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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, June 13, 2016

बहुजन चाहेंगे तभी टूटेगी जाति,चाहे ब्राह्मण चाहे या न चाहे! जाति तोड़ने को कहां तैयार हैं बहुजन? गुरुजी, हम आपसे सहमत हैं और भारत में प्रगतिशील आंदोलन का विमर्श भी यही है लेकिन जाति उन्मूलन के लिए बहुजनों को वर्गीय चेतना से लैस करना बाकी है! उन उत्पीड़ितों वंचितों के जीवन यापन के समाज वास्तव की जमीन पर उन्हीं में से एक बने बिना हम उन्हें जाति तोड़ने के लिए प्रबुद्ध कैसे करे, चुनौती य

बहुजन चाहेंगे तभी टूटेगी जाति,चाहे ब्राह्मण चाहे या न चाहे!

जाति तोड़ने को कहां तैयार हैं बहुजन?

गुरुजी, हम आपसे सहमत हैं और भारत में प्रगतिशील आंदोलन का विमर्श भी यही है लेकिन जाति उन्मूलन के लिए बहुजनों को वर्गीय चेतना से लैस करना बाकी है!

उन उत्पीड़ितों वंचितों के जीवन यापन के समाज वास्तव की जमीन पर उन्हीं में से एक बने बिना हम उन्हें जाति तोड़ने के लिए प्रबुद्ध कैसे करे, चुनौती यही है।क्योंकि जाति उन्हीं लोगों ने बनाये रखी है।

मैं जन्मजात भारतीय  नागरिक हूं।

भारतीय नागरिकता की हैसियत से जिदगी मैंने जी है और मरुंगा भी भारतीय नगरिक या उससे भी ज्यादा जमीन पर कदम जमाये  एक अदद आम आदमी की तरह।

मेरी कोई जाति नहीं है और न मेरा कोई धर्म है।

हर भाषा और हर बोली मेरी मातृभाषा है।

मेरा धर्म या धर्मांतरण में कोई आस्था नहीं है और पितृसत्ता के मैं विरुद्ध हूं।

पलाश विश्वास

हस्तक्षेप की मरम्मत जारी है और हमारे पास इतने पैसे नहीं है कि फौरन बड़ी रकम का निवेश करके बेहतर सर्वर लगा लें।अमलेंदु ने फतवा जारी किया है कि हस्तक्षेप में लगने से पहले हम कोई कांटेंट किसी फोरम में शेयर न करें क्योंकि मेरा लिखा सबसे ज्यादा स्पैम मार्क होता है।इसके बावजूद चूंकि हस्तक्षेप में फिलहाल यह सामग्री लग नहीं सकती,तो यह आलेख अन्यत्र भी साझा कर रहा हूं।


हमारे आदरणीय गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी पल दर पल सजग सक्रिय हैं और आज भी वे हमारे प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं।वे नहीं होते तो हम हम हर्गिज नहीं होते।


जाति उन्मूलन की परिकल्पना उनकी बेहद स्पष्ट है जैसा कि उनका ताजा फेसबुक स्टेटस है।


हल है जाति के स्थान पर वर्ग की प्रतिस्थापना. और देश के शीर्ष पद पर मार्क्सवादी गांधी का चयन। वैचारिक धरातल पर मार्क्सवादी और आचरण में गांधी। ऐसे लोग दुर्लभ भले ही हों अलभ्य नहीं हैं । पन्त जी यह ऊंटोपिया

भले ही लगे आचरण के रेगिस्तान से निकलने का कोई और विकल्प नहीँ है।



गुरुजी,हम शत फीसद सहमत हैे।


गुरुजी,हम आपके हजारों कामयाब और सितारा शिष्यों के मुकाबले एकदम सिरे से नाकामयाब नाकारा और नाचीज शिष्य हैं।फिरभी हमने आपका कोई पाठ मिस नहीं किया है और आपके हर पाठ को आजमाने की भरसक कोशिश की है,सामाजिक यथार्थ के मुकाबले।आज भी हम आपकी फेसबुकिया कक्षा में रोज हाजिर रहते हैं कि आपसे ही दिशाबोध की प्रतीक्षा रहती है।


जाति उन्मूलन की बात तो बाबासाहेब कह गये लेकिन उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वे महात्मा गौतम बुद्ध की तरह कोई पंथ नहीं छोड़ गये और बौद्ध धर्म भी महात्मा गौतम बुद्ध का धम्म नहीं है।


