Shesh Nath Vernwal
करीब 8 महीने पहले मेरी माँ से मेरा बहस हुआ था। मैंने तर्क में कह दिया था कि दहेज़ मांगने में व्यक्ति को शर्म आना चाहिए। मेरा आशय मेरी माँ से ही था।
दूसरी बात यह भी हुई थी कि मैंने उनसे कहा था कि अगर बकरा और मुर्गा खाना गलत नहीं है, तो गाय खाना क्यों गलत है। मैं यह जानता था कि गाय खाने की बात करना एक हिन्दू के लिए घृणित और अक्षम्य समझी जाती है। फिर भी कहा था।
मेरी माँ से बातचीत बंद थी। इस दौरान मेरे रांची स्थित आवास (किराया का कमरा) में वह 8 महीने तक नहीं आई। पर आज मेरा सर्टिफिकेट पहुँचाने के बहाने आई। उसकी शर्त थी कि वह रेलवे स्टेशन से ही लौट जाएगी। पर मेरी लाईफ पार्टनर ने उसे किसी तरह अपने कमरे ले आई। मैं माँ से मिल न सका, क्योंकि मेरी भी ट्रेन थी और मुझे रांची स्टेशन से ही कोलकाता जाना था। मेरी ट्रेन मेरी माँ की ट्रेन के पहुँचने के 10 मिनट पहले ही था।
बहुत याद आ रही है मेरी माँ.. ऑंखें नम होने की हद तक। और खुद पर बहुत शर्म भी आ रही है। सोच रहा हूँ कैसी संतान हूँ मैं जो अपनी माँ को शर्म आने की बात कह दी।
मेरे पिताजी भी हमारे आवास पर नहीं आते थे। कहते थे कि जबतक हम अपना कमरा नहीं बदल लेते, वो नहीं आएंगे, ऐसा ही गौरी (मेरी लाईफ पार्टनर) को उन्होंने कहा था। दरअसल हमलोग एक मुसलमान परिवार के घर किरायेदार थे।
सोचता हूँ, क्या मेरी माँ और पिताजी सोच से संकीर्ण और पिछड़ेे हैं या उस भारत के बहुसंख्यक निवासियों की सोच के प्रतिनिधि हैं, जिनके ऐसे ही विचार जाति, धर्म, दहेज़ आदि को लेकर है और जिनमें हम-आप सब शामिल हैं।
वैसे मेरी माँ, मेरे पिताजी से अधिक खुले विचारों एवं दूसरों की आज़ादी का ख्याल रखने वाली है। तभी तो उसने मेरा बिना दहेज़ और अंतरजातीय विवाह को स्वीकार किया था। वैसे उसे मेरी लाईफ पार्टनर का गोरी रंगत नहीं होने का दुःख था, क्योंकि गौरी रंग में सांवली थी। पर कहती थी, गोरी रंगत नहीं है तो क्या हुआ गुण में तो अच्छी है।
यह सब लिख रहा हूँ कि शायद आप भी इन सब बातों से दो-चार होते होंगे, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में। और शायद सोच पाएंगे कि आप अकेले नहीं हैं, बहुत सारे लोग हैं। जो एक नई दुनिया बनाना चाहते हैं या ऐसा दावा करते हैं, जिसमें जाति, धर्म, लिंग आदि को लेकर कोई भेदभाव नहीं हो। आर्थिक भेद नहीं हो। भले ही यह सोच उनके दिमाग और चर्चा तक ही सीमित रह जाता है या बहुत थोड़ा जमीन पर लग पाता है।
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