नीति आयोग चाहता है ठेके पर खेती!
खेती को विदेशी पूंजी का इंजेक्शन और किसान होंगे अब बंधुआ मजदूर!
विकास का नाम अंधाधुंध शहरीकरण।
औद्योगिक विकास का नाम अंधाधुंध शहरीकरण।
मेकिंग इन का मतलब बुलेटट्रेन और स्मार्ट शहर और निराधार आधार।
सारे कल कारखाने इसलिए मरघट में तब्दील है तो खेती का सत्यानाश अभी पूरी तरह नहीं हुआ है और इसकी पूरी तैयारी है।
पलाश विश्वास
कोलकाता।नीति आयोग चाहता है ठेके पर खेती।नीति आयोग की सिफारिश है कि किसानों को बंधुआ मजदूर बना दिया जाये।नीति आयोग के मुताबिक किसानों को अपने खेत लीज पर दे देने चाहिए।गौरतलब है कि नीति आयोग देश में दूसरी हरित क्रांति के लिए राज्यों से विचार विमर्श कर रहा है। इसमें भूमि सुधार, कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी, फसल विविधीकरण से लेकर जीएम फसल जैसे मुद्दे शामिल हैं।
नीति आयोग ने जमीन लीज पर देने और टाइटल के बारे में भी नियमों में सुधार की सिफारिश की है।दलील यह है कि इससे उन किसानों को सीधे सहायता पहुंचाई जा सकेगी, जो बड़े किसानों से जमीन लीज पर लेकर खेती करते हैं।
वैसे खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी और मल्टी ब्रांड में शत प्रतिशत विदेसी पूंजी का मतलब यही है कि बड़ी बड़ी विदेशी कंपनियां देश के खेत खलिहानों पर कब्जा कर लें और अनाज जैसे पालतू फसल की वजह से नकदी और मुनाफावसूली के लिए बाजार की मांग के मुताबिक चुनिंदा फसलें बंधुआ किसानों से सीधे हासिल करके कारोबारियों का बैंड बाजा बजाते हुए खाद्य सामग्री के बाजार पर एकाधिकार मनसैंटो राज कायम कर लें।
केसरिया राजकाज से पहले मनमोहन शासनकाल में ही किसानों को बंधुआ मजदूर बना देने के इस भूमि सुधार की तैयारी कर ली गयी ती जिसे अब अमली जामा पहनाया जा रहा है।
गौरतलब है कि मनमोहनकाल में योजना आयोग ने कृषि क्षेत्र के विकास का जो मसौदा तैयार किया हैं उससे यह साफ हो जाता है कि अब योजनाकार चाहते हैं कि खेती किसानों के लएि नहीं, काॅरपोरेट क्षेत्र के लिए फायदे का कारोबार बने। इस मसौदे में बड़े ही लुभावने शब्दों में सब्सिडी कम करते हुए काॅन्ट्रैक्ट खेती (ठेके पर खेती) के जरिये काॅरपोरेट क्षेत्र को इस ओर आकर्षित करने की बात कहीं गई है।केसरिया नीतिआयोग योजना आयोग की सिफारिशों को ही लागू करने की कवायद में लगा है।
इस साझे राजकाज का नतीजा यह है कि तकनीकी विकास के लिए भी संभवतः पहली बार खुल कर निजी क्षेत्र की बड़ी भूमिका की इतनी जबर्दस्त वकालत की गई है। जिन क्षेत्रों में घुसने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां आंख गड़ाए बैठी है, जैसे बीज, उर्वरक, मार्केटिंग आदि, उन्हें निजी-सरकारी पार्टनशिप के लिए खोलने की बात कही गई है। इसके जरिये उत्पादकता बढ़ाने की बात मसौदे में कहीं गई है। और अधिक मशीनों के प्रयोग का रास्ता खोलने वाले इस मसौदे में ऐसी तकनीक का इस्तेमाल करने का बात कही गई है कि जिसमें कम श्रमिक लगें।
आयात बढ़ाने पर केंद्रित इस योजना में कहीं भी उन संकटों का जिक्र नहीं है जिनकी वजह से सिर्फ 1998-2006 के बीच सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1 लाख 42 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इन सारे खौफनाक तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए योजना अयोग ने दूसरी हरित क्रांति शुरू करने का दावा कर दिया,तो नीति आय़ोग खेती को सीधे विदेशी पूंजी के हवाले करने के फिराक में है।
