https://www.youtube.com/watch?v=ym-F7lAMlHk
फिल्में फिर वही कोमलगांधार,
शाहरुख भी बोले, बोली शबाना और शर्मिला भी,फिर भी फासिज्म की हुकूमत शर्मिंदा नहीं।
https://youtu.be/PVSAo0CXCQo
KOMAL GANDHAR!
Forget not Ritwik Ghatak and his musicality, melodrama,sound design,frames to understand Partition of India!
होशियार, फासीवाद का जवाब सृजन है,इप्टा है,सनसनी नहीं!क्योंकि यह मौका लामबंदी का!
भारत विभाजन के दुष्परिणामी सच को जाने बिना इस केसरिया सुनामी को मुकाबला नामुमकिन, इसीलिए कोमल गांधार और ऋत्विक घटक!
तूफान खड़ा करना हमारा मकसद नहीं है,कयामत का यह मंजर बदलना चाहिए और हर हाल में फिजां इंसानियत की होनी चाहिए।
बिरंची बाबा ने गुजरात नरसंहारी संस्कृति के बचाव में फिर सिख संहार का उल्लेख किया है,आप देख लें,हम शुरु से आज की तारीख तक बार बार उसका विरोध करते रहे हैं जैसे हम बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार और आर्थिक सुधारों के नाम नरमेधी राजसूय सुधारों,समंतवाद,पितृसत्ता और साम्राज्यवाद का विरोध करते हैं।
अवॉर्ड लौटाने वाले लोग हिम्मती, मैं उनके साथ हूं : शाहरुख खान
पलाश विश्वास
अवॉर्ड लौटाने वाले लोग हिम्मती, मैं उनके साथ हूं : शाहरुख खान
फिल्में फिर वही कोमलगांधार,शाहरुख भी बोले,अमजद अली खान बोले, बोली शबाना और शर्मिला भी,फिर भी फासिज्म की हुकूमत शर्मिंदा नहीं।हम उन्हें कोई मौका भी न देे!
होशियार, फासीवाद का जवाब सृजन है,इप्टा है,सनसनी नहीं!क्योंकि यह मौका लामबंदी का!
भारत विभाजन के दुष्परिणामी सच को जाने बिना इस केसरिया सुनामी को मुकाबला नामुमकिन, इसीलिए कोमल गांधार और ऋत्विक घटक!
विभाजन और आत्मध्वंसी ध्रूवीकरण,जाति और धर्म के नाम गृहयुद्ध के इस कयामती मंजर से निपटना है तो भारत विभाजन का सच जानना जरुरी है और इस पर हम लगातार चर्चा करते रहे हैं।हम न फिल्मकार हैं और न कोई दूसरा विशिष्ट विशेषज्ञ,लेकिन सच को उजागर करने के इरादे से आज दिन में भारी दुस्साहस किया है।इसे देखें, लेकिन जान लें कि हम फिल्मकार नहीं हैं।माध्यमों और विधाओं पर सख्त पहरा है।इसलिए कृपया वीडियो खुलते ही डाउनलोड करके प्रसारित करके इस बहस को आगे बढ़ायें,यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता का अनिवार्य पाठ है।जो आपके हमारे मोक्ष और मुक्ति के लिए अनिवार्य भी हैं।
अपने वेबकैम का दायरा तोड़कर ऋत्विक घटक की मास्टरपीस फिल्म कोमल गांधार की क्लिपिंग के साथ फ्रेम बाई फ्रेम लोक और संगीतबद्धता, शब्दविन्यास और सामजिक यथार्थ के विश्लेषण के साथ साथ अपना शरणार्थी वजूद को फिर बहाल किया है।
हम चाहते हैं,कोमल गांधार के बाद मेघे ढाका तारा, सुवर्णरेखा, तमस,टोबा टेक सिंह और पिंजर की भी चीड़ फाड़ कर दी जाये।
कोई दूसरा हमसे बेहतर यह काम करें तो हमारा यह अनिवार्य कार्यभार थोड़ा कम होगा।आप नहीं करेंगे तो हम जरुर करेंगे।
संजोग से भारतीय सिनेमा हमेशा की तरह आज भी राष्ट्र, मनुष्यता, सभ्यता,समता,न्याय,बहुलता और विविधता ,अमन चैन और भाईचारे की जुबान में बोलने लगा है।
शाहरुख ने पुरस्कार लौटाया नहीं है लेकिन मुंबई फिल्म उद्योग पर अति उग्र हिंदुत्व के वर्चस्व और आतंक से बेपरवाह होकर साफ साफ कह दिया है कि देश में एक्स्ट्रिम इनटोलरेंस है।
