ जैसे प्रख्यात उद्यमियों ने भी बढ़ती असहिष्णुता पर अपनी चिंता जाहिर की है। इसी तरह आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन जैसे लोग भी बहुलता के मूल्यों को संरक्षित करने के लिए आवाज उठाने वालों के साथ खड़े हैं।
सत्ताधारी समूह भाजपा के नेताओं द्वारा इन रचनाकारों-वैज्ञानिकों पर हमला बोलते हुए इनके कदम को बनावटी विद्रोह करार दिया गया है, जैसा कि अरुण जेटली ने किया। ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि जो लोग पुरस्कार लौटा रहे हैं वे वामपंथी हैं या कांग्रेस के सत्ता में रहने के दौरान विशेषाधिकारों के लाभार्थी रहे हैं और अब पिछले एक साल से भाजपा के सत्ता में आ जाने की वजह से ये लोग चकित होकर हाशिये पर हैं इसलिए यह विरोध हो रहा है। आरोप यह लगाया जा रहा है कि ये लोग नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा लिखी जा रही विकास की कहानी को पटरी से उतारने या बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। जेटली तो यहां तक कह गए कि खुद नरेंद्र मोदी इन सम्मान लौटाने वालों की असहिष्णुता का शिकार रहे हैं। राजनाथ सिंह जैसे कुछ लोगों का कहना है कि ये लोग मोदी सरकार को निशाना बना रहे हैं जबकि ये कानून व्यवस्था की मामूली घटनाएं हैं जो राज्य सरकार की जिम्मेवारी है।
जो घटनाएं हुई हैं वे न तो कानून व्यवस्था की समस्याएं हैं न ही वह संरक्षण के विश्वास के खत्म होने से संबंधित हैं क्योंकि ये घटनाएं समाज के तीव्र सांप्रदायिकरण की अधिक वृहद प्रक्रिया से संबंधित हैं। इस बार सांप्रदायिकरण की सीमा ने सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर दिया है। पुरस्कार लौटाने वालों पर आपातकाल, सिख विरोधी दंगों, कश्मीरी पंडितों के पलायन और 1993 के मुंबई बम धमाकों के वक्त अपना पुरस्कार नहीं लौटाने का जो आरोप लगाया जा रहा है वह बढ़ती असहिष्णुता की प्रकृति और इसकी सीमा के स्तर पर होने वाली सामाजिक प्रतिक्रिया से निबटने का एक कृत्रिम प्रयास है। वापस किए गए पुरस्कारों और विभिन्न वर्गों द्वारा जारी बयान में इसके जो कारण बताए गए हैं वे कारण इस तरह की सभी घटनाओं में मौजूद हैं। जेटली और उनकी मंडली द्वारा रेखांकित की गईं ये सभी घटनाएं भारत के हालिया इतिहास के दुखद हिस्से हैं। बहुत सारे लेखकों ने इन घटनाओं के खिलाफ प्रतिरोध किया था। उनमें से कई लोग तो उस समय तक पुरस्कृत भी नहीं हुए थे।
आज के समय की घटनाओ की तुलना कई वजहों से पहले की घटनाओं से नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए आपातकाल के मामले को देखें। आपातकाल भारतीय इतिहास का काला अध्याय था, यह मुख्य रुप से ऊपर से थोपी गई तानाशाही थी। वर्तमान समय में सबसे खतरनाक बात सत्ताधारी पार्टी से संबंधित संगठनों का सघन जाल या तंत्र है जिसके कार्यकर्ता या तो खुद ही समाज में नफरत फैलाते हैं या वे जहर भरे भाषण के जरिये सामाजिक वर्गों को उद्वेलित करते हैं। जिसका नतीजा हिंसा होती है। वर्तमान समय में सहिष्णुता के मूल्यों और और उदार विचारों के ऊपर दोहरा हमला हो रहा है। सत्ताधारी समूह में योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति जैसे नेता हैं जो सत्ता का मजा लेते हुए लगातार नफरत भरे भाषण दे रहे हैं और सामाजिक स्तर पर इस तरह के तोड़ने वाले बयान प्रचलित हो रहे हैं।
