अस्पृश्य रंगभेदी दुस्समय में मुक्तबाजार में अभूतपूर्व हिंसा का महोत्सव!
गनीमत है कि मैंने किसी का कत्ल नहीं किया और न खुदकशी का रास्ता अख्तियार किया और न दंगा या मुठभेड़ में मारा गया!
पत्रकारिया को लगभग वेशयावृत्ति में बदल देने वाले मसीहावृंद के खिलाफ मेरे अस्पृश्य वजूद में कितना भयंकर गुस्सा होगा,यह भी समझ लें।
रचनाधर्मिता,जनप्रतिबद्धता और विरासत,लोक और भाषा के साथ बदलाव के ख्वाब मेरी आत्मरक्षा का रक्षाकवच!
जिनका एजंडा हिंदुत्व है,उनका एजंडा नरसंहारी आर्थिक सुधार और मेहनतकशों के हाथ पांव काटने के श्रम सुधार और अनंत बेदखली का एजंडा कैसे है?
वैकल्पिक मीडिया इसलिए भी जरुरी है क्योंकि अस्पृश्यों,अल्पसंख्यकों,पिछड़ों और आदिवासियों के अलावा मीडिया सेक्टर स्त्रियों के लिए भी बेहद जोखिमभरा है जहां गुलामी के खाते पर दस्तखत अनिवार्य है।चूंकि वैकल्पिक मीडिया में गुलामी की जंजीरें तोड़ी जा सकती है और इसलीलिए वैकल्पिक मीडिया हमारा नया मिशन है।
जिस मिशन के साथ सत्तर के दशक के बदलाव के खवाबों के तहत हमने पत्रकारिता का विकल्प आजीविका बतौर अभिव्यक्ति की अबाध स्वतंत्रता के लिए चुना,उसीके लिए जनसत्ता में उपसंपादक बतौर लगातार 25 साल बिना प्रोन्नति,बिना अवसर के बिताने का धैर्य उसी मिशन की निरंतरता बनाये रखने का एकमात्र विकल्प रहा है।
जिसकी कोई योग्यता नहीं है,जो बाजार का दो टके का दल्ला है,जो भयंकर जातिवादी और निरंकुश मैनेजर हैं,पल दर पल ऐसे लोगों के मातहत अपनी तमाम योग्यता और सामर्थ्य को नजरअंदाज होते हुए देखते हुए,अपने तमाम कार्यों का श्रेय उन्हें देते हुए,उनके हर अक्षम्य अपराध को उनकी महानता मानते हुए,गलती हुई तो हमारी. उपलब्धियां हैं तो उनकी,तजिंदगी संस्करण निकालने की जहमत उठाते हुए उनकी दबंगई की जहालत बर्दाश्त करने की मजबूरी हम पत्रकारों के लिए असह्य नरकयंत्रणा है।हर पत्रकार शाश्वत वही अश्वत्थामा है जो अपने ही रिसते हुए जख्म चाटते हुए पल दर पल महाभारत जीता है और गीता के उपदेश उसके काम नहीं आते।
पलाश विश्वास
गनीमत है कि मैंने किसी का कत्ल नहीं किया और न खुदकशी का रास्ता अख्तियार किया और न दंगा या मुठभेड़ में मारा गया।
1973 से हाईस्कूल परीक्षा में यूपी बोर्ड की मेरिट लिस्ट में स्थन बनाते हए जिलापरिषद के शरणार्थी दलित बच्चों के शरणार्थी इलाका दिनेशपुर के स्कूल से जीआईसी नैनीताल पहुंचते न पहुंचते व्यवस्था का कल पुर्जा बनने के बजाय रचनाधर्मिता के जरिये जनपक्षधरता के मोर्चे से लगातार पत्रकारिता कर रहा हूं।
जनपक्षधरता का यह मोर्चा मेरे पुरखों,इस महादेस के किसानों आदिवासियों की समूची विरासत की जमीनहै मेरे लिए अखंड भारत और इंसानियत का मुल्क बी यही है,जिसे जोड़ने का मिशन ही मेरा धम्म है और इसीलिए मेरा अंत न हत्या और न आत्महत्या का कोई चीखता हुआ सनसनीखेज शीर्षक है।यही बाबासाहेब का मिशन है।
