तुम सब कसाई हो और ये सारा गाँव "कसाईबाड़ा" है
सुनील दत्ता
आज के वर्तमान अंधाधुंध आधुनिकीकरण के परिदृश्य में पैसा और व्यवस्था ने समाज में एक ऐसी दौड़ शुरू करा दी है जहाँ समाज के मध्यम वर्ग का तबका अपना स्वाभिमान, सम्मान, ईमान तक बेच डालने में हिचक महसूस नहीं कर रहा है। ऐसे में प्रसिद्द कथाकार शिवमूर्ति कृत "कसाईबाड़ा" समाज के लिये प्रासंगिक हो जाता है। आज के वर्तमान राजनैतिक व सामाजिक परिवेश में जब सभी दिशाओं में लगभग एक "शून्यता" की अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जब हमारे समय में चारों तरफ गरीबी, भ्रष्टाचार, भूख जैसी समस्याओं को इस देश के नव धनाढ्य वर्गों और नेताओ द्वारा पैदा किया जा रहा है, उनकी सोच यह बनती जा रही है कि इस देश के 75 % लोगो को ऐसा पँगु बना दो जिनके पास उनकी आवाज ही न हो तब यह व्यवस्था के प्रति विद्रोह करने में समर्थ ही नही होंगे और 25% लोग इस मुल्क में आराम की जिन्दगी जियेंगे।
ऐसे में हमारे "नीति नियामक" देश के ठेकेदारों के लिये ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुये कहते हैं, यह कोई मुद्दा नहीं है। पर मुद्दा तो है "शनिचरी" व धोखे से बेच दी गयी उसकी बिटिया "रूपमती"। या ऐसी ही कुछ अन्य परिस्थितियाँ। आम आदमी के जीवन में सबसे अहम चीज है उसकी इज्जत, धरम और मर्यादा रूपी जो बीज विचारों के सड़े-गले खाद के सहारे उपजाने की एक ख़ास वर्ग द्वारा विशेष रूप से सोची समझी राजनीति और रणनीति है, वहीं से तैयार होती है कसाईबाड़ा की संरचना।
"शिवमूर्ति" की इस कहानी को नाट्य रूप दिया हिन्दी क्षेत्र के चर्चित नाट्य निर्देशक अभिषेक पंडित ने। कसाईबाड़ा की कहानी शुरू होती है गाँव के प्रधान बाबू के. डी. सिंह ( अरविन्द चौरसिया ) ने सामूहिक विवाह का समारोह आयोजित किया, लेकिन एक रात शनिचरी (ममता पंडित ) को पता चलता है कि – परधनवा ने विवाह की नाम पर सभी लड़कियों को शहर ले जाकर बेच दिया है। प्रधान के विरोध में रहने वाला नेता शनिचरी को उकसाता है इस अन्याय के विरुद्द आवाज उठाने को और धरने पर बैठने को। ऐसे में बेचारी सीधी- साधी शनिचरी उसके उकसाने में आकर धरने पर बैठ जाती है। लेकिन दुर्भाग्य इस देश का जब भी ऐसी कोई भी समस्या आती है तब कोई ऐसे लोगों का साथ देना पसन्द नहीं करता। ऐसे ही हालात शनिचरी के साथ भी होते हैं और शनिचरी का साथ गाँव वाले नहीं देते हैं। ऐसे में एक ऐसा नौजवान जो विकलाँग होने के बाद भी जिसमें सच्चाई से लड़ने की ताकत है वो नौजवान है "अधरंगी" ( अंगद कश्यप ) वो प्रधान और नेता के छल को समझता है कि दोनों मिल कर शनिचरी को छल रहे हैं। ऐसे में वो अकेला खड़ा होता है शनिचरी के साथ। इस युद्द में अधरंगी प्रधान और लीडर दोनों नेताओ को साँप मानता है जो गाँव के सुख चैन पर कुंडली मारे बैठे हैं।
