बच्चों का खेल नहीं बाल मजदूरी खत्म करना
लेखक : कैलाश कोरंगा :: अंक: 22 || 01 जुलाई से 14 जुलाई 2010:: वर्ष :: 33 :July 10, 2010 पर प्रकाशित
''छोटू टेबल साफ कर,'' ''साब के लिए चिकन, तंदूरी रोटी, एक बोतल फ्रिज का पानी जल्दी लगा,'' ''पहले तो ठीक काम करता था, आजकल कामचोर हो गया है। भगा दूँगा। रहना है तो दिल लगा कर काम कर।'' ऐसी आवाजें सुनते ही शायद हर छोटू, रामू, कालू और न जाने कितने बाल मजदूर हड़बड़ाते हुए ऐसे काम में जुट जाते हैं जैसे फाँसी की सजा सुनाई जा रही हो। राज्य बनने के बाद की सभी सरकारें बेरोजगारी की महामारी को रोकने में तो नाकाम ही रही हैं। केवल होटल ही नहीं, गाड़ी मैकेनिक, रेडिमेड कपड़े की दुकान, शराब भट्टी, घरों में झाड़ू लगाना, चुनावों में पार्टियों का झण्डा गाङने का काम और बड़े ठेकेदारों के लिये गुलामों की तरह लेबरी करना आज बाल मजदूरों के लिये आम बात हो गई है। जनपद पिथौरागढ़ के 80 प्रतिशत होटल इन्हीं छोटुओं के कर कमलों से फल-फूल रहे हैं। लेकिन उन्हें न तो उचित मेहनताना दिया जाता है और न ही खाने के लिए ठीक से मिल पाता है। होटल में ग्राहकों की आवाजाही जब रात्रि के लगभग 11 बजे बन्द हो जाती है, तब जाकर इन्हें बचे खाने से ही गुजारा करना पड़ता है। इस दौरान जब मै शहर के सभी प्रतिष्ठित होटलों में सर्वेक्षण के लिए पहुँचा तो उनका कहना था कि कभी-कभार खाना न बचा तो ग्राहकों के बचे भोजन के लिए भी हम आपस में लड़ पड़ते है। ग्राहकों के आर्डर संतोषजनक ढंग से पूरे नहीं हुए तो वे भी जाते-जाते गाली कर ही जाते हैं। शुरू में बहुत गुस्सा आता था, पर अब तो आदत सी बन गई है। आवासीय होटलों में तो मालिक और रुकने वाले राहगीर और अधिक गाली व उत्पीड़न कर जाते हैं। कभी-कभार तो मार भी पड़ जाती है। एक फटी रजाई में ही बारहों मास बिताना पड़ता है। बीमारी में छुट्टी माँगनी नहीं हुई, हमेशा की छुट्टी हो सकती है।
हैरानी तब होती है जब बाल शिक्षा, सर्व शिक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाले सरकारी विभाग में भी साबों के टेबल पर चाय, गुटखा, पान पहुँचाने का काम इन्हीं बाल मजदूरों का होता है। यह उदाहरण सरकार की पोल खोलने के लिये पर्याप्त हैं। एक बालक तो मात्र 9 साल का है, जो पिछले दो वर्षो से एक बुबू के होटल की शान बढ़ा रहा है। पगार मात्र दो सौ रुपया! वह पढ़ना चाहता है…..मगर ? एक होटल मालिक को मेरी सक्रियता का पता चला तो तमतमा कर कहने लगे, ''शुक्रिया अदा कीजिए साब हमारा कि हमने इनको नौकरी दी, नहीं तो कहीं चोरी के मामले में पकड़े जाते। आखिर जब किसी को भूख लगती है तो कुछ ना कुछ तो करता ही है ना ?''
लेबर कमिश्नर के पास पाँच से आठ जिले हैं। फिर भी जब वे कभी ऐसे प्रतिष्ठानों में आते हैं तो उनकी अच्छी खातिरदारी कर दी जाती है। यही वजह है कि उत्तराखण्ड के अधिकांश जिलों में पिछले कई वर्षो से बाल श्रमिकों से जुड़ा कोई मामला दर्ज नही किया गया है ।
छोटू और इसी तरह के मजदूर गरीब बच्चों की इस दशा पर बाल श्रम अधिनियम के सारे पन्ने उड़ते नजर आ रहे हैं। होटलों, रेस्तराओं, पूँजीपतियों के घरों में चाकरी करने वाला पाँच से स़त्रह वर्ष का पहाड़ी, नेपाली बाल मजदूर के वास्तविक रंग पर नियति में न सही अपने समाज ने कोई और ही रंग चढा दिया है। सैकड़ों बाल मजदूर कुपोषण के शिकार हैं, जो मैल, खटमलों, मच्छरों, जुओं, पिस्सुओं से संघर्ष करते हुए औसतन चार घण्टे ही सो पाते हैं। और गाड़ियों में बैठे इनका सपना बस ड्राइवर बनने तक ही रह जाता है। रात को ये अपने उस्तादों के साथ झूमते नजर आते हैं।
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