देहरादून में वैज्ञानिक डा. रवि चोपड़ा, वयोवृद्ध पर्यावरणविद और टिहरी बाँध आन्दोलन के योद्धा रहे एन.डी. जयाल, उत्तराखंड आर.टी. आई. क्लब के अध्यक्ष बी.पी.नवानी आदि अनेक मित्रों के साथ मिलकर हमने यह वक्तव्य इस तरह बनाया कि इसमें उत्तराखंड के हर हितैषी की सहमति मिल जाये. मुद्दे बुनियादी हैं और भाषा एकदम शिष्ट. हम चाहते हैं कि उत्तराखंड के हर आम और खास व्यक्ति की ही नहीं, उत्तराखंड के बाहर के हमारे शुभचिंतकों की भी इसमें सहमति मिल जाये. हजारों लोग जब इस वक्तव्य को लेकर अपनी एकजुटता दिखायेंगे तो शायद उत्तराखंड की सरकार हमारी आवाज़ दबाने में कामयाब नहीं होगी और इस त्रासदी की पुनरावृत्ति नहीं होगी. हम चाहते हैं कि आप अकेले नहीं, बल्कि सभी मित्र-परिचितों के साथ इस पर सहमति व्यक्त करें, अपने हस्ताक्षर करें.....
''पिछले दिनों की अतिवृष्टि के बारे में मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि बंगाल की खाड़ी से गर्म हवा पश्चिम की ओर तथा कश्मीर से ठंडी हवा पूर्व की ओर आने और उनका टकराव उत्तराखंड के निकट होने से उत्तराखंड में कम दबाव का क्षेत्र बना और अरब सागर से नम हवाओं का खिंचाव इस दिशा में हुआ। इन नम हवाओं के हिमालयी श्रृंखलाओं से टकराने से सम्पूर्ण उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में अतिवृष्टि हुई। अकेले नैनीताल में तीन दिनों में 1116 मिमी. वर्षा हुई जो नैनीताल की वार्षिक औसत वर्षा के 40 प्रतिशत से अधिक है। देहरादून में वर्षा का 88 साल का रिकार्ड टूट गया।
''पिछले दो दशकों से वैश्विक स्तर पर किये गये अध्ययनों का निष्कर्ष है कि 'ग्लोबल वार्मिंग' के कारण इस तरह की मौसम सम्बंधी चरम घटनाओं की आकस्मिता तथा आवृत्ति निरन्तर बढ़ रही है। उदाहरण के लिये उत्तराखंड में ही वर्ष 2012 में उत्तरकाशी तथा उखीमठ तथा वर्ष 2010 में अल्मोड़ा जिले की बादल फटने की घटनाओं का जिक्र किया जा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तराखंड में मोटरवाहन जनित प्रदूषण तथा सड़कों व बाँधों के निर्माण से उत्पन्न धूल के कणों से ऐसी अतिवृष्टि की संभावना बढ़ती है।
''16-17 जून की अतिवृष्टि के कारण उत्तराखंड की छोटी-बड़ी नदियों में कई जगहों पर बाढ़ आई। चार धाम क्षेत्र में हुई भयंकर तबाही की खबरें लगभग पूरी तरह जगजाहिर हो गई हैं। किन्तु शेष प्रदेश, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, में हुई तबाही के समाचार बहुत धीरे-धीरे आ रहे हैं और पूरी तस्वीर साफ होने में अभी काफी समय लगेगा। इस आपदा में जहाँ चार धाम में आये देश भर के हजारों श्रद्धालुओं ने अपने प्राण गँवाये, वहीं तीर्थ यात्रा के व्यवसाय से जुड़े हजारों परिवारों के कमाने वाले पुरुषों के मारे जाने की भी आशंका है। मंदाकिनी घाटी के 46 गाँवों के डेढ़ हजार से अधिक पुरुष अभी तक अपने घरों को नहीं लौटे हैं। प्रदेश भर में उफनाई हुई नदियों ने अपने रास्ते में अवरोध बनने वाले पहाड़ी गाँवों, कस्बों, मवेशियों, खेतों, गूलों, पेयजल योजनाओं, पुलों, निर्माणाधीन बाँधों, मोटर वाहनों, होटल-रिजाॅर्टों को नष्ट कर दिया। नदियों पर हुआ हर तरह का अतिक्रमण नदियों की चपेट में आया।