हाल में संस्थागत हत्या के शिकार रोहित वेमुला ने इस दिशा में बड़ा काम किया है और जाति उन्मूलन की उनकी अपनी परिकल्पना रही है जिसके मुताबिक एकतरफा उद्यम से जाति नहीं टूटने वाली है।


धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त के मुक्तबाजारी तिलिस्म क मजबूत कर रही है तो फासिज्म के राजकाज और फासिस्ट अश्वमेधी नरसंहार राजसूय के प्रतिरोध में देश दुनिया जोड़ना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।


हम जाति उन्मूलन की परिकल्पना तब तक लागू नहीं कर सकते और उत्पीड़ितों और वंचितों को वर्गचेतना से लैस करके अंध राष्ट्रवाद के मुकाबले वर्गीय ध्रूवीकरण का आधार बनाकर समता और न्याय का लक्ष्य तब तक हासिल नहीं कर सकते ,जबतक न हम बहुजन देहाती अपढ़ अधपढ़ जनता को संबोधित करते।


हाथीदांत के मीनार में आबाद पोलित ब्यूरो के मसीहावृंद भी वर्ण वर्चस्व के रंगभेदी दृष्टि के शिकार हैं और बहुजनों को संबोधित करना उनका कार्यभार नहीं है।


अछूत हुए बिना अछूतों को संबोधित करना दी हुई परिश्थितियों में जाति सर्वस्व भारतीय समाज और जातिवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था में तमाम उदात्त विचारधाराओं के बावजूद असंभव है और इन विचारधाराओं के मार्फत उत्पीड़ितों और वंचितों के दिलोदिमाग तक हम पहुंच ही नहीं सकते जबतक कि हम उस नरक का ब्यौरा पेश न करें जिसमें वे पल दर पल जी रहे हैं या मर रहे हैं।


जाति उन्मूलन मिशन का प्रस्थानबिंदू यही होना चाहिए कि सबसे पहले हम बहुजनों को जाति उन्मूलन के लिए तैयार करें जो हजारों जातियों और उपजातियों में बंटकर कुरुक्षेत्र जी रहे हैं और पल दर पल राजनीतिक और आर्थिक मजबूरियों के बंधुआ बने इसी नर्क की दीवारों को वे मजबूत बना रहे हैं।


बहुजन आंदोलन में भी सत्ता वर्ण और वर्ग के अंध विरोध बतौर ध्रूवीकरण की राजनीति और वोटबैंक में तब्दील बहुजन समूहों के केसरियाकरण के रणनीतिक ध्रवीकरण की परस्परविरोधी जटिल परिस्थितियों में यह कार्यभार महज सैद्धांतिक नहीं है बल्कि इसे हकीकत की जमीन पर आजमाना बेहद जरुरी है।


रोहित वेमुला भी जाति उन्मूलन के बाबासाहेब के मिशन को अंजाम देने के लिए  बहुपक्षीय व्यक्तिगत और सामूहिक पहल की परिकल्पना बना गये हैं और इसलिए हम किसी व्यक्ति रोहित की बात नही कर रहे हैं बल्कि बाबासाहेब के जाति उन्मूलन की परिकल्पना को हकीकत की जमीन पर अंजाम देने की बात कर रहे हैं और इसके लिए बहुजनों को इस परिकल्पना का सक्रिय प्रतिबद्ध हिस्सा बनाना जरुरी है।


इसीके मद्देनजर यह समझने वाली बात है कि शिक्षित प्रबुद्ध,उदार,बहुलता और विविधता के पक्षधर,जनपक्षधर प्रगतिशील तत्वों की जाति से उतनी परेशां होने की जरुरत नहीं है क्योंकि पहले से वे कमोबेश वर्गचेतना से लैस हैं और अपनी तरफ से वे पहल भी करते रहे हैं।इसके विपरीत बहुजनों को बदलाव के लिए अभ्यस्त करना जरुरी है क्योंकि वे गुलामी की नर्क में जीने मरने को अभ्यस्त है और आजादी की कोई तमन्ना उनमें अब बची भी नहीं है क्योंकि गुलामी का अहसास भी नहीं है।


हम दरअसल बार बार जमीन पर खड़े उन्हीं अमावस्या जीने वाली बहुसंख्य बहुजन आबादी को संबोदित करने की हर जुगत आजमा रहे हैं कि प्रबुद्ध जनो के लिए हमारे लिखे कहे का न कोई मतलब है और न यह उनके वर्गीय वर्ण हित में है और अपने वर्ग और वर्ण हित के मुताबिक उन्हें हमारी दलीलें मंजूर हो ही नहीं सकती और इसीलिए किसी भी माध्यम या विधा में हमारे लिए कोई जगह बची है।हमारी भाषा  भी सत्तावर्ग के व्याकरण और सौन्दर्यशास्त्र,उनकी कला और दक्षता के मुताबिक बराबर नहीं है।


