स्थानान्तरण: फिक्स रेट, बाजुओं में दम…..मौजा ही मौजा
लेखक : प्रभात उप्रेती :: अंक: 12 || 01 फरवरी से 14 फरवरी 2011:: वर्ष :: 34 :February 10, 2011 पर प्रकाशित
हमारी शिक्षा प्रकाश नहीं, अंधेरा बाँटने वाली पद्धति है। इसमें भारतीय मूल्य नहीं, पाश्चात्य जगत का कचरा और पूंजीवाद का साइड इफैक्ट झलकती है। रही-सही कसर युवा अध्यापकों का जीवन नष्ट करने वाली ठेका पद्धति ने पूरी कर दी है।
इसी श्रंखला में सरकारी कॉलेजों में स्थानान्तरण की पद्धति भ्रष्टाचार को पूरे नंगेपन से दर्शाती है। एक ही जगह में सरकारी कर्मचारी के लम्बे समय तक रहने से भ्रष्टाचार उपजने की जो आशंका होती है, उस पर लगाम लगाने की यह नीति शासन को और शासकीय कर्मचारियों को एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा भी देती है। अंग्रेजों ने स्थानान्तरण पॉलिसी को मनोवैज्ञानिक ढंग से बनाया था। भारतीयों ने इसे भ्रष्टाचार का साधन बनाया है। नीति यह है कि तीन साल से अधिक एक कर्मचारी एक जगह नहीं रहेगा। यह नीति ईनाम, दंड या प्रोन्नति देने का तरीका भी बन गयी। उत्तर प्रदेश सरकार ने पहाड़ में इसका 'थ्री पी' के रूप में इस्तेमाल किया। इसका मतलब था पेंशन, प्रमोशन, पेनल्टी। प्रमोशन वालों को बॉर्डर अलाउंस भी मिलता था। पहाड़ को अप्रत्यक्ष रूप से कालापानी घोषित किया गया। राज्य बनने के बाद यह अस्त्र नये रूप में प्रयोग किया गया। रेलवे हैड में बने रहने या दंड देने के लिए दूरस्थ क्षेत्र में भेजने के विकल्प के रूप में यह भ्रष्टाचार का एक साधन बन गया। इसका लाभ 'थ्री एम', यानी मसल्स, मनी, मक्खन, की सुविधा वाले उठाने लगे।
हमारे प्रदेश में एम.एल.ए.,एम.पी., प्रशासक, मंत्री, मुख्यमंत्री पाँच साल तक प्राइमरी स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक स्थानान्तरण के खेल में ही जुटे रहते हैं। ये लोग और कुछ करें या न करें, पर स्थानान्तरण का काम जरूर करते हैं। यह वोट राजनीति का आधार है। प्राइमरी व माध्यमिक स्कूल में तो मनोनुकूल स्थानान्तरण करा लेना बहुत कलेजे का काम है। यहाँएम.एल.ए. को भी 'महा लाचार आदमी' कहा जाता है। एक बार मैंने एक जिलाधिकारी से सिफारिश की सर! कर्मचारी दिल का मरीज है, उसे पक्षघात हो गया है। पूरे पन्द्रह साल से वहाँ पड़ा है। उसे किसी सुविधाजनक स्थान पर स्थानान्तरित कर दीजिए, अन्यथा वह मर जायेगा। डी.एम. साहब ईमानदार थे। बोले, ये मेरे बस का नहीं है। उन्होंने एक कागज निकाल कर मुझे दिखाया और कहा- ये देखिये … ये चीफ मिनिस्टर की सिफारिश है। अगर मैं ये ट्रांस्फर कर दूँ तो तबाही हो जायेगी। इसलिए मैंने ट्रांस्फर का मामला ही फिलहाल पैंडिग में डाल दिया है। एक बार एक मंत्री जी के पास ट्रांस्फर के लिए एक अध्यापक आ गये। मंत्री जी ने कहा- अरे यार, ये काम तुम बेसिक शिक्षा अधिकारी से कराओ। मेरे बस की बात नहीं। मैं तो पाँच साल की नौकरी वाला हूँ। वह तो स्थायी नौकरी वाला है। मैं चला जाऊँगा, वह वहीं रहेगा।