1980 से 16 मई ,2016 तक बिना व्यवधान अखबारों में काम किया है।पच्चीस साल एक्सप्रेस समूह में बिता दिये।सैकड़ों पत्रकारों की नियुक्तियां की हैं और पिछले 36 सालों में सैकड़ों प्रकारों के कैरियर सवांरने का काम भी किया है और उनमें से दर्जनों लोग बेहद कामयाब हैं और यही मेरी उपलब्धि है।वे लोग मुझे याद करें तो उनका आभार और न करें तो धन्यवाद।बाकी मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है।फिर भी अधूरा मिशन पूरा करने का कार्यभार मेरा है और उसे पूरा किये बिना मरुंगा नही।
फिरभी सच यही है कि रिटायर मैंने उपसंपादक पद पर किया और 36 साल की पत्रकारिता के बाद रिटायर होने की स्थिति में मेरा न कोई वर्तमान है और न कोई भविष्य है।मेरा कोई घर नहीं है और न मेरी कोई आजीविका है और पूरी जिंदगी खपाने के बाद गहराते असुरक्षाबोध के अलावा मेरी कोई पूंजी नहीं है।जीरो ग्राउंड पर जीरो बैलेंस के साथ फिर नये सिरे से जिंदगी शुरु करने की चुनौती है।
इस देश में अब भी पत्रकारिता में विभिन्न भाषाओं में लाखों की तादाद में काम कर रहे अस्पृश्य पिछड़े अल्पसंख्यक आदिवासी पत्रकारों की नियति कुल मिलाकर यही है।मैंने हत्या या आत्महत्या का रास्ता नहीं चुना लेकिन उनमे से कोई भी मैनाक सरकार कभी भी कहीं भी बन सकता है। गुलामी से भी बदतर हालात में रोजगार की गारंटी के बिना जो उपेक्षा,अपमान का दंश वे रोज रोज झेलते हैं और बमुश्किल जैसे वे गुजारा करते हैं,वे हत्या या आत्महत्या का विकल्प नहीं चुनते तो समझें,गनीमत है।
जिसकी कोई योग्यता नहीं है,जो बाजार का दो टके का दल्ला है,जो भयंकर जातिवादी और निरंकुश मैनेजर हैं,पल दर पल ऐसे लोगों के मातहत अपनी तमाम योग्यता और सामर्थ्य को नजरअंदाज होते हुए देखते हुए,अपने तमाम कार्यों का श्रेय उन्हें देते हुए,उनके हर अक्षम्य अपराध को उनकी महानता मानते हुए,गलती हुई तो हमारी. उपलब्धियां हैं तो उनकी,तजिंदगी संस्करण निकालने की जहमत उठाते हुए उनकी दबंगई की जहालत बर्दाश्त करने की मजबूरी हम पत्रकारों के लिए असह्य नरकयंत्रणा है।हर पत्रकार शाश्वत वही अश्वत्थामा है जो अपने ही रिसते हुए जख्म चाटते हुए पल दर पल महाभारत जीता है और गीता के उपदेश उसके काम नहीं आते।
सारे अवसर उनके,गलतियों के बावजूद प्रोन्नतियां उनकी,बड़े पदों पर सीधे उनकी नियुक्ति और बिना काम विदेशा यात्रा के स्टेटस के साथ वातानुकूलित वेतनमान और हमारी हैसियत जरखरीद गुलामी की ,फिरभी अखबारों मे हत्या या आत्महत्या नहीं है,तो रचना धर्मिता और जनप्रतिबद्धता और पेशेवर सक्रियता इसके बड़े कारण हैं जिसके अवसर अन्यत्र होते नहीं हैं।
इसलिए आज भी पत्रकारिता दूसरे पेशे से बेहतर है क्योंकि गनीमत है कि हम हत्या या आत्महत्या का विकल्प जिंदगीभर की नरकयंत्रणा के बावजूद अपनाने के सिवाय सिर्फ जनप्रतिबद्ध या रचना धर्मी बनकर टाल सकते हैं।यही पत्रकारिता है,इस सच को जाने बिना नये लोग पेशेवर पत्रकारिता न अपनाये तो बेहतर है।
वैकल्पिक मीडिया इसलिए भी जरुरी है क्योंकि अस्पृश्यों,अल्पसंख्यकों,पिछड़ों और आदिवासियों के अलावा मीडिया सेक्टर स्त्रियों के लिए भी बेहद जोखिमभरा है जहां गुलामी के खाते पर दस्तखत अनिवार्य है।चूंकि वैकल्पिक मीडिया में गुलामी की जंजीरें तोड़ी जा सकती है और इसलीलिए वैकल्पिक मीडिया हमारा नया मिशन है।