गौरतलब है कि पहली हरित क्रांति वाले प्रदेशों,पंजाब-हरियाणा में किसान न सिर्फ अपनी जीवनलीला समाप्त करने पर मजबूर हो रहे हैं बल्कि पूरी खेती का माॅडल बिखर गया है।अब तो बंगाल जैसे राज्य में जहां भूमि सुधार आंदोलन हुआ,वहां भी किसान आत्महत्या करने लगे हैं।दो रुपये केजी चावल देकर जनता को भूख के खिलाफ लड़ते हुए सड़कों पर बम गोला का समाना करना पड़ रहा है और इसके बावजूद हम अच्छे दिनों के सब्जबाग को राष्ट्र मान रहे हैं।
भूमि सुधार का नारा था कि खेत जोतने वालों का खेत का मालिकाना हक दिया जाये।
विडंबना यह है कि एकाधिकार मनसेंटो राज में विदेशी बीज,विदेशी उर्वरक और विदेशी कीटनाशक बजरिये खेतों में जहर पैदा करने के लिए खेती ठेके पर देकर किसानों को बंधुआ बनाने की इस दूसरे चरण की हरित क्रांति को केसरिया अर्थशास्त्री दूसरे चरण का भूमि सुधार कहने और साबित करने में भी बेशर्म गर्व महसूस कर रहे हैं।
यह राष्ट्र प्रेम और स्वराज का शत प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश है।अबाध पूंजी हमारे किसानों को बंधुआ बनाकर उनसे उनकी जमीन छीनने वाले हैं और कृषि को सर्वोच्च वरीयता देने वाले मनुस्मृति अर्थ शास्त्र का रामराज्य यही है।
खेत खलिहान और गांव का बजट यही है कि भारत में मुकम्मल मनसेंटो राज कायम करने के लिए बंधुआ खेती को जायज बनाने को वैधता दी जाये।इंफ्रास्ट्राक्चर के बहाने हाईवे विकास का किस्सा अलग है।मूल हरित क्रांति का नजारा हम अब भी समझ नहीं सके हैं और न भारतीय कृषि संकट को अभी समझ सके हैं।
सच यह है कि देश में मुक्त बाजार के इस मरघट मंजर के मध्यअब बी 10.5 करोड़ से अधिक किसान परिवार हैं और इन परिवारो से शिक्षात युवा हाथो को रोजगार नहीं है और न वैकल्पिक या स्थानीय रोजगार के कोई उपाय हैं तो कम श्रमशक्ति का इस्तेमाल करने वाली तकनीक कैसे कृषि का उद्धार कर सकती है?
सच यह भी है कोई 6 करोड़ 20 लाख किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। ऐसे में काॅरपोरेट खेती का लाभ कितने किसान और कौन से किसान उठा पाएंगे?
सबसे बड़ा सच यह है कि जिन-जिन इलाकों में किसानों ने अनाज की खेती छोड़कर वाणिज्यिक खेती अपनाई (कपास, सोयाबीन आदि) वहीं सबसे ज्यादा संकट है और यही किसान निराश होकर आत्महत्या कर रहे हैं।
गौरतलब है कि वर्ष 2002-03 में हुए राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक 90 फीसदी से भी अधिक किसान अपने उत्पादन की लागत नहीं निकाल पाते हैं यानी हर साल घाटे में खेती करने के लिए वे अभिशप्त हैं।
तब से लेकर अबतक कृषि में विदेशी पूंजी का एकादिकारवादी आक्रमण जारी है और अब किसानों के साथ साथ एक ही तीर से छोटे और मंझौले कारोबारियों की चांदमारी बिजनेस फ्रेंडली गवर्नेंस है।
अब शून्य के करीब हो चुकी कृषि विकास दर को विदेशी पूंजी का इंजेक्शन लगाया जा रहा है तो जल जंगल जमीन से बेदखली का सिलसिला और तेज होना है और न जाने कितने हजारोंहजार आदिवासी,दलित ,पिछड़े गांव उजाड़े जाने हैं और न जाने किस किस सोनी सोरी का चेहरा जलाया जाना है।
न जाने सलवा जुड़ुम का विस्तार कहां कहां होना है और न जाने कहां आफसा लागू होना है और कहां नहीं।न जाने कितने इरोम शर्मिला के आमरण अनशन के बाद राष्ट्र के विवेक जागेगा।
