इंद्रेश मुखौरी
उत्तराखंड की सरकार के घोड़े की टांग की तरह धराशायी होने और फिर उसे सहारा दे के खड़े किये जाने की अवस्था को प्राप्त होने के बीच कुछ अजब-अजब प्रवृत्तियों भी प्रकट हुई.हमारा समाज भी कितने-कितने तरह से सोचता है,यह उत्तराखंड के राजनीतिक घटनाक्रम में एक बार फिर दिखाई दिया.गर्व करने को नायक न हों तो हम खल प्रवृत्ति के नायकों को ही महानायक की तरह देखने लगते हैं.व्यक्ति हमारे इलाके,जाति,धर्म आदि-आदि का हो तो कुछ लोग खड़े हो जायेंगे कि चाहे व्यक्ति खल प्रवृत्ति का है पर हमारी अस्मिता का प्रतिनिधि तो यही है.उसमे उस क्षेत्र के लिए कुछ करने के लक्षण दूर-दूर तक नजर न आते हों,वह वहां की आकाँक्षाओं के साथ लाख छल करता रहा हो,परन्तु अपने नितांत निजी स्वार्थों के लिए वह सियासी खींचातान में शामिल हो जाए तो कतिपय लोग प्रचारित करने लगेंगे कि देखो हमारे नेताजी तो क्षेत्र की अस्मिता और स्वाभिमान के लिए लड़-मरने को तैयार हैं.
ऐसा ही कुछ किस्सा, कतिपय लोग हरीश रावत के साथ नितांत निजी वजहों से लड़ने वाले हरक सिंह रावत के बारे में प्रचारित कर रहे हैं.ऐसे लोग हरक सिंह रावत की तमाम खल प्रवृत्तियों को स्वीकार करते हुए भी,उन्हें गढ़वाल की क्षेत्रीय अस्मिता और स्वाभिमान का प्रतिनिधि ठहराने पर उतारू हैं.अरे भाई साहब ! काहे की क्षेत्रीय अस्मिता और कौन सा स्वाभिमान ? जो आदमी चुनाव तक पहाड़ से लड़ने के लिए तैयार नहीं वो क्या यहाँ की अस्मिता और स्वाभिमान के लिए लडेगा ? यह तो सत्ता की मलाई का कटोरा पूरा नहीं पड़ रहा था,इस बात की लड़ाई है.हरीश रावत,उनका कटोरा इससे ज्यादा भरने को तैयार नहीं हैं और इतना भर कटोरा,उन्हें स्वीकार नहीं ! बात तो बस इतनी सी है.
पर जब यह बात मेरे सामने आ गयी कि कुछ लोग हरक सिंह रावत को हरीश रावत के साथ झगडे के चलते गढ़वाल का महानायक सिद्ध करने पर तुले हैं तो बरबस मेरे दिमाग में ख्याल आया कि कुमाऊँ में ऐसे ही नायक की छवि तो हरीश रावत की गढ़ी जा रही होगी कि देखो कैसे गढ़वाल वालों के खिलाफ कुमाऊँ का नायक ताल ठोक कर खड़ा है.वास्तविकता यह है कि न हरक सिंह रावत और विजय बहुगुणा गढ़वाल के लिए लड़ रहे हैं और न ही हरीश रावत कुमाऊँ वालों के लिए लड़ रहे हैं.शराब,रेता-बजरी,खनन,जमीन आदि के माफिया से न हरक सिंह रावत-विजय बहुगुणा को कोई ऐतराज है और न हरीश रावत को उनसे कोई गुरेज.लड़ाई बस इतने भर की है कि अपने-अपने नूर-ए-नजर माफियाओं के हितों का पोषण कैसे अधिकतम कर सकें.