इससे पहले एक ही मंच से अमजद अली खान,शर्मिला टैगोर और शबाना आजमी ने देश में अमनचैन कायम रखने के लिए असहिष्णुता के इस माहौल को खत्म करने की अपील की है।जो अब भी चुप हैं,हम नाम नहीं गिना रहे,वे भी बोलेंगे।
असहिष्णुता और हिंसा,विभाजन और अस्मिता गृहयुद्ध के विषवृक्ष भारत विभाजन की जमीन पर रोपे गये हैं जो अब फल फूलकर कयामत के मंजर में तब्दील है।
हमने ऋत्विक घटक की फिल्म कोमल गांधार के जरिये भारत और दुनियाभर इंसानियत के भूगोल के तमाम विभाजनपीड़ितों, हम शरणार्थियों के रिसते हरे जख्म आपके सामने फिर पेश कर दिये।
कोमल गांधार को शरणार्थी गांव बसंतीपुर में जनमे हमने न सिर्फ बचपन में जिया है और न हम अब बूढ़ापे में जी रहे हैं बल्कि तमस,पिंजर,टोबा टेक सिंह से लेकर ऋत्विक की फिल्मों तक मानवीय पीड़ा और त्रासदी ही कुल मिलाकर हमारी यह छोटी सी जर्रा जर्रा जिंदड़ी है।
हमने मधुमती और पद्मा,रावी,झेलम,ब्यास के लिए हुजूम के हुजूम इंसानों को रोते कलपते देखा है।हम बचपन से साझे चूल्हे की आंच में दहकते महकते जीते रहे हैं क्योंकि हम शरणार्थी अंततः समाजिक प्राणी हैं,कुत्ते हर्गिज नहीं हैं,इसलिए इंसानियत के हकहकूक के लिए आवाज बुलंद करना हमारी आदत है।
हमने अपने पिता को बार बार बांगलादेश की जमीन छूने के लिए सरहद की हदें तोड़ते देखा है।कोमल गांधार हमारा किस्सा है।
जैसे कोमल गांधार के पात्र लोकगीतों में खोये हुए संसार के लिए यंत्रणाशिवर के वाशिंदे लगते हैं,आज भी करोड़ों शरणार्थी उसी यंत्रणा शिविर में दंगाई जाति धर्म वर्ग के मनुस्मृति राष्ट्र के कैदी हैं।यह हमारा भोगा हुआ यथर्थ है कि हम रिसते जख्मों की,खून की नदियों की विरासत ढोने को मजबूर हैं।यह देश मृत्यु उपत्यका।
ऋत्विक भी इसी सामाजिक यथार्थ के साथ जिये और मरे।
यह वीडियो कोमल गांधार की तरह विभाजन के सामाजिक दुष्परिणामों के विश्लेषण पर आधारित है।
इतिहास का सबसे भयंकर सच हैं कि तब हमारे पुरखों ने अपनी हिंदुत्व की पहचान के लिए,अपनी आस्था,पूजा और प्रार्थना के हकहकूक के लिए पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिम पाकिस्तान की अपनी जमीन,विरासत और घर छोड़कर शरणार्थी बन गये।
जाहिर है कि इसीलिए हमारा यह दुस्साहसी सुझाव है कि हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे बहुसंख्य जनता को धर्मोन्मादी जाति पहचान के नाम पर बार बार बांटकर यह मनुस्मृति स्थाई असमता और अन्याय का जमींदारी बंदोबस्त जारी रहे।
विभाजन में देश का ही बंटवारा नहीं हुआ,मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा का भी बंटवारा हो गया।
शहीदों ने कुर्बानियां दी और जमींदार राजे रजवाड़े,नवाब इत्यादि और उनके वंशज सत्ता वर्ग में तब्दील हो गये।
सारे खेत उनके थे।
अब सारा कारोबार उन्हींका है।
सारे उद्योग धंधे उन्हींके हैं।
बाकी आम जनता मूक वधिर भेड़ धंसान धर्म और जाति के नाम पर कट मरने के लिए है।
उन्होंने अपनी जमींदारियां और रियासतें बचा लीं और भारत का बंटवारा करके करोडो़ं इंसानों की जिंदगी धर्म और जाति के नाम नर्क ही नर्क,कयामत ही कयामत बना दी।
मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति के विरुद्ध उनका यह जघन्य युद्ध अपराध फिर सिख संहार,बाबरी विध्वंस, भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण विध्वंस,परमाणु विकल्प,सलवा जुड़ुम, आफस्पा,गुजरात नरसंहार,लगातार,जारी दंगे फसाद,आतंकी हमले और फर्जी मुठभेड का विकास हरिकथा अनंत मुक्तबाजार है।अश्वमेध अभियान।
तूफान खड़ा करना हमारा मकसद नहीं है,कयामत का यह मंजर बदलना चाहिए और हर हाल में फिजां इंसानियत की होनी चाहिए।
ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने तो लालकृष्ण आडवाणी उप प्रधानमंत्री और डा.मनमोहन सिंह इस महान देश के प्रधानमंत्री बने,जो शरणार्थी हैं।
इसके विपरीत सच यह भयंकर है कि करोड़ों शरणार्थी विभाजन के कारण और देश के भीतर जारी बेइंतहा बेदखली और अबाध विदेशी पूंजी की मनुस्मृति अर्थव्यवस्था और राजनीति के कारण जल जंगल जमीन नागरिकता मातृभाषा नागरिक और मानवाधिकार से वंचित आईलान की जीती जागतीं लाशें हैं।उनकी कोई सुनवाई नहीं।
कोमलगांधार उन्ही लोगों के ताजा रिसते हुए जख्मों का मेलोड्रामा, थियेटर,लोकगीत,शब्दतांडव और प्रतिरोध का समन्वय है।
विभाजन को न समझने,उसके कारणों और परिणामों की समझ ऋत्विक जैसी न होने की वजह से हमारे कामरेड गोमांस उत्सव जैसे सनसनीखेज मीडिया इवेंट की जरिये इस असहिष्णुता और धर्मोन्माद का मुकाबला करने के बहाने दरअसल आस्था और धर्म के नाम बेहद संवेदनशील बहुसंख्य जनगण को फासिस्ट तंत्र मंत्र यंत्र के तिलिस्म में हांकने की भयंकर भूल कर रहे हैं।
हमें यह सच भूलना नहीं चाहिए कि धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हुआ हिंदुत्व के महागठबंधन के जरिये और वही प्रतिक्रियावाद और फासिज्म का राजकाज,राजनीति और राजनय हैं।नरसंहार संस्कृति का विकास है।कयामत का मंजर जो है।
हमें यह सच भूलना नहीं चाहिए कि धर्म का विरोध इस अंधत्व से करके हम किसीभी स्तर पर बहुसंख्यक जनता को इस प्रलयंकर केसरिया सुनामी,गुलामी के खिलाफ गोलबंद नहीं कर सकते।
कोमल गांधार इसलिए भी खास है कि इस फिल्म में कम्युनिस्ट नेतृत्व की आलोचना और इंडियन पीपुल्स थियेटर आंदोलन पर अंध नेतृत्व के वर्चस्व की आलोचना की वजह से न सिर्फ पार्टी,इप्टा बल्कि बंगाल के भद्र समाज से ऋत्विक घटक का चित्रकार सोमनाथ होड़, रवींद्र संगीत गायक देवव्रत जार्ज विश्वास से लेकर सोमनाथ चटर्जी और जेएनयू के प्रसेनजीत समेत युवा नेताओं की तरह निस्कासन हो गया।जिसके बाद वे भी शरणार्थी ही बन गये।
ऋत्विक के संसर का विखंडन उसी बिंदु से शुरु हुआ।उस ऋत्विक घटक का विखंडन और विस्थापन,जिन्हें कामरेड पीसी जोसी तक ने भरत का एकमात्र गणशिल्पी कहकर चूम लिया था।
यह कटु सच है कि बिखरे हुए ऋत्विक को सहारा देने वाले इंदिरा गांधी से लेकर कुमार साहनी,मणि कौल,फिल्म विधा के छात्रों और बाकी देश ने दिया,कामरेडों ने नहीं और न बंगाल ने।कभी नहीं।
यह भी कटु सत्य है कि बंगाल में वाम वर्चस्व,वाम राजकाज की परिधि में अछूत रवींद्र के दलित विमर्श या ऋत्विक घटक की जनप्रतिबद्ध फिल्मों पर,उनके सामाजिक यथार्थ के सौंदर्यबोध पर कोई विचार विमर्श हुआ ही नहीं।इसकी इजाजत भी नहीं थी।