विकास का नाम अंधाधुंध शहरीकरण।
औद्योगिक विकास का नाम अंधाधुंध शहरीकरण।
मेकिंग इन का मतलब बुलेटट्रेन और स्मार्ट शहर और निराधार आधार।
सारे कल कारखाने इसलिए मरघट में तब्दील है तो खेती का सत्यानाश अभी पूरी तरह नहीं हुआ है और इसकी पूरी तैयारी है।
साफ जाहिर है कि योजना आयोग के अवसान के बाद इस हिंदुत्व समय के उदात्त राष्ट्रवादी अंधे गौर में भारतीयकिसानों के लिए कटकचटेला अंधकार है और भारत के गांवों और किसानों के खिलाफ षड्यंत्र का केंद्र फिर वही योजना आयोग का अवतार नीति आयोग है। काॅरपोरेट ठेके की खेती और काॅरपोरेट सीधी खेती के जरिये बड़ी कंपनियों के लिए कृषि योग्य जमीन खोलने की तैयारी हो रही है।
गौरतलब है कि विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के तहत 10 फीसदी कृषि उत्पादों के निर्यात के निर्देश का पालन करते हुए अन्न उत्पादन से किसानों को हटाने की तैयारी हो रही है।'
हकीकत यह है कि बाजार में नकली बीज, नकली खाद और नकली उर्वरकों की भरमार है और राष्ट्रीय बीज निगम की भूमिका नगण्य हो गई है। अब इस बाजार पर बीज और खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र की सबसे बड़ी बहू-राष्ट्रीय कंपनियां मोनसेंटो और कारगिल कब्जा जमाने के लिए कमर कस चुकी हैं।
विश्व बैंक का दबाव और विश्व व्यापार संगठन की बाध्यताएं हैं कि इन कंपनियों के पक्ष में कानूनों मेें संशोधन किया जाए। पहले ही कृषि शोध-विकास और मार्केटिंग के लिए भारत-अमेरिकी समझौता हुआ। इसके बाद एक बोर्ड का गठन हुआ हैं जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियां मोनसेंटो वाॅलमार्ट और एडीएम शामिल हैं। अब ये भारतीय कृषि की भावी रणनीति तय करने में दखल रखेंगी। योजना आयोग के मसौदे में इस तरह के भविष्य के जो संकेत साफ नजर आ रहे थे,वे केसरिया राजकाज के भव्य राममंदिर हैं।नीति आयोग वही कर रहा है जो योजना आयोग करता रहा है।
दूसरी तरफ,सरकारी कर्मचारी भले ही निजीकरण,ठेका मजदूरी और विनिवेश का विरोध न करे लेकिन आजाद भारत में मजदूर यूनियनों की कृपा से वेतन भत्ता पीएफ ग्रेच्युटी आदि के बारे में बेहद संवेदनशील है।सरकारी कर्मचारियों की हर मांग इसीलिए मांग ली जाती है क्योंकि राजकाज उन्हींके मार्फत चलता है और तंत्र की मजबूती उन्हीें की वजह से सही सलामत बनी रहती है।
पीएफ पर टैक्स सरकारी कर्मचारी हजम नहीं कर सकते तो तुरत फुरत यह टैक्स वापस करने की घोषणा हो गयी।लेकिन पेंशन योजना और पीएफ,बीमा इत्यादि जो सीधे बाजार में निवेशकों की मुनाफावसूली के लिए उत्सर्गित है,उसपर न सरकारी कर्माचारियों को और न उनकी यूनियनों को कुछ कहना है।जैेसे उन्होंने विनिवेश और निजीकरण का विरोध अभीतक नहीं किया है।
हमने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के नाम एक खुला पत्र लिखकर देश के वित्त मंत्री पर सर्वोच्च अदालत की अवमानना के मामले का संज्ञान लेने का निवेदन किया है।सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है कि आधार अनिवार्य नहीं है जबकि माननीय वित्तमंत्री ने अपने बजट प्रस्तावों में आधार को सब्सिडी के लिए अनिवार्य बताया है।यह सर्वोच्च अदालत की अवमानना का मामला है।
हम शुरु से गैरकानूनी आधार परियोजना को नागरिकों की निगरानी तंत्र बतौर देक रहे थे जो नागरिको की जान माल को सीधे मुक्त बाजार के आकेट गाह की हत्यारी मशीनों से नत्थी करती है।हम लगातार इसके खिलाफ बोलते बोलते,लिखते लिखते थक गये हैं।हमारी किसी ने सुनवाई नहीं की।