''इस आपदा ने उत्तराखंड में आपदा प्रबन्धन तंत्र की पूर्व तैयारियों तथा प्रबन्धन की पोल खोल कर रख दी। दो दिन तक सदमे में पड़ी सरकार जब हरकत में आयी भी तो उसका ध्यान केवल चार धाम यात्रियों पर केन्द्रित रहा। यहाँ भी जो जानें बचाई जा सकीं, वह सेना तथा अर्द्धसैनिक बलों के कारण। अन्य क्षेत्रों में राहत की बात तो दूर रही, क्षति का आँकलन भी अभी तक नहीं हो सका है। देश भर से राहत के लिये आये स्वयंसेवी संगठनों को दिशा निर्देश देने वाला भी अभी कोई नहीं है। बेहिसाब राहत सामग्री यहाँ-वहाँ बेकार पड़ी बर्बाद हो रही है।
''एक अतिवृष्टि किस तरह इतनी बड़ी मानवीय आपदा बन गई, इसके लिये हमें विकास के मौजूदा सोच का समझना पड़ेगा। उपभोक्तावादी मानसिकता और बाजारवाद प्रकृति के साथ लगातार छेड़खानी कर ऐसी घटनाओं को जन्म देते हंै। इसलिये उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौर में ही यहाँ की जनता ने इस तरह के विकास को खारिज कर जल, जंगल और जमीन पर अपना अधिकार माँगा था। तब यह आशा की गई थी कि नंगी पहाड़ी ढलानों पर हरियाली होगी। इन्ही जंगलों से यहां के निवासियों की ईंधन, चारा और पानी की जरूरतें पूरी होंगी, पुरुषों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलने से पलायन रुकेगा और खुशहाली बढ़ेगी। जलागम प्रबन्धन से सूखी नदियों में पानी आयेगा। शराब के आतंक से मुक्ति मिलेगी।
''मगर उत्तराखंड के 13 वर्षों के जीवन में यहाँ के पहाड़ों के चरित्र और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की अवहेलना करते हुए यहाँ की सरकारों ने प्राकृतिक संसाधनों से पैसा कमाने को ही विकास का एकमात्र लक्ष्य बनाया। इसके लिये कमजोर पहाडि़यों पर भी बिना सोचे समझे सड़को, बाँधों, सुरंगों, पुलों एवं होटल-रिजाॅर्टों का निर्माण किया गया। इससे जो पैसा उत्पन्न हुआ वह तो कुछ ही हाथों तक पहुँचा, लेकिन प्रकृति से छेड़छाड़ से हुई आपदाओं की मार व्यापक पर्वतीय समाज को झेलनी पड़ी।
''इस वक्त जबकि सारा देश उत्तराखंड के कष्टों को महसूस कर रहा है, हमें विकास का यह रास्ता छोड़ना पड़ेगा। इससे पहले कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सिलसिला फिर से शुरू हो, हमें कुछ जरूरी निर्णय कर लेने चाहिये। सबसे पहले हमें यह मानना होगा कि उत्तराखंड का विकास मानव, सामाजिक एवं प्राकृतिक संपदा के विकास में ही निहित है। इसी से रोजगार एवं स्वावलंबी व टिकाऊ आर्थिक विकास के अवसर पैदा होंगे। यह तभी संभव है जब संविधान द्वारा 73वें-74वें संशोधन में निर्देशित विकेन्द्रित शासन व्यवस्था लागू हो और संविधान के अनुच्छेद '39 बी' के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समुदायों का स्वामित्व स्थापित हो। इस कदम से मौजूदा विकास की नीतियों से उत्पन्न हुआ पूँजी का केन्द्रीकरण रुकेगा और आर्थिक समानता का रास्ता खुलेगा।
''फिलहाल प्रदेश भर में इस आपदा में हुई क्षति का जन सहभागिता से पूरी पारदर्शिता के साथ आँकलन कर त्वरित राहत पहुँचाना पहली प्राथमिकता है। जनजीवन के लिय आवश्यक सम्पर्क मार्ग, पेयजल लाइनंे, नहरें, स्कूल, स्वास्थ्य सेवायें, विद्युतापूर्ति आदि पुनस्र्थापित की जायें। प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आजीविका के स्रोतों के सष्जन हेतु ठोस कार्य योजना बनाई जाये।''