जैसे हम शरणार्थी लावारिश मरने खपने को अभिशप्त हैं,वैसे ही ऋत्विक घटक आपातकाल के दौरान 1976 में मर खप गये।
हमारे पास ऋत्विक के सृजन की विरासत है।
वह खजाना है।
तो हम क्यों नहीं उसे उस जनता का हथियार बनाने की पहल करेंं,जिनके प्रति प्रतिबद्ध था उनके सामाजिक यथार्थ का सौन्दर्यबोध!यह वक्त का तकाजा है क्योंकि देश दुनिया को इंसानियत का मुकम्मल मुल्क बनाना हमारा मकसद है।
सृजनशील अद्वितीय फिल्मकार के राजनीतिक वध के लिए भी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कामरेड जैसे वह इप्टा के विखंडन का भी दोषी है।उनकी ऐतिहासिक भूलें जमींदारियां बहाल रखने की अखंड कवायदें हैं और हमारे नजरिये से वह भी फासीवाद है।
बहरहाल,सृजनशील हुए बिना प्रतिक्रियावाद का रास्ता अपनाकर हमारे कामरेड फिर जनता के बीच जाने और जनता को नेतृत्व में प्रतिनिधित्व देने की जिम्मेदारी से साफ इंकार कर रहे हैं। एकदफा फिर यह ऐतिहासिक भूल जमींदारियां बहाल रखने की अखंड कवायदें हैं और हमारे नजरिये से वह भी फासीवाद है।
इस वक्त फासिज्म के राजकाज के लिए जनादेश की खोज में जो गोरक्षा आंदोलन का अरब वसंत है,उसका मुकाबला प्रतिक्रिया नहीं,सर्जन है।हमें फिर से गण नाट्यांदोनल को इस उन्माद के विरुद्ध मुकाबले में खड़ा करना चाहिए।जो कामरेड नहीं चाहते।
हमें फिर फिर ऋत्विक घटक चाहिए।हम अपढ़ हैं फिरभी इसी मकसद से शुरुआत हम कर रहे हैं।
समर्थ और विशेषज्ञ लोग इस संवाद को विस्तार दें तो हम यकीनन फिर फासिज्म को हरायेंगे।
साहित्य और कला,विज्ञान और इतिहास की जो अभूतपूर्व ऐतिहासिक गोलबंदी हो रही है,उसे अपनी मूर्खता से जाया न करें , इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट नेतृत्व में अंतर्निहित फासीवादी रुझान की भी हमने निर्मम आलोचना की है।
कृपया इसे अन्यथा न लें।क्योंकि फासीवाद का कोई रंग नहीं होता और सिर्फ केसरिया रंग ही फासीवाद नहीं है।
फासीवाद का रंग लाल भी होता रहा है और इसके अनेक सबूत हैं।
नील रंग का फासीवाद तो हम बदलाव के परिदृश्य में बरंबार देख रहे हैं।
हम कुल मिलाकर लोकतंत्र,एकता,अकंडता,विविधता और अमनचैन के हक में इस कयामती मंजर के खिलाफ है और किसी भी रंग का फासीवाद हमें कतई मंजूर नहीं है।
बिरंची बाबा ने गुजरात नरसंहारी संस्कृति के बचाव में फिर सिख संहार का उल्लेख किया है,आप देख लें,हम शुरु से आज की तारीख तक बार बार उसका विरोध करते रहे हैं जैसे हम बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार और विकास और समरसता के नाम नरमेधी आर्थिक सुधारों,समंतवाद,पितृसत्ता और साम्राज्यवाद का विरोध हमेशा हमेशा करते रहेंगे हैं।आखिरी सांस तक करते रहेंगे।
यही हमारे सामाजिक यथार्थवाद का सौंदर्यबोध है,जो न अवसरवादी होता है और न वोट बैंक समीकरण।
हम हर हाल में मनुष्यता,सभ्यता,प्रकृति के पक्ष में हैं।
हम अंधेरे के खिलाफ रोशनी के पक्षधर हैं।
अगले पिछले नरसंहार के बहाने आप नरसंहारी फासीवाद को जायज यकीनन ठहरा नहीं सकते।
तब कुमार साहनी और मणिकौल ने उन्हें,हमारे महान फिल्मकार, इंडियन पीपुल्स थिएटर के निष्कासित,जख्मी,लहूलुहान ऋत्विक घटक को सहारा दिया।
इस वीडियो में हमने वह किस्सा भी खोला है।