आत्मध्वंस का रास्ता जनता ने स्वेच्छा से चुन लिया है।अब हम इसका कुछ नहीं कर सकते और जबकि ज्यादातर लोगों का आधार कार्ड बन गया है,हम किसी से अब नहीं कहते कि आधार कार्ड मत बनाना।क्योकि जरुरी सेवाएं आधार से जुड़ रही हैं और आधार का विरोध किसी भी राजनीतिक दल ने अभीतक नहीं किया है तो आधार न बनवाने वाले नागरिकों की जरुरी सेवाएं रुक जायें तो हम उन्हें बहाल करने की हालत में भी नहीं हैं।
फिरभी बड़ी संख्या में नागरिकों के आधार कार्ड अभी बने नहीं है।फिरभी बड़ी संख्या में नागरिक इसे अपनी निजता के विरुद्ध मानते हैं।माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उन नागरिको के हितों के मद्देनजर आदार कार्ड को ऐच्छिक बताया है तो माननीय वित्तमंत्री ने उन हितो पर कुठाराघात करके सर्वोच्च अदालत की अवमानना की है।
अभी आधार कार्ड कानूनी तौर पर वैध भी नहीं है।उसे वैध बनाने के लिए हड़बड़ी में सर्वोच्च न्यायालय को रबर स्टांप बनाने की तैयारी है और मनी बिल के जरिये आधार को कानूनी जामा पहनाने की तैयारी है और जाहिर है कि इसपर सर्वदलीय सहमति भी है।
यही हमारा राष्ट्र है और यही है हमारा राष्ट्रवाद।
हिंदू राष्ट्र हो न हो राष्ट्र कहीं नहीं है और न लोकतंत्र कहीं है।
लोकतंत्र में शासक भी आजाद होता है।उतना ही आजाद जितनी आजादी जनता की होती है।उसे चीखों से डर नहीं लगता और न लोकतंत्र में आजाद जनता को चीखने की कोई जरुरत होती है।
लोकतंत्र न हो तो जनता पर तो कयामत बरपने का सिलसिला खत्म ही नहीं होता।शासक तब तानाशाह होता है।बेहद डरा हुआ तानाशाह।
जो हवाओं की हलचल में आतंक की खुशबू सूँघता है।
पानी में जिसे जहर घुला हुआ दीखता है।
सांसों के चलने से जिसे बगावत का डर हो जाय।
जो जमीन पर पांव रख नहीं सकता क्योंकि जमीन उसे दहकने लगती है और हमेशा उड़ान पर रहता है वह ताकि जनता उसे छू भी न सकें।
वह चैन से सो नहीं सकता क्यंकि लगातार लगातार वह अपने डोलते हुए सिंहासन में हिचकोले खाता है।
ये वे हालात हैं,जिसमें जनता के मौलिक अधिकार,नागरिक अधिकार और मानवाधिकार पर पहरा होता है।विचारों पर पहरा होता है।सपनों पर भी पहरा होता है।क्योंकि शासक बेहद डरा हुआ होता है।
सूचना से सबसे ज्यादा डर लगता है।
सच से उससे ज्यादा डर लगता है।
अहिंसा से बहुत डर लगता है।
शासक सच और अहिंसा के दमन के लिए अपनी सारी ताकत झोंक देता है।सच से डरता है शासक और अहिंसा से सबसे ज्यादा डरता है क्योंकि वह भीतर बाहर हिंसक है घनघोर और हिंसा ही उसकी भाषा है।उसे सबसे ज्यादा डर मेल मुहब्बत से है क्योंकि उसकी संस्कृति विभाजन और ध्रूवीकरण की है।उसकी राजनीति की नींव घृणा है।
हूबहू यही हो रहा है।
सारे दरवाजे बंद हैं।सारी खिड़कियां बंद हैं।
सिर्फ अबाध पूंजी है।
सिर्फ राष्ट्र है।
खंड विखंड भूगोल कोई राष्ट्र नहीं होता।
राष्ट्र का शरीर होता है।
राष्ट्र का मन होता है।
राष्ट्र का विवेक होता है।
राष्ट्र का दिलोदिमाग होता है।
राष्ट्र का रक्त मांस हाड़ होता है जो जनता का रक्त मांस हाड़ होता है।
जनता ही राष्ट्र का शरीर होता है।जनता के दमन से राष्ट्र ही लहूलुहान होता है और अंततः जनता के विभाजन से राष्ट्र का ही विखंडन होता है।हूबहू यही हो रहा है।यह बहुत खतरनाक है।
