कोई कायदा कानून नहीं तबादलों में
लेखक : चंदन बंगारी :: अंक: 03 || 15 सितंबर से 30 सितंबर 2011:: वर्ष :: 35 :October 1, 2011 पर प्रकाशित
9 सितंबर को जब प्रदेश की सियासत में सत्ता परिवर्तन को लेकर हलचल हो रही थी, ठीक उसी दिन अपर सचिव (स्वतंत्र प्रभार) उच्च शिक्षा आर.के. सुधांशु ने दो प्रवक्ताओं, सूचना विभाग देहरादून से संबद्ध डॉ. राकेश जोशी राजकीय महाविद्यालय डोईवाला व डॉ. गोविंद सेमवाल को राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय डोईवाला से जखोली तबादला कर दिया। अंग्रेजी के प्रवक्ता राकेश जोशी 9 दिसंबर 2010 को जखोली महाविद्यालय से सूचना विभाग में सम्बद्ध किए गए थे। तब भी एक अध्यापक के सूचना विभाग से सम्बद्ध होने पर सवाल खड़े हुए थे। हाईकोर्ट की डबल बेंच ने 8 अगस्त 2011 को डॉ. संतोष मिश्र व डॉ. अनिल श्रीवास्तव की 16 सितंबर 2010 को दायर याचिका पर फैसला सुनाते हुए सरकार को तबादला नीति 2008 का पालन करते हुए सुगम व दुर्गम में संतुलन बनाते हुए प्रवक्ताओं को तबादला करने के निर्देश दिए थे। निर्णय में कहा गया था कि जब भी सरकार तबादला करे तो याचिका दायर करने वाले दोनों प्रवक्ताओं को प्राथमिकता दी जाय। लेकिन हाईकोर्ट के निर्देश व तबादला नीति को दरकिनार करते हुए ये तबादले कर दिए गए। उच्च शिक्षा निदेशक एम.सी. त्रिवेदी को आदेश होने के एक सप्ताह बाद तक इन तबादलों का पता नही है। उनका कहना है कि प्रवक्ताओं की तबादला सूची पर शासन स्तर पर निर्णय नही हो सकता है। हो सकता है कि दोनों तबादले शासन स्तर पर किए गए हों।
प्रदेश के 70 डिग्री कालेजों में से 57 पर्वतीय व 13 मैदानी इलाकों में हैं। कालेजों में 41 प्रतिशत रेगुलर, 41 प्रतिशत संविदा के प्रवक्ता तैनात है। पर्वतीय क्षेत्र की अपेक्षा मैदान में कालेजों की संख्या काफी कम है, मगर यहाँ प्रवक्ता पर्वतीय क्षेत्र के कालेजों से ज्यादा ही है। जबकि नीति के अनुसार दुर्गम में 3 साल व सुगम में 5 साल बाद तबादला करने का नियम है। लेकिन ऐसे कई प्रवक्ता हैं जो नौकरी के बाद से ही मैदानों में कईं सालों से जमे हुए है। इनकी पहुँच के आगे तबादला नीति बौनी पड़ती है। पर्वतीय क्षेत्रों के कालेजों में 55 ऐसे प्रवक्ता हैं, जो तैनाती के बाद से एक ही कालेज में कार्यरत हैं। राजकीय महाविद्यालय स्याल्दे में कार्यरत डॉ. संतोष व द्वाराहाट में कार्यरत डॉ. अनिल श्रीवास्तव तैनाती के 14 साल बीतने के बावजूद एक ही कालेज में कार्यरत हैं। आवेदनों पर सुनवाई न होने से इन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जहाँ से उन्हें राहत मिली। इससे पूर्व जून 2009 में डॉ. जी.सी. पंत व डॉ. हर्षवर्धन मिश्रा का तबादला भी हाईकोर्ट के आदेश के बाद हुआ था।
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