भारतीय समांतर सिनेमा की त्रिधारा बंगाल से बह निकली सत्यजीत राय,मृमाल सेन और ऋत्विक घटकके जरिये।
सत्यजीत रे का सौंदर्यबोध और फिल्मांकन विशुद्ध पश्चिमी सौंदर्यबोध है तो मृणाल सेन ने डाकुमेंटेशन स्टाइल में फिल्में बनायी।इन दोनों से अलग ऋत्विक की जडे़ं भरतीय लोक में है।
इसकी अगली कड़ी नई लहर की समांतर फिल्में हैं जो सत्तर दशक की खस पहचान है लघु पत्रिका आंदोलन की तरह।
हम इतने कमजोर भी न होते,अगर इप्टा का बिखराव नहीं होता।
हमारी फिल्मों ने साठ के दशक के मोहभंग को जिया है तो सत्र दशक के विद्रोह और गुस्से को आवाज भी दी है और हमेशा हर स्तर पर लोकतंत्र को मजबूती दी है।क्योंकि उसकी जडें भी भारतीय लोक,ग्राम्य भारत,भारतीय नाट्य कला और इप्टा में हैं।
जिस इप्टा के कारण बलराज साहनी,हंगल,सलिल चौधरी,सोमनाथ होड़,देवव्रत विश्वास और मृणाल सेन से लेकर सृजन के जनप्रतिबद्ध राष्ट्रीय मोर्चे का निर्माण हुआ,उसकी विरासत जानने के लिए ऋत्विक की फिल्में अनिवार्य पाठ है और हमने अनाड़ी प्रयास यह बहस सुरु करने के मकसद से किया।
कृपया इस गुस्ताखी के लिए विद्वतजन माफ करें और अपनी तरफ से पहल भी करें।
ये ऋत्विक ही थे जिनने देहात भारत के रुप रस रंग गंध में रचे बसे लोक में गहरे बैठे ठेठ देशी संवाद के संगीतबद्ध दृश्यमुखर श्वेत श्याम सामाजिक यथार्थ का सौंदर्यबोध का निर्माण किया।
उनकी फिल्में शब्द संयोजन का नया व्याकरण है तो म्युजिकेलिटी में उनकी फिल्मों में फ्रेम दर फ्रेम भयंकर निजी व सामजिक विघटन, विस्थापन, राजनीतिक अराजकता,शरणार्थी अनिश्चय और असुरक्षाबोध, प्रलंयकर धार्मिक विभाजन को खारिज करने वाली मानवीय पीड़ा और प्रचंड सकारात्मक आशाबोध का विस्तार है।इसे बूझने के लिए कि हम सच या झूठ बोल रहे हैं तो फिल्म कोमल गांधार के साथ हमारा वीडियो भी देख लें।
यह फिल्म 1960 में बनी मेघे ढाका तारा के बाद 1961 में बनी तो विभाजन पर ही ऋत्विक ने 1962 में अपनी तीसरी फिल्म सुवर्णरेखा बनायी।
इस कालखंड के ऋत्विक घटक रचनात्मकता के चरमोत्कर्ष पर थे।
उननेकोमल गांधार में अपनी मेलोड्रामा,म्युजिकैलिटी और लोक को निर्मम शब्द विन्यास और मुखर शवेत श्याम दृश्यबिम्बों से फिल्मांकन के जरिये एक महाकाव्य की रचना की है।
बॉलीवुड के 'बादशाह' शाहरुख खान सोमवार को अपना 50वां जन्मदिन मना रहे हैं। इस मौके पर एनडीटीवी की बरखा दत्त से बात करते हुए जन्मदिन, धर्म और रोमांस पर भी बात की।
पेश है शाहरुख के साथ इंटरव्यू की कुछ मुख्य बातें
काश मुझे किसी तरह की कोई चोट नहीं होती, जिनसे मेरी रफ्तार धीमी हुई। लेकिन 50 साल की उम्र में आप बहुत कुछ नहीं बदल सकते।
मैं अपना मजाक बना सकता हूं, कला का नहीं। मैंने जो फिल्में की हैं, मैं उनसे प्यार करता हूं।
मैंने निर्णय किया है कि मैं फिल्में सिर्फ मेरे लिए करुंगा।
फैन बनने से पहले मैं स्टार बन गया। अत: मैं किसी का फैन नहीं रहा, इसलिए फिल्म 'फैन' के निर्माण के दौरान मुझे खूब मेहनत करनी पड़ी।
ऐसे व्यक्ति के लिए जो मेरे बारे में अलग तरीके से सोचता है, उसके सामने खुद की एक्टिंग करना अटपटा सा था।
पश्चिमी देशों में आपकी राय का सम्मान होता है। लेकिन हमारे देश में, मुझे लगता है कि अगर मेरी राय आपके साथ नहीं मिलती है तो यह विवाद को जन्म दे देती है।