राष्ट्रप्रेम वही होता है जो भारत की सांस्कृतिक साझा विरासत है कि मजहब चाहे कुछ हो ,नस्ल चाहे कुछ हो,हर नागरिक का दिलोदिमाग फिर वही राष्ट्र होता है।
नागरिकों से अलग राष्ट्र को न कोई चेहरा होता है और न वजूद।
नागरिकों का दमन करने वाला राष्ट्र न होकर सैन्यतंत्र होता है जहां लोकतंत्र की कोई गुंजाइश नहीं होती।
नागरिक फिर नागरिक होता है।
स्वतंत्र और संप्रभु नागरिक।
लिंग,जाति ,धर्म,भाषा,क्षेत्र से नागिर छोटा बड़ा नहीं होता।
यह नागरिकता जब तक है तबतक राष्ट्र है वरना राष्ट्र नहीं है।
लोकतंत्र ही राष्ट्र का प्राण पाखी है।
लोकतंत्र की हत्या के बाद फिर राष्ट्र राष्ट्र नहीं होता भले ही वह हिंदू राष्ट्र हो जाये।
भूमि पट्टेदारी- राज्यों के लिए एक लाभदायक सुधार |
नीति आयोग के उपाध्यक्ष श्री अरविंद पणगरिया ने कहा कि उद्योगीकरण में मदद देने के इच्छुक राज्य भूमि की उदार पट्टेदारी से अधिक लाभ उठा सकते हैं लेकिन उन्हें पट्टेदारी के साथ ही कृषि भूमि का गैर कृषि उद्देश्यों के लिए उपयोग करने में उदारता बरतनी पड़ेगी। उन्होंने आज नई दिल्ली में नीति आयोग की वेबसाइट पर प्रकाशित अपने ब्लॉग पोस्ट में लोगों के साथ ये विचार साझा किये। उनके ब्लॉग पोस्ट का जो पाठ है उस पर www.niti.gov.in के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। भारत के राज्यों में ग्रामीण कृषि भूमि से संबंधित भूमि पट्टे पर देने के कानून स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के दशकों के दौरान बनाए गए थे। उस समय जमींदारी उन्मूलन और भूमि का पुनर्वितरण के कार्य सर्वोच्च नीति की प्राथमिकताओं में शामिल थे। उस समय के शीर्ष नेतृत्व ने पट्टेदारी और उपपट्टेदारी को सामंतवादी भूमि प्रबंधों के अभिन्न अंग के रूप में देखा, जिन्हें भारत ने अंग्रेजों से विरासत में प्राप्त किया था। इसलिए विभिन्न राज्यों ने जो पट्टेदारी सुधार कानून स्वीकार किए, उनसे न केवल मालिकाना हक पट्टेदारों को हस्तांतरण हो गए, बल्कि इन्होंने भूमि की पट्टेदारी और उपपट्टेदारी को या तो रोक दिया, या हतोत्साहित किया। राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जमींदार सुधारों को पलटने में सफल रहे। पी.एस अप्पू ने अपनी शानदार किताब भारत में भूमि सुधार में लिखा है कि 1992 तक किसानों को संचालित भूमि के केवल चार प्रतिशत भूमि के ही मालिकाना अधिकार हस्तांतरित हुए। जबकि सात राज्यों आसाम, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में इस हस्तांतरण का 97 प्रतिशत योगदान है। किसानों को स्वामित्व का हस्तांतरण लागू करने की कोशिश करने में अनेक राज्यों ने तो पट्टेदारी को ही समाप्त कर दिया। इसके कारण कम से कम भूमि का हस्तांतरण हुआ। इस नीति से पट्टेदारी की सुरक्षा पर अनपेक्षित प्रभाव पड़ा और इससे भविष्य के पट्टेदारों को एक तरह से मजबूर बना दिया। कुछ राज्यों में पट्टेदारी की अनुमति दी गई लेकिन उन्होंने भूमि के किराए की सीमा को उपज का एक चौथाई या पांचवां हिस्सा निर्धारित कर दिया क्योंकि किराया बाजार दर से कम हो गया, इसलिए इन राज्यों में अनुबंध मौखिक हो गए और किराएदारों के लिए भूमि का किराया उपज का लगभग 50 प्रतिशत कर दिया गया। तेलंगाना, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों ने भूमि की पट्टेदारी पर प्रतिबंध लगा दिया और केवल विधवाओं, नाबालिगों, विकलांगों और रक्षाकर्मियों को भूमि मालिकाना हक प्रदान किए गए। केरल ने बहुत पहले ही पट्टेदारी पर प्रतिबंध लगा रखा है। अभी हाल में केवल स्वयं सहायता समूहों को भूमि पट्टेदारी की अनुमति दी गई है। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र और असम सहित कुछ राज्यों ने हालांकि पट्टेदारी पर प्रतिबंध नहीं लगाया है लेकिन पट्टेदार को कुछ निर्धारित अवधि की पट्टेदारी के बाद मालिक से पट्टेदारी की भूमि खरीदने का हक मिल जाता है। इस प्रावधान से भी पट्टेदारी का अनुबंध मौखिक रूप से किया जाने लगा जिससे पट्टेदारी की हालत दयनीय हुई। केवल आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में उदार पट्टेदारी नियम हैं। इसमें पश्चिम बंगाल में बटाईदार को सीमित पट्टेदारी प्राप्त है। अधिकांश राज्यों में राजस्थान और तमिलनाडु ऐसे राज्य हैं जहां उदार पट्टेदारी कानून हैं लेकिन बटाईदार को पट्टेदार के रूप में मान्यता नहीं है। प्रतिबंधति पट्टेदारी कानूनों की मूल इच्छा में कोई प्रासंगिकता नहीं है। ये प्रतिबंध आज न केवल पट्टेदारों पर जिनके संरक्षण के लिए मूल रूप से कानून बनाए गए थे, प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं बल्कि भूमि के मालिकों और जननीति के कार्यान्यावन पर भी हानिकारक प्रभाव डालते हैं। पट्टेदार को कार्यकाल की सुरक्षा नहीं मिलती जो उसे तब मिलती है जब उसके और जमींदार के बीच पारदर्शी ठेका लिखे जाने के कारण मिलती है। इससे पट्टेदार भूमि में दीर्घकालीन निवेश नहीं कर पाता और उसके अंदर खेती के अधिकार लगातार बनाए रखने के बारे में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा मिलता है। इसके अलावा एक किसान होने के कारण उसे क्रेडिट की जो संभावित सुविधा मिल सकती है, उससे भी वह वंचित रहता है। जमींदार के मन में भी जमीन पट्टे पर देने के बारे में असुरक्षा की भावना भी पनपती है और वह जमीन को परती छोड़ने में ही भलाई समझता है। जमींदारों में यह प्रक्रिया लगातार बढ़ रही है और उनके बच्चे खेती करने के अलावा अन्य रोजगार चाहते हैं। भूमि पट्टेदारी के पारदर्शी कानूनों के अभाव में जननीति के सामने भी गंभीर चुनौतियां पैदा हो गई हैं। अधिक विस्तारी और अधिक प्रभावी फसल बीमे की मांग हो रही है। यह माना जाता है कि ऐसे बीमों में भारी छूट मिलने की संभावना है, जैसा कि विगत के कार्यक्रमों के मामलों में हुआ है। एक स्वाभाविक प्रश्न यह है कि यह कैसे सुनिश्चित हो कि खेती के भारी जोखिम उठाने वाले पट्टेदार को क्या इसका लाभ मिलेगा? ऐसी ही समस्या प्राकृतिक आपदा के मामले में पैदा होती है कि अगर पट्टेदार अनौपचारिक है तो हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि वास्तविक किसान को ही आपदा राहत मिले। इसी प्रकार उर्वरक सब्सिडी आज व्यापक हेराफेरी का विषय है और रियासती खाद की बिक्री कालाबाजार में होती है। सैद्धांतिक रूप से इस हेराफेरी को खाना पकाने वाली (एलपीजी) गैस की सब्सिडी के हस्तांतरण की तरह ही आधार नंबर आधारित बैंक खातों का उपयोग करते हुए सीधे लाभ हस्तांतरण की शुरूआत करके तेजी से रोका जा सकता है लेकिन वास्तविक किसान की पहचान करने में आ रही कठिनाई को देखते हुए वास्तविक लाभार्थी को सीधे लाभ हस्तांतरण संतोषजनक रूप से लागू नहीं किया जा सकता। भूमि अधिग्रहण नियम 2013 के अधीन भूमि अधिग्रहण में आ रही दिक्कतों के