जिस मिशन के साथ सत्तर के दशक के बदलाव के खवाबों के तहत हमने पत्रकारिता का विकल्प आजीविका बतौर अभिव्यक्ति की अबाध स्वतंत्रता के लिए चुना,उसीके लिए जनसत्ता में उपसंपादक बतौर लगातार 25 साल बिना प्रोन्नति,बिना अवसर के बिताने का धैर्य उसी मिशन की निरंतरता बनाये रखने का एकमात्र विकल्प रहा है।
मैंने विश्वविद्यालय से निकलने के बाद किसी दूसरे काम के लिए सोचा तक नहीं।आज भले ही विश्वविद्यालय का विकल्प सोच रहा हूं।
पेशेवर पत्रकारिता के इस विकल्प को चुनने के लिए हमने सारे विकल्प छोड़ दिये तो जिस दिन मैंने जनसत्ता ज्वाइन किया,उसी दिन से इस मिशन के ही मुक्तबाजार में तब्दील होते देखते हुए मेरे दिलोदिमाग से लगातार रिसते हुए लहू का कुछ अंदाज लगाइये तो अवसर से वंचित होने की नियतिबद्ध अस्पृश्यता,असमता,अन्याय और रंगभेद के विरुध मेरे भीतर उबले रहे गुस्से की सुनामी का अंदाजा आप लगा सकते हैं।
पत्रकारिया को लगभग वेशयावृत्ति में बदल देने वाले मसीहावृंद के खिलाफ मेरे अस्पृस्य वजूद में कितना भयंकर गुस्सा होगा,यह भी समझ लें।
हर रोज जनसत्ता जैसे अखबार की,हिंदी अखबार के सबसे बड़े ब्रांड की जिस जघन्य सुनियोजित तरीके से हत्या होती रही तो पिछले पच्चीस साल में रोज रोज कितना गुस्सा हमने भीतर ही भीतर आत्मसात किया होगा,इसका अंदाजा लगाइये।
मसीहा बने हुए लोगों के अस्पृश्यता और रंगभेद के आचरण के खिलाफ मैं कितनी दफा उबल रहा हुंगा,इसका भी अंदाजा लगा लीजिये।
मेरी सीनियरिटी को खत्म करके मेरे मत्थ पर दूसरों को बैठाकर मुझे लगातार बिना मौका खारिज करते रहने और एक बार भी मुझे किसी तरह का मौका न देने की अस्पृशयता के खिलाफ मुझमें कितना बड़ा जव्लामुखी भीतर ही भीतर सुलग रहा होगा,समझ लीजिये और समझ लीजिये कि अभी आपने न आग का जलवा देखा है और जंगल में खिलते फूलों की बंगावत देखी है और केसरिया सुनामी देखने वाले लोगों को बदलाव की सुनामी का कोई अंदाजा है।
मेरे ही साथी शैलेंद्र को मेरी ही सिफारिश पर साल बर एक्सटेंशन देने वाले लोगों ने एक झटके से दूध में से मक्खी की तरह जैसे मुझे निकाल बाहर फेंक दिया तो समझ लीजिये की अस्पृश्यता के इस महातिलिस्म में कोई रोहित वेमुला आखिर क्यों आत्महत्या करता है और क्यों खड़गपुर आईआईटी से निकलकर दुनिया जीत लेने वाला कोई एकलव्य महाबलि अमेरिका के सीने पर चढ़पर किसी द्रोणाचार्य के सीने पर गोलियों की बौछार कर देता है।
अमेरिकी विश्वविद्यालय में बुधवार को अपने प्रोफेसर को गोली मारने के बाद खुदकुशी करने वाले छात्र की पहचान भारतीय मैनाक सरकार के तौर पर हुई है। आईआईटी खड़गपुर का छात्र मैनाक सरकार प्रोफेसर विलियम क्लग द्वारा उसके कंप्यूटर कोड को चुराने और अहम जानकारी दूसरे छात्र को देने से नाराज था। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया लास एंजिलिस में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र मैनाक का सुसाइड नोट प्रोफेसर क्लग के कमरे से बरामद हुआ। 39 वर्षीय क्लग इस यूनिवर्सिटी में मैकेनिकल और एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे।
