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Memories of Another day

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Friday, December 21, 2012

खुदरा में अंदेशे क्यों हैं

खुदरा में अंदेशे क्यों हैं


Thursday, 20 December 2012 10:33

अशोक गुप्ता 
जनसत्ता 20 दिसंबर, 2012: एक जिंदादिल इंसान की कहानी आप सब से कहने का मन कर रहा है। वह इंसान अमेरिकी है। खासा मशहूर और पैसे वाला। अपनी धुन का पक्काभी। वर्ष 2000 से 2009 तक लगातार उसने अपने मिशन से जुड़े रह कर अमेरिकी व्यवस्था से सम्मान और पुरस्कार पाए हैं। वर्ष 2000 में उसे 'फॉरचून' पत्रिका ने अमेरिका के तीस सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में गिना था। वह सौ फीसद व्यवसायी है, खूब पढ़ा-लिखा और आधुनिक समझ से लैस; और अमेरिका के अनेक सीइओ यानी बड़े व्यवसायी घरानों के सिरमौर उसकी शागिर्दगी में रहते हैं। 
बात अमेरिका के लघु व्यवसाय विशेषज्ञ जिम ब्लेसिंगेम की है। यूनिवर्सिटी आॅफ नॉर्थ अलबामा से प्रशिक्षित जिम, मूलत: लघु व्यवसाय से जुड़े हुए हैं और लेखक, पत्रकार और प्रबुद्ध वक्ता के तौर पर भी उनकी पहचान है। जिम ब्लेसिंगेम ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की राह से अपने अभियान को विस्तार दिया है। 1997 में जिम ने 'स्मॉल बिजनेस नेटवर्क' नाम से एक मीडिया कंपनी शुरू की और व्यवसाय की दुनिया में छा गए। जिम का अभियान स्पष्ट रूप से लघु उद्योगों और व्यवसायों की लाभकारी क्षमता को सामने लाना था और इस दिशा में उन्होंने अपने कहे को बार-बार सिद्ध कर दिखाया। इस कारण उनके अनुयायी बढ़ते चले गए। 
दो ही वर्ष बाद उन्होंने एक और चैनल स्थापित किया। उनका 'स्मॉल बिजनेस एडवोकेट शो' तो चल ही रहा था, उन्होंने इसी नाम से अपना समाचार पत्र भी शुरू कर दिया। इस विषय से जुड़ी जिम की पुस्तकें भी प्रकाशित हुर्इं, जिन्हें अमेरिका में 'बेस्ट सेलर' की श्रेणी में न सिर्फ इसलिए रखा गया कि इनमें विषय की गहरी जानकारी प्रस्तुत की गई थी, बल्कि इसलिए भी कि ये किताबें लघु व्यवसायियों के लिए बहुत सफल गाइड सिद्ध हो रही थीं। 
यहां उद््देश्य जिम ब्लेसिंगेम का प्रशस्ति-पुराण खोलना नहीं है, बल्कि यह बताना है कि अमेरिका जैसा देश, जो दुनिया भर में वालमार्ट जैसे बड़े व्यवसायी भेजने में लगा हुआ है, वहां इस बात की जबर्दस्त लहर है कि व्यवसाय जगत का आमूल हित लघु व्यवसायियों के ही साधे सधने वाला है। लघु व्यवसायों के पक्ष में वहां आंदोलन चल रहे हैं जिनमें जिम ब्लेसिंगेम जैसे अनुभवी और प्रबुद्ध लोगों की सक्रिय भागीदारी है।  