मैं जो सोचता हूं अक्सर वो बोल नहीं पाता हूं, क्योंकि मुझे मेरी फिल्मों को लेकर चिंता होती है।
जो भी लोग क्रिएटिव लोगों के खिलाफ खड़े होते हैं उन्हें विशाल प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है।
हमारे मांस खाने की आदतों से हमारे धर्मों का निर्धारण नहीं हो सकता।
मेरे घर में हर कोई अपना-अपना धर्म मानने को आजाद है। मेरे बच्चे असमंजस में रहते हैं कि वे हिन्दू हैं या मुस्लिम। मैं पूछता हूं ईसाई क्यों नहीं।
धार्मिक असहनशीलता और किसी भी तरह की असहनशीलता हमें अंधकार युग की ओर ले जाते हैं।
अगर आप देशभक्त हैं तो आप देश की हर चीज से प्यार करेंगे, ना कि किसी धर्म या क्षेत्र के आधार पर।
अनुपम खेर अपनी राय दे पा रहे हैं और दूसरे डायरेक्टर के बारे में अपनी राय दे पा रहे हैं। यही सहनशीलता है।
मुझे लगता है कि जो लोग अवॉर्ड लौटा रहे हैं वो बहुत हिम्मत वाले लोग हैं। मैं उनके साथ हूं। अगर वे चाहेंगे कि मैं उनके साथ किसी मार्च में आऊं या प्रेस कॉन्फ्रेंस करूं तो मैं तैयार हूं।
व्यक्तिगत तौर पर मेरा अवॉर्ड लौटाना कुछ ज्यादा ही प्रतीकवाद हो जाएगा। विरोध स्वरूप कुछ चीज लौटाने में मेरा विश्वास नहीं है।
मेरा मानना है कि एफटीआईआई के छात्र बिल्कुल सही थे। कुछ शब्द और हरकतें गलत हो सकती हैं। लेकिन जब आप प्रदर्शन कर रहे हों, अनशन कर रहे हों तो आपकी भावनाएं चरम पर होती हैं और कुछ इधर-उधर हो जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि छात्र बिल्कुल सही थे।
मेरे पास एक खास हथियार है और वह यह कि लोग मुझे बहुत प्यार करते हैं। अगर कोई मेरे खिलाफ होता है तो काफी संख्या में मुझे प्यार करने वाले लोग मेरी तरफ आ खड़े होते हैं।
मैं डरता नहीं हूं, लेकिन कई बार स्वार्थी हो जाता हूं। मैं किसी तरह का उपद्रव नहीं चाहता, मुझे इससे डर लगता है। मैं दिन में 18 घंटे काम करता हूं और मैं चाहता हूं कि मुझे अपना काम करने दिया जाए।
यह बेहद अपमानजनक और शर्मनाक है कि मुझे मेरी राष्ट्रभक्ति साबित करनी पड़ी।
मैं भारत में जन्मा फिल्मी सितारा हूं। मैं भारत में जन्मा भारतीय हूं। मैं भारतीय हूं और इस पर कोई सवाल कैसे उठा सकता है।
किसी के पास भी भारत में रहने का अधिकार मुझसे ज्यादा नहीं है और मैं देश छोड़कर कहीं नहीं जाने वाला, इसलिए ऐसी मांग करने वाले मुंह बंद रखें।
बच्चों को विदेश भेजकर पढ़ाने का कारण सिर्फ इतना है कि उन्हें सुरक्षा और मेरे स्टारडम से दिक्कत ना हो।
अगर हम तीन खानों के बारे में बात करके यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि भारत सेक्युलर है तो असल में नहीं है। भारत चमक रहा है यह दिखाने के लिए खानों का चमकना जरूरी नहीं है। अगर हम कला को भी रोकने की कोशिश करेंगे तो और ज्यादा साम्प्रदायिक हो जाएंगे।
50 साल की उम्र में भी मैं डांस कर सकता हूं। किसी महिला में इतना विश्वास जगा सकता हूं कि वो मुझसे प्यार करने लगे। मुझे लगता है यही रोमांस है।
http://khabar.ndtv.com/news/filmy/there-is-intolerance-extreme-intolerance-shahrukh-khan-1239134
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