स्थानान्तरण एक उद्योग है। एक शिक्षा सचिव ने इसे वाकई उद्योग बना दिया था। उनके रेट फिक्स थे। हमारे एक मित्र ने अपनी पत्नी का ट्रांस्फर एक मंत्री की सिफारिश कर करवाया। पर सचिव ने रिलीव ही नहीं करने दिया, एक टैक्नीकल पेंच फँसा दिया। वे सचिव साहब के पास गये तो सचिव ने साफ कहा- भइया, वसूल तो वसूल हैं। आपके लिए रिलैक्सेशन जरूर हो सकता है, पर यह नहीं कि सभी चीजें ताक पर रख दी जायें। आप समझदार हैं। ……..और यह हुआ कि उन्हें पैंतीस के बदले पन्द्रह हजार ही देना पड़ा। पर देना पड़ा। अगर आप दबंग हैं, चरण स्पर्श कर सकते हैं तो मरने तक एक ही जगह बने रहिए। एक्सटेंशन लीजिए। और बाकी क्या ? कुत्ते तो भौंकते रहते हैं। हल्द्वानी, ऋषिकेश, कोटद्वार……. यानी रेलवे हैड में इसके उदाहरण सामने हैं। मुख्यालय में वर्षों से तैनात अध्यापकों को पहिचान लीजिए। वे सब किसी बड़े आदमी के रिश्तेदार होंगे या फिर 'थ्री एम' में से एक। मिनिस्टर, नेता, प्रशासकों की पत्नियाँ बच्चे सब इसी लाईन में हैं। बगैर स्थानान्तरण एक ही सुविधाजनक जगह में बने रहना बहुत बड़ी बात है। अगर आप में दम है तो आप वहीं रहिए, जहाँ आप का अपाइंटमेंट हुआ था और वहीं से रिटायर हो जाइये । अध्यापकों की सारी शक्ति इसी में व्यय होती है। पढ़ाता कौन भकुवा है ?
नमूने के तौर पर उच्च शिक्षा को लें। राज्य गठन से पूर्व हर वर्ष जुलाय या अधिक से अधिक अगस्त तक स्थानान्तरण लिस्टें आ जाती थीं, ताकि बच्चों की पढ़ाई का हर्ज न हो और अध्यापक और उसके परिवार को भी एडजस्टमेंट करने में परेशानी न हो। निदेशालय की लिस्ट को सचिवालय नाम मात्र का हेर-फेर कर मान लेता था। सोर्स-फोर्स तब भी था पर हद से बाहर नहीं गया था। ज्ञानपुर आदि के लिए अधिक जोर रहता था। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद तो लिस्टें आनी ही बंद हो गयी। स्थानान्तरण की कोई नीति नहीं। अब दिसम्बर में भी स्थानान्तरण हो सकता है। नियमानुरूप स्थानान्तरण कृपा पात्रों का या फिर हाईकोर्ट में रिट करने पर ही होता है। हद तो तब हुई जब विजिटिंग प्रोफेसर्स, जो स्थायी ही नहीं होते, का स्थानान्तरण हो गया। जो पोस्ट या विषय है ही नहीं, उनमें भी स्थानान्तरण हो सकता है। एक महिला मनोविज्ञान की थीं, उसका स्थानान्तरण संगीत की पोस्ट पर हुआ, क्योंकि वहाँ मनेाविज्ञान था ही नहीं। काटने वाले ऋषिकेश, हल्द्वानी, रामनगर, रुद्रपुर, काशीपुर जैसे शहरों में जिन्दगी काट देते हैं और हतभागी मुनस्यारी, डीडीहाट, बेरीनाग, स्यालदे, मनीला, चौबट्टाखाल में पड़े रहते हैं। कभी बहुत शोर मच गचा तो बहुत समय से