ऐसे में उस गाँव में नई पोस्टिंग पर आये थानेदार पाण्डेय जी ( हरिकेश मौर्या ) मामले को दबाना चाहते है जैसा की आज इस व्यवस्था में होता चला आ रहा है। बनमुर्गियो के शिकार के शौक़ीन "पाण्डेय जी" गाँव में जाँच के लिये आते हैं। जहाँ शनिचरी अपनी फरियाद उनसे कहती है। लेकिन बदले में उसे वहाँ से अपमान और प्रताड़ना के सिवाए कुछ नहीं मिलता है। विद्रोही अधरंगी इस अन्याय का बदला प्रधान और उसके पुत्र के पुतले को फाँसी देकर प्रतीक स्वरूप समाज में ऐसा सन्देश दे रहा कि आज आम आदमी को उठना होगा ऐसे षड्यन्त्र के खिलाफ। इस कारण प्रधाइन ( आरती पाण्डेय ) विचलित होकर प्रधान को शनिचरी से माफ़ी माँगने को तैयार करती है। इधर विरोध में रहने वाला नेता ( विवेक सिंह ) शनिचरी के मामले को लेकर मुख्यमन्त्री तक जाने की बात करता है और "वाटरमार्क" वाली "कचहरीयन" कागज पर "शनिचरी" का अँगूठा निशान लेता है। इस समूचे खेल में व्यवस्था के प्रतीक थानेदार इन दोनों नेताओ को आपस में बैठकर समझौता करा लेता है और थानेदार की योजना के अनुसार प्रधान और उसकी बीबी इस विद्रोही आवाज जो अपने हक़ हुकुक के लिये उठाने वाली शनिचरी को एक रात धरना स्थल पर दूध में जहर मिलाकर पिला देते हैं और शनिचरी तड़प-तड़प कर उसी धरना स्थल पर अपने प्राण त्याग देती है।
आज की व्यवस्था के विद्रोह की प्रतीक ऐसे न जाने कितने शनिचरी को रोज ही यह व्यवस्था मार रही है और हमारा आम समाज अँधी आँखों से देख रहा है और बहरे कानों से उसको सुन भी रहा है। ऐसे में जब सारा भेद खुलता है तब बड़े ही कातर स्वर में एक ऐसी भी जीवंत औरत है उस गाँव में जो विरोधी नेता की पत्नी है (राजेश्वरी पाण्डेय) वह चिल्लाके अपने प्रतिरोध के स्वर में कहती है तुम सब कसाई हो और ये सारा गाँव कसाईबाड़ा है।
इस नाटक में निर्देशक अभिषेक पंडित द्वारा प्रतीक स्वरूप गीतों का समावेश " हरी-हरी-हरी, हरी नाम तू भज ले भाई काम बनी" दूसरा गीत भारतेन्दु कश्यप के गीत "निदिया उतरी आओ अखियाँ में माई तो सोएगी कारी रतियाँ में" इस गीत के माध्यम से व्यवस्था के उन पक्षों को उकेरा गया है जहाँ व्यवस्था सिर्फ ख्याली बातो को कह कर आम जनमानस को सान्त्वना देती है न्याय नहीं देती। नाटक के अन्तिम क्षणों में सोहन लाल गुप्त के गीत "कसाईबाड़ा ह जग सारा इहवा बसेन बट मार" के माध्यम से वो इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था को चुनौती देकर आम जन मानस को सचेत करते है आज इस पंगु हुई व्यवस्था के खिलाफ आमजन को आन्दोलित होना होगा।
नाटक में प्रकाश परिकल्पना ( रणजीत कुमार ) ने नाटक के सम्पूर्ण दृश्य को जीवंत बना दिया। साथ ही इस नाटक में जितने भी पात्र थे उन सारे लोगों ने अपने जीवंत अभिनय से पूरे नाटक में अपने प्राण लगा दिये और नाटक को सफल प्रस्तुति देकर अपने अभिनय का लोहा मनवा दिया। नाटक का मंचन जिला प्रशासन द्वारा आयोजित सरस मेला में तारीख इक्कीस जून को राहुल प्रेक्षागृह में किया गया।
-सुनील दत्ता (स्वतंत्र पत्रकार, विचारक, संस्कृतिकर्मी) की रिपोर्ट
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