इसका दूसरा स्तर, सांप्रदायिक विचारधारा के द्वारा सांस्थानिक नियंत्रण करना है। हमारे विज्ञान और तकनीक के अग्रणी क्षेत्रों को दिन रात बर्बाद किया जा रहा है। अंधविश्वास को बढावा देना इस नीति का एक उपफल है। वर्तमान राजनीतिक सत्ता में अंधविश्वास और धार्मिक उद्यमियों (बाबा और आधुनिक गुरु) का बड़ा प्रभाव है। आरएसएस द्वारा फैलाई जा रही हिंदू राष्ट्र की विचारधारा सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों पर हावी है। और अंतत: घर वापसी, लव जिहाद और गोमांस जैसे मुद्दों का इस्तेमाल कर विभिन्न जरियों से समाज की सोच में दूसरों से नफरत की विचारधारा फैलाई जा रही है। ये घटनाएं धार्मिक अल्पसंख्यकों में सामाजिक असुरक्षा की तीव्र भावना पैदा कर रही हैं। इसी की वजह से दादरी जैसी घटनाएं घट रही हैं। लोकतांत्रिक क्षेत्रों में हो रहे अतिक्रमण को जानबूझकर नजरअंदाज करते हुए इन घटनाओं को कानून व्यवस्था की समस्या साबित किया जा रहा है।
मूलतः सांप्रदायिक हिंसा के पागलपन की जड़ें उस पूर्वाग्रह में हैं जो धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत पैदा करती हैं। और यही जहर हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा या किसी भी धर्म या जाति के नाम की अन्य सांप्रदायिक राष्ट्रवाद से बहता है। वर्तमान समय में हिंदू राष्ट्रवाद क स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जो एक प्रमुख ताकत है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि मुस्लिम सांप्रदायिकता के अंदर खुद अपना ही विभाजनकारी और अनुपूरक प्रभाव है। अन्य जरियों के माध्यम से इस तरह की विचारधारा दूसरों से नफरत की भावना पैदा करती है और गोहत्या और गोमांस खाना लोगों की हत्या करने का आधार बन जाता है। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के कारकून संकल्प लेते हैं कि अपनी पवित्र मां, गौमाता की हिफाजत करते हुए हम मारेंगे और मारे जाएंगे।
इस तरह का यह सिर्फ एक मामला है। आज के माहौल का प्रमुख कारण दूसरों के लिए नफरत के गुणात्मक परिवर्तन में निहित है। अल्पसंख्यकों को एक खास छवि में पेश करने का चलन जो हिंदू राष्ट्रवाद के साथ शुरू हुआ था भीषण तरीके से बढ़ चुका है, जहां गुलजार जैसे लोगों को वो सब कहना पड़ा जो उन्होंने कहा है। इसलिए जब जेटली जैसे लोगों द्वारा इन लोगों के उठाए गए कदमों को कमतर आंका जा रहा है और राजनाथ सिंह जैसे लोग इसे कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में दोहरा रहे हैं तो लोकतंत्र की आवाज उठा रहे लोगों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा है और उदारवादी सोच और सहिष्णुता सिकुड़ती जा रही है। हमारे लोकतांत्रिक समाज पर मंडराते सांप्रदायिक प्रचार और लोकतांत्रिक विचारों की दमघोंटू राजनीति के बड़े खतरे की ओर समाज के बड़े वर्गों का ध्यान आकर्षित करने के लिए हमें और अधिक तरीकों के बारे में सोचना जारी रखना होगा। और ये कोई मामूली समय नहीं हैं, विभाजनकारी प्रक्रियाओं ने खतरनाक अनुपात ले लिया है और उन्हें भ्रामक विकास की कहानी से छिपाया नहीं जा सकता है।
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