मनुस्मृति बंदोबस्त के तहत जो शत्रुता और अनास्था,घृणा और हिसां का सर्वव्यापी माहौल तिलिस्मी तैयार है,उसके तहत निकट भविष्य में जाति और धर्म को तोड़ने की क्रांति के लिए उत्पीड़ित वंचित बहुजन तैयार होंगे,इसकी न्यूनतम संभावना नहीं है।


हम सीधे तौर पर वर्गचेतना की बात कैसे करें और करें भी तो उसका असर क्या होना है।वे हारेंगे लेकिन वर्ग वर्ण वर्चस्व छोड़ेंगे नहीं।तो बहुजनों से जाति छोड़ने या आरक्षण का रक्षाकवच छोड़कर वामपंथी बनने की उम्मीद करना कितना वास्तव है,यह बार बार साबित हो रहा है और बार बार ऐतिहासिक भूलों की पुनरावृत्ति मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त के हित में हो रही है।


मसलन मुक्तबाजार की संसदीयराजनीति के सिपाहसालार बने कामरेडों ने संपूर्ण निजीकरण और संपूर्ण विनिवेश के खिलाफ कोई नाममात्र प्रतिरोध पिछले पच्चीस सालों में नहीं किया है तो जाति उन्मूलन का एजंडा उनका हो ही नहीं सकता।


यथार्थ यह भी है कि बहुजनों को जति के सामाजिक यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर संबोधित करने का कोई विकल्प रास्ता हमारी नजर में नहीं है क्योंकि मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त में यह विडंबना है कि जिस जाति की वजह से जन्म जन्मांतर के कर्मफल के तहत वे नरक जी रहे हैं,वही जाति उनका रक्षा कवच है।


मसलन इस पर गौर करें कि अगर मैं सरकारी नौकरी में होता और मुझे आरक्षण का लाभ भी मिला होता तो क्या में 36 साल की नौकरी के बावजूद सबसे छोटे पद से ही रिटायर करता।जब सामान्य वर्ग की क्या कहें,आरक्षित वर्गों में भी लिखित परीक्षा पास करने के बावजूद इंटरव्यू और नियुक्तियों में बड़े पदों के लिए अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों को कोई मौका ही नहीं है।


बहुजन पचासी फीसद जनता के लिए आरक्षित पदों पर भी जब नियुक्तियां और प्रोमोशन नहीं हो रहे हैं हैं तो हम आरक्षण खत्म करके जाति उन्मूलन की परिकल्पना और वर्गीय ध्रूवीकरण की परिकल्पना कैसे कर सकते हैं।


इस भोगे हुए यथार्थ के बरअक्श सारी दिशाएं जब बंद हैं और कोई दैवी कवच कुंडल भी नहीं हैं,तब इस युद्धभूमि में रथी महारथी वाणवर्षा के मुकाबले सांस सांस को मोहताज मैं अपने इस कर्मफल की चर्चा भी न करुं और इसकी भी चर्चा न करुं कि सारस्वत वर्चस्व का शिकार मैं हूं तो सच को बताने का तरीका और क्या हो सकता है।


बहुजनों के दिलोदिमाग को स्पर्श किये बिना इस महादेश में किसी भी बदलाव की कोई संभावना नहीं है और इसीलिए संस्थागत फासीवाद का हिंदुत्व का एजंडा इन्ही बहुजनों को वानरसेना में तब्दील करने का है।जबकि उनका असल एजंडा का धर्म कर्म से कोई दूर दूर का नाता नहीं है और उनका वैश्विक राजनीतिक आर्थिक राजनयिक और रणनीतिक गठबंधन मुक्तबाजारी नरसंहार का है।जिक यथार्थ को हमारे पढ़े लिखे कामरेड लगातार उसीतरह नजरअंदाज कर रहे हैं ,जैसे उनने बाबासाहेब को वामपंथी आंदोलन से काटकर रख दिया उनके श्रम सुधारों,पितृसत्ता विरोधी  और जाति उन्मूलन के वर्गीय ध्रूवीकरण के लिए अनिवार्य एजंडा और श्रमिक आंदोलन से उनके लगातार जुड़ाव के बावजूद।