ब्लेसिंगेम का लघु व्यवसाय का पहला नियम कहता है, 'लघु व्यवसाय शुरू करना सरल है लेकिन उसे अकेले दम पर निभा पाना कठिन है।' जिम के गहन अध्ययन ने जो आंकड़े पेश किए हैं वे बताते हैं कि समूचे निजी क्षेत्र में जितने कर्मचारी हैं, उनमें आधे से ज्यादा लघु व्यवसायियों के साथ हैं और निजी क्षेत्र द्वारा कमाए गए कुल वित्तीय लाभ में लघु व्यवसायों की साझेदारी, बड़े व्यवसायों के मुकाबले कहीं अधिक आकर्षक है। इसलिए अमेरिका में लघु व्यवयायों की तरफदारी बढ़ती जा रही है। 
मार्च 2012 में यूनाइटेड नेशन्स इंटरनेशनल की ग्लोबल यूनियन ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें उसने भारत को ध्यान में रख कर वालमार्ट के खुदरा व्यापार व्यवहार का कच्चा चिट्ठा सामने रखते हुए अपने कुछ अभिमत सामने रखे थे। जैसे, वालमार्ट का भारत में आना छोटे कारोबारियों को विस्थापित करेगा और भारतीय भयंकर संकट में फंस जाएंगे। 
रिपोर्ट बताती है कि कामगारों के हितों और अधिकारों के हनन के संबंध में वालमार्ट का रिकार्ड बहुत खराब रहा है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2007 में अमेरिकी स्टोरों के संबंध में यह पाया गया कि वालमार्ट प्रबंधन ने कामगारों की यूनियन के विरोध में इतना भयपूर्ण वातावरण बनाया कि उन्हें लगने लगा कि अगर उन्होंने अपने हित का कोई भी मुद््दा उठाया तो उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। 
इसी तरह रिपोर्ट में, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक शोध के जरिए यह तथ्य भी सामने आया कि अमेरिका में वालमार्ट के कर्मचारियों का वेतन, अन्य खुदरा कर्मचारियों के वेतन के मुकाबले बारह से चौदह फीसद कम निर्धारित किया गया है। संभवत: इसीलिए वालमार्ट को अपने कर्मचारियों को डरा कर रखने की जरूरत पड़ती है। रिपोर्ट में एक दूसरा शोध-अध्ययन यह बताता है कि वॉलमार्ट प्रबंधन की नीति एक कर्मचारी से डेढ़ गुना काम लेने की है, जिससे अमेरिका में बेरोजगारी की स्थिति सघन हो रही है।  
दक्षिणी अफ्रीका में वालमार्ट ने 'मासमार्ट' का अधिग्रहण किया और लागत घटाने की  कवायद में व्यवसाय की बीच की कड़ियों को पूरी तरह हटा दिया, जिससे वहां छोटे व्यापारियों के लिए संकट खड़ा हो गया।   
रिपोर्ट ने वॉलमार्ट की एक और शातिराना नीति का खुलासा किया है। रिपोर्ट बताती है कि वालमार्ट किसानों और अपने संसाधकों से कम से कमतर मूल्य पर खरीद में विश्वास करती है और इसके लिए उसके पास बहुत-से निर्मम तरीके हैं। मैक्सिको में कपड़ा व्यवसायियों का कहना है कि वालमार्ट अपने लाभांश को संजोती रहती है, भले ही इससे उसे माल देने वाले कितने ही लाचार और विपन्न होते चले जाएं। खरीद की कीमत, मात्रा, सामान की गुणवत्ता और जल्दी से जल्दी आपूर्ति, इन सब पर वालमार्ट अपनी शर्तें थोपती है और इसके बदले में उचित मूल्य बिल्कुल नहीं देती।

