मुद्राराक्षस नहीं रहे। नमन।
रचनाकर्म जैसी असहिष्णुता राजनीति में भी नहीं है।
तनिक विवेचना भी करें कि रचनाकारों के साथ उनकी जिंदगी और मौत में हम कितना मानवीय आचरण करते हैं।
मुद्राराक्षस की मृत्यु के बाद फिर शोक संदेशों की रस्म अदायगी है और हम भूल रहे हैं कि कला साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी ब्रांडिंग अब अनिवार्य है।ब्रांडेड न हुए और बाजार के मुताबिक न हुए तो कहीं से कोई भाव नहीं मिलता है और यहां भी रचनाकर्म अब शेयर बाजार है।शेय़रों की उछाल के लिए बिजनेस फ्रेंडली राजनीति का समर्थन बी जरुरी होता है।मुद्राराक्षसे के ऐसे कोई शेयर बाजार में नहीं थे।
पलाश विश्वास
रचनाकर्म जैसी असहिष्णुता राजनीति में भी नहीं है।राजकाज की असहिष्णुता का विरोध हम करते हैं लेकन माध्यमों और विधाओं में वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों के किलाफ हमारी कोई आवाज होती नहीं है।
मुद्राराक्षस की मृत्यु के बाद फिर शोक संदेशों की रस्म अदायगी है और हम भूल रहे हैं कि कला साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी ब्रांडिंग अब अनिवार्य है।ब्रांडेड न हुए और बाजार के मुताबिक न हुए तो कहीं से कोई भाव नहीं मिलता है और यहां बी रचनाकर्म अब शेयर बाजार है।शेय़रों की उछाल के लिए बिजनेस फ्रेंडली राजनीति का समर्थन बी जरुरी होता है।मुद्राराक्षसे के ऐसे कोई शेयर बाजार में नहीं थे।
पोलिटिकली करेक्टनेस के बिना विशुध रचनाधर्मिता की कोई प्रासंगिकता स्वीकृत नहीं हो सकती।चाहे वह कितनी ही जमीन से जुड़ी हो या कितना ही जनपक्षधर हो।
यह सत्य शैलेश मटियानी जी के हाशिये पर चले जाने के बाद हमें लगातार पीड़ा देती रही है कि उनके रचनाकर्म का सिर्प राजनीतिक मूल्यांकन ही होता रहा और वंचितों उत्पीड़ितों की रोजमर्रे की जिंदगी जो वब सुनामी की जैसी हलचल है,उसका कोई मूल्यही नहीं है।
भारतीय दलित साहित्य में नामदेव धसाल के बारे में भी यही कहा जा सकता है।
हाल के बरसों में बहुजन आंदोलन से नत्थी होने के बाद जैसे मुद्राराक्षस मुख्यधारा में अछूत हो गये,उसके मद्देनजर अब तमाम शोक संदेश मुझे कागज के पूल नजर आ रहे हैं तो आदरणीय मित्रों मित्राणियों,मुझे माफ करना।
अभी कुछ बरस ही हुए,इंडियन एक्सप्रेस समूह से रिटायर होते न होते हमारे फाइनेंसियल एकस्प्रेस के साथी समाचार संपादक पद से रिटायर हुए अप्पन राय चौधरी साळ भर के बीतर चल दिये।कार्यस्तल से एक झटके से अलग हो जाने और दिनचर्या टूट जाने का सदमा प्राण घातक होता है।
मुझे अभी बची खुची जिंदगी में बार बार इस सदमे से लड़ते रहना है क्योंकि पेशेवर जिंदगी से निकलने के बाद मेरा पुनर्वास असंभव है और किसी और अखबार या किसी विश्विद्यालय में स्टेटस के दम से या पहचान की नींव के जरिये घुसना मेरे लिए असंभव है।
मुद्राराक्षस जी आज चल दिये और मेरे बीतर बहुत कुछ टूट रहा है।
साहित्य और कला के क्षेत्र में उपलब्धिया या रचनाकर्म की प्रासंगिकता का मूल्यांकन अस्मिताधर्मी जो है सो है,इसका राजनीतिक पक्ष भी अत्यंत घातक है।
नोबेल पुरस्कार से पहले रवींद्र को बंगाल में कवि तक मानने से इंकार करते रहे प्रबुद्धजन लेकिन बाजार का ठप्पा लग जाने के बाद वे कालजयी हो गये जबकि भयंकर लोकप्रियता के बावजूद काजी नजरुल इस्लाम और शरतचंद्र का मूल्यांकन अभी हुआ ही नहीं है तो सत्ता से नत्थी ताराशंकर बंद्योपाध्याय भारतीय साहित्य के दिग्गज हैं।
हिंदी में प्रेमचंद्र और मुक्तिबोध को आजीवन प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी और मरने के बाद ही आलोचको को समझ में आया कि वे दोनों कालजयी रहे हैं।जीवित रचनाकरारों के राजनीतिक मठीय जातिवादी तानाबाना इतना प्रलयंकर है कि हाशिये पर रचनाधर्म की प्रासंगिकता पर कोई विवेचना की गुंजाइश ही नही होती तो विश्वविद्यालयों में खुल्ला आखेटगाह है और वहां बहेलिया बिरादरीका जाल बिछा हुआ है इसतरह कि परिेंदे अपने पंख जबतक गिरवी पर न रखें कोई उड़ान संभव है ही नहीं।
फणीश्वर रेणु और शैलेश मटियानी और शानी जैसे जमीन से जुडे़ रचनाधर्मियों को आंचलिक कथाकार बताकर खारिज किये जाने के धतकरम पर मैंने कई दफा लिखा भी है।अब यह मौका अत्यत प्रिय मुद्राराक्षस जी के अवसान का है तो अप्रिय वक्तव्य के लिए खेद है।फिरभी तनिक विवेचना भी करें कि रचनाकारों के साथ उनकी जिंदगी और मौत में हम कितना मानवीय आचरण करते हैं।
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