बाघ और आदमी की समरसता की कवायद
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 :December 18, 2011 पर प्रकाशित
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बाघ और आदमी की समरसता की कवायद
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 :December 18, 2011 पर प्रकाशित
प्रवीन कुमार भट्ट
कॉर्बेट पार्क की प्लेटिनम जुबली समारोह में शामिल होने 15 नवम्बर को रामनगर पहुँचे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने पार्क और उसके आसपास के क्षेत्रों में लगातार बढ़ती मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं पर चिंता जताई। उन्होंने इस मौके पर कार्बेट आने वालों के लिए ऑनलाइन बुकिंग सेवा की भी शुरूआत की। पार्क क्षेत्र के धनगढ़ी व कालागढ़ में बनाए गए दो गेटों का उद्घाटन भी मुख्यमंत्री ने किया। यहाँ के वन्य जीवों को देखने के लिए पर्यटक दुनिया भर से पहुँचते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार इन वन्य जीवों, विशेषकर बाघों के पर्यावास और वन्यजीवन को लेकर सरकार गंभीर है ?
1972 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट बनने के बाद कॉर्बेट पार्क में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया। योजना सफल रही और वर्तमान में यहाँ बाघों की संख्या डेढ़ सौ से अधिक हो गई है। यह संख्या केवल पार्क के भीतर ही नहीं बाहरी क्षेत्रों में भी बढ़ी है। बाहर और भीतर मिला कर यह संख्या 260 के लगभग बताई जाती है। उत्तराखंड में बाघ केवल कार्बेट पार्क और इससे लगे वन क्षेत्र में ही पाए जाते हैं। राज्य में बाघों में घनत्व पूरे देश में सबसे अधिक, औसतन 12-13 बाघ प्रति 100 किमी. की तुलना में 20 बाघ प्रति 100 किमी है। लेकिन इसके साथ ही अब संरक्षण से जुड़ी परेशानियां भी बढ़ने लगी हैं।
नेशनल पार्क के भीतर रहने वाले बाघ सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के कारण शिकारियों से सुरक्षित बचे रह सकते हैं। यहाँ मानव-वन्यजीव संघर्ष की संभावना भी कम है। लेकिन जो 100 से अधिक बाघ पार्क की सीमाओं के बाहर रह रहे हैं, उनकी सुरक्षा और पर्यावास को गंभीर खतरा है। यहाँ सुरक्षाकर्मी न होने से तस्करों की गतिविधियाँ भी बढ़ गयी हैं। इस चिन्ता के कारण वन्यजीव प्रेमी प्रोजेक्ट टाइगर के विस्तार की मांग कर रहे हैं। लेकिन यह विस्तार व्यावहारिक और जनपक्षीय होना चाहिए। उत्तराखंड वन व पर्यावरण सलाहकार परिषद के उपाध्यक्ष अनिल बलूनी का कहना है कि केन्द्र सरकार को यह तय करना चाहिए कि उन्हें बाघ बचाने हैं या प्रोजेक्ट टाइगर चलाना है। परिषद ने इस मामले को लेकर केन्द्र सरकार के साथ ही राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण के सदस्य सचिव डा. राजेश गोपाल को भी पत्र लिख कर प्रोजेक्ट टाइगर को इस प्रकार विस्तृत करने की माँग की है, जहाँ आदमी भी बचें और बाघ भी रहें। पार्क के बाहरी क्षेत्रों में जहाँ बाघों की टैरेटरी है, वहाँ स्थानीय समुदाय के अधिकारों को बरकरार रखते हुए उन्हें प्रोजेक्ट से जोड़ा जाना चाहिए।
1,280 वर्ग किमी के कार्बेट टाइगर रिजर्व क्षेत्र से बाहर बाघों का शिकार लगातार हो रहा है। 16 अक्टूबर को टनकपुर के निकट एक बाघिन के शिकार मामले में पानीपत के तोताराम बावरिया गिरोह के छह सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था, जिन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने इस क्षेत्र में पहले भी बाघों का शिकार किया था। वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी के उत्तराखंड प्रमुख राजेन्द्र अग्रवाल का कहना है कि केन्द्र सरकार की 2000 करोड़ रुपये की इस परियोजना को थोड़ा व्यावहारिक बनाने में दिक्कत क्या है ? अकेले रामनगर वन प्रभाग में ही 40-50 बाघ बताए जाते हैं। यह तय कर पाना भी मुश्किल है कि कितने बाघ कार्बेट की सीमा के भीतर और कितने बाहर हैं। क्योंकि बाघ तो किसी तरह की सीमाओं को नहीं मानते हैं।