भारत की स्थिति को ध्यान में रखते हुए रिपोर्ट ने दक्षिण अफ्रीका के उदाहरण को बार-बार सामने रखा है। वालमार्ट वहां 'मासमार्ट' को हटा कर आई। वालमार्ट को इस अधिग्रहण के विरोध का सामना करना पड़ा। इसके दबाव में वालमार्ट को अपने रवैए पर थोड़ी लगाम लगानी पड़ी। 
भारत में वालमार्ट का ऐसा कोई विदेशी प्रतिद्वंद्वी   नहीं होने वाला है। इस कारण यहां वालमार्ट के निरंकुश होने की आशंका हर हाल में बहुत ज्यादा है। इसलिए, यह रिपोर्ट बहुत बेबाक शब्दों में कहती है कि भारत जिस स्थिति में है, उसमें अगर वालमार्ट का चाल-चलन पटरी से उतर गया तो वह भारत के लिए गंभीर खतरा बन जाएगी।
यह रिपोर्ट स्पष्ट रूप से यह भी बताती है कि वालमार्ट का व्यवसाय भारत के किसी भी वर्ग के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं होगा। समृद्ध खुदरा व्यापारी, छोटे किराना वाले, थोक व्यापारी, यहां तक कि उत्पादक भी वालमार्ट के भारत आने से विपन्न हो जाएंगे। यूएनआइ की उक्त रिपोर्ट यहां तक भी कहने में नहीं हिचकती कि कानून तोड़ने के अभ्यास में वालमार्ट का इतिहास दुस्साहस भरा है, और भारत जैसा देश, जहां कानूनी ढांचा पर्याप्त प्रभावी नहीं है, वहां एफडीआइ कतई अनुकूल और हितकर नहीं हो सकता। 
यहां एक और दृष्टांत देना जरूरी है। वर्ष 1974 में प्रख्यात पत्रकार लिंडन ला रौश ने एक अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका शुरू की थी, 'एक्जीक्यूटिव इंटेलिजेंस रिव्यू', जो राजनीतिक विश्लेषणों के लिए महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। उसके नवंबर 2003 में प्रकाशित हुए एक अंक में रिचर्ड फ्रीमैन का लेख छपा था: 'वॉलमार्ट कोलैप्सेस यूएस सिटीज एंड टाउंस' (वालमार्ट अमेरिका के शहरों और कस्बों को बर्बाद कर रहा है)। यह लेख साफ तौर पर अमेरिका में वालमार्ट की वजह से हुए दुखद अनुभवों की दास्तान बताता है। और इसीलिए जिम ब्लेसिंगेम जैसे लोगों को अपना आंदोलन खड़ा करने को विवश होना पड़ता है। 
अब जरा इस लेख के मुख्य ब्योरों पर नज़र डालें। रिचर्ड फ्रीमैन कहते हैं कि पिछले बीस वर्षों में वालमार्ट ने, जब से उसने कदम रखा है, बर्बादी मचा कर रख दी है। इसने स्थानीय बाजार को मिटा कर रख दिया, कर-संचयन के बुनियादी ढांचे को तहस-नहस कर दिया, जिसके कारण कस्बे किसी भुतहे डेरे में बदल कर रह गए। वालमार्ट कामगारों को मामूली तनख्वाहों पर रखती है और विदेशों से लगभग बंधुआ गुलामों जैसी शर्तों पर माल खरीदती है। वालमार्ट न केवल टैक्स चुकाने में छूट हासिल करती है, बल्कि कामगारों के अधिकारों के हनन की भी छूट जबर्दस्ती ले लेती है। 
लोवा राज्य वालमार्ट के हाथों हुई अपनी दुर्दशा की मिसाल है। वह कभी एक तरक्की करता हुआ कृषि-प्रधान राज्य हुआ करता था, साथ ही वह उत्तर-पूर्व का औद्योगिक केंद्र भी था। 1983 में वालमार्ट ने वहां अपना पहला स्टोर खोला और साथ ही उसने लोवा के दूसरे स्थानीय स्टोरों को निगलना शुरू कर दिया। यह सिलसिला अमेरिका में बड़े पैमाने पर देखा जाने लगा। जहां कहीं वालमार्ट ने पैर फैलाया, वहां के पहले से जमे-जमाए स्वरोजगार तबाह हो गए। 
तोलिदो ओहियो का हाल अमेरिका के लेखक नोर्मन बताते हैं। 1924 से 1984 तक, जिन भव्य बहुमंजिला इमारतों में वहां का स्थानीय बाजार गुलजार रहता था, वहां अब उल्लू बोल रहे हैं। वे इमारतें 1984 के बाद से वीरान पड़ी हैं। नोवाता के ओकलाहोमा के पहलू में भी दर्दनाक दास्तान है। वहां चार हज़ार लोगों की आबादी वाले कस्बे में 1982 में वालमार्ट ने अपना एक स्टोर खोला। उसके बाद धीरे-धीरे वहां के स्थानीय व्यापारियों के काम पर ताला लग गया। 
यह एक त्रासद स्थिति थी। तभी अचानक 1994 में वालमार्ट ने वह स्टोर बंद कर दिया और वहां से तीस मील दूर, बाटर्लेस्विले में अपना नया सुपरसेंटर खोल लिया। उजाड़ा हुआ नवाता अपने हाल पर रोता रह गया।       मिसिसिपी और वेरमोंट राज्यों की कहानी भी इससे कम ददर्नाक नहीं है, और यह इस सिलसिले का अंत भी नहीं है। बहुत-से राज्य वालमार्ट की धौंसपट््टी के शिकार भी हैं और वालमार्ट को अपने अर्जित राजस्व में से सबसिडी के रूप में वित्तीय दंड भी भुगत रहे हैं। इस तरह, अमेरिका में वालमार्ट की कहानी का सार यही है कि स्थानीय व्यवसायी उसका निवाला बनने को मजबूर हैं।
नवंबर 2011 में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ट्विटर पर लिखा, 'आज अपने क्षेत्र की छोटी स्थानीय दुकानों से खरीदारी करके लघु व्यवसायियों को सहयोग दीजिए और उन्हें प्रोत्साहित कीजिए।' इंटरनेट, 'स्मॉल बिजनेस सेटरडे' का हवाला देते हुए यह बताता है कि केवल एक जगह नहीं बल्कि कई जगह ओबामा ने लोगों को ऐसा ही संदेश दिया है।
जो तथ्य वालमार्ट के अपने देश अमेरिका में विरोध का आधार बन रहे हैं, वे भारत में कैसे झुठलाए जा सकते हैं?

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