एक सुविधाजनक क्षेत्र में रह रहे व्यक्ति को दूसरे सुविधाजनक क्षेत्र में, जैसे हल्द्वानी से रामनगर या ऋषिकेश से कोटद्वार भेज दिया जाता है, इस आश्वासन के साथ कि अभी चले जाओ फिर आ जाना। ब्रेक भी हो जायेगा क्लेम भी रह जायेगा। ऐसा न भी हुआ तो अटैचमैंट तो है ही। दूरस्थ क्षेत्र, जहाँ प्राध्यापक ही नहीं हैं, से हल्द्वानी जहाँ प्राध्यापकों की भरमार है, अटैचमेंट हो जाता है। साँप भी मरे, लाठी भी न टूटे।
प्राध्यापकों के तथाकथित संगठन 'फुक्टा' के अधिकतर पदाधिकारी यही कार्य करते हैं कि वह सुविधाजनक क्षेत्र में बने रहें और अपने खासों को महत्वपूर्ण जगहों पर स्थापित करें। उन्हें प्राध्यापकों के सुख दुःख से कुछ लेना देना नहीं है। एक नेता ने तो अपना अटैचमेंट सचिवालय में ही करवा लिया। दस साल के आँकड़े बतलाते हैं कि उत्तराखंड में लगभग पचास प्राध्यापक ऐसे थे, जिन्होंने मुख्य स्थलों पर ही जोइन किया और वहीं रिटायर हुए। तीस प्राध्यापक ऐसे थे, जो जीवन भर दूरस्थ प्रदेश में रहे और वहीं से रिटायर हुए। यद्यपि दूरस्थ प्रदेश में वह प्राध्यापक भी रहते हैं जिनका वहाँ घर हो। जबकि नियम यह है कि हर प्राध्यापक को दूरस्थ प्रदेश में रहना ही है और सेवा के अंतिम वर्षों में वह मनोवांछित जगह पर रहने का अधिकारी है।
एक कायदा जरूर बचा हुआ है कि सी.आर. फॉर्म भरते समय एक फार्म हर उस व्यक्ति से भरवाया जाता है, जिसे एक स्थान में तीन साल हो गये हैं। स्पष्ट है नीति तीन साल तक ही एक स्टेशन में रहने की है। अब स्थानान्तण मिड सत्र में भी किसी खास को ओबलाइज करने के लिये हो जाते हैं। इस वर्ष प्रदेश शासन की दिनांक 26 अगस्त 2010 की स्थानान्तरण लिस्ट नवम्बर तक ही लागू हो पायी। इस लिस्ट को देख कर एक लेक्चरर कहते हैं- मैं दूरस्थ क्षेत्र में दस साल रहा। मैंने कहा मेरी माँ बीमार है, मेरा स्थानान्तरण सुविधाजनक क्षेत्र में किया जाये तो मुझे जोशीमठ से उत्तरकाशी भेज दिया। उत्तरकाशी कितना सुविधाजनक है ? आप इस लिस्ट में स्थानान्तरण का क्रम देखिये ओर कोष्ठ में कारणों को देखिये तो हास्यास्पद लगेगा। रानीखेत को दूरस्थ कठिन प्रदेश माना गया है। विभिन्न स्थानान्तरणों में पारदर्शिता दिखलाने के लिए कारण भी दिये गये हैं। संविदा का भी स्थानान्तरण किया गया है। एक प्रवक्ता को चार ऑप्शन जोइन करने के दिये गये हैं…या यहाँ या यहाँ या यहाँ….।
उत्तराखंड की सरकारी उच्च शिक्षा को शिक्षा कहना पाप है। यह मरण से भी भयावह है। जितना जल्दी हो सके इस 'न पूंजीवादी न समाजवादी' पैटर्न से छुटकारा हो ही जाना चाहिए। शिक्षा विभाग में किसी आदर्श के लिए कोई जगह नहीं है। जो कुछ लोग इस अन्याय के बावजूद पढ़-पढ़ा रहे हैं, वे प्रणाम करने योग्य हैं।
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