बाघ व्यवहार और पर्यावास के जानकार लगातार सिमटते वन्यजीव गलियारों की ओर ध्यान दिए जाने की जरूरत पर भी जोर दे रहे हैं है। बीते 40 सालों से लगातार कार्बेट पार्क के मानद वन्यजीव प्रतिपालक कुंवर विजेन्द्र सिंह का कहना है कि प्रोजेक्ट टाइगर का विस्तार कर लैंसडोन वन प्रभाग और राजाजी नेशनल पार्क का कुछ क्षेत्र मिलाकर एक बाघ कारिडोर बनाया जाना चाहिए। उनहें बाघों की बढ़ती संख्या से आने वाले समय में बाघ और मनुष्य का टकराव तेज होने की आशंका भी लगती है। लेकिन उत्तराखंड सरकार का इस ओर ध्यान नहीं है। उसकी गंभीरता इस बात से जाहिर होती है कि आपरेशन लॉर्ड के तहत वन्यजीवों की सुरक्षा में लगे 700 डेलीवेजेज कर्मचारियों को वेतन आठ महीनों बाद मुख्यमंत्री के रामनगर दौरे से दो दिन पहले हंगामे की आशंका से बचने के लिए दिया गया। जबकि केन्द्र सरकार यह पैसा अगस्त में जारी कर चुकी थी। कार्बेट टाइगर रिजर्व के उप निदेशक सी.के. दयाल का कहना है कि एक बड़ी समस्या पार्क के भीतर बसे 400 से अधिक परिवारों की है। उनकी जनसंख्या लगातार बढ़ रही है और उनके द्वारा किए जा रहे निर्माण वन्यजीवन के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। इससे ईको सिस्टम को प्रभावित हो रहा है। बीते साल बाघ और मानव के बीच टकराव की सबसे अधिक घटनाएँ सुन्दरखाल क्षेत्र में ही हुई है। अभी तक इन परिवारों के विस्थापन संभव नहीं हो पाया है। इसका खामियाजा बाघों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ रहा है। बीते साल मृत मिले ज्यादातर बाघों को जहर दिए जाने के संकेत मिल चुके हैं। लेकिन मृत बाघों का बिसरा भेजने में देर किये जाने से जहर देकर बाघों के मारे जाने की पुष्टि नहीं हो पाती।
पूरी दुनिया से सैलानियों के कार्बेट की ओर आकर्षित होने का फायदा यहाँ होटल मालिकों को सबसे अधिक हुआ है। देश भर से व्यवसायी यहाँ आकर होटल, रिजोर्ट बना रहे हैं। लेकिन स्थानीय समुदाय के लिए बाघों की बढ़ती संख्या से परेशानी ही बढ़ी है। यहाँ मनुष्य और मवेशी दोनों ही बाघों का निवाला बन रहे हैं। अप्रैल 2009 से अप्रैल 2011 तक यहाँ बाघ ने मनुष्यों पर 25 से अधिक हमले किए और इस दौरान 11 बाघ मारे गए। अकेले 2010 में छह बाघों की मौत हुई जबकि 2011 के शुरूआती तीन महीनों में बाघ ने दस हमले किए जिसमें 4 लोग मारे गए। इसी दौरान पार्क क्षेत्र में 4 बाघ भी मरे पाए गए। कुँवर विजेन्द्र सिंह कहते हैं कि सरकार को बाघों के पर्यावास, पर्यटन उद्योग और स्थानीय समुदाय की सुरक्षा के लिये एक उच्चस्तरीय कमेटी बनानी चाहिए। 'बाघ बचाओ संघर्ष समिति' का कहना है कि कॉर्बेट के प्लेटिनम जुबली के बहाने दुनिया भर के बाघ विशेषज्ञ यहां मंथन कर जा चुके हैं, लेकिन कोई सकारात्मक पहल सामने नहीं आई है। यहाँ तक कि सरकार ने अब तक टाइगर कन्जर्वेसन फाउंडेशन और स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स का गठन भी नहीं किया है। जानकार कह रहे हैं कि यदि मुख्यमंत्री इस सच्चाई को समझ रहे हैं तो अभी उनके पास घोषणा करने के लिए एक महीने का समय है। उन्हें यहाँ बाघों के सवाल पर कोई सकारात्मक और बड़ी पहल करने के साथ ही केन्द्र के साथ भी इस मामले में बात करनी चाहिए।
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