संदर्भ में उद्योगीकरण में मदद करने के इच्छुक राज्य उदार भूमि पट्टेदारी का तभी लाभ उठा सकते हैं अगर वे पट्टेदारी के साथ-साथ उदारतापूर्वक कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग करने की अनुमति देने दें। वर्तमान में कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग बदलने के लिए उपयुक्त प्राधिकारी से अनुमति लेने की जरूरत है जिसमें काफी लंबा समय लगता है। राज्य सरकारें भूमि की गैर कृषि कार्यों में उपयोग की अनुमति देने के लिए कानून में परिवर्तन करके या वर्तमान में लागू विनियमों में कृषि भूमि के उपयोग को परिवर्तित करने के लिए आवेदनों को समय सीमा में मंजूरी देने की शुरुआत करके इस प्रतिबंध को दूर कर सकती हैं। इस सुधार से उद्योगीकरण के लिए भूमि के प्रावधान, दीर्घकालीन भूमि पट्टेदारी को बढ़ावा मिलेगा जिसमें भूमि के मालिक को अपनी भूमि का किराया मिलने के अलावा उसका मालिकाना हक भी बरकरार रखने की अनुमति रहेगी। इसके अलावा वर्तमान पट्टेदारी की समय सीमा समाप्त होने के बाद उसे पट्टेदारी की शर्तें पुन:निर्धारित करने का भी अधिकार होगा। इसलिए पारदर्शी भूमि पट्टेदारी कानूनों की शुरुआत से संभावित पट्टेदारों या बटाइदारों को एक नए सुधार में भूमालिकों के साथ लिखित ठेके करने की अनुमति होगी। पट्टेदार को भूमि में सुधार करने के लिए निवेश करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और जमींदार बेफिक्र होकर अपनी जमीन पट्टे पर देने में समर्थ होगा और उसे पट्टेदार से जमीन खोने का डर भी नहीं होगा तथा सरकार अपनी नीतियां प्रभावी रूप से लागू करने में समर्थ होगी। इसी के साथ-साथ भूमि उपयोग कानूनों के उदार होने से उद्योगीकरण के लिए भूमि के प्रावधान का वैकल्पिक अवसर भी उपलब्ध होगा जो पूर्णरूप से सरकार के अधिकार क्षेत्र में है और इससे जमींदार को अपनी भूमि का मालिकाना अधिकार बनाए रखने की भी अनुमति है। भूमि पट्टेदारी सुधार कानूनों की एक संभावित बाधा यह है कि भविष्य में कहीं कोई लोक-लुभावन सरकार लिखित ठेकेदारी पट्टों को पट्टेदारों के पक्ष में भूमि के हस्तांतरण का आधार न बना ले। इसलिए वे इस सुधार का विरोध करेंगे। यह एक वास्तविक डर है लेकिन इसे वैकल्पिक तरीकों से दूर किया जा सकता है। वास्तविक तरीका, दूसरा प्रमुख सुधार है जिसमें जमींदारों को अपरिहार्य हक दिया जाए। कनार्टक जैसे राज्यों में भूमि के रिकॉर्ड पूरी तरह डिजिटल बनाए गए हैं और पंजीकरण प्रणाली भी वास्तव में इस दिशा में बढ़ने की स्थिति में है। अन्य राज्यों में ये ऐसे शीर्षक भविष्य की बात हैं इसलिए ऐसे राज्य अनुबंधों की रिकार्डिंग के लिए पंचायत स्तर पर वैकल्पिक समाधानों को अपना सकते हैं और राजस्व रिकार्डों में पट्टेदारों की पहचान से परहेज कर सकते हैं। ऐसे राज्य उद्देश्यों के लिए विनियमों के खंड में यह जोड़ सकते हैं कि मालिकाना हक के हस्तांतरण के लिए राजस्व रिकार्डों में केवल पट्टेदारी स्थिति को मान्यता दी जाएगी। राज्य सरकारें अपने पट्टेदारी और भूमि उपयोग के कानूनों में गंभीर रूप से विचार करें और इन्हें सरल बनाएं लेकिन उत्पादकता और समग्र कल्याण बढ़ोत्तरी के लिए शक्तिशाली परिवर्तन लाएं। हम नीति आयोग में उनके ऐसे प्रयासों में मदद करने के लिए तैयार बैठे हैं। एएम/आईपीएस/एकेपी -3479 |
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