साम्यवादी आंदोलन के जतिवादी नेतृत्व और दृष्टि ने मेहनतकशों और सरवहारा वर्ग के सबसे बड़े मसीहा को नजरअंदाज किया और बहुजनों को संबोधित किया ही नहीं,इसीलिए आज फासिज्म का राजकाज और कारोबार है।जिम्मेदार वामपंथ है।


यह समाज वास्तव है।इसे माने बिना नई शुरुआत नहीं हो सकती और इसके लिए भी अपने जाति धर्म के सत्ता से नत्था अवस्थान छोड़े बिना कोई पहल केसरियाकरण को तेज करेगा और धर्मोन्माद जीतेगा।वही हो रहा है।वामपक्ष का लगातार हाशिये पर चले जाने का रहस्य उनका वामपंथी ब्राह्मणवाद है जो इतिहास की भौतिकवादी व्याखा या द्वंदात्मक विज्ञान कतई नहीं है।


न कामरेड नेतृत्व में किसी भी स्तर पर सभी समूहों और वर्गों को लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व देना चाहते हैं और अब तो वाम नेतृत्व पर बंगाली और मलयाली भाषी सवर्णों का ए


इसे आप बहुजनों को अर्थशास्त्र राजनीति विक्षान कला साहित्य और दर्शन के सौंदर्यबोध से समझा नहीं सकते और लोक लोकभाषा में गहरे पैठकर उनके मुहावरों को आजमाये बिना उनसे संवाद भी असंभव है।


विडंबना यह है कि भाषातत्व और लोक दोनों लिहाज से भारतीय बहुजनों के समझ में आने वाला मुहावरा फिर वही जाति है।


इसलिए अपनी पृष्ठभूमि की बात जब हम आपबीती के तौर पर करते हैं तो यह कोई दलित आत्मकथा नहीं होती बल्कि बहुजनों को उन्हींके मुहावरे में संबोधित करने की कोशिश होती है।


गुरुजी,आपका कोई शिष्य जाति धर्म और भाषा की दीवारों में कैद नही हो सकता और मैं अगर जाति की बात कर रहा हूं तो वह समामाजिक यथार्थ है,जिसे बदलने की वर्गचेतना आपने ही हमें दी है।हम तो बहुजनों को उनके ही मुहावरे में संबोधित करने की कोशिश कर रहे हैं।


कोलकाता में 1991 में किसी समाजावदी गांधीवादी प्रगतिशील मानुष ने अगर प्रभाष जोशी को मेरे सामने न कहा होता कि ये पूर्वी बंगाल के अछूत नमोशूद्र बंगाली शरणार्थी है तो मरा कैरियर यकायक बंद गली में तब्दील न होता क्योंकि मुझे केंद्रित प्रभाष जोशी की योजना कुछ और थी जिसे एक झटके से कोलकाता के धर्मनिपरपेक्ष प्रगतिवादी समाजवाद ने खत्म कर दी और तब तक जाति न जाननेवाला मैं न जाति और न जाति उन्मूलन और न बाबासाहेब के बारे में कभी कुछ जानने समझने की कोशिश करता।


फिर भी बाबसाहेब को उस हादसे के ठीक दस साल बाद हमने पढ़ा अपने अंबेडकरी किसान कम्युनिस्ट तेभागा योद्धा शरणर्थी पिता के निधन के बाद,क्योंकि मुझे पिता के बाद उनके साथियों के जीने मरने की लड़ाई में शामिल होना ही था।


यह हालांकि मेरी जाति चेतना नहीं है,यह आज भी मेरी वर्ग चेतना है और जाति उन्मूलन का एजंडा वर्गचेतना का प्रस्थानबिंद है जाति के रहते वर्गचेतना सिर्फ एक अवधारणा है,हद से हद एक नपुंसक विचारधारा है जो बदलाव नहीं कर सकती।


गुरुजी, हम आपसे सहमत हैं और भारत में प्रगतिशील आंदोलन का विमर्श भी यही है लेकिन जाति उन्मूलन के लिए बहुजनों को वर्गीय चेतना से लैस करना बाकी है

उन उत्पीड़ितों वंचितों के जीवन यापन के समाज वास्तव की जमीन पर उन्हीं में से एक बने बिना हम उन्हें जाति तोड़ने के लिए प्रबुद्ध कैसे करें ,चुनौती यही है।क्योंकि जाति उन्ही लोगों ने बनाये रखी है।