मैनाक सरकार कोई अपवाद नही है ऐसा स्थगित धमाका सीने में दबाये दांतों से दांत दबाये दुनियाभर में रंगभेदी वर्चस्ववादी पितृसत्ता के कदमों तले रोज लहूलुहान हैं करोड़ों ठात्र छात्राएं और युवा।इनमें से अनेक चेहरे भारत के विश्वविद्यालयों,मेडिकल इंजीनियंरिग कालेजों और कार्यस्थलों पर हत्या या आत्महत्या की चीखती सुर्खियों में हमें रोज रोज नजर आते हैं लेकिन मुक्तबाजार के उपभोक्ताओं के दिलोदिमाग पर उसका कोई असर होताइच नहीं है।
अवसरहीनता और अवसर डकैती के इस रंगभेदी मुक्तबाजार में असम और अन्याय की निरंकुश वैश्विक सत्ता के मातहत हत्या और आत्महत्या का यह सिलसिला तब तक रुकने वाला नहीं है जबतक न हम इस पृथ्वी को गौतम बुद्ध के धम्म ,बाबासाहेब के जाति उन्मूलन एजंडा औक शहीदे आजम भगत सिंह के आजादी जुनून के रास्ते सिरे से बदल नहीं देते और मार्टिन लुथर किंग के सपने को जमीन पर अंजाम नहीं देते।
किसी बाराक ओबामा या किसी दलित या शूद्र के सत्ता शिकर तक पहुंचने से ही दुनिया नहीं बदलती,सामज को नये सिरे से व्यवस्थित करके अमन चैन की फिजां मुकम्मल बनाये बिना हम लगातार कुरुक्षेत्र में मारे जाने को नियतिबद्ध हैं।जीते रहेंगे तो फिर वही अशवत्थाम बनकर पल पल महाभारत जीने को अभिशप्त।
पूरे 36 साल अखबारों के दफ्तरों में जिंदगी खपा दी है।धनबाद में चार साल रिपोर्टिंग से लेकर डेस्क के कामकाज में चौबीसों घंटे खपकर अकादमिक खिड़कियां हमेशा के लिए बंद कर लीं तो उत्तर प्रदेश में दैनिक जागरण और दैनिक अमर उजाला में शाम ढलते न ढलते भोर होने तक डेस्क संभालने और उसके बाद सारा समय किसी न किसी रुप में निरंतर सक्रियता का सिलसिला घनघोर रहा।
1991 में जनसत्ता में आने के बाद दफ्तर का काम समयबद्ध और प्रणालीबद्ध हुआ तो दफ्तर के बाहर सारी सक्रियता राष्ट्रव्यापी हो गयी।यही मेरी संजीवनी है।ऊर्जा है।इसीके लिए मैं इंडियन एक्सप्रेस समूह का आभारी हूं।इसीलिए मैंन इस समूह में लगातार पच्चीस साल बीता दिये और आगे मौका मिलता तो शायद पच्चीस साल और बिता भी देता।एक्सप्रेस समूह से मुझे कोई शिकायत नहीं है क्योंकि यह तंत्र तो अस्पृश्यता का है जो सामाजिक क्रांति के बिना बदलेगा नहीं बल्कि मीडिया के केसरिया कायाकल्प से जो गैस चैंबर में तब्दील होने वाला है।
अब रिटायर करने के बाद घर बैठकर काम कर रहा हूं तो सविताजी को लगता है कि मैं अपने सामर्थ्य से ज्यादा काम कर रहा हूं जबकि मेरी दिनचर्या तनिक बदली नहीं है।हुआ यह कि 1983 से जबसे वे लगातार मेरे साथ हैं,घर से बाहर मेरे कामकाज की निरंतरता का अंदाजा उन्हें नहीं है और वे ठीक ठीक नहीं जानती रही है कि पत्रकारिता में मैंने कितनी ऊर्जा और कितना समय खपाया है।