इस तरह के नकली क्षेत्रीय गर्व और खल मार्का नायकों को महानायक बना कर सिर्फ एक ही काम होता है कि क्षेत्रीय आधार पर लोगों के बीच की विभाजन रेखा को चौड़ा किया जाता है.यह गढ़ा हुआ,फर्जी इलाकाई नायकत्व लोगों को कैसे ठगता है,इसका एक रोचक किस्सा एन.डी.तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल का.2002 में एन.डी.तिवारी उत्तराखंड की पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री बने.काफी अरसे तक तो उनके विकास पुरुष वाली विज्ञापनी छवि से काम चलाया जाता रहा.लेकिन धीरे-धीरे उनके लालबत्ती छाप विकास की कलई उतरने लगी.ऐसा होने के साथ-साथ कांग्रेसियों ने गढ़वाल में प्रचार करना शुरू किया कि एन.डी.तिवारी गढ़वाल का विकास नहीं कर रहे हैं,कुमाऊँ में देखो तो उन्होंने सब चमका दिया है.अधिकाँश लोगों ने कुमाऊं जाना नहीं था तो वे सोचते कि कर ही रहे होंगे तिवारी कुमाऊं का विकास ! विकास पुरुष के तमगे का कुछ तो आधार होगा ही.हकीकत ये थी कुमाऊं में तिवारी पंतनगर विश्वविद्यालय के गेस्ट हॉउस से आगे नहीं बढ़ते थे.बहरहाल इस प्रचार के बीच में 2004 में कुमाऊं के कुछ इलाकों में मैं घूमा.एन.डी.तिवारी के सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन पर पैनी दृष्टि रखने वाले एक बुजुर्गवार से नैनीताल जिले के दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में मेरी मुलाक़ात हुई.मैंने उनसे पूछा कि गढ़वाल में तो लोग कह रहे हैं कि एन.डी.तिवारी गढ़वाल में तो कुछ नहीं कर रहे हैं.पर कुमाऊं में तो उनके विकास की चमचमाहट से लोगों की आँखें ही नहीं खुल रही हैं !पर यहाँ तो कुछ नहीं दिख रहा है.वे सहजतापूर्वक बोले-तिवारी जी करना तो चाहते हैं कुमाऊं का विकास पर सारे मंत्री तो गढ़वाल के हैं.वे तिवारी जी को करने ही नहीं देते कुमाऊं का विकास.क्या जबरदस्त दिमागी ठगी है ! गढ़वाल में कहो कि तिवारी तो सारा विकास कुमाऊं में कर रहे हैं,इसलिए तुम्हारा विकास नहीं हो रहा है.कुमाऊं में कहो कि गढ़वाल के मंत्री, तिवारी तो कुमाऊं का विकास नहीं करने दे रहे,नहीं तो..........
यही वो फार्मूला है जिससे लोग विकास विहीन रहते हैं और नेता जी की विकास पुरुष की छवि भी चमचमाती रहती है.दोनों ही जगह लोग एक दूसरे के प्रति द्वेष से भरते रहते हैं और खल प्रवृत्ति वालों को महानायक के आसन पर विराजित करते रहते हैं.हकीकत यह है कि न हरक सिंह ,विजय बहुगुणा गढ़वाल के लिए लड़ रहे हैं,न हरीश रावत का झगड़ा कुमाऊंनी अस्मिता के लिए है. कितनी शातिराना चाल है ये कि निजी स्वार्थों के लिए आपस में खली प्रजाति की नकली कुश्ती करने वाले, लोगों के बीच वास्तविक गहरी दरारें डालते जाते हैं.बहुतेरे समयों में यह विभाजन ही इन खल प्रवृत्ति के नायकों का खेवनहार बनता है.यह निजी स्वार्थों की साम्यता और जनता में बंटवारे वाला चक्रव्यूह यदि लोग भेद लें तो खल प्रवृत्ति के नायकों का अस्तित्व स्वयं ही धूल में मिल जाएगा.बांटने की यह राजनीति जनता की बड़ी शत्रु है,यह समझना ही होगा.
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