हम इस जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए किसी खास जाति या वर्ग को जिम्मेदार नहीं ठहराते हैं।बल्कि अभियुक्तों में अनेक लोग वर्गीय ध्रूवीकरण की दिशा में सतत प्रयत्नशील हैं जैसे जन्मजात ब्राह्मण हमारे गुरुजी।


हम छात्रावस्था में जाति के दंश के शिकार नहीं रहे हैं और नैनीताल की तराई में बाकी समुदाय के लोग हमें प्रगतिशील सवर्ण ही मानते रहे हैं और हमारे जीवन यापन और आचरण में अस्पृश्यता का संक्रमण नहीं हुआ है।


मैं जन्मजात भारतीय  नागरिक हूं।

भारतीय नागरिकता की हैसियत से जिदगी मैंने जी है और मरुंगा भी भारतीय नगरिक या उससे भी ज्यादा जमीन पर कदम जमाये  एक अदद मनुष्य की तरह।

मेरी कोई जाति नहीं है और न मेरा कोई धर्म है।

हर भाषा और हर बोल मेरी मातृभाषा है।

मेरा धर्म या धर्मांतरण में कोई आस्था नहीं है और पितृसत्ता के मैं विरुद्ध हूं।


वैसे भी हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े जाति विमर्श और जाति उन्मूलन के मुद्दे पर खुलकर लिख रहे हैं  जो संजोग से बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर की एक मात्र पोती के पति हैं और बिना आरक्षण के रिटायरमेंट के एक दशक बाद भी देश और दुनिया में विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ हैं,लेकिन बहुजन आम जनता तक उनकी बातें पहुंचती नहीं हैं।


खालिस वर्ग चेतना के तहत सामाजिक विषम वास्तव के मुकाबले अपढ़ अधपढ़ बहुजनों के साथ कोई संवाद असंभव है।उनकी तुलना में मैं निहायत अपढ़ हूं और वे जिसतरह से चीजों को रखते हैं,वैसी विधि और दक्षता मेरी नहीं है।


उन्हीं तेलतुंबड़े के मुताबिक बंगाल में बाकी देश की तरह अस्पृश्यता कमसकम भारत विभाजन के वक्त नहीं रही है।इसी वजह से बंगाल में आरक्षण लागू करना असंभव था तो सिर्फ बंगाल के लिए बाबासाहेब ने अस्पृश्यता के बजाय जाति के आधार पर भेदबं

बंगाल से बाहर बंगाली शरणार्थी को उड़ीसा,असम और त्रिपुरा के अलावा  अन्यत्र कहीं आरक्षण न मिलने से आजादी के बाद जन्मे बंगाल से बाहर बसे अछूत शरणार्थियों के लिए उनका एकमात्र परिचय भारतीय नागरिकता का रहा है।


आरक्षण न मिलने की सबसे बड़ी वजह भी यही है कि बाकी दलितों की तरह वे अस्पृश्यता के शिकार नहीं हैं और जातिके आदार पर रंगभेदी भेदभाव बंगाल के बाहर आरक्षण का पैमाना नहीं है।


अब जब वे ही लोग खुलकर खुद को दलित कह रहे हैं और बंगाल जैसा आरक्षण मांग रहे हैं तो सामाजिक यथार्थ यही है कि बिना आरक्षण सामान्यवर्ग में उन्हें अबतक जो नौकरियां मिलती रही है,दलित बतौर पहचान लिये जाने के बाद उन्हें वे नौकरियां मिल नहीं  रही है।अब ये लोग आपबीती के तौर पर जाति की बात करेंगे और हम उन्हें वर्ग चेतना समझायेंगे तो उस संवाद का भविष्य समझ लीजिये।


यही भारतीय वामपंथ का सामाजिक राजनीतिक यथार्थ है और कमसकम मेरा इससे कोई संबंध नहीं है।


गौरतलब है कि नैनीताल में हमारी छात्रावस्था और उत्तर भारत में हमारी पत्रकारिता के दौरान इस जाति विमर्श से हम अलग थे और वर्ग चेतना के मुताबिक ही रचनाकर्म या सामाजिक सक्रियता में निष्णात थे।पिता के अंबेडकरी कम्युनिस्ट होने के बावजूद मैेॆंने जाति के बारे में जानकारी न होने के कारण अंबेडकर को पढ़ा भी नहीं और वर्गचेतना की बातें ही करता रहा जो अब मैं नहीं कर सकता और इसका मतलब यह नही कि मैं जाति को बनाये रखने के पक्ष में हूं या मैं जब जाति के सामाजिक यथार्थ की बात कर रहा हूं तो जाति से बाहर निकल नहीं पा रहा हूं।




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