वही ऊर्जा और वही समय मैं अपने पीसी के साथ लगातार रचनाधर्मिता और जनप्रतिबद्धता,बदलाव के ख्वाबों में खपा रहा हूं तो सविता को मेरी सेहत की चिंता सताने लगी है जबकि इस बीच मैं नागपुर हो आया हूं और कुल मिलाकर हफ्तेभर भी घर नहीं बैठा हूं।
अस्पृश्य रंगभेदी दुस्समय में मुक्तबाजार में अभूतपूर्व हिंसा का महोत्सव है यह।
अमन चैन का कोई रास्ता सत्ता के गलियारे से होकर नहीं निकलता और न यह कानून व्यवस्था का कोई मामला है।
फिजां में इतनी नफरत पैदा कर दी गयी हैं कि कायनात भी बदलने लगी है जौसा मौसम बदल रहा है और ग्लेशियर भी इस दहकती पृथ्वी की आंच से पिघलने लगे हैं तो समुंदर तक उबलने लगे हैं और आसमान टूटकर कहर बरपाने को तैयार है।
किसी किस्म का सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार की हिंसा की यह स्वयंक्रिय सुनामी रुकने नहीं जा रही है बल्कि इसकी प्रतिकिया और प्रलंयकर होने वाली है।
निरंकुश सत्ता ,धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद, सैन्य राष्ट्र और वैश्विक मुक्त बाजार में उत्पादन प्रणाली सिरे से लापता है और समाज एकदम बदल गया है।
संयम और अनुशासन है नहीं और न आम जनता की आस्था के मुताबिक धर्म कहीं है तो नैतिकता और मूल्यबोध भी नहीं है।
प्रगति का अस्पृश्यवाद मनुस्मृति की अस्पृश्यता से ज्यादा नरसंहारी है और इसका प्रभाव विश्वव्यापी है और हिंसा का रसायन शास्त्र इसीलिए स्थानीय कोई समस्या है ही नहीं कि राष्ट्र और सत्ता अपनी सैन्य शक्ति से उसपर किसी तरह का अंकुश लगा लें।
बल्कि अब हालात यह है कि जितनी प्रहार क्षमता की सैन्यशक्ति किसी राष्ट्र के पास है,जितनी आंतरिक सुरक्षा का उसका चाकचौबंद इंतजाम है,उसके मुकाबले व्यक्ति और संगठनों के पास उससे कहीं ज्यादा प्रहार क्षमता है क्योंकि राष्ट्र व्यवस्था में जिस तकनीक और विज्ञान के पंख लगे हैं,वे तमाम उपकरण अब मुक्त बाजार में समुचित क्रयशक्ति के बदले सहज ही उपलब्ध है।
विडंबना यह है कि अब हर राष्ट्र सैन्य राष्ट्र है और विकास अंततः सैन्य प्रहार क्षमता की अंधी पागल दौड़ है और वहीं सैन्य राष्ट्र मुक्त बाजारे के तंत्र मंत्र यंत्र को सर्वशक्तिमान बनाने के लिए अंध राष्ट्रवादा का उपयोग करके यह हिंसा का महोत्सव रच रहा है।
राष्ट्र की बागडोर की आत्मघाती प्रतिस्पर्द्धा तक सीमाबद्ध हो गयी है विचारधाराएं और राजनीति अब बेलगाम हिंसा का पर्याय है और मुक्त बाजार बसाने के लिए उत्पादन प्रणाली के साथ सात परिवार और समाज का अनिवार्य विघटन है तो किसी भी स्तर पर हत्या और आत्महत्या पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था नहीं है।
गनीमत है कि मैंने किसी का कत्ल नहीं किया और न खुदकशी का रास्ता अख्तियार किया और न दंगा या मुठभेड़ में मारा गया।
रचनाधर्मिता,जनप्रतिबद्धता और विरासत,लोक और भाषा के साथ बदलाव के ख्वाब मेरी आत्मरक्षा का रक्षाकवच।
जिनका एजंडा हिंदुत्व है,उनका एजंडा नरसंहारी आर्थिक सुधार और मेहनतकशों के हाथ पांव काटने के श्रम सुधार और अनंत बेदखली का एजंडा कैसे है?
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