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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, June 29, 2013

Rajiv Lochan Sah ‘‘आप तो सिर्फ यात्रियों की बात कर रहे हैं। अकेले मंदाकिनी घाटी के 46 गांवों के 1600 से अधिक पुरुष घर नहीं लौटे हैं। पुरुषविहीन हो गया है, पूरा समाज। उनकी आजीविका की ओर भी क्या आपका ध्यान है ? कल तक आप कह रहे थे कि सरकार में तालमेल की कमी है। आज आप दावा कर रहे हैं कि अच्छा तालमेल है। कहां है तालमेल देष के कोने कोने से भावना के वषीभूत लोग राहत सामग्री लेकर यहां आ रहे हैं। कोई उन्हें यह निर्देषित करने वाला भी नहीं है कि उन्हें जाना कहां चाहिये! न जाने कितनी राहत सामग्री बर्बाद हो रही है।’’

आपदा की गहमागहमी के बीच अचानक देहरादून आना पड़ा और भारत के स्वनामधन्य गृहमंत्री के दर्षन का सौभाग्य भी मिल गया। सचिवालय में उनकी प्रेसवार्ता होने वाली थी। दर्जनों टीवी कैमरे और माइक्रोफोनों का झुरमुट था। इतने महान पत्रकारों के बीच कुछ बोलना चाहिये कि नहीं, इसी उधेड़बुन में था। राजधानी के ये स्वनामधन्य पत्रकार भी समझेंगे कि हम हंसों के बीच ये कौन कौआ आ मरा। लेकिन दो तीन परिचित चेहरे थे। उन्होंने हौसला बढ़ाया, ''नहीं सर आप जरूर बोलें। आपसे ज्यादा जानकारी कौन रखता है ?''
खैर, एक ओर विजय बहुगुणा और दूसरी ओर केन्द्रीय पर्यटन मंत्री चिरंजीवी से घिरे षिंदे साहब ने अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए लम्बा भाषण दिया, जिसे पत्रकार कहलाने वाले स्टेनाग्राफरों ने निहायत वफादारी से दर्ज किया। चूंकि स्टेनोग्राफरों को सवाल पूछने की आजादी नहीं होती, अतः मंत्री महोदय की आत्ममुग्धता में खलल डालने की हिमाकत किसी ने नहीं की। अन्ततः मैंने ही चुप्पी तोड़ी, ''आप तो सिर्फ यात्रियों की बात कर रहे हैं। अकेले मंदाकिनी घाटी के 46 गांवों के 1600 से अधिक पुरुष घर नहीं लौटे हैं। पुरुषविहीन हो गया है, पूरा समाज। उनकी आजीविका की ओर भी क्या आपका ध्यान है ? कल तक आप कह रहे थे कि सरकार में तालमेल की कमी है। आज आप दावा कर रहे हैं कि अच्छा तालमेल है। कहां है तालमेल देष के कोने कोने से भावना के वषीभूत लोग राहत सामग्री लेकर यहां आ रहे हैं। कोई उन्हें यह निर्देषित करने वाला भी नहीं है कि उन्हें जाना कहां चाहिये! न जाने कितनी राहत सामग्री बर्बाद हो रही है।''
मुख्यमंत्री ने षिंदे साहब को कुहनी से ठहोका मारा और ''नहीं-नहीं हम कर रहे हैं, हम देखेंगे। हम गैस पहुंचा रहे हैं, सड़कें ठीक कर रहे हैं,'' कहते हुए सारे महानुभाव उठ कर चल दिये।
मैं सोच रहा था कि यह उस उत्तराखंड के पत्रकार हैं, जो जनता के आन्दोलन और षहीदों के बलिदान से बना था। आपदा प्रकृति की या सरकार की वजह से आयी है। किसी अन्य स्थान पर, उदाहरणार्थ अल्मोड़ा में ही ये मंत्री-संतरी ऐसी प्रेस कांफ्रेस में होते तो वहां के पत्रकार उन्हें भेडि़यों की तरह नोंच रहे होते। आखिर क्या हक है किसी को आपदापीडि़त जनता की भावनाओं को इतने हल्के में लेने का क्या हक है ?

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