इस वक्तव्य पर देश और प्रदेश के अधिकाधिक विशिष्ट व्यक्तियों तथा विशेषज्ञों की सहमति लेकर जन-जागरण किया जायेगा, ताकि उत्तराखंड ऐसी आपदाओं के दुष्चक्र से मुक्त होकर वास्तविक विकास के मार्ग पर आगे बढ़े।
''पिछले दिनों की अतिवृष्टि के बारे में मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि बंगाल की खाड़ी से गर्म हवा पश्चिम की ओर तथा कश्मीर से ठंडी हवा पूर्व की ओर आने और उनका टकराव उत्तराखंड के निकट होने से उत्तराखंड में कम दबाव का क्षेत्र बना और अरब सागर से नम हवाओं का खिंचाव इस दिशा में हुआ। इन नम हवाओं के हिमालयी श्रृंखलाओं से टकराने से सम्पूर्ण उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में अतिवृष्टि हुई। अकेले नैनीताल में तीन दिनों में 1116 मिमी. वर्षा हुई जो नैनीताल की वार्षिक औसत वर्षा के 40 प्रतिशत से अधिक है। देहरादून में वर्षा का 88 साल का रिकार्ड टूट गया।
''पिछले दो दशकों से वैश्विक स्तर पर किये गये अध्ययनों का निष्कर्ष है कि 'ग्लोबल वार्मिंग' के कारण इस तरह की मौसम सम्बंधी चरम घटनाओं की आकस्मिता तथा आवृत्ति निरन्तर बढ़ रही है। उदाहरण के लिये उत्तराखंड में ही वर्ष 2012 में उत्तरकाशी तथा उखीमठ तथा वर्ष 2010 में अल्मोड़ा जिले की बादल फटने की घटनाओं का जिक्र किया जा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तराखंड में मोटरवाहन जनित प्रदूषण तथा सड़कों व बाँधों के निर्माण से उत्पन्न धूल के कणों से ऐसी अतिवृष्टि की संभावना बढ़ती है।
''16-17 जून की अतिवृष्टि के कारण उत्तराखंड की छोटी-बड़ी नदियों में कई जगहों पर बाढ़ आई। चार धाम क्षेत्र में हुई भयंकर तबाही की खबरें लगभग पूरी तरह जगजाहिर हो गई हैं। किन्तु शेष प्रदेश, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, में हुई तबाही के समाचार बहुत धीरे-धीरे आ रहे हैं और पूरी तस्वीर साफ होने में अभी काफी समय लगेगा। इस आपदा में जहाँ चार धाम में आये देश भर के हजारों श्रद्धालुओं ने अपने प्राण गँवाये, वहीं तीर्थ यात्रा के व्यवसाय से जुड़े हजारों परिवारों के कमाने वाले पुरुषों के मारे जाने की भी आशंका है। मंदाकिनी घाटी के 46 गाँवों के डेढ़ हजार से अधिक पुरुष अभी तक अपने घरों को नहीं लौटे हैं। प्रदेश भर में उफनाई हुई नदियों ने अपने रास्ते में अवरोध बनने वाले पहाड़ी गाँवों, कस्बों, मवेशियों, खेतों, गूलों, पेयजल योजनाओं, पुलों, निर्माणाधीन बाँधों, मोटर वाहनों, होटल-रिजाॅर्टों को नष्ट कर दिया। नदियों पर हुआ हर तरह का अतिक्रमण नदियों की चपेट में आया।
''इस आपदा ने उत्तराखंड में आपदा प्रबन्धन तंत्र की पूर्व तैयारियों तथा प्रबन्धन की पोल खोल कर रख दी। दो दिन तक सदमे में पड़ी सरकार जब हरकत में आयी भी तो उसका ध्यान केवल चार धाम यात्रियों पर केन्द्रित रहा। यहाँ भी जो जानें बचाई जा सकीं, वह सेना तथा अर्द्धसैनिक बलों के कारण। अन्य क्षेत्रों में राहत की बात तो दूर रही, क्षति का आँकलन भी अभी तक नहीं हो सका है। देश भर से राहत के लिये आये स्वयंसेवी संगठनों को दिशा निर्देश देने वाला भी अभी कोई नहीं है। बेहिसाब राहत सामग्री यहाँ-वहाँ बेकार पड़ी बर्बाद हो रही है।
''एक अतिवृष्टि किस तरह इतनी बड़ी मानवीय आपदा बन गई, इसके लिये हमें विकास के मौजूदा सोच का समझना पड़ेगा। उपभोक्तावादी मानसिकता और बाजारवाद प्रकृति के साथ लगातार छेड़खानी कर ऐसी घटनाओं को जन्म देते हंै। इसलिये उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौर में ही यहाँ की जनता ने इस तरह के विकास को खारिज कर जल, जंगल और जमीन पर अपना अधिकार माँगा था। तब यह आशा की गई थी कि नंगी पहाड़ी ढलानों पर हरियाली होगी। इन्ही जंगलों से यहां के निवासियों की ईंधन, चारा और पानी की जरूरतें पूरी होंगी, पुरुषों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलने से पलायन रुकेगा और खुशहाली बढ़ेगी। जलागम प्रबन्धन से सूखी नदियों में पानी आयेगा। शराब के आतंक से मुक्ति मिलेगी।
''मगर उत्तराखंड के 13 वर्षों के जीवन में यहाँ के पहाड़ों के चरित्र और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की अवहेलना करते हुए यहाँ की सरकारों ने प्राकृतिक संसाधनों से पैसा कमाने को ही विकास का एकमात्र लक्ष्य बनाया। इसके लिये कमजोर पहाडि़यों पर भी बिना सोचे समझे सड़को, बाँधों, सुरंगों, पुलों एवं होटल-रिजाॅर्टों का निर्माण किया गया। इससे जो पैसा उत्पन्न हुआ वह तो कुछ ही हाथों तक पहुँचा, लेकिन प्रकृति से छेड़छाड़ से हुई आपदाओं की मार व्यापक पर्वतीय समाज को झेलनी पड़ी।
''इस वक्त जबकि सारा देश उत्तराखंड के कष्टों को महसूस कर रहा है, हमें विकास का यह रास्ता छोड़ना पड़ेगा। इससे पहले कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सिलसिला फिर से शुरू हो, हमें कुछ जरूरी निर्णय कर लेने चाहिये। सबसे पहले हमें यह मानना होगा कि उत्तराखंड का विकास मानव, सामाजिक एवं प्राकृतिक संपदा के विकास में ही निहित है। इसी से रोजगार एवं स्वावलंबी व टिकाऊ आर्थिक विकास के अवसर पैदा होंगे। यह तभी संभव है जब संविधान द्वारा 73वें-74वें संशोधन में निर्देशित विकेन्द्रित शासन व्यवस्था लागू हो और संविधान के अनुच्छेद '39 बी' के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समुदायों का स्वामित्व स्थापित हो। इस कदम से मौजूदा विकास की नीतियों से उत्पन्न हुआ पूँजी का केन्द्रीकरण रुकेगा और आर्थिक समानता का रास्ता खुलेगा।
''फिलहाल प्रदेश भर में इस आपदा में हुई क्षति का जन सहभागिता से पूरी पारदर्शिता के साथ आँकलन कर त्वरित राहत पहुँचाना पहली प्राथमिकता है। जनजीवन के लिय आवश्यक सम्पर्क मार्ग, पेयजल लाइनंे, नहरें, स्कूल, स्वास्थ्य सेवायें, विद्युतापूर्ति आदि पुनस्र्थापित की जायें। प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आजीविका के स्रोतों के सष्जन हेतु ठोस कार्य योजना बनाई जाये।''
इस वक्तव्य पर देश और प्रदेश के अधिकाधिक विशिष्ट व्यक्तियों तथा विशेषज्ञों की सहमति लेकर जन-जागरण किया जायेगा, ताकि उत्तराखंड ऐसी आपदाओं के दुष्चक्र से मुक्त होकर वास्तविक विकास के मार्ग पर आगे बढ़े।
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