ताराचंद्र त्रिपाठी
श्री श्री रवि जी,
यमुना के तट पर जीने की कला के साम्राज्य का भव्य प्रदर्शन आपको गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में स्वर्णाक्षरों में भले ही अंकित कर दे. पर यह आपको वास्तविक सन्त के रूप में नहीं, एक ऐसे कार्पोरेट सन्त के रूप प्रस्तुत करेगा जिसे इस देश के अभा्वग्रस्त, एक एक बूंद पानी के लिए तरसती बुन्दे्लखंड की जनता, खेती के उजड़ जाने से कर्ज न चुका पाने और परिवार का पालन दुर्वह हो जाने के के कारण कोई और विकल्प न देख एक के बाद एक आत्महत्या करने वाले विदर्भ तथा अन्य क्षेत्रों के १२००० किसानों की आत्महत्या में भी उनकी भूख और कर्ज में डूबा होना, महाजन का बार- बार ऋण चुकाने के लिए अपने लठेतों को भेजना, तो नहीं दिखाई देता, केवल आर्ट आफ लिविंग का कोर्स न करना ही दिखाई देता है.
मुझे अनेक बार आपके संसर्ग में रहने का अवसर मिला है. मैं आपके खुलेपन, कृष्ण भक्तों की सी प्रेमाभक्ति, अभेद, और निरभिमानता का कायल रहा हूँ. सर्वधर्म समभाव के कारण पूरे विश्व में आपकी स्वीकार्यता रही है. आपके खुलेपन और मृदु व्यवहार के कारण संसार के अनेक देशों में अपनी बौद्धिक क्षमता की पताका फहराने वाले हमारे मेधावी युवा सम्मोहित हुए हैं. विदेशों के भावनात्मक वीराने में आपकी संस्था से जुडाव ने उन्हें आपस में परिवार का सा अपनापन दिया है. आपकी यह देन महनीय है. प्रणम्य है.
अपने पुत्र के दबाव में मैंने भी बेमन से आपका बेसिक कोर्स कई बार किया है. एड्वांस कोर्स भी किया है. मैं जानता हूँ कि बिना कर्मकांड के कोई सम्प्रदाय जीवित नहीं रह सकता. यदि आपने भी सुदर्शन क्रिया, बेसिक कोर्स, एड्वांस कोर्स, दिव्य समाज निर्माण?, आर्ट एक्सेल जैसे कर्मकांडों का विधान नहीं किया होता तो आर्ट आफ लिविंग भी हीनयान की तरह कुछ ही लोगों तक सिमट जाता. यदि गुरु नानक भी जीवन के संस्कारगत कर्मकांडों को गुरुद्वारे और गुरु ग्रन्थ साहब में ही समाहित नहीं करते तो ब्राह्मण परंपरा उनको भी औरों की तरह निगल चुकी होती.
मैने अनुभव किया है अपना आध्यात्मिक साम्राज्य स्थापित करने के कार्पोरेट अभियान करने वाले श्री श्री के परे आपमें निजी तौर पर ऐसी असीम सहनशीलता है जो बुद्ध और गान्धी के अलावा किसी और सन्त में नहीं दिखाई देती. मैंने आप में एक चतुर व्यापारी और एक भले आदमी का ऐसा अद्भुत समन्वय अनुभव किया है जो आपके विजय अभियान का आधार बन गया है. पर कबीर के इस चेले को उसमें सबसे पीछे, सबसे नीचे, शताब्दियों से दबे कुचले सर्वहारा मानव के वास्तविक दुख दर्द के प्रति कोई संवेदना नजर नहीं आयी, न आपके पीछे पागलों की तरह दौड़्ने वाले भक्तों और युवाओं में कोई सामाजिक बोध ही नजर आया. नजर में आया तो केवल कृष्ण भक्तों का सा 'भाड़ में जाय संसार' वाला उन्माद नजर आया जिसमें सम्पन्न और विपुलता से भरी नयी पीढ़ी आपके भजनों और आपकी प्यारी सी बाल सुलभ मुद्राओं, मृदुवाणी में इतनी डूब गयी कि उसे अपने परिवारी जन ही बेगाने लगने लग गये.
पर वास्तविकता यह है कि आपके लगभग सारे चेले आपके बाहरी तामझाम पर ही अटक गये. न उनमें उदारता आयी न समर्पण. केवल गुरुडम और आपकी संस्था का विज्ञापन ही उनका ध्येय बन गया. आप भले ही अपने समीक्षक के प्रति उग्र न रहे हों, पर वे ऐसे समीक्षक को चाहे वह उनका अपना ही क्यों न हो यंत्रणा देने में कभी पीछे नहीं रहते. आम जनता के दुख दर्द के प्रति कभी संवेदनशील और गतिशील नहीं होते. हो सकता है कि अध्यात्म के तमाम व्यापारियों की तरह गुरु में ही वह तत्व सिरे से गायब हो.
ऐसे संकट काल में जब देश की आधी से अधिक जनता, प्यास और भुखमरी से बेहाल हो. सारी सरकारी मशीनरी, आम आदमी को सताने में लगी हो, पुलिसिया डंडा अपने दुख दर्द को वि्ज्ञापित करने वालों की कमर तोड़्ने में लगा हुआ हो. कमजोर के लिए दंड और सरकार की चूल तक हिला देने की हिमाकत करने वाले समर्थों के लिए पुरस्कार की मूल्यहीनता छायी हो. आपके द्वारा अरबों रुपया खर्च कर, तमाम सरकारी मशीनरी को व्यस्त कर यमुना के तट पर रासलीला का आयोजन फ्रांस के राजा लुई सोलह्वें की रानी मेरी अन्त्वाइनेत के कथन 'यदि इनके पास रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते' को दुहराता हुआ सा लगता है.
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