सम्पादकीय: कॉपोरेट साम्राज्यवाद के हित सींचोगे तो दुष्चक्र खत्म कैसे होगा ?
लेखक : राजीव लोचन साह :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 :December 17, 2011 पर प्रकाशित
इस पखवाड़े चर्चा में आयी तीन प्रमुख घटनाओं से देश का मौजूदा परिदृश्य समझने में मदद मिलती है। केन्द्र सरकार ने खुदरा व्यापार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को अनुमति देने का निर्णय किया है। इसका न सिर्फ समाज के प्रबुद्ध लोगों और आन्दोलनकारी संगठनों ने विरोध किया है, बल्कि पक्ष-विपक्ष के सभी राजनैतिक दल, जो अन्यथा हर तरह की लूट-खसोट में अपने मतभेद भुलाये रहते हैं, इस निर्णय के खिलाफ मुखर दिखायी दे रहे हैं। इसके बावजूद सरकार अपने निर्णय पर अडिग है। उसका दावा है कि विदेशी कम्पनियों के खुदरा बाजार में उतरने से एक करोड़ नये रोजगार सृजित होंगे। लेकिन जो दस करोड़ दुकानदार अपना स्व-रोजगार खो देंगे, उसकी कोई चिन्ता सरकार को नहीं है।
ऐसे ही देशद्रोही और समाजविरोधी निर्णयों से गुस्सा कर हरविंदर सिंह जैसे नौजवान अपनी हताशा शरद पवार पर हमला करके अभिव्यक्त करते हैं। ऐसी छिटपुट अराजक घटनायें बहुत आगे नहीं जातीं, मगर जब यह गुस्सा और हताशा एक विचारधारा के अन्तर्गत संगठित होकर माओवाद में तब्दील हो जाते हैं तो लोकतंत्र के सामने चुनौती खड़ी हो जाती है। समाज में आर्थिक असमानता और अन्याय के रहते माओवाद को एक विचारधारा के रूप में खत्म करना असम्भव है। वह रक्तबीज की तरह बार-बार सिर उठाती रहेगी। तब खिसियायी हुई सरकारें माओवादी नेताओं को उसी तरह धोखे से मारती हैं जैसे अभी 24 नवम्बर को कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी को मारा या पिछले साल चेरुकुरी 'आजाद' को।
मगर यक्ष प्रश्न है कि अपनी जनता के हित खत्म कर आप कॉपोरेट साम्राज्यवाद के हित सींचोगे तो यह दुष्चक्र खत